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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
12 जनवरी 2021
हरे कृष्ण । गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ।
818 स्थानो से आज जप हो रहा है ।
ओम नमो भगवते वासुदेवाय ।
ओम नमो भगवते वासुदेवाय ।
अर्जुन कई सारे भगवत गीता के अध्याय के अध्याय सुने है । 9 अध्याय सुने दसवा सुन रहे थे फिर भगवान ने कुछ 4 विशेष लोकों का भी उल्लेख किया ।
यह बात भी कही फिर अर्जुन को कुछ विशेष साक्षात्कार हुआ ,
अर्जुन ने कहा ,
अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् |
पुरुषं शाश्र्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ||
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा |
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।।
(भगवद्गीता 10.12-13)
अनुवाद
अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं | आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं | नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं |
यह सुनाएं और फिर साथ ही साथ अपनी एक जिग्यासा व्यक्त की और फिर कहा कि , आपका जो ऐश्वर्या है , जो वैभव है उसे भी सुनाइए ताकि मुझे स्मरण में मदद होगी। उन वैभव का , उन ऐश्वर्या का मै चिंतन स्मरण कर सकता हूं , उस रूपों का , उन गुणों का और व्यक्तित्व का , उन वस्तुओं का , स्थानो का , धामो का जो आपके वैभव है । भगवान ने 10 वे अध्याय में वह अपना ऐश्वर्य सुनाया और यह भी कहा की यह जो भी मैने कहा है वह एक अंश मात्र है और भी बहुत कुछ है लेकिन यह जो कहा यह केवल अंश है और फिर 11 वा अध्याय है ।
श्रीमद भगवत गीता की जय ।
इस अध्याय के प्रारंभ में अर्जुन ने कहा है ,
अर्जुन उवाच
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् |
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ||
(भगवद्गीता 11.1)
अनुवाद
अर्जुन ने कहा – आपने जिन अत्यन्त गुह्य आध्यात्मिक विषयों का मुझे उपदेश दिया है, उसे सुनकर अब मेरा मोह दूर हो गया है |
मुझ पर आपका अनुग्रह हुआ। मैंने आपको जैसे कहा या जैसी जिज्ञासा व्यक्त कि ,आप मुझे यह सुनाइए , बताइए आपके वैभव का वर्णन कीजिए , यह सब आपने किया मुझ पर आपने अनुग्रह किया है । यह आप के वचन सुनकर , मोहोऽयं विगतो मम मेरा मोह नष्ट हो रहा है । हरि हरि । वैसे यह सब बातें संसार के बद्ध जिवो के लिये ही है । कोई सोच सकता है कि , भगवान ने यह कहा है , "मैं यह हूं , मैं वह हूं " लेकिन इसको साबित करो इसमें सबूत क्या है ? हम जब कहते कि भगवान है । भगवान को दिखाइए ! जब हम देखेंगे तब ही विश्वास करेंगे , तब ही स्वीकार करेंगे यह जो मानसिकता है । बद्ध जिवो के ऐसे विचार होते हैं , वह देखना चाहते हैं , सुनने से उनकी तसल्ली नहीं होती , उनका समाधान नहीं होता है तो ऐसे लोगों के लिए या ऐसे लोगों की और से अर्जुन कह रहे हैं ।
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्र्वर |
दृष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्र्वरं पुरुषोत्तम ||
(भगवद्गीता11.3)
अनुवाद
हे पुरुषोत्तम, हे परमेश्र्वर!यद्यपि आपको मैं अपने समक्ष आपके द्वारा वर्णित आपके वास्तविक रूप में देख रहा हूँ, किन्तु मैं यह देखने का इच्छुक हूँ कि आप इस दृश्य जगत में किस प्रकार प्रविष्ट हुए हैं ।मैं आप के उसी रूप का दर्शन करना चाहता हूँ ।
आपने जीन जीन ऐश्वर्यो का वर्णन किया दृष्टुमिच्छामि उनको मैं देखना चाहता हूं। रूपमैश्र्वरं जीन रुपो का जीन ऐश्वर्यो का आपने अभी-अभी मुझे उल्लेख किया है , मुझे सुनना है वह मैं देखना चाहता हूं। कृपा करके मुझे उन वैभव का दर्शन और ऐश्वर्य का दर्शन दीजिए , प्रत्यक्ष प्रमाण मैं अपने आंखों से देखना चाहता हूं । पश्च कृष्णा तैयार हो गए । वह तैयार सदैव ही रहते हैं । कुरुक्षेत्र के मैदान में इस संवाद के दरम्यान में सभी दृश्य बदल जाने वाला है । भगवान ने कहा पश्च देखो , देखो । पहले भी कहा था देखो , देखो पश्च ऐसे पहले अध्याय में भगवान ने कहा था भगवान ने प्रथम अध्याय में एक ही वचन बोला है ,
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् |
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति ||
(भगवद्गीता 1.25)
अनुवाद
भीष्म, द्रोण तथा विश्र्व भर के अन्य समस्त राजाओं के सामने भगवान् ने कहा कि हे पार्थ! यहाँ पर एकत्र सारे कुरुओं को देखो |
यह भगवान का एक ही वचन है। इन उपस्थित कौरव को पश्च मतलब देखो और अब भगवान 11 वे अध्याय में पून्हा कह रहे पश्च देखो, देखो। क्या देखो? क्या देख रहे हो? सेना के मध्य मे भगवान एक ऐसा दृश्य या जिसको विश्वरूप कहा है , या ब्रह्मांड दर्शन कहां है , विराट रूप कहां है । विराटरूप! सारे ब्रह्मांड को ही दिखा रहे है । सारे विश्व को दिखा रहे हैं , जो सारे ऐश्वर्य है वह सारे सृष्टि में फैला हुआ है तो वह कह रहे हैं पश्च देखो , देखो ।
श्रीभगवानुवाच
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्त्रशः |
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ||
(भगवद्गीता 11.5)
अनुवाद
भगवान् ने कहा –हे अर्जुन, हे पार्थ! अब तुम मेरे ऐश्र्वर्य को, सैकड़ों-हजारों प्रकार के दैवी तथा विविध रंगों वाले रूपों को देखो ।
सैकड़ों , सहस्त्र , हजारों रूप देखो । नानाविधानि दिव्यानि अनेक प्रकार के दिव्य रूप है । नानावर्णाकृतीनि च इनके वर्ण , रंग ,रूप अलग-अलग है , कांति अलग अलग है और आकृति भी , रूप भी अलग अलग है । आदित्य में मैं विष्णु हू ऐसा भी भगवान दसवे अध्याय मे कहते है अब यहां दिखा रहे हैं ।
पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्र्विनौ मरुतस्तथा |
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्र्चर्याणि भारत ||
(भगवद्गीता 11.6)
अनुवाद
हे भारत! लो, तुम आदित्यों, वसुओं, रुद्रों, अश्र्विनीकुमारों तथा अन्य देवताओं के विभिन्न रूपों को यहाँ देखो । तुम ऐसे अनेक आश्चर्यमय रूपों को देखो, जिन्हें पहले किसी ने न तो कभी देखा है, न सुना है ।
वह अब दिखा रखे है , यह सभी आदित्य को देखो , उसमें विष्णु को भी देखो और पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्र्विनौ भगवान ने कहा था रुद्रो में शंकर में हूं , जो कहा था वह अब दिखा रहे हैं फिर कहते हैं , देखो , देखो , तुम देखना चाहते थे ना अब देखो तो सही ।
अश्विनी कुमारों को देखो मरुतस्तथा मरुतः यह सब एक ही साथ देखो । तुम एक ही स्थान पर खड़े हो और यह एक ही स्थान मे ना तुम को हिलना है ना डुलना है , ना कहीं आना है ना कही जाना है जहां हो वहीं से देखो , जगत कृष्ण जगत कृष्ण , कृष्ण मतलब एक ही साथ संपूर्ण जगत को देखो । यह दूरदर्शन और कुछ अलौकिक दर्शन , दिव्य दर्शन भगवान करा रहे हैं । अद्भुत है !
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा |
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्र्वरम् ||
(भगवद्गीता 11.8)
अनुवाद
किन्तु तुम मुझे अपनी इन आँखों से नहीं देख सकते । अतः मैं तुम्हें दिव्य आँखें दे रहा हूँ । अब मेरे योग ऐश्र्वर्य को देखो ।
भगवान अर्जुन को कुछ दृश्य दिखा तो रहे थे ।लेकिन नही नही , वैसे स्वचक्षुषा अपने आंखों से यह सब देख नहीं पाओगे , मैं क्या करता हूं दिव्यं ददामि ते चक्षुः मैं तुम्हें आंखें देता हूं , यह दृष्टि देता हूं , कैसी ? दिव्यदृष्टि देता हूं ताकि तुम देख पाओगे । पहले तो कहा था ,
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ||
(भगवद्गीता 10.10)
अनुवाद
जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |
मैं बुद्धि देता हूं । हम जो कह रहे थे उस श्लोक मे एक था , ददामि बुद्धियोगं तं मैं बुद्धी देता हू । यहा भगवान अर्जुन को कह रहे है , मैं तुमको क्या करता हूं ?
दिव्यं ददामि ते चक्षुः
मैं तुमको दिव्य चक्षु देता हूं तभी तुम यह रूप देख पाओगे । विराट रूप जो मेरा वैभव है उसे देख पाओगे ।
संजय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्र्वरो हरिः |
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्र्वरम् ||
(भगवद्गीता 11.9)
अनुवाद
संजय ने कहा – हे राजा! इस प्रकार कहकर महायोगेश्र्वर भगवान् ने अर्जुन को अपना विश्र्वरूप दिखलाया |
एवमुक्त्वा संजय बता रहे हैं , कृष्ण अर्जुन के सारे संवाद को दोहरा तो रहे ही है , संजय धृतराष्ट्र को सुना रहे हैं , भगवत गीता भी सुना रहे हैं और भगवान अर्जुन को विराट रूप का जो दर्शन करा रहे हैं उसको संजय सुना रहे हैं । एवमुक्त्वा ऐसा कहकर भगवान ने क्या किया ? दर्शायामास पार्थाय ताकि पार्थ देख सके , पार्थ को भगवान ने दिव्य दृष्टि दी ऐसा संजय कह रहे हैं ।
अनेकवक्त्रनयनमनेकाअद्भुतदर्शनम् |
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ||
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् |
सर्वाश्र्चर्यमयं देवमनन्तं विश्र्वतोमुखम् ।।
(भगवद्गीता 11.10-11)
अनुवाद
अर्जुन ने इस विश्र्वरूप में असंख्य मुख, असंख्य नेत्र तथा असंख्य आश्चर्यमय दृश्य देखे | यह रूप अनेक दैवी आभूषणों से अलंकृत था और अनेक दैवी हथियार उठाये हुए था | यह दैवी मालाएँ तथा वस्त्र धारण किये थे और उस पर अनेक दिव्य सुगन्धियाँ लगी थीं | सब कुछ आश्चर्यमय, तेजमय, असीम तथा सर्वत्र व्याप्त था |
संजय कह रहे हैं , क्या कह रहे हैं ? अर्जुन देख रहे हैं , अनेकवक्त्र कई सारे मुख मंडल वाले व्यक्तित्व वह देख रहे हैं और उनके असंख्य नयन है और यह सारा अद्भुत दर्शन है और यह सब रुपो को अर्जुन देख रहे हैं । अनेकदिव्याभरणं वह कई अलंकरो से अलंकारित है । उनका वैभव दिव्यगन्धानुलेपनम दिव्य गधं से उनका लेपन हो चुका है । सर्वाश्चर्यमयं
हर दृश्य जो है यह आश्चर्यचकित करने वाला है । फिर संजय वही कह रहे हैं जो संजय देख रहे हैं । संजय अर्जुन को देख रहे हैं , संजय कृष्ण को देख रहे हैं , संजय यही विश्वरूप को देख रहे हैं ।
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् |
योगं योगेश्र्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ||
(भगवद्गीता 18.75)
अनुवाद
व्यास की कृपा से मैंने ये परम गुह्य बातें साक्षात् योगेश्वर कृष्ण के मुख से अर्जुन के प्रति कही जाती हुई सुनीं ।
ऐसी दृष्टि व्यासदेव जो भगवान के शाक्तवेश अवतार है उन्होंने ही ऐसी एक विशेष शक्ति संजय को प्रदान की है । जो जो अर्जुन देख रहे हैं वह सब संजय भी देख रहे हैं और अर्जुन कह रहे हैं , कृष्ण कह रहे हैं वह भी सुन रहे हैं और फिर वही धृतराष्ट्र को सुना रहे हैं ।
ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः |
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ||
(भगवद्गीता 11.14)
अनुवाद
तब मोहग्रस्त एवं आश्चर्यचकित रोमांचित हुए अर्जुन ने प्रणाम करने के लिए मस्तक झुकाया और वह हाथ जोड़कर भगवान् से प्रार्थना करने लगा |
संजय कह रहे हैं की यह सब दृश्य देखकर अर्जुन के रोंगटे खड़े हुए हैं , रोमांचित हो रहा है अर्जुन फिर क्या किया अर्जुन ने ,
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ||
संजय ने कहा प्रणम्य शिरसा अर्जुन ने नमस्कार किया है । अर्जुन को नमस्कार करते हुए संजय देख भी रहे है और कह भी रहे हैं यह सीधा प्रसारण चल रहा है । अर्जुन ने श्रीकृष्ण को नमस्कार किया है , प्रणाम किया है हाथ भी जोड़े हैं और प्रणाम मुद्रा में , अर्जुन उवाच , अर्जुन ने कहा
अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान् |
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ-मृषींश्र्च सर्वानुरगांश्र्च दिव्यान् ।।
(भगवद्गीता 11.15)
अनुवाद
अर्जुन ने कहा – हे भगवान् कृष्ण! मैं आपके शरीर में सारे देवताओं तथा अन्य विविध जीवों को एकत्र देख रहा हूँ | मैं कमल पर आसीन ब्रह्मा, शिवजी तथा समस्त ऋषियों एवं दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ |
संजय ने कहा है कि अर्जुन ऐसा कहां है , क्या कहा ? पश्यामि चक्षु , आखे या चश्मा कहो , जो विशेष चश्मा भगवान ने पहनाया है , दिया हैं ताकी वह देख सके , और चक्षुओसे देख रहे है ।
प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।
यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।
(ब्रम्हसंहिता 5.38)
अनुवाद :
जिनके नेत्रों में भगवत प्रेम रूपी अंजन लगा हुआ है ऐसे भक्त अपने भक्ति पूर्ण नेत्रों से अपने ह्रदय में सदैव उन श्याम सुंदर का दर्शन करते हैं जो अचिंत्य है तथा समस्त गुणों के स्वरूप है । ऐसे गोविंद जो आदि पुरुष है मैं उनका भजन करता हूं ।
प्रेमांजन , प्रेम का अंजन है तब ही ऐसे भगवान का दर्शन संभव है । प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति संत भगवान को देखते हैं , कैसे देखते हैं? जब प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन अर्जुन दर्शन के अधिकारी बने है , भगवान ने विशेष अनुग्रह करके विशेष दृष्टि दी है फिर वह कह रहे हैं ।
अलग-अलग भूतों के , योनियों के झुंड या संघ अर्जुन देख रहे है । यह भी भगवान का वैभव है जलचर प्राणी है , नौलाख जो प्राणी है । विराट विश्वरूप का दर्शन करें तो यह सारी योनि का विशेष भूतसंघात , संगठित करके , कितने जन्तु है , कितने पक्षी है , कितने वनस्पतियां हैं । और देखो ऊपर देखो ऊपर देखो ब्रह्मांड का सर्वोपरि जो स्थान है यह 14 भुवन जो है उसकी ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं और कहते हैं पश्च कमल पर स्थित है , विराजमान है ब्रह्मा , कैलास मे विराजित शिवजी को देख रहे हो? देखो ऋषि-मुनियों को देखो । सभी उर्गो को देखो लोगों को देखो । दसवे अध्याय मे भगवान ने कहा है वासुकी सर्प मे हू ।
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् |
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्र्वेश्र्वर विश्र्वरूप ||
(भगवद्गीता 11.16)
अनुवाद
हे विश्र्वेश्र्वर, हे विश्र्वरूप! मैं आपके शरीर में अनेकानेक हाथ, पेट, मुँह तथा आँखें देख रहा हूँ, जो सर्वत्र फैले हैं और जिनका अन्त नहीं है | आपमें न अन्त दीखता है, न मध्य और न आदि |
कई सारे नेत्र है , सर्वतोनन्तरुपम इसका नांन्त न मध्यं कोई अंत ही नहीं है , मध्य ही नही2 है । केशव आपके वैभव सर्वत्र है । पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरुप मैं देख रहा हूं , आपका विश्वरूप देख रहा हूं कहां इसकी शुरुआत कहां इसका अंत है ?
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्र्वस्य परं निधानम् |
त्वमव्ययः शाश्र्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ||
(भगवद्गीता 11.18)
अनुवाद
आप परम आद्य ज्ञेय वास्तु हैं | आप इस ब्रह्माण्ड के परम आधार (आश्रय) हैं | आप अव्यय तथा पुराण पुरुष हैं | आप सनातन धर्म के पालक भगवान् हैं | यही मेरा मत है |
आप ही सारे विश्व के निधान हो , आश्रय हो शाश्वतधर्मगोप्ता इसका कोई अंत ही नहीं । कुछ कम तो नहीं होता सिर्फ बढ़ता ही रहता है । व्यय मतलब खर्च होना या कम होना घटना। भगवान कभी घटते नहीं भगवान बढ़ते रहते हैं । अव्यय , व्यय अव्यय । शाश्वतधर्मगोप्ता और आप धर्म के गोप्ता मतलब रक्षक हो या धर्म के संस्थापक हो ।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||
(भगवद्गीता 4.8)
अनुवाद
भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
चौथे अध्याय में भगवान ने कहा था और अब अर्जुन को साक्षात्कार हुआ और कह रहे थे की धर्म की स्थापना के लिए आप आते हो , मैं देख था हू शाश्वतधर्मगोप्ता आप धर्म के संस्थापक हो , रक्षक हो । स्नातनसत्वं पुरुषो आप शाश्वत पुरुष हो , पहले अर्जुन ने कहा था ,
अर्जुन उवाच परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् |
पुरुषं शाश्र्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ।।
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा |
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।।
(भगवद्गीता 10.12-13)
अनुवाद
अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं | आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं | नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं |
वही बातें जो अर्जुन ने कही थी अब यह विराट रूप जब देख रहे हैं तो देखकर पुनः अपने साक्षात्कार को दोहरा रहे है । मैं देख रहा हूं , आप सनातन हो , आप पुरुष हो ऐसा मेरा मत है ,ऐसा मेरा अनुभव है । आपने तो कहा ही था अब मेरा कहना भी वही है ।
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य- मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् |
पश्यामि त्वा दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्र्वमिदं तपन्तम् ।।
(भगवद्गीता 11.19)
अनुवाद
आप आदि, मध्य तथा अन्त से रहित हैं | आपका यश अनन्त है | आपकी असंख्यभुजाएँ हैं और सूर्य चन्द्रमा आपकी आँखें हैं | मैं आपके मुख से प्रज्जवलित अग्निनिकलते और आपके तेज से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जलाते हुए देख रहा हूँ |
मनन्तबाहुं शशिसुर्यनेत्रम भगवान ने पहले कहा था । जो भगवान ने कहा था वह अब अर्जुन देख रहे हैं और देख कर और जो भगवान ने कहा था वह साक्षात्कार के साथ अर्जुन कह रहे हैं । चंद्रमा और सूर्य आपकी आंखें है । पश्यामि त्वां
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्र्च सर्वाः |
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ||
(भगवद्गीता 11.20)
अनुवाद
यद्यपि आप एक हैं, किन्तु आप आकाश तथा सारे लोकों एवं उनके बीच के समस्त अवकाश में व्याप्त हैं | हे महापुरुष! आपके इस अद्भुत तथा भयानक रूप को देखके सारे लोक भयभीत हैं |
सारा संसार जीसमे व्याप्त है त्वयैकेन आप अकेले ने यह सारे संसार को घेर लिया है या व्याप्त किया है । दृष्ट्वाभ्दुतं रुपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं स्वर्गलोक , मृत्यूलोक , पाताललोक यह सारे लोकों को , 14 भुवन भी इसीके अंतर्गत है , सब को अर्जुन देखकर , बड़ा भयानक भी लगता है । मैं भयभीत हो रहा हूं । और क्या देख रहे है अर्जुन ,
अमी हि त्वां सुरसङघा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति |
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङघाः स्तवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ||
(भगवद्गीता 11.21)
अनुवाद
देवों का सारा समूह आपकी शरण ले रहा है और आपमें प्रवेश कर रहा है |उनमें से कुछ अत्यन्त भयभीत होकर हाथ जोड़े आपकी प्रार्थना कर रहें हैं | महर्षियोंतथा सिद्धों के समूह “कल्याण हो” कहकर वैदिक स्तोत्रों का पाठ करते हुए आपकीस्तुति कर रहे हैं |
इस अध्याय का यह 21 व श्लोक है , कुल 55 श्लोक है इस अध्याय मे , हम इसका सारांश आपको सुनाने का प्रयास कर रहे है लेकिन घड़ी की ओर भी देखना पड़ता है । अर्जुन देख रहे हैं सुरसड्घा पहले था भूतसंघा जो जीव के संघ देख रहे थे फिर सूर मतलब देवताओं के समूह वह देख रहे हैं , इसम ेसे कुछ आपके समक्ष भयभीत है , प्राज्जलयो हाथ जोड़कर कुछ आपकी स्तुती का गान कर रहे हैं । कई सारे महर्षि है। अलग-अलग लोगों में अलग अलग देवता है या सिद्ध पुरुष है। रुद्रादित्या वसवो ये च साध्याविश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च तो ये अष्ट वसु है और एकादश रुद्र और गंधर्व, यक्ष असुर और सिद्ध पुरुष इनको एक ही संबंध में हम सुनते है जैसे अर्जुन ने सुना था। हम भी सुनते रहते है। अर्जुन ने भी सुना और पढ़ा होगा पहले इस तो यह सब को यानी गंधर्व, यक्ष को अर्जुन देख रहे हैं।
रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रंमहाबाहो बहुबाहूरूपादम् ।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालंदृष्टवा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ॥
भगवतगीता ११.२३
अनुवाद : हे महाबाहु! आपके अनेकों मुख, आँखें, अनेको हाथ, जंघा, पैरों, अनेकों पेट और अनेक दाँतों के कारण विराट रूप को देखकर सभी लोक व्याकुल हो रहे हैं और उन्ही की तरह मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ।
मतलब आप आकाश को पूरा व्याप्त किए हो। हरि हरि। प्रसीद देवेश जगन्निवास जो कुछ भी मैंने देखा है, अगर उसको एक शब्द में कहना है तो मैं कहूंगा कि, यानी अर्जुन कहेंगे कि, जगन्निवास! आप क्या हो? जगन्निवास! हम सुनते रहते है कि भगवान जगन्निवास है। जगन्निवास हो मतलब सारे संसार के धाम आपमे समाया हुआ है। अर्जुन ने ऐसा कहा था संसार को आप समाके लिए हो और पुनः यहां पर कह रहे है कि, आप जगन्निवास हो! सारा जगत आप में है। तो भगवान अंदर है, बाहर है यानी संसार के अंदर है और बाहर भी है। और अभी अर्जुन यह भी देख रहे हैं कि, सारा शत्रु का सैन्य यानी अठारह अक्षौहिणी सेना से दुर्योधन की ओर से 11 अक्षौहिणी की सेना, और आपकी जानकारी के लिए बताता हूं की, कुरुक्षेत्र के युद्ध में 64 करोड़ सैनिक मारे गए थे। तो यहां विराट रूप के दर्शन के समय अर्जुन को दिखा रहे है कि, जो सारा शत्रु का सैन्य है बड़े तेजी से यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति जैसे नदी का जल बड़ी गति से समुद्र की और दौड़ता है उसी प्रकार यह सारे 11 अक्षौहिणी सेना के सैनिक भगवान के विराट रूप के मुंह में प्रवेश कर रहे है। और वहां उनका अंतिम संस्कार हो रहा है, इस विराट रूप के मुख से ज्वालाए निकल रही है और सारे सैनिक वह जलकर राख हो रहे है। यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगाविशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः जैसे पतंगे आग की ओर दौड़ते हैं और जलकर राख हो जाते हैं वैसा ही यहां हो रहा है। उन सब का भगवान के विराट रूप के मुख मंडल में प्रवेश हो रहा है। हरि हरि। तो यह सब देख के यह दृश्य बड़ा रोमांचकारी है और संभ्रमित करने वाला भी है तो अर्जुन कह रहे है कि, हे भगवान मुझ पर कृपा करो मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है, मेरी डामाडोल हो रही है, यह सब देखकर तो आप कुछ बताइए तो भगवान ने कहा, कालोऽस्मि! मैं काल हूं! यहां युद्ध के भूमि में मैं काल बन कर आया हूं। वैसे मैं युद्ध नहीं खेलूंगा यह तो बातें है लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि मैं कौन हूं? कल हूं! मैं यहां सारे लोगों का क्षय या विनाश करने वाला हूं! हरि हरि। तो यह सब दिखा कर और फिर और मैं काल हूं यानी हत्या करने वाला ही हूं, तुम कौन हो? तुम सोच रहे हो मैं युद्ध नहीं करूंगा लेकिन, भगवान दिखा रहे युद्ध तो मैं करने वाला हूं, मैं यह युद्ध खेलने के लिए आया हूं और देखो दुष्टों का संहार करने के लिए ही मैं प्रकट हुआ हूं और यह मेरे लिए बहुत बढ़िया अवसर है। क्योंकि संसार भर के असुर यहां इकट्ठे हुए हैं एक एक को मैं नहीं मारूंगा यहां करोड़ों की संख्या में सब कोई इकट्ठे है तो मैं इसका फायदा उठाने वाला हूं। तो इस समय युद्ध का पहला दिन है, अब और 18 दिन युद्ध चलने वाला है, तो 18 दिन के बाद यह युद्ध समाप्त होने वाला है, तो यह सब विराट रूप के समय भगवान ने भविष्य दिखाया और हर 1 दिन में क्या होने वाला है यह भी दिखाया। तो यम भी मेरे वैभव में से एक है ऐसा कहे थे भगवान, इसीलिए हे अर्जुन तुम क्या करो? मैंने जो कुछ भी दिखाया या कहा इसीलिए क्या करो? उत्तिष्ठ! उठो और यश को प्राप्त करो!
तस्मात्त्वमुक्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥
भगवतगीता ११.३३
अनुवाद : हे सव्यसाची! इसलिये तू यश को प्राप्त करने के लिये युद्ध करने के लिये खडा़ हो और शत्रुओं को जीतकर सुख सम्पन्न राज्य का भोग कर, यह सभी पहले ही मेरे ही द्वारा मारे जा चुके हैं, तू तो युद्ध में केवल निमित्त बना रहेगा। (३३)
तस्मात्त्वमुक्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् तुम इस साम्राज्य को जीत जाओ। मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् जैसे मैंने अभी अभी दिखाया और कहां भी रहा हूं कि, मेरे द्वारा यह सब इन सब की हत्या मैंने पहले ही कर दी है अब तुम्हें क्या करना है? यह बहुत प्रसिद्ध वचन है जिसे हम सुनते हैं पहले, निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् तुम बस निमित्त तो बनो। कर्ता करविता मराठी में बोलते हैं करता करविता यानी करने वाला तो मैं ही हूं! जैसे तुमने अभी देखा बस तुम्हें निमित्त बनना है। अर्जुन को कई नामों से संबोधित करते हैं भगवान तो यहां पर सव्यसाचिन् कहे है। अगर तुम इतने कुशल धनुर्धर हो तुम तो दोनों यानी देहने और बाएं दोनों हाथों से बान चला सकते हो। तुम ऐसे हो, अर्जुन तुम भूल गए तो जानबूझकर भगवान अलग अलग संबोधन करते है। अलग अलग समय और युद्ध करने के लिए प्रेरित कर रहे है। और कह रहे है कि, तुम साधारण धनुर्धारी नहीं हो तुम यह तुम्हारे लिए बाएं हाथ का खेल यानी बहुत आसान है। तो उठो! तो इसके बाद अब संजय उवाच अपनी बातें या निरीक्षण संजय के भी बीच-बीच में चलते हैं तो वह भी कह रहे हैं,
संजय उवाच
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृतांजलिर्वेपमानः किरीटी ।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णंसगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ॥
भगवतगीता ११.३५
भावार्थ : संजय ने कहा - भगवान के इन वचनों को सुनकर अर्जुन ने हाथ जोड़कर बारम्बार नमस्कार किया, और फ़िर अत्यन्त भय से कांपता हुआ प्रणाम करके अवरुद्ध स्वर से भगवान श्रीकृष्ण से बोला।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णंसगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य मतलब अर्जुन ऐसे मनस्थिति में है और वह पुनः पुनः भगवान को नमस्कार कर रहे है। संजय ने देखा कि वह पुनः पुनः भूमि पर नमस्कार कर रहे है। और उनकी वाणी भी गदगद हो रही ह और फिर अर्जुन ने कहा कि, त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् पुराना तो यहां पर वह कह रहे है कि, आप आदिदेव हो, आप पुराने हो, आप ज्ञानवान हो और आपने मुझे यह विश्वरूप दिखाया जो विश्वरूप कैसा है? अनंत रूपम है यानी इसका कोई अंत ही नहीं है। पुनः मेरा नमस्कार स्वीकार कीजिए! आपको मेरा सारी दिशाओं से नमस्कार और कुछ चूक भूल के लिए मुझे माफ करना। मै तो सोचता था कि आप मेरे परिवार के सदस्य हो और मेरे सखा हो वैसे आपने पहले कहा अभी है, की है अर्जुन तुम मेरे सखा हो! आपने भी कहा था और मैं भी मानता था कि आप मेरे साथ हो लेकिन अभी यह जो दिखा रहे हो यह देख कर मैं अपनी गलती को सुधारना चाहता हूं! जो समकक्ष होते हैं उनके मध्य में मित्रता होती है आप मेरे मित्र नहीं हो आप बहुत कुछ हो
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति ।
अजानता महिमानं तवेदंमया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥
भगवतगीता ११.४१
मैं कहां कुछ हूं मैं, में आपको संबोधित करता था हे कृष्ण हे गोविंद हे यादव अजानता महिमानं तवेदंमया प्रमादात्प्रणयेन वापि लेकिन मैं आपके महिमा को और ऐश्वर्य को जाने बिना या ध्यान में रखें बिना आपको ऐसे संबोधित करता रहा और विहारशय्यासनभोजनेषु हम कभी-कभी एक ही थाली में भोजन करते थे, एक ही शैय पर हम लेट से लेकिन अभी मुझे समझ में आ रहा है कि, मेरा स्थान क्या है! मैं तो निम्न हूं! पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् आप तो सारे जीव के पिता हो और आप आराध्य और पूजनीय हो और आपके समक्ष कोई नहीं है। और आपसे बड़ा और महान कौन हो सकता है! भगवान पहले कहे ही है मुझसे बढ़कर उनका या ऊपर वाला और कोई नहीं है! ऐसा कहे थे भगवान तो अब अर्जुन पूरे समझ के साथ कह रहे हैं तदेव मे दर्शय देवरूपंप्रसीद देवेश जगन्निवास मुझे आपका देव रूप का दर्शन करना है। यह विराट रूप और विश्वरूप का दर्शन बहुत हुआ अब मैं आपका देवरूप आदिदेव रूप देखना चाहता हूं यह इच्छा प्रकट कर रहे हैं और क्या इच्छा है तेनैव रूपेण चतुर्भुजेनसहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते भगवान का जो चतुर्भुज रूप है उसे दिखाइए और फिर तब भगवान ने कहा,
श्रीभगवानुवाच
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदंरूपं परं दर्शितमात्मयोगात् ।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यंयन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ॥
भगवतगीता ११.४७
अनुवाद : श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! मैंने प्रसन्न होकर अपनी अन्तरंगा शक्ति के प्रभाव से तुझे अपना दिव्य विश्वरूप दिखाया है, मेरे इस तेजोमय, अनन्त विश्वरूप को तेरे अतिरिक्त अन्य किसी के द्वारा पहले कभी नहीं देखा गया है।
हे अर्जुन जिस रूप का तुम दर्शन करना चाहते हो, उसके विशेषाधिकार जिसे प्राप्त है वही उस चतुर्भुज रूप का दर्शन कर सकते है। ऐसा कहे भी है और उसी के साथ चतुर्भुज रूप का दर्शन भी दिए है। और चतुर्भुज रूप के दर्शन करने से भी अर्जुन अभी पूर्ण प्रसन्न नहीं है तो फिर आगे संजय कहते हैं, भीतमेनंभूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा आपका यह अति सुंदर रूप अर्जुन देखना चाहते है, और यह सब में भगवान का द्विभुज रूप सबसे सौम्य है। तो भगवान उस चतुर्भुज रूप को दिखा रहे थे उसे अदृश्य करके भगवान ने अपना द्विभुज दिखाया, तो फिर आगे अर्जुन कहते हैं दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन यह जो रूप देखा है जिसको सौम्य रूप कह रहे है, तो अब अर्जुन बहुत प्रसन्न है। तो अभी अर्जुन अंतःकरण में स्थित हुए है। और प्रसन्न हुए है विभिन्न रूप से तो अभी इस अध्याय के बहुत महत्वपूर्ण वचन है आपको यह अध्याय की पुनः पुनः चुनाव होगा,
श्रीभगवानुवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम ।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः ॥
भगवतगीता ११.५२
अनुवाद : श्री भगवान ने कहा - मेरा जो चतुर्भज रूप तुमने देखा है, उसे देख पाना अत्यन्त दुर्लभ है देवता भी इस शाश्वत रूप के दर्शन की आकांक्षा करते रहते हैं।
भगवान ने कहा कि, जिस स्वरूप को अब तुम देख रहे हो हे अर्जुन, यह दर्शन बहुत दुर्लभ है, विशेष है! देवता भी इस रूप को दर्शन के लिए बड़े उत्कण्ठित होते हैं।
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
शक्य एवं विधो द्रष्टुं दृष्ट्वानसि मां यथा ॥
भगवतगीता ११.५३
अनुवाद : मेरे इस चतुर्भुज रूप को जिसको तेरे द्वारा देखा गया है इस रूप को न वेदों के अध्यन से, न तपस्या से, न दान से और न यज्ञ से ही देखा जाना संभव है।
जिस रूप का अब तुम दर्शन कर रहे हो, यह वेदों के अध्ययन से, तपस्या से, दान से या अर्चना से प्राप्त नहीं होता। तो क्या करना होता है ताकि ऐसा दर्शन हो? तो भगवान कहते है,
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥
भगवागीता ११.५४
अनुवाद : हे परन्तप अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति के द्वारा ही मेरा साक्षात दर्शन किया जा सकता है, वास्तविक स्वरूप को जाना जा सकता है और इसी विधि से मुझमें प्रवेश भी पाया जा सकता है।
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन केवल भक्ति से और भक्ति से ही यह संभव है! ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप तो भक्ति से क्या होगा? इस रूप को जानना और देखना और फिर इस रूप में प्रवेश करना या चरणों का आश्रय लेना या फिर जहां मैं रहता हूं इस रूप के साथ उस धाम में प्रवेश करना यह भक्ति से ही हो सकता है! कैसे भक्ति अनन्य भक्ति से तो अन अन्य मतलब जो व्यक्ति या आराधक और कोई इच्छा या आकांक्षा या कामना नहीं है! तो वही भगवान को प्राप्त कर सकते है।
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥
भगवतगीता ११.५५
अनुवाद : हे पाण्डुपुत्र! जो मनुष्य केवल मेरी शरण होकर मेरे ही लिए सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करता है, मेरी भक्ति में स्थित रहता है, सभी कामनाओं से मुक्त रहता है और समस्त प्राणियों से मैत्रीभाव रखता है, वह मनुष्य निश्चित रूप से मुझे ही प्राप्त करता है।
तो यह 55 वा श्लोक अंतिम श्लोक है जिसमें भगवान कहते है, जो भक्त मुझे जान सकता है, मेरे धाम में आ सकता है और जो मेरे लिए सारे कर्म या कृत्य करता है, ऐसा मेरा भक्त संसार के संग से दूर रहता है, मायावी संघ को ठुकराता है और जो किसी से शत्रु भाव नहीं रखता सबके साथ मित्रता का व्यवहार रखता है, वह किसी का शत्रु नहीं होता किसी से ईर्ष्या या द्वेष नहीं करता, ऐसा मेरा भक्त मुझे प्राप्त करता है! या मेरे धाम में लौटता है। ठीक है। हरे कृष्ण!
श्री कृष्णा अर्जुना की जय!
श्रीमद भगवतगीता की जय!
कुरुक्षेत्र धाम की जय!
श्रील प्रभुपाद की जय !
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!