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हरे कृष्ण
जप चर्चा
पंढरपुर धाम से,
17 जनवरी 2021
गौरांग! आज हमारे साथ 540 स्थानों से भक्त जप कर रहे है।
ॐ अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:।।
श्रीचैतन्यमनोऽभिष्ठं स्थापितं येन भूतले।
स्वयं रूप: कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्।।
वाञ्छाकल्पतरुभ्यंछ्य कृपासिंधुभ्य एव च।
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नम: ।।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलं|
कलौ नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव गतिरन्यथा ||
नमो महावदान्याय कृष्णप्रे -प्रदायते ।
कृष्णाय कृष्णचैतन्य-नाम्ने गौरत्विषे नम: ।।
(जय) श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु नित्यानंद।
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौर भक्तवृंद ।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।। 9.34।।
भगवतगीता ९.३४
अनुवाद:- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परमप्रिय मित्र हो।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||
भगवतगीता १८.६६
अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
ऐसी कई सारी वचन है जो गीता के अंत में और यह वचन जो मैंने आपको भी सुनाएं यह सब कहे है। और मामेवैष्यसि भगवान कहे, मुझे ही प्राप्त करोगे! मुझे प्राप्त करोगे मतलब, कैसे करोगे? तुम जहां हो वहां मुझे प्राप्त करोगे! और फिर अंततोगत्वा इस शरीर को जब त्योगोगे तुम कृष्ण कह रहे है, त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन यहां केवल भगवान को प्राप्त करने के बाद नहीं कह रहे है, आने जाने की बात कर रहे है। मैं जहां हूं या में जहां रहता हूं यहां आओगे या मैं तुम्हें ले आऊंगा वहां! हरि हरि। तो कृष्ण आए संभवामि युगे युगे हुआ और भगवान ने अर्जुन को उपदेश दिया, शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् और मुझे दीजिए ऐसा अर्जुन ने कृष्ण से कहा और फिर कृष्ण ने सारी बात कही 18 अध्याय में, भगवान उवाच हुआ। यह सब कहने के पीछे भगवान के इस जगह पर प्रकट होने के पीछे उद्देश्य तो उनको घर वापस लाने के लिए उद्देश्य से भगवान प्रकट होते है, इस उद्देश्य से भगवान अर्जुन से वार्तालाप किए है। और हम मतलब यहां मैं जो आपसे कहता रहता हूं और आपसे बात करते रहता हूं और भगवान हमसे भी बात करते है, जब जब हम भगवत गीता को पढ़ते है, जब जब हम भगवत गीता को सुनते है, इन दिनों में भगवत गीता के संबंध में सुन रहे है, तो हमें समझना चाहिए कि, भगवान हमें सुना रहे है। और भगवान रहे है। जैसे भगवान अर्जुन सुन रहे थे। अब हमारी बारी है! वहीं बाते सुनने की फिर भगवान ने अर्जुन निम्मित बनाया लेकिन यह सारा संदेश और उपदेश तो हम मूर्खों के लिए है। या हम जो विमुख गए है, और भोगवांचा करने वाले हम,हमे भगवान कह रहे है। या हमसे बात कर रहे है, ऐसा भाव और समझ होनी चाहिए जब जब हम भगवतगीता को पढ़ते है या जब-जब भगवद गीता को सुनते है।
भगवतगीता पर प्रवचन हो रहा है या प्रभुपाद जब सुनाएं है भगवतगीता को, या भगवत गीता को प्रस्तुत किए है भगवत गीता यथारूप के रूप में, जब इसको पढ़ते है तब हम प्रभुपाद को सुनते है, ऐसी बात है! एक बार प्रभुपाद यह बातें जो प्रभुपाद लिखे है या ग्रंथ लिखे है, भावार्थ लिखे है, यह भावार्थ या भाषांतर प्रभुपाद कहते थे और ट्रांसक्रिप्शन होता था। और फिर हल्की सी प्रूफ रीडिंग के लिए जाती थी और लेआउट डिजाइन हुआ, कव्हर बना, छपाई हुई और फिर श्रील प्रभुपाद हमें आदेश दिए कि, ग्रंथों का वितरण करो! ग्रंथों का वितरण करो! और फिर उस आदेश का पालन करते हुए जब हम ग्रंथ वितरण करते और वह गीता किसी के हाथ लग जाती यानी किसी भाग्यवान के हाथ लग जाती तो वह व्यक्ति जब गीता को पड़ता है, पढ़नी ही चाहिए केवल होनी नहीं चाहिए! लेकिन कुछ लोग उसे, उसी रूप में रखते है, वैसी की वैसी रखी है, ऐसा नहीं करना चाहिए। उसे खोलिए और पढ़िए और जब हम उसे पढ़ते हैं तब हमको समझना चाहिए कि, जब यह भगवद गीता पढ़ी या भाषांतर सुनाएं, फिर श्रीमद्भागवत है ऐसे कई सारे भाषांतर है।
वैसे प्रभुपाद लिखते नहीं थे, वे बस डिक्टेटर के ऊपर कहते थे या कभी कभार टाइपिंग करते थे। लेकिन अधिकतर प्रभुपाद कहते थे और जब हमे वह ग्रंथ प्राप्त होता है, और हम उसे पढ़ते है तो हमको समझना चाहिए कि, हम प्रभुपाद को सुन रहे है। तो भक्ति को जब हम श्रवण से प्राप्त करते हैं यानी हम सुन रहे है, प्रभुपाद हमें सुना रहे है। श्री भगवान यह शास्त्र भगवान ने दिए है, यह अपौरुषेय वाणी भगवान कहे है। हरि हरि। तो जब हम पढ़ते है, कहने की तो कई सारी बातें है तब हम को समझना चाहिए कि, हम सीधे भगवान को सुन रहे है या फिर भगवान की बातें कोई हमें सुना रहे है। आचार्य हमें सुना रहे है। या गुरुजन सुना रहे है। या पढ़ रहे हैं तो सुना ही रहे है। तो इस प्रकार भगवान का संदेश उपदेश हम तक पहुंचता है। तो जब गीता की बातें भगवान ने की है तो बारंबार बारंबार कहे है, मुझे प्राप्त करोगे। मेरा नाम है या धाम है मेरा नंद ग्राम है मैं गोलोक या वृंदावन में रहता हूं। और इसका परिचय देते हुए कृष्ण कहते है,
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।
भगवतगीता 15.6
अनुवाद:- उस(परमपद) को न सूर्य? न चन्द्र और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है और जिसको प्राप्त होकर जीव लौटकर (संसारमें) नहीं आते? वही मेरा परमधाम है।
ऐसा है मेरा धाम! वहां सूर्य की आवश्यकता नहीं है, चंद्रमा की आवश्यकता नहीं है। मेरे धाम का गोलोक का वृंदावन का सूर्य तो मैं ही हूं। वहां का प्रकाश मेरे कारण ही है। मेरे धाम में मै ही शशि और चंद्रमा हूं। कृष्ण चन्द्र सम या कृष्णचंद्र, रामचंद्र चैतन्यचंद्र ऐसे भी कहते है हम। बहुकोटि चन्द्र जिनि वदन उज्ज्वल ऐसे भक्तिविनोद ठाकुर भगवान के गौरव गाथा गाए है। गौरांग महाप्रभु कि आरती तो देखो! जय जय गौराचाँदेर आरतिक शोभा आरती हो रही है, और उसका महाप्रभु का वर्णन किए है दक्षिणे निताईचाँद बामे गदाधर निकटे अद्वैत श्रीनिवास छत्रधर ऐसे पंचतत्वों का उल्लेख हुआ है। और श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु ऐसा ही कुछ दृश्य गोलोका भी है जहां पर कृष्णचंद्र यानी कृष्ण चैतन्यचंद्र है। आरति करेन ब्रह्मा-आदि देवगणे श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु की आरती कौन कर रहे है? ब्रह्मा आरती कर रहे है।
केवल ब्रह्मा ही नहीं आए है, अन्य देवता भी आए है कई सारे देवता एकत्रित है और वे सभी मिलकर भगवान की आरती उतार रहे है, भगवान को देखने आए है। श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु कैसे विराजमान है, और कौन-कौन चमार डुला रहे है, और कीर्तन हो रहा है, और गले में माला है, गलदेशे वनमाला करे झलमल उनके गले में माला है उसकी शोभा तो देखो! यह सब कहते कहते फिर भक्तिविनोद ठाकुर आरती की शोभा का वर्णन करते हुए कह रहे है कि, देखो कितना सारा प्रकाश चैतन्य महाप्रभु के बहुकोटि चन्द्र जिनि वदन उज्ज्वल कोटि-कोटि चंद्रमा का प्रकाश विस्तृत हो रहा है श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु के सर्वांग से! तो फिर इसीलिए श्री कृष्ण धाम का परिचय करते हुए दे रहे है, न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः मेरे धाम में सूर्य की आवश्यकता नहीं है, चंद्रमा की आवश्यकता नहीं है, विद्युत की आवश्यकता भी नहीं है और ऐसे धाम में जब कोई लौटता है या एक तो भगवान हमें आमंत्रित कर रहे है।
कृपया मेरे धाम आइए! इसीलिए भगवान आए यहां। या कभी-कभी बड़े मंत्री महामंत्री प्रधानमंत्री भी कारागृह को मुलाक़ात दे सकते है, उद्देश्य क्या होता है? वहां के कैदियों को आमंत्रित करते हैं कि आप कृपया करके सुधर जाइए और सरकार के नियमों का पालन करो, उलंघन करोगे तो यह हाल है! हथकड़ी और बेड़ियां है, परेशानियां है। लेकिन तुम्हें तो स्वतंत्र जीवन जीने का अधिकार है, नियमों का पालन करो! तो वहां पे सुधारने के लिए रखा जाता है ताकि उनमें सुधार हो। सरकार नहीं चाहती कि वह सदा के लिए वहां रहे। कुछ समय के लिए रखा जाता है ताकि सुधर जाए। दंड देने से व्यक्ति सुधर जाता है। कुछ लोग बात नहीं मानते उनको लाथ की जरूरत होती है! हाथों से नहीं मानते है उन्हें फिर लाथ मिलती है। और यह ब्रह्मांड या त्रिभुवन है यह भी कारागार ही है! इसकी तुलना भी कारागार से हुई है। हम सब कैदी है, अपराधी है, मायावती भी कृष्ण अपराधी है, और कहीं सारे अपराधी है, संडे हो या मंडे खाते जाओ अंडे फिर पड़ेंगे यमराज के डंडे! इसको जानते ही नहीं है इसीलिए शास्त्र को पड़ेंगे और परेशानी बढ़ेगी, तो कृष्ण के जैसे मैं कह रहा था कि कोई अधिकारी या मंत्री भी कारागार में जा कर कैदियों को समझाते बुझाते है, आजाओ! बाहर आजाओ! स्वतंत्र हो जाओ! क्यों मर रहे हो यहां? क्यों परेशान हो रहे हो? दुखाःलयम् आशश्वतम् कृष्ण भी कहे, मेरा धाम ऐसा है। तो तो भगवान भी आते है इस कारागार में और हम कैदियों को, अपराधियों को, पापियों को, हममें से कुछ ऐसे नामि पापी भी है, पापी नंबर वन! जगाई और बधाई है और रत्नाकर जो भविष्य में जो वाल्मीकि बने तो मैं कितने सारे अपराध किया करते थे। एक अपराध किया हमने सुना था कि, वे एक पत्थर घड़े में डालते थे।
किसी जानवर को मारा तो, किसी की जान ली, कही चोरी की तो एक एक पत्थर डालते थे। ऐसे कितने सारे घड़े उसने भरे थे तो ऐसा पापियों में नामी पापी थे वह रत्नाकर! पाप राशि, ढेर की ढेर किंतु फिर भगवान ने भेजा नारद जी को भेजा उनके पास या वह स्वयं जा रहे थे, तो उन्होंने नारद जी को भी रोक लिया, उन्हें लूटना चाहते थे! नारद जी कहे, लूट सके तो लूट लेे यह बैरागी बाबा, वैराग्य की मूर्ति उनके पास और क्या है? बस एक वीणा है और नारायण! नारायण! नारायण! तो ऐसी प्रभु की कृपा हुई और फिर जो भी था नारद जी के पास उन्होंने दे दिया! नारायण राम का नाम था वह नाम ही दे दिया! बस मेरे पास इतना ही है, लूट लो! लूट सके तो लूट! राम नाम के हीरे मोती बिखराऊं में गली गली... तो नारद जी से राम का नाम लिया और उन्होंने स्वीकार भी किया। हरि हरि। मरा मरा मरा… राम राम राम राम... इतने अपराधी थे, शुरुआत में नाम अपराध भी कर रहे थे ठीक से उच्च भी नहीं कर रहे थे। किंतु नाम में ऐसी शक्ति है, पवित्र है कि उस नाम ने, चैतन्य महाप्रभु कहे नाम्नामकारि बहुधा निज-सर्व- शक्तिः नाम इतना शक्तिमान है। कृष्ण नाम उतना ही शक्तिमान है यह राम का नाम उतना ही शक्तिमान है कृष्ण का नाम! और तो उस हरि नाम के शक्ति ने सारे पाप के ढेर के ढेर को राख बना दिया। और शुद्धभक्त हुए रत्नाकर! राम का दर्शन होने लगा! राम राम राम...
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे कहते कहते राम का दर्शन हुआ और केवल राम के रूप का दर्शन ही नहीं, राम के लीलाओं के दर्शन करने लगे। राम की लीलाओं के दर्शन मतलब राम और उनके परिजनों का दर्शन उन्हें होने लग और कौन सा दर्शन! धाम का दर्शन भी! भगवान जिस जगह लीला खेलते है वह धाम बन जाता है। इस प्रकार भगवान के नाम से भगवान के रूप का दर्शन, उनके साथ गुणों का दर्शन भी, लीलाओं का दर्शन, भगवान का, धाम का साक्षात्कार यह सब हुआ और यह सब राम नाम ने किया! और राम ही है राम नाम वैसे ही कृष्ण ही है कृष्ण नाम! ऐसी व्यवस्था भगवान करते है। और यहां तो सीधे सीधे बातचीत करते है जैसे अर्जुन के साथ संवाद हुआ और यह दुर्लभ होता है। अधिकतर भगवान अपना संदेश उपदेश किसी भक्त के माध्यम से करवाते है। इसीलिए उन्होंने कहा एवं परंपरा प्रप्तम। जैसे मैंने सूर्य देव को यह उपदेश सुनाया था लाखों साल पहले,
श्री भगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् |
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेSब्रवीत् ||
भगवतगीता ४.१
अनुवाद:- भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – मैंने इस अमर योगविद्या का उपदेश सूर्यदेव विवस्वान् को दिया और विवस्वान् ने मनुष्यों के पिता मनु को उपदेश दिया और मनु ने इसका उपदेश इक्ष्वाकु को दिया |
विवस्वान को मैंने यह उपदेश दिया और भगवान एक बार कहे तो बात खत्म! आकाशवाणी तो एक बार ही होती है। रेडियो में एक बार कह दिया तो फिर भगवान को पुनः कहने की आवश्यकता नहीं है। फिर भगवान वह बातें कहलाते है। या उसको लिखित लिखा जाता है। जैसे भगवान ने भगवतगीता कहीं भी और उसको लिखने की व्यवस्था भी की विशेषता यह कलयुग है, हम अल्पायु है, ऐसी हमारी स्थिति है,
प्रायेणाल्पायषुः सभ्य कलावस्मिन् युगे जनाः । मन्दाः सुमन्दतयो मन्दभाग्या ह्रुपद्रुताः ।।
(श्रीमद भागवद् 1.1.10)
अनुवाद : हे विद्वान , कलि के इस लौह-युग में लोगों की आयु न्युन है । वे झगड़ालू , आलसी , पथभ्रष्ट , अभागे होते हैं तथा साथ ही साथ सदैव , विचलित रहते हैं ।
हम मंद है, भूल जाते है। हमें याद दिलाने के लिए भगवत गीता को लिखें, श्री व्यास देव लिखे जो भगवान ही है! इस प्रकार प्रमाण कहते है, साधु शास्त्र और आचार्य यह प्रमाण है! भगवान ने ऐसी व्यवस्था की है। साधु, शास्त्र, अचार्य! साधु और अचार्य! हमारे अचार्य या पूर्व अचार्य साधुसंग साधुसंग सर्वसिद्धि होय! ऐसा कह सकते है। साधु और अचार्य एक व्यवस्था हुई। साधु ही अचार्य और अचार्य भी साधु है। उनके अलग-अलग भूमिका हो सकती है लेकिन एक ही बात है तो साधू और अचार्य एक व्यवस्था और दूसरी व्यवस्था है शास्त्र! और इन दोनों की मदद से या इस व्यवस्था से उन्हें जो कहना है वह कह चुके है। एक ही बात है शास्त्र शाश्वत है, अपौरुषेय है। शास्त्रों का सिलेबस बनाते हुए भगवान आचार्य और साधु उनको सिखाते है। जब हम स्कूल या कॉलेज जाते है वहां पर सिलेबस होते है और टीचर होते है जो सिखाते है। तो वास्तव में भगवान ने बनाए शास्त्र और उन्होंने है भेजे संतो को या भक्तोंको जो सुधर जाए। जूनियर से अपराध हो गए और वही फिर भक्त बने या साधु बन जाते है। यह भक्तिंको अपने धाम से भगवान भेजते है। भक्तोंका भी अवतार होता है। भगवान का ही नहीं उनके भक्तों का भी अवतार होता है भगवान अपने भक्तों को भेजते है। और कुछ भक्त ऐसे भेजते है जो साधना से सिद्ध महात्मा है, भक्त है, साधु है। तो वह यह प्रचार और प्रसार करते है। भगवान के इन ग्रंथों का! धर्मस्थापना हेतु साधुर व्यवहार फिर साधु का व्यवहार या फिर साधु का विचार, आचार, आहार और बिहार धर्म स्थापना हेतु होता है। उनके सारे कार्यकलाप होते है। भगवान के प्राकट्य का जो उद्देश्य है, धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे धर्म की स्थापना करने के लिए मैं प्रकट होता हू। और मैं क्या करता हूं! धर्म की स्थापना करता हूं! वही कार्य भगवान की ओर से, साक्षाद्धरित्वेन समस्तशास्त्रै-उर्क्तस्तथा भाव्यत एव सद्भि: भगवान के गिने-चुने आचार्य और साधु धर्म की स्थापना करते है। भगवान के उद्देश्य को पूर्ण करते है। सफल करते है। भगवान के भक्त अपना ही उद्देश्य अपनाते है। धर्म की स्थापना हेतु कार्यकलाप करेंगे, फिर अपने घर में करेंगे या अपने ग्राम में या, नगर में या, देश में अपनी क्षमता शक्ति के अनुसार प्रचार करते है। हरिनाम का स्थापना करते है, प्रचार करते है। और कलयुग में हरी नाम संकीर्तन धर्म है और कोई धर्म नहीं है। हरि हरि। या तो भगवान क्या कहते है? निष्कर्ष में क्या कहेंगे? निष्कर्ष तो आप कहीं सारे निकाल सकते हो, बात यह भी थी कि भगवान आपको घर वापसी के लिए बुलाते है। तुम यहां के नहीं हो, इस संसार के तुम नहीं हो, तुम मेरे हो! और मैं जहां सदा के लिए रहता हूं, वहां तुम आ जाओ चलो चलते है! यह बातें इस उद्देश्य से भगवान आते है। और कहते है और लीलाएं करते है मामेवैष्यसि उद्देश्य से
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
तुम यह सब करोगे मेरा स्मरण करोगे, मेरा भक्त बनोगे, मेरी आराधना कर ओके मुझे याद करोगे तो मुझे प्राप्त करोगे और मेरे धाम लौटोगे। तो निष्कर्ष यही है भगवान यही कहे है! ठीक है। तो भगवान भी बात कहे है, चलो दिल्ली नहीं! तो प्रभुपाद जैसे और अचार्य जैसे कहते है कि चलो वैकुंठ चलो! चलो गौरंगा के पास चलो! बाकी लोग तो यहां चलो वहां चलो करते है लेकिन यह आचार्य कहते है, चलो वैकुंठ चलो! गोलोल धाम चलो! हरी हरी।