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हरे कृष्ण।। जप चर्चा पंढरपुर धाम से, 25 जनवरी 2021
सभी को हरे कृष्णा 747,कभी-कभी 777 होते हैं,पर आज 747 हैं।747 स्थानो से लोग जुड़े हैं। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।
आप जप करते रहो।कर रहे हो?कर तो रहे ही हो।
प्रभुपाद उवॉच- "हरे कृष्ण का जप एक उत्कृष्ट विधि है हमारी दिव्य चेतना को पुनः जागृत करने के लिए" श्रील प्रभुपाद का एक विशेष वचन,प्रभुपाद उवॉच इस पर प्रभुपाद ने एक अलग से रिकॉर्डिंग भी किया है,काफी प्रसिद्ध है यह इस्कॉन में।आप इस्कॉन में हो तो पता नहीं आपके पास इस वचन की प्रसिद्धि पहुंची थी या नहीं।किंतु आज तो हम पहुंचा रहे हैं।
श्रील प्रभुपाद के मुखारविंद से निकले हुए यह वचन,यह वाणी श्रील प्रभुपाद वाणी,हम सब को,आप को, प्रभावित करे प्रेरित करे,महा मंत्र के जप के लिए। इन वचनों में प्रभुपाद ने हरिनाम की महिमा के बारे में बताया है। यह वाणी,यह वचन अद्भुत है। इसकी रिकॉर्डिंग भी आपको मिल जाएगी।उसको ढूंढो और सुनो। अंग्रेजी में और शायद हिंदी में भी प्रभुपाद ने इसके अनुवाद की रिकॉर्डिंग की है।श्रीलप्रभुपाद की जय। जो जप योगी हैं,आप हो ना जप योगी?जप योगी ही होते हैं भक्ति योगी। कलियुग में भक्ति की जाती है जप करके। इसको यज्ञानाम जपयज्ञोऽस्मि कृष्ण ने कहा है गीता में-
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् |यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालय: ||(भगवदगीता 10.25)
सभी यज्ञों में जप यज्ञ मैं हूं और यह जप यज्ञ श्रेष्ठ है,तो जप यज्ञन कहो या संकीर्तन यज्ञन कहो,यह जप यज्ञ कलियुग का धर्म है। श्रील प्रभुपाद यहां कह रहे हैं -
"हरे कृष्ण का जप एक उत्कृष्ट विधि है, हमारी दिव्य चेतना को पुनः जागृत करने के लिए" हमारी चेतना,हमारी भावना अलौकिक तो है,दिव्य तो है पर उसको यह महामंत्र जागृत करता है। हमारी मूल भावना कैसे जागृत होती है? कैसे जगती है? कैसे प्रकाशित होती है, प्रदर्शित होती है? हरे कृष्ण महामंत्र के जप से,हरे कृष्ण महामंत्र के उच्चारण से, हरे कृष्ण महामंत्र के श्रवण से, कीर्तन से। आशा है कि आप जानते होंगे या आपने सुना या समझा होगा कि यह चेतना जीव का लक्षण है,जीव का परिचय है। जीव की पहचान होती है चेतना से। जो कभी-कभी कलुषित भी होती है, दूषित भी होती है, है कि नहीं? भावना तो है। चेतना तो है यह चेतना ही जीव का परिचय है।जीव का लक्षण है। हमारी जो मूल भावना है वह कृष्ण भावना है। हरे कृष्ण महामंत्र के जप से होता क्या है?
"चेतों दर्पण मारजनम" हमारी चेतना का दर्पण। हमारी चेतना को दर्पण भी कहा जाता है। यह महामंत्र जो स्वयं भगवान ही है , कृष्ण ही है, हमारी चेतना में अगर कोई दोष है,कोई कचरा भरा पड़ा है, कोई गंदगी है, कोई मल है उसको यह कृष्णसूर्य सम, कृष्ण का नाम शुद्ध बनाता है पवित्र बनाता है और इसी के साथ हम भक्त बनते हैं, पुनः भक्त बनते हैं। हरि हरि।। यह वास्तविक चेतना है।
यहां हम देख रहे हैं,कृष्ण और कृष्ण के भक्तों में जो आदान-प्रदान हो रहा है यही वास्तविक चेतना है। वैकुंठ में या गोलोक में श्रीकृष्ण हैं यह वास्तविक चेतना है। विशुद्ध आत्मा होने के कारण हम मूलतः कृष्णभावनाभावित हैं। प्रभुपाद आगे कह रहे हैं, हम आत्मा हैं विशुद्ध आत्मा और बेशक, आत्मा जीवित है।आत्मा में जान है बाकी सब तो मृत है।
लेकिन आत्मा कैसा है? जीवित। इस आत्मा के रूप में हम मूलत: सभी कृष्णभावनाभावित हैं। कृष्णभावनाभावित जीव आत्माएं। मूलत: हम कृष्णभावनाभावित थे और अब भी हैं किंतु कृष्ण भावना को भूल गए हैं या माया के आवरण ने, इस कृष्ण भावना को आच्छादित किया हुआ है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण।।
"आदिकाल से हमारा भौतिक पदार्थ से संपर्क होने के कारण, हम सभी भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की कोशिश कर रहे हैं,परंतु वास्तव में तो हम उसके कड़े नियमों की जकड़ में हैं।"
जब से हम इस भौतिक प्रकृति के संपर्क में आए हैं,कब से?अनादि काल से, ना जाने कब से, बहुत समय से। हरि हरि।। हम सभी भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जमाने की कोशिश कर रहे हैं। यहां हम आ गए या प्रकृति के संपर्क में आ गये या निकटस्थ माया तारे झापटिया धरे माया ने हमको झपट लिया है, हमारा गला पकड़ा हुआ है लेकिन प्रयास तो यह हो रहा है हमारा यहां कि हम स्वामी बनने कि कोशिश कर रहे हैं। ईश्वरोअह्मम वाली बात है। कृष्ण ने इसको ऐसे कहा है कि वह है तो दास, जीव है तो दास, लेकिन यहां पर वह स्वामी बनने का प्रयास करता है, हर बद्ध जीव, आप सब भी स्वामी बनने के प्रयास में थे या अभी भी कुछ हद तक, कुछ सीमा तक वह प्रयास जारी रहता ही है जब तक हम शुद्ध, मुक्त, नित्य और शांत नहीं बनते।एक स्वामी ही काफी है। एक स्वामी तो है और स्वामी की कोई जरूरत नहीं है और है भी वैसे एकले ईश्वर कृष्ण आर सब भृत्य ईश्वर परमेश्वर तो अकेले कृष्ण ही हैं या कृष्ण के अवतार हैं, विस्तार हैं और हम हैं उनके दास,सेवक।इसी में प्रसन्न रहना चाहिए लेकिन प्रयास होता है प्रभुपाद कह रहे हैं, जो सत्य भी है कि हम प्रकृति के स्वामी बनने की कोशिश कर रहे हैं। सारी मानवता मिलकर, यह जो वैज्ञानिक मंडली है और यह जो मूर्ख हैं और भी कई हैं ,चांडाल चौकड़ी जो है यह सब मिलकर स्वामी बनने का प्रयास कर रहे हैं।प्रकृति पर प्रभुत्व जमाने का प्रयास कर रहे हैं। जबकि वास्तव में हम तो प्रकृति के सख्त नियमों की जकड़ में हैं यह श्रील प्रभुपाद का साक्षात्कार है,अनुभव है जो कृष्ण ने भी कहा है मम् माया दुरतया।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। (भगवदगीता 7.14)
माया के या महामाया के नियमों का उल्लंघन हम नहीं कर सकते,संभव नहीं है।यहां के नियम जो भगवान ने बनाए बड़े कड़े नियम हैं।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।। (भगवदगीता2.27)
"जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु" पहला नियम आपने जन्म लिया है तो आपको मरना ही होगा। ऐसे-ऐसे नियम हैं, इस माया ने हमको पूरी तरह पछाड़ दिया है।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।। (भगवदगीता3.27)
हमसे माया कार्य करवाती है, माया के तीन गुण कार्य करवाते हैं हमसे, किंतु समस्या यह है अहंकार विमुढ आत्मा, कर्ताऽहमिति मन्यते। कृष्ण कह रहे हैं, सुनो क्या कह रहे हैं।लेकिन जो अहंकारी बद्ध जीव होते हैं उनको भगवान ने भी मूढ कहा, मूर्ख कहीं के , गधे कहीं के। कर्ताऽहमिति मन्यते, लेकिन कर्ता तो भगवान हैं
मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम् | हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते || (भगवदगीता9.10)
श्रील प्रभुपाद आगे लिख रहे हैं "बिना किसी पूर्व योग्यता के कोई भी संकीर्तन आंदोलन में भाग लेकर नित्य आनंद प्राप्त कर सकता है " जैसे आप यहां देख रहे हो कोई भी जप कर सकता है। कोई भी बिना किसी पूर्व योग्यता के कीर्तन कर सकता है, जप कर सकता है जप या कीर्तन करने के लिए कोई भी पिछली योग्यता या पहले की कोई गुणवत्ता, कोई अधिकार की आवश्यकता नहीं है। यहां पर चैतन्य महाप्रभु दिखा रहे हैं कि उन्होंने झारखंड में पशुओं तक को नचाया। एक दिन वह झारखंड के जंगल से वृंदावन जा रहे थे, जाते-जाते पहले कोई पूर्व सूचना भी नहीं मिली थी कि चैतन्य महाप्रभु आने वाले हैं या कीर्तन होगा आप थोड़ा तैयारी करो या कुछ प्रशिक्षण ले लो।हरि हरि । ऐसा कुछ भी नहीं चैतन्य महाप्रभु आए और तत्क्षण इस पार्टी ने उनसे खुद को जोड़ लिया। झारखंड के वन के सारे पशु पक्षी सब नाचने लगे जो पशुवत लोग हैं धर्मेंन हीना पशुभि समान
आहार-निद्रा-भय-मैथुनम च सामान्यम् एतत् पशुभिर् नराणाम् । धर्मो हि तेषांअधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः (२५ हितोपदेश)
धर्म हीन व्यक्ति को तो पशु कहा जाता है द्विपद पशु कहा जाता है। अधिकतर पशु चतुपदी होते हैं,लेकिन मनुष्य के पैर तो दो ही हैं इसलिए द्विपद पशु कहा है क्योंकि कहा गया है कि धर्म हीन व्यक्ति पशु ही कहलाता है पशुवत ही उसका जीवन है। श्रील प्रभुपाद ने ऐसे पशुओं को नचाया।अमेरिका में, अफ्रीका में, जहां-जहां प्रभुपाद गए और उनकी पहले की कोई पूर्व योग्यता ना होते हुए भी प्रभुपाद ने टोम्स्कीन स्क्वेयर पार्क में छोटे, बड़े, बूढ़े, बच्चो, सबको नचाया। सब कीर्तन करने लगे और आनंद में नृत्य करने लगे। कोई भी व्यक्ति जप या कीर्तन की शुरुआत कर सकता है और व्यक्ति करने भी लगता है।
"कोई भी जप कर सकता है और आनंद में नित्य कर सकता है" पूरी तरह से आनंद नहीं भी है तो भी यह तो शुरुआत है। आनंद का प्रारंभ ही हुआ है और जैसे आप देख रहे हो इसका उदाहरण, कोई भी जप करते हुए आनंद पूर्वक नृत्य कर सकता है।
यह बालक भी है, एक महिला भी है,और एक अफ्रीकन महिला भी है और देश विदेश के कई भक्तों को यहां नगर संकीर्तन करते हुए देख रहे हो। भक्ति विनोद ठाकुर ने भी कहा था लगभग डेढ़ सौ साल पहले भक्ति विनोद ठाकुर ने यह भविष्यवाणी की थी कि अमरिका से, जर्मनी से, इंग्लैंड से,यहां से, वहां से लोग जय सच्चिनन्दन जय सच्चिनन्दन गोर हरि का उच्चारण करेंगे | जैसा भक्ति विनोद ठाकुर ने कहा था वैसा ही हो रहा है।
और यह सब भक्त, हम सब भक्त,आप भी अनुभव कर रहे हो आप भी हो उन भक्तों में। तो जब सब कीर्तन कर रहे हैं तो किसको फर्क पड़ता है कि कौन किस देश का है? किसको परवाह है कि कौन किस देश का है? किसी को याद नहीं रहता,ऐसा बाहय ज्ञान नहीं रहता, कोई सोचता भी नहीं कि कौन किस देश का है। पहले इसाई था या पहले मुसलमान था , पहले ऐसा था या पहले वैसा था। जो भी था कम्युनिस्ट था या इस पार्टी का था, कृष्णा ही इस परिवार के मुखिया हैं तो ऐसी एकता भी और कहीं नहीं पाई जाएगी सारी उपाधियों को
सर्वोपाधि-विनिर्मुक्तं तत्-परत्वेन निर्मलम् । हृषीकेण हृषीकेश-सेवनं भक्तिर् उच्यते॥ (१.१.१२ भक्ति रसामृत सिंधु)
सारी उपाधियों को त्याग कर, भूल कर, निर्मल बनें। उपाधि मतलब मल, निर्मल बनो,आत्मा भी निर्मल है| निर्मल भाव के साथ कीर्तन और जप करें। ऐसी एकता ऐसा एकय और कहीं नहीं मिलेगा | श्रील प्रभुपाद ने आगे कहा है -
*तुरंत लाभ के लिए जप को भगवान के किसी शुद्ध भक्त के मुख से ही सुनना चाहिए। हम जप सुनेंगे या जप स्वीकार करेंगे कैसै? दीक्षा भी होगी तो मंत्र प्राप्त करेंगे। परंपरा में आने वाले भक्त,आचार्यगण, गुरुगण ही से करें। उनसे हरि नाम को सुनकर या प्राप्त करके,तुरंत लाभ को प्राप्त किया जा सकता है। इसका जो परिणाम है,परिवर्तन है यह तुरंत ही अनुभव किया जा सकता है।
"अभक्तों के मुख से निकला हुआ जप,उसी प्रकार जहरीला हो जाता है जिस प्रकार सांप के मुख से छुआ हुआ दूध जहरीला होता है इसलिए अभक्तों के मुख से कभी भी हरि नाम को नहीं सुनना चाहिए"
जो अभक्त हैं, अभक्तों के मुख से सुना हुआ जप विष के समान है।भुक्ति,मुक्ति,सिद्धि कामी सक्ल अशांत, कृष्ण भक्त निष्काम अतैव शांत हरि हरि।।
मुक्ति कामी, सिद्धि कामी इनसे अगर हम सुनेंगे महामंत्र या कीर्तन तो यह विष के समान होगा। प्रभुपाद कह रहे हैं इसको टालना चाहिए, सुनना नहीं चाहिए।मायावादी, कृष्ण अपराधी। उनका खुद तो कोई विश्वास नहीं होता कृष्ण के नाम में, कोई श्रद्धा नहीं होती। अगर भुक्ति कामी भी हैं,कर्मकांड करने वाले, वस्त्र तो पहनें ही हैं,भगवा वस्त्र,तो हम झट से सुनने लगते हैं वह उपलक्षण होता है,ऐसे कुछ कमंडलु भी हैं,भगवा पहना हुआ है या कुछ उसी तरह का तिलक भी पहना हुआ है या ऐसा कुछ हरि हरि।।
तो यह भक्त के,साधु के, संतों के गौंण लक्षण हैं। प्रधान लक्षण तो यही है कि उसकी भावना कैसी है? वह कृष्णभावनाभावित है कि नहीं ?वह कृष्ण को समर्पित है कि नहीं?
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः। भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।। (9.13 भगवदगीता)
यहां महात्मा की परिभाषा सुना रहे हैं, महात्मा तो वह व्यक्ति है जो दैवी प्रकृति आश्रित:। जो दैवी प्रकृति का आश्चर्य लेता है। कौन है दैवी प्रकृति? राधा रानी दैवी प्रकृति है जो राधा रानी का आश्रय लेता है या जो राधा रानी के भावों को प्रकट करने वाली परंपरा में आने वाले आचार्य या भक्त वृंद हैं,उनका आश्रय लेता है, वह महात्मा है। हम सीधे भी नहीं जा सकते राधा रानी के पास आश्रय लेने के लिए।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: (भगवदगीता4.34)
श्री कृष्ण ने भगवत गीता में कहा है कि गुरुजनों के पास पहुंचो, उनकी शरण में जाओ उनका आश्रय ले लो और वे आपको प्रेरित करेंगे, सिखाएंगे, समझाएंगे कि कैसे लेना होता है राधा रानी का आश्रय या फिर वो आपको महामंत्र देंगे और महामंत्र में हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे - यह हरे हैं राधा।
हे राधे-सेवा योग्य करो,मुझे भी सुनाओ। हे राधे,श्रावय:। तुम्हारी कृष्ण के साथ जो लीला संपन्न होती है, उसे मुझे सुनाओ। जब हम महामंत्र का जप कर रहे हैं,हरे कृष्ण हरे हरे कह रहे हैं उसमें तो यह प्रार्थना है, यह शरणागति है। राधा रानी के चरणों में श्रावय:र्दशय:। सुनाइए कृष्ण की लीला। तुम्हारी कृष्ण के साथ होने वाली लीला ऐसे भक्तों से हमें यह महामंत्र सुनना चाहिए/प्राप्त करना चाहिए वरना
जीवेर निस्तार लागि ’ सूत्र कैल व्यास ।मायावादी-भाष्य शुनिले हय सर्वनाश।। (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 6.169)
जो सिद्ध महात्मा है, महात्मा नहीं कहना चाहिए उन्हें, पर महात्मा कहना पड़ता है।अनीमा जैसी सिद्धियों के पीछे लगे हैं, वह भगवान के नामों का उच्चारण, शुद्ध नाम का उच्चारण अपराध रहित कर ही नहीं सकते। ऐसी उनकी समझ नहीं है ऐसी उनकी श्रद्धा नहीं है और ऐसी उनकी परंपरा भी तो नहीं है
सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते निष्फला मता: (पद्म पुराण) यदि कोई मान्यताप्राप्त गुरु-शिष्य परंपरा का अनुसरण नहीं करता , तो उसका मंत्र या दीक्षा निष्फल है।
संप्रदाय के बाहर वाला कोई मंत्र तंत्र सीखने से क्या होगा? विफल संप्रदा-संप्रदा विहीन।। फल- विफल, सफल या विफल? साफलय,सफलता प्राप्त नहीं होगी।कृष्ण प्रेम प्राप्त नहीं होगा।
कैवलयम नर्कायते। हमारे वैष्णवों का ऐसा मत है कैवल्य मुक्ति,निराकार या निरंजन का दर्शन।केवलयम नरकायते। नरक से भी खराब चीज है,ये कैवल्य मुक्ति। यह कृष्ण प्रेम तो जिनकी ऐसी समझ है कि प्रेम प्राप्ति ही पुरुषार्थ है, सर्वोपरि सर्वोच्च।उनसे हमें यह महामंत्र को प्राप्त करना चाहिए। दूसरे जो पक्ष हैं वह परंपराएं कुछ अलग ही हैं या मनगढ़ंत हैं और मनोधर्म की बातें हैं तो इस को हटाना चाहिए। प्रभुपाद चेतावनी दे रहे हैं हमें, सावधान और भी विधि निषेध हैं जो प्रभुपाद ने हरि नाम के जप के लिए बताए हैं पर अभी हम यहां रुकते हैं।
"हरे कृष्णा"।।
English
25 January 2021
The goal of this life is to attain Kṛṣṇa prema
Hare Krishna to everybody! Today devotees from 747 locations are chanting with us. Sometimes it is 777. Today we have 747.
Gaura Premanande Hari Haribol ! You keep chanting. Are you chanting? I can see that you are chanting. We cannot have a complete seminar here today.
Chanting Hare Krishna is a sublime method for reviving our transcendental consciousness.
It is a special speech given by Srila Prabhupada. Prabhupada has recorded it, specially. This speech is very popular in ISKCON. You all are followers of ISKCON still I am not aware whether this popular speech has reached you or not? But today we will inform you. This speech is known as 'Prabhupada Vani.’ It should inspire and motivate all of us. It should inspire you to chant the maha-mantra. In this speech Srila Prabhupada has glorified the holy name in an amazing and wonderful way. You search for a recording and listen to it. It is available in English and possibly Prabhupada has done it in Hindi also.
We all are Japa yogis. Aren’t we ? Only Japa yogis are known as Bhakti yogis. In Kaliyuga we can do Bhakti only by chanting.
maharṣīṇāṁ bhṛgur ahaṁ girām asmy ekam akṣaram yajñānāṁ japa-yajño ’smi sthāvarāṇāṁ himālayaḥ
Translation Of the great sages I am Bhṛgu; of vibrations I am the transcendental oṁ. Of sacrifices I am the chanting of the holy names [japa], and of immovable things I am the Himālayas. (BG 10.5)
The Lord has declared in Bhagavad Gita that among all sacrifices I am the chanting of the maha-mantra. Chanting sacrifice is the best sacrifice. We may call it chanting or kirtan sacrifice which is recommended for Kaliyuga. Srila Prabhupada has said in this speech:
Chanting of the Hare Krishna maha-mantra is a sublime method for reviving our transcendental consciousness.
Our transcendental consciousness or our senses are transcendental, divine and supernatural originally. How is our original consciousness revived, realised or displayed? It is possible by chanting of Hare Krishna maha-mantra. This is the sublime method. By chanting the Hare Krishna maha-mantra, by pronouncing the Hare Krishna maha-mantra or by listening and performing kirtan of maha-mantra it is possible to revive our transcendental consciousness. I hope you have heard and understood that consciousness is the main characteristic of a living entity.The living entity is known by its consciousnesses, feelings, emotions. The living entity is identified by Kṛṣṇa consciousness or consciousness. Sometimes it is polluted or contaminated but that consciousness always remains. This consciousness is the identification of the living entities. This is our original Kṛṣṇa Consciousness. By chanting Hare Kṛṣṇa mantra it is revived.
ceto-darpaṇa-mārjanaḿ bhava-mahā-dāvāgni-nirvāpaṇaḿ śreyaḥ-kairava-candrikā-vitaraṇaḿ vidyā-vadhū-jīvanam
ānandāmbudhi-vardhanaḿ prati-padaḿ pūrṇāmṛtāsvādanaḿ sarvātma-snapanaḿ paraḿ vijayate śrī-kṛṣṇa-sańkīrtanam
Translation Glory to the sri-krsna-sankirtana, which cleanses the heart of all the dust accumulated for years and extinguishes the fire of conditional life, of repeated birth and death. This sankirtana movement is the prime benediction for humanity at large because it spreads the rays of the benediction moon. It is the life of all transcendental knowledge. It increases the ocean of transcendental bliss, and it enables us to fully taste the nectar for which we are always anxious.
Our mind is also called a mirror of the consciousness. The maha-mantra is Kṛṣṇa or Kṛṣṇa Who is very effulgent like the sun. Our consciousness is filled with polluted trash, dirt. The consciousness is cleared and made pure by the holy name or by Kṛṣṇa.
kṛṣṇa — sūrya-sama; māyā haya andhakāra yāhāṅ kṛṣṇa, tāhāṅ nāhi māyāra adhikāra
Translation Kṛṣṇa is compared to sunshine, and māyā is compared to darkness. Wherever there is sunshine, there cannot be darkness. As soon as one takes to Kṛṣṇa consciousness, the darkness of illusion (the influence of the external energy) will immediately vanish. (CC Madhya 22.31)
Accordingly by going through this process we become devotees again. This is our original consciousness. In this picture we can see the original consciousness between Kṛṣṇa and the devotee. Sri Krsna is in Vaikuntha or Goloka Dhama. It is the original consciousness. Prabhupada further said …
As living spiritual souls we are all originally Kṛṣṇa conscious entities.
We are living souls. The soul is the only living thing. Everything else is dead. The soul is living. In the form of this soul we all are Kṛṣṇa conscious entities. Hare Kṛṣṇa people are Kṛṣṇa conscious people. All people were originally Kṛṣṇa conscious and today also everyone is Kṛṣṇa conscious. Maya (the illusionary energy of the Lord) has covered or hidden our original Kṛṣṇa Consciousness.
Due to our association with matter for time immemorial we are all trying to be lords of the material nature where actually we are under the grip of her astringent laws. From time immemorial and no one knows since when, we have come into contact with this material world. We are all trying to be lords of material nature. We came here in this world and we came in contact with material nature.
Krsna bhuliya jiva bhoga vancha kare, pasate maya tare japatiya dhare"
Translation It says'' The moment a conditioned soul forgets Krishna and wants to do sense enjoyment , that moment maya or illusion hugs him". (Prema - Vivarta)
Maya has completely taken hold of us. Here we are trying to become lord. It is the same as Kṛṣṇa has said.
idam adya mayā labdham imaṁ prāpsye manoratham idam astīdam api me bhaviṣyati punar dhanam asau mayā hataḥ śatrur haniṣye cāparān api īśvaro ’ham ahaṁ bhogī siddho ’haṁ balavān sukhī āḍhyo ’bhijanavān asmi ko ’nyo ’sti sadṛśo mayā yakṣye dāsyāmi modiṣya ity ajñāna-vimohitāḥ
Translation The demoniac person thinks: “So much wealth do I have today, and I will gain more according to my schemes. This much is mine now, and it will increase in the future, more and more. He is my enemy, and I have killed him, and my other enemies will also be killed. I am the lord of everything. I am the enjoyer. I am perfect, powerful and happy. I am the richest man, surrounded by aristocratic relatives. There is none so powerful and happy as I am. I shall perform sacrifices, I shall give some charity, and thus I shall rejoice.” In this way, such persons are deluded by ignorance. (BG 16.13-15)
Each living entity tries to become a boss. All of you were trying to be a boss and today also that effort is going on till we become pure and liberated and peaceful souls. One Lord is enough and we do not need any more. And it is fact …..
ekale īśvara kṛṣṇa, āra saba bhṛtya yāre yaiche nācāya, se taiche kare nṛtya
Translation Lord Kṛṣṇa alone is the supreme controller, and all others are His servants. They dance as He makes them do so. (CC Ādi 5.142)
Kṛṣṇa and his other manifestations are the only Lord and we are His servants. We should be satisfied with this position, but as Prabhupada said we are trying to be the Lord. Humanity as a whole are unitedly trying to be master of nature. The group of scientists and foolish people all are unitedly trying to be Lord. They are trying to become masters of nature and they are trying to control nature. While actually we are under the grip of her astringent laws. This is Srila Prabhupada’s realisation and experience. Kṛṣṇa has also said the same.
daivi hy esa guna-mayi mama maya duratyaya mam eva ye prapadyante mayam etam taranti te
Translation This divine energy of Mine, consisting of the three modes of material nature, is difficult to overcome. But those who have surrendered unto Me can easily cross beyond it. (BG 7.14)
We cannot violate the laws made by maha maya. It is not possible. The Lord has made the rules and laws here which are very strict.
jātasya hi dhruvo mṛtyur dhruvaṁ janma mṛtasya ca tasmād aparihārye ’rthe na tvaṁ śocitum arhasi
Translation One who has taken his birth is sure to die, and after death one is sure to take birth again. Therefore, in the unavoidable discharge of your duty, you should not lament.(BG 2.24)
First rule. You have taken birth, so you must die. Such rules are there. We are under the grip of maya. We are puppets in the hands of maya. Maya makes us do whatever she wants us to do.
prakṛteḥ kriyamāṇāni guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ ahaṅkāra-vimūḍhātmā kartāham iti manyate
Translation The spirit soul bewildered by the influence of false ego thinks himself the doer of activities that are in actuality carried out by the three modes of material nature. (BG 3.27)
The three modes of nature actuality carry out various activities from us. The main problem is that due to the false ego of a bewildered soul we assume that we are the doers. Krsna has called proud people vimudha or foolish. They think they are the doers of all activities. Actually the Lord is the only one who is the doer and He gets everything done by us.
mayadhyaksena prakrtih suyate sa-caracaram hetunanena kaunteya jagad viparivartate
Translation This material nature is working under My direction, O son of Kunti, and it is producing all moving and unmoving beings. By its rule this manifestation is created and annihilated again and again. (BG 9.10)
Srila Prabhupada further says,
Anyone can take part in the chanting without any previous qualification and dance in ecstasy.
Here in this picture you can see that any one can participate in chanting. Anyone can chant. Anyone can do kirtan or chant without any previous qualification. It is not mandatory to have any special qualities or any authority. Even animals can take part in this. Sri Caitanya Mahaprabhu made animals dance when He was in Jharkhand. Once He was going to Vrindavan through the forests of Jharkhand. Nothing was announced nor planned that Caitanya Mahaprabhu is coming and He will do Kirtan. Caitanya Mahaprabhu came to forest and immediately He started His kirtan. He always performs kirtan continuously. As He was doing kirtan He was joined by other animals of Jharkhand forest. All dangerous animals started dancing with Caitanya Mahaprabhu. In this way Caitanya Mahāprabhu has shown us that without any previous qualification anyone can take part in Kirtan. Prabhupada when went to western countries. The people there were living like animals.
āhāra-nidrā-bhaya-maithunaṁ ca sāmānyam etat paśubhir narāṇām dharmo hi teṣām adhiko viśeṣo dharmeṇa hīnāḥ paśubhiḥ samānāḥ
Translation Eating, sleeping, sex, and defense—these four principles are common to both human beings and animals. The distinction between human life and animal life is that a man can search after God but an animal cannot. That is the difference. Therefore a man without that urge for searching after God is no better than an animal.
A person without knowledge of God is called a binomial : animal with two legs. Normally animals have four legs - chatushpad. Humans have only two legs so they are called dvipad or binomial. A person without dharma is like an animal. His life is like that of an animal. Srila Prabhupada made all such animals dance in kirtan in America, Africa and whenever he went. They did not have any previous qualification. Still Prabhupada made all of them dance in kirtan. There were young, old , children and all other types of people dancing in ecstasy. When a new person comes to a temple then Hare Krsna devotees give him chanting beads. As soon as he enters and sits down to relax, immediately, Hare Krsna devotees hand over chanting beads to him and instruct him to chant. The person begins chanting immediately. Everyone can chant and dance in ecstasy. Even if you don’t have full fledged ecstasy, still you can dance. This is a beginning. You can experience the joy and happiness in this. Everyone can chant and dance in ecstasy. As you can see there is a lady and there is an African lady also. Devotees from various countries are dancing together. Srila Bhaktivinod ThakurA has declared, ‘One such day will come’. 100 - 150 years ago Bhaktivinod Thakura predicted that devotees from America , England and other parts of the world will come to India. They will sing with local devotees
Jai Sachinandan! Jai Sachinandan!! Jai Sachinandan!!! Gaura Hari !!
It is exactly happening as Bhaktivinoda Thakur has predicted. All devotees including you, do not bother about the country of the other devotee when doing kirtan. No one remembers this. No one asks any questions like from which country are you? No one cares whether the devotee was Christian or Muslim, Communist or of a different political party. All devotees harmoniously enjoy the kirtan with a feeling of one family. All enjoy with each other like Krsna’s family members. We will not find such unity anywhere else.
sarvopādhi-vinirmuktaṁ tat-paratvena nirmalam hṛṣīkeṇa hṛṣīkeśa- sevanaṁ bhaktir ucyate
Translation Bhakti, or devotional service, means engaging all our senses in the service of the Lord, the Supreme Personality of Godhead, the master of all the senses. When the spirit soul renders service unto the Supreme, there are two side effects. One is freed from all material designations, and, simply by being employed in the service of the Lord, one's senses are purified.’ (CC Madhya 19.170)
When a person renounces all designation he becomes pure. The soul is always pure. With this pure feeling everyone takes part in kirtan. We will not find such unity anywhere else.
Further Srila Prabhupada said
Chanting should be heard from the lips of the pure devotee of the Lord. So that immediately its effects can be achieved.
When you start chanting then you will be initiated. It should be heard from the lips of a pure devotee. They should be part of disciplic succession. When we hear harinama from such bhaktas, acaryas or spiritual masters then immediate effects can be achieved. The result or transformation of this can be immediately experienced.
Chanting from the lips of non devotee should be avoided, just as one will avoid milk touched by the lips of a serpent because it has a poisonous effect.
Chanting from the lips of a non devotee is like
kṛṣṇa-bhakta--niṣkāma, ataeva 'śānta' bhukti-mukti-siddhi-kāmī--sakali 'aśānta'
Translation Because a devotee of Lord Kṛṣṇa is desireless, he is peaceful. Fruitive workers desire material enjoyment, jñānīs desire liberation, and yogīs desire material opulence; therefore they are all lusty and cannot be peaceful. (CC Madhya 19.149)
Prabhupada has said that we should avoid hearing the maha-mantra or kirtan from those who have the desire for liberation, material opulence and material enjoyment. Mayavadi Kṛṣṇa aparadhi — they do not believe in Kṛṣṇa. They do not have faith in Krsna’s names. They are mukti kami or karma kandi dressed like sadhus. They are dressed in saffron cloth and have kamandalu in the hand. These are minor characteristics of sadhus and saintly persons. An important and major characteristic is the state of his consciousness? Is he Kṛṣṇa conscious or not? Has he surrendered to Kṛṣṇa or not ? Or
mahātmānas tu māṁ pārtha daivīṁ prakṛtim āśritāḥ bhajanty ananya-manaso jñātvā bhūtādim avyayam
Translation O son of Pṛthā, those who are not deluded, the great souls, are under the protection of the divine nature. They are fully engaged in devotional service because they know Me as the Supreme Personality of Godhead, original and inexhaustible. (BG 9.13)
Kṛṣṇa has defined a mahatma as a person who takes shelter of the divine nature. Who is the divine nature ? Radharani is divine nature. A mahatma will take shelter of Radharani or he will take shelter of those who have achieved Radharani’s bhava and who are part of the disciplic succession. We cannot go directly to Radharani for shelter.
tad viddhi praṇipātena paripraśnena sevayā upadekṣyanti te jñānaṁ jñāninas tattva-darśina
Translation Just try to learn the truth by approaching a spiritual master. Inquire from him submissively and render service unto him. The self-realized souls can impart knowledge unto you because they have seen the truth. (BG 4.34)
Sri Kṛṣṇa has said in Bhagavad Gita that one should approach a spiritual master and take shelter of him. He will inspire and teach how to surrender to Radharani. Otherwise he will give you knowledge of the maha-mantra.
Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare Hare Ram Hare Ram Ram Ram Hare Hare
In this mantra, 'Hare' addresses Radharani. It is prayer to Radharani as he hare - mayA sah ramasva |O Hare! Please enjoy with me. ( from the commentary of Maha-mantra by Bhakti Vinod Thakure)
He Radharani! please make me eligible for doing Your service. Please tell me Your pastimes with Kṛṣṇa. This is the prayer of surrender to Radharani when we chant the Hare in the maha-mantra. Sravaya, Darsaya, please tell us and show us Your pastimes with Krsna. We should acquire the maha-mantra from such exalted devotees otherwise you will lose our devotional service.
jīvera nistāra lāgi’ sūtra kaila vyāsa māyāvādi-bhāṣya śunile haya sarva-nāśa
Translation Śrīla Vyāsadeva presented the Vedānta philosophy for the deliverance of conditioned souls, but if one hears the commentary of Śaṅkarācārya, everything is spoiled. (CC Madhya 6.169)
Those who are Mayavadi or who are trying to achieve siddhi, are siddha mahatmas. We should not call them mahatma. They are trying to get siddhi like anima , lagima. They are never able to chant pure and offenceless holy names. They do not have such faith and understanding and their disciplic succession is not like that.
Sampradaya-vihina ye mantras te nisphala matah
Translation Any mantra that does not come in disciplic succession is considered to be fruitless.
If we learn or chant any mantra which is not authorised by the sampradaya (institution) then it is fruitless. Safal- vifal. Vifal means in vain. It is of no use then. You will not achieve Krsna prema which is the main objective of chanting.
kaivalyaṁ narakāyate tridaśa-pūr ākāśa-puṣpāyate durdāntendriya-kāla-sarpa-paṭalīṁ protkhāṭa-daṁṣṭrāyate viśvam pūrṇa-sukhāyate vidhi-mahendrādiś ca kīṭāyate yat-kāruṇya-kaṭākṣa-vaibhavavatāṁ taṁ gauram eva stumaḥ
Translation To one who has received the power of Gaura's merciful glance, liberation appears like hell, the heavenly worlds like so many pies in the sky; the unconquerable senses become like snakes with the fangs removed, the universe is filled with joy everywhere, while gods like Vidhi and Mahendra are seen as of no more significance than insects. I praise Gauranga Mahaprabhu. (Caitanya-candrāmṛta 95)
It is the opinion of Vaisnavas that attaining Kaivalya Mukti , Niranjan or nirakar is worse than hell. Kaivalya Mukti is worse. They are trying for liberation or salvation. The super most glorious thing is to attain Kṛṣṇa prema. We should take the maha-mantra from those who have such understanding that Kṛṣṇa prema is a supreme glorious thing. The various other parties are of different successions or they are speculated. Prabhupada is warning us that this should be avoided. Be aware!
The statement further has many more things that Prabhupada has sung. Prabhupada has explained the do's and don'ts of chanting the pure names of the Lord. Much more is there. Today we will stop here and tomorrow we will continue. Prabhupada has said many interesting quotes further. You will hear it in the next session. Thank you.
Hare Krishna