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हरे कृष्ण जप चर्चा पंढरपुर धाम से 21 मार्च 2021 गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल! सभी आत्माओं को हरि बोल। आज हमारे साथ 697 स्थानों से भक्त जप कर रहे है। हरि हरि। *जय जय श्री चैतन्य प्रभु नित्यानंद* *जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद* तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब रामकेली में गए तो उस लीला को हम सुन चुके है। तो जब वे रूप और सनातन से मिले और उनका उद्धार किया, उनको दीक्षा दी और दीक्षा के समय आदेश भी दिया की, परंपरा के कार्य को वृंदावन में सफल बनाओ! और वे महाप्रभु के कार्य को वृंदावन में करते रहे। तो यह दोनों प्रभु जो अभी-अभी प्रभु बने है, रूप और सनातन प्रभु, तो उसी परिवार के जीव गोस्वामी जो उनके परिवार के दूसरे वंशज रहेंगे वह भी जुड़ने वाले थे और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने रूप सनातन से यह भी कहा था कि, जो हम पहले सुन चुके है, चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी से वृंदावन जाने के लिए प्रस्थान किए थे, पहले उनको मिलना था नवद्वीप इत्यादि स्थानों के भक्तों को और फिर रामकेली भी गए और वहां पर रूप सनातन को मिले और फिर वहां से वृंदावन के लिए ही जा रहे थे। महाप्रभु वैसे कई स्थानों पर गए और एक आखिरी स्थान था यह रामकेली और वहां से अब सीधे वृंदावन जाना था, और महाप्रभु ने कहा था कि मैं वृंदावन जा रहा हूं और आप जो नवाब हुसैन शाह की सेवा कर रहे हो और उन्होंने आपको प्रधानमंत्री और अर्थमंत्री की पदवी आदि है तो उसको त्याग दो! और वृंदावन आओ! तो वह तैयारी कर रहे थे ताकि वह भी महाप्रभु को मिल सकते किंतु उनको थोड़ी देरी हुई वहां से प्रस्थान करने में तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जैसे हम पहले सुन चुके है की,वैसे उस वक्त पर नहीं गए पहले जगन्नाथपुरी गए और फिर झारखंड से होकर वृंदावन गए और कार्तिक मास के अंत में वृंदावन पहुंचे थे। और फिर मार्गशीर्ष और पौष में महाप्रभु केवल वृंदावन में रहे नहीं तो उन्होंने ब्रज मंडल परिक्रमा की और कुछ समय के लिए अक्रूर घाट पर ब्रजवास किया। और वहां से फिर प्रस्थान करने की योजना बनी और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को साथ में लेकर बलभद्र भट्टाचार्य जगन्नाथपुरी के लिए प्रस्थान की तो रास्तों में कई स्थान आए लेकिन कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने जिस का विशेष वर्णन किया है वह स्थान था प्रयागराज त्रिवेणी संगम की जय! तो मार्गशीर्ष पौष और माघ मास में महाप्रभु प्रयाग आए और इसी माघ मास में माघ मेला लगता है जो प्रति 12 वर्ष में कुंभ मेला होता है तो ऐसे ही एक प्रति वर्ष में माघ मेला होता है तो उस वक्त कई सारे तीर्थ यात्री माघ मेले में आकर वहां पर वास करते हैं, निवास करते है, ऐसी भी एक साधना है। तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब वहां पहुंचे थे तो चैतन्य चरित्रामृत में वर्णन है माघ मास यानी जनवरी महीने में कहो तो गंगा में थोड़ा ही जल बह रहा था किंतु महाप्रभु प्रयाग में गंगा के तट पर रह रहे थे। तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहा कीर्तन करने लगे और जैसे ही उन्होंने कीर्तन किया तो उसी के साथ गंगा में बाढ़ आ गई। हरिनाम की बाढ़ या फिर हरिनामामृत की बाढ़ *अवतीर्णे गौरचन्द्रे विस्तीर्णे प्रेमसागरे गोलोकेर प्रेमधन हरिनाम संकीर्तन* तो वहा एकत्रित हुए यात्री प्रेमामृत में स्नान कर रहे थे, हरिनामामृत में गोते लगा रहे थे। हरि हरि। तो गंगा में स्नान करना यह भी ऊंची बात है। गंगा तेरा पानी अमृत किंतु यह गंगा का पानी बस हमें मुक्त कर सकता है किंतु यह जो कृष्ण प्रेम का अमृत है या कृष्ण नाम का अमृत है यह हमें मुक्ति से भी ऊंची है भक्ति, तो वह हमें भक्ति प्रदान करता है। हरी हरी। तो रूप गोस्वामी और उनके भ्राता अनुपम उस समय रामकेली से प्रस्थान करके बंगाल और बिहार की यात्रा करते हुए उस समय के धर्म प्रदेश यानी उत्तर प्रदेश में प्रवेश किए और प्रयाग पहुंचते ही उन्होंने यह दृश्य देखा कि, महाप्रभु का महासकीर्तन हो रहा है तो आप समझ ही गए कि, क्योंकि वे थोड़ी देरी से पहुंचे इसीलिए वह महाप्रभु को वृंदावन नहीं मिले। महाप्रभु ने उनसे कहा था कि, वृंदावन आ जाओ वहां पर मिलेंगे और ईस्ट गोष्टी करके बताएंगे कि क्या करना है। तो और भी जुड़ जाएंगे तो कुछ नही भक्त जुड़े है उनको भी भेज दूंगा, लोकनाथ गोस्वामी या भूगर्भ गोस्वामी भी जुड़ गए है तो उनको भी भेजूंगा और मैं श्रीरंग में वेंकटभट्ट के पुत्र को मिला था तो वह भी आने वाले है तो इस प्रकार हम एक टीम बनाएंगे और उसका नेतृत्व आप करेंगे और वे सब रूपानूग बनेंगे यानी रूप गोस्वामी के अनुयायी। तो वृंदावन में रूप सनातन और महाप्रभु का मिलन होने के वजह प्रयाग में हो रहा है। और सनातन तो पीछे ही छूट गए क्योंकि नवाब हुसैन शाह ने उन्हें कैद कर लिया लेकिन रूप गोस्वामी मुक्त थे तो वे पहुंच गए और साथ में अनुपम भ्राता को लाए और वे दोनों श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का संकीर्तन सुनते ही होंगे। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।* *हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* तो यह हरे कृष्ण नाम गूंज रहा है सर्वत्र और उच्च स्वर में कीर्तन हो रहा है। स्वयं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु गा रहे है। *मेघ गंभीरया वाचा* जिनकी वाणी में कितनी गहराई होती है? मैं गंभीर या वाचा यानी जब कोई बादल गरजते है तो उनकी जो गरज होती है वह बहुत दूर तक सुनाई देती है तो ऐसे ही मेघ गंभीर या वाचा। तो सब दूर से ही सुन पा रहे थे और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वेनी माधव मंदिर के और जा रहे थे। जिसका नाम प्रयाग है प्रयाग मतलब यज्ञ भूमि वैसे गंगोत्री से प्रयाग तक कई यज्ञ स्थलिया है जहां पर अलग-अलग नदियों का संगम होता है तो वहां यज्ञ भूमि बन जाती है। तो कई यज्ञ भूमिया प्रयाग के पहले भी है किंतु यह प्रयाग, प्रयागराज कहलाता है। क्योंकि यहां गंगा यमुना और सरस्वती जैसी महान नदियों का संगम है। गंगा यमुना सरस्वती की जय! तो वेणी माधव मंदिर की ओर महाप्रभु कीर्तन करते हुए जा रहे थे तो रूप गोस्वामी और अनुपम दूर से ही देख रहे थे और सुन रहे थे। और जो कोई महाप्रभु को देखेगा और कीर्तन को सुनेगा और उन्हें देखेगा तो उसका भाव या मन की स्थिति का क्या कहना! *प्रेमे पाझरती लोचन आनंदले मन* तो उनका मन आनंद से भर गया था और आखो से अश्रूधारा बह रही थी और सभी अष्ट विकार स्पष्ट हो रहे थे। तो इस कीर्तन के उपरांत महाप्रभू एक सदगृहस्थ के निवास पर पहुंच गये धीरे धीरे सारी भीडभाड कम हो गई। जो कोई माघ मेले में आया था वह अपने निवास स्थान पर पहुंच गया। अब चैतन्य महाप्रभु अकेले ही थे और वहां पर एकांत था तो तब रूप गोस्वामी और अनुपम वहां पर पहुंच गए और जैसे ही प्रत्यक्ष उन्होंने देखा तो उन्होंने महाप्रभु को साष्टांग दंडवत प्रणाम किया। और प्रणाम करके जैसे वे उठ रहे थे तो हाथ जोड़कर और दांत में घास का तिनका धारण किए हैं मतलब आती विनम्र भाव के साथ वह उठ के खड़े हो रहे थे और इसी समय रूप गोस्वामी प्रार्थना कहे जो प्रसिद्ध प्रार्थना है, *नमो महावदान्याय कृष्णप्रे -प्रदायते ।* *कृष्णाय कृष्णचैतन्य-नाम्ने गौरत्विषे नम: ।।* *अनुवाद:- हे परम उदार अवतार! श्रीचैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए आप स्वयं श्रीकृष्ण हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौरवर्ण स्वीकार किया है और आप सभी को श्रीकृष्ण-प्रे वितरित कर रहे हैं। मैं आपको सादर नमन करता हूँ।* सुने होना यह प्रार्थना? अगर नहीं सुने हो तो यह जीवन बेकार है! और सुने हो तो समझे भी हो क्या? कि क्या है यह प्रार्थना, क्या कहा रूप गोस्वामी प्रभुपाद? तो अब तो हम नहीं कहेंगे पहले कह चुके है। हरि हरि। हम लोग कहते रहते हैं कोटि-कोटि दंडवत प्रणाम महाराज। कहते हैं, या लिखते हैं। लेकिन एक भी दंडवत नहीं करते! कितने दंडवत? कोटि-कोटि दंडवत! और साष्टांग दंडवत कहते हैं। जिसमें मन भी होता है, या होना चाहिए। फिर वाचा भी है, शरीर तो दंडवत कर रहा है लेकिन मन या वाणी प्रणाम नहीं कर रही तो ऐसा साष्टांग दंडवत प्रणाम अधूरा है, अपूर्ण है, त्रुटिपूर्ण है और अपराध पूर्ण भी है। ऐसे भक्ति रस अमृत सिंधु में रूप गोस्वामी लिखे है। जब हम प्रणाम करते हैं जो साष्टांग या पंचांग प्रणाम होता है तब प्रणाम मंत्र कहना चाहिए। तो रूप गोस्वामी बार बार प्रणाम कर रहे थे और प्रार्थना भी कर रहे थे। बहुत सारे प्रणाम के उपरांत रूप गोस्वामी को महाप्रभु ने, स्वयं भगवान ने उनका स्वागत किया और उनको बिठाया है। लेकिन रूप गोस्वामी थोड़ा दूर ही बैठे हैं तो फिर पूछताछ होती है कि, सनातन गोस्वामी नहीं आए कुछ समस्या है? उनको कैद किया है ऐसा रूप गोस्वामी बताते है। और महाप्रभु जानते थे कि अब सनातन गोस्वामी कारागार से मुक्त हो चुके है। यह महाप्रभु जानते थे, कैसे जानते थे? क्योंकि षडऐश्वर्या पूर्ण है भगवान! वह भगवान सब कुछ जानते है, *वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।* *भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥* *अनुवाद:- हे अर्जुन! श्रीभगवान होने के नाते मैं जो कुछ भूतकाल में घटित हो चुका है, जो वर्तमान में घटित हो रहा है और जो आगे होने वाला है, वह सब कुछ जानता हूँ। मैं समस्त जीवों को भी जानता हूँ, किन्तु मुझे कोई नहीं जानता।* ऐसा भगवान श्री कृष्ण भगवत गीता में कहे हैं की, सब जीवोंके भूतकाल, भविष्य और वर्तमान को मैं जानता हूं! तो ऐसे भगवान को मेरा बार-बार प्रणाम है तो रूप गोस्वामी को पता नहीं था कि, सनातन गोस्वामी कारागार से मुक्त हुए है या उन्होंने स्वयं को मुक्त किया है वह भी एक लीला कथा है। वह मुक्त हुए और वृंदावन की ओर प्रस्थान कर ही रहे थे, वृंदावन के रास्ते में थे। तब चैतन्य महाप्रभु ने उनसे पूछा सनातन कहां है? क्यों नहीं आए? चैतन्य महाप्रभु जानते थे कि सनातन वृंदावन के रास्ते में हैं। हरि हरि। वल्लभाचार्य संप्रदाय के वल्लभाचार्य उसी स्थान पर पहुंच गए। तो यह चैतन्य महाप्रभु के समकालीन रहे। इनकी कई कथाएं की बैठके होती है, पंढरपुर में भी एक है। वह उनको भी महाप्रभु कहते थे। महाप्रभु कहना तो नहीं चाहिए था, महाप्रभु तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु है। किंतु वल्लभाचार्य को उनके संप्रदाय वाले महाप्रभु कहते हैं। हमारे इस्कॉन पंढरपुर से कुछ 200 गज की दूरी पर है। चंद्रभागा के तट पर एक बैठक है। शायद उनकी 84 अलग अलग बैठके हैं। वह जहां जहां पर भागवत कथा बैठकर किए, तो वह स्थान बैठक के रूप में प्रसिद्ध हुआ। जब चैतन्य महाप्रभु प्रयाग आए थे। उन दिनों वल्लभाचार्य प्रयाग में रहते थे। चैतन्य महाप्रभु से मिलने के लिए आए थे। तब चैतन्य महाप्रभु ने वल्लभाचार्य को परिचय कराया यह रूप और अनुपम है। वे कौन थे और कैसे हैं, स्वयं कृष्ण चैतन्य महाप्रभु रूप गोस्वामी का परिचय दे रहे हैं। अपने भक्त का परिचय दे रहे हैं। अपने भक्त की गौरव गाथा गा रहे हैं। बड़े ही गर्व के साथ कह रहे हैं कि यह रूप गोस्वामी हमारे भक्त हैं। रूप गोस्वामी का भगवान को अभिमान है। जब वल्लभाचार्य ने रुप और अनुपम का गुणगान सुना। तब वल्लभाचार्य उठे और उनके पास जाकर उनके चरणों को छूना चाहते थे या आलिंगन देना चाह तो रहे थे। किंतु रुप गोस्वामी झट से उठे और दूर जाने लगे, दौड़ने लगे। ना ना हम तो अछूत है, हम तो अधम है, हमको स्पर्श नहीं करना, हमसे दूर रहो। यह रूप गोस्वामी की विनम्रता थी। वे ऐसा सोच रहे थे कि कहां वल्लभाचार्य ब्राह्मण परिवार के और वैसे हम भी ब्राह्मण परिवार के थे। लेकिन मुस्लिम राजा के हम नौकर चाकर बने, मंत्री बने। हमारा पतन हुआ, इनके स्पर्श के हम योग्य नहीं है। हरि हरि। *तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः॥* *अनुवाद :-स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, मिथ्या मान की भावना से सर्वथा शून्य रहकर दूसरों को सदा ही मान देने वाला होना चाहिए। ऐसी मनः स्थिति में ही वयक्ति हरिनाम कीर्तन कर सकता है। न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।* यह श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का एक वचन है। उसका उदाहरण रूप गोस्वामी है। *तृणादऽपि सुनीचेन* कौन है? रूप गोस्वामी है। *अमानिना मानदेन* कौन है? रूप गोस्वामी है। ऐसे रूप गोस्वामी है। *कीर्तिनिय सदा हरि* तो चल ही रहा है। यही प्रयाग में ही गंगा के तट पर एक द्शाशमेध नाम का घाट है। जो वाराणसी में भी है। द्शाशमेध घाट – दस अश्वमेध घाट। तो उस घाट पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने रूप गोस्वामी को दस दिनों तक उपदेश दिया। अपना संग दिया, वार्तालाप हुआ, संवाद हुआ, शिक्षा दी और फिर रूप गोस्वामी को वृंदावन भेजा। पहले ही कहा था तुमको वृंदावन जाना है। तुम वृंदावन जाओ और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को जगन्नाथ पुरी जाना था। जगन्नाथ पुरी के लिए प्रस्थान तो किए किंतु चैतन्य महाप्रभु प्रयाग से वाराणसी पहुंचे। ज्यादा दूर नहीं है, 100–150 किलोमीटर होगा। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रयाग से पूर्व दिशा में वाराणसी आए। चैतन्य महाप्रभु, चंद्रशेखर आचार्य के निवास स्थान पर रहे। वहां से तपन मिश्रा के घर पर भिक्षा या प्रसाद ग्रहण करने के लिए भी जाया करते थे। यह तपन मिश्रा रघुनाथ भट्ट गोस्वामी के पिताश्री थे। एक रघुनाथ दास गोस्वामी है, वह बंगाल के थे। रघुनाथ भट्ट गोस्वामी का वाराणसी में जन्म हुआ था। वैसे तपन मिश्रा बांग्लादेश या बंगाल के ही थे। तो सनातन गोस्वामी वाराणसी पहुंच गए और चंद्रशेखर ने वर्णन किया है। वह चंद्रशेखर के घर के सामने आकर बैठ गए। तब चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि कोई भक्त आए हैं, उनको लेकर आओ। तो चंद्रशेखर गए लेकिन उनको भक्त तो नहीं दिखाई दिया। ऐसी सनातन गोस्वामी की वेशभूषा थी। अभी तो गोस्वामी नहीं बने हैं। उन्होंने कहा नहीं नहीं, वहां पर कोई नहीं है। ऐसा वैष्णव या कोई भक्त तो नहीं है। नहीं नहीं कोई है ना ? उसी को बुलाओ, वही तो है। उनको भुलाया तो वह सनातन थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़ते हैं, उन्हें गले लगाना चाहते हैं, दिल से स्वागत करना चाहते हैं। किंतु सनातन उनकी वेशभूषा के कारण से दूर रहना चाहते हैं। हरि हरि। वहां पर काफी सनातन गोस्वामी और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का वर्णन है। मुख्य बात तो यह है कि बहुत सारी बातें तो है। किंतु चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी के साथ 2 महीने बिताएं। प्रतिदिन शिक्षा प्रदान करते थे, शिक्षा देते थे। तो यह सनातन शिक्षा के नाम से प्रसिद्ध है। प्रयाग में रूप गोस्वामी को शिक्षा दी। वो संक्षिप्त में थी। किंतु सनातन गोस्वामी के साथ 10 दिनों तक चलती रही। अब 2 महीने चैतन्य महाप्रभु सनातन गोस्वामी को उपदेश और शिक्षा देंगे। जिसका वर्णन चैतन्य चरितामृत के मध्य लीला के अंतिम चार या पांच अध्याय में हैं। आपने क्या सुना? इतना विस्तार से सुननी की जरूरत तो नहीं है, मध्य लीला कह रहे है, कुछ अध्यायो का नाम ले रहे हैं। तो चैतन्य चरितामृत बांग्ला भाषा में है। श्रील प्रभुपाद ने कृपा करके इसका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया ही है। आप अंग्रेजी जानते ही हो। अब तो मराठी में भी चैतन्य चरितामृत उपलब्ध है। यही तो समस्या थी, चैतन्य चरितामृत से सारा संसार वंचित था क्योंकि बांग्ला भाषा में इसको लिखा था। लेकिन जैसे ही यह अनुवाद अंग्रेजी में हुए और कई भाषाओं में हुए। हिंदी में आप पढ़ सकते हो। यहां तक कि चाइनीस भाषा में भी उपलब्ध है। धीरे धीरे कुछ भाषा में अनुवाद हो चुका है। कुछ भाषा में अनुवाद होना है। इस मध्य लीला के 19 और 20 अध्याय शिक्षा में दी गई है। उसके उपरांत शिक्षा 21 से 25 तक, यह 5 अध्यायों में शिक्षा है। बड़ी ही महत्वपूर्ण शिक्षा है। इसको जरूर पढ़ना चाहिए। ऐसी ऊंची, गहरी और गंभीर शिक्षा है। यह शिक्षा है, गोपनीय शिक्षा है इसीलिए चैतन्य चरितामृत को स्नातकोत्तर अध्यन (पोस्टग्रेजुएट स्टडी) कहा गया है। श्रीमद्भागवत को स्नातक (ग्रेजुएशन) कहा गया है। पोस्ट ग्रेजुएशन का पाठ्यक्रम है। जिसके आधार पर श्रील प्रभुपाद अपनी कथा और प्रवचन कई बार कई बार किया करते थे। सनातन गोस्वामी ने प्रश्न पूछा। मैं कौन हूं और ना जाने क्यों तीन प्रकार के कष्ट है? आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक हमको भोग नहीं पढ़ते हैं। क्यों भुगतना पड़ता है? ऐसी जिज्ञासा सनातन गोस्वामी की रही। तो यहां से यह शिक्षा कहो या शिक्षा कहो प्रारंभ होती है। *अथातो ब्रह्म जिज्ञासा* इसको वेदांत सूत्र कहता था। मनुष्यो को जिज्ञासु होना चाहिए और क्या बाजार भाव चल रहा है? यह जिज्ञासा जो पशुवत मनुष्य है, पापी है और बड़ा दुराचारी है। ऐसी चर्चा करते रहेंगे। लेकिन यह ब्रह्म जिज्ञासा, मनुष्यों को भक्ति भाव की चर्चा करते रहना चाहिए। तो सनातन गोस्वामी ऐसी चर्चा कर रहे हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु उसके विस्तार से उत्तर दिए हैं। इसे अग्रिम अध्यन (एडवांस स्टडी) कहो। कृष्ण और अर्जुन का कुरुक्षेत्र में संवाद हुआ था। तो भगवत गीता को श्रील प्रभुपाद प्राथमिकता शिक्षा कहते थे। कृष्ण अर्जुन का भी संवाद है और आगे का अग्रिम अध्यन (एडवांस स्टडी) है। हम भी पढ़ना चाहिए, तभी हम गौडीय वैष्णव बनेंगे। हरि हरि। वाराणसी में एक मायावादी प्रकाशानंद सरस्वती भी थे। *मायावादी कृष्ण अपराधी निराकार निर्गुणवादी* जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु सन्यासी बने हैं। वह अपनी भावुकता का प्रदर्शन कर रहे हैं। कीर्तन क्या करते हैं, नाचते क्या है, गाते क्या हैं? यह सन्यासी के लिए थोड़ी शोभा देता है? सन्यासी को तो वेदांत के अध्ययन में जीवन व्यतीत करना चाहिए। जैसा हम रूबाब के साथ करते हैं। प्रकाशानंद सरस्वती और उनके 60 हजार अनुयायी थे। यह कैसा संयासी है, जो वेदांत का अध्यन नहीं करता है? केवल हरे कृष्ण हरे राम करता है और जनता में नाचता रहता है। फिर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की प्रकाशानंद सरस्वती के साथ बैठक हुई, ईशठ गोष्टी हुई, शास्त्रार्थ हुआ। आप कीर्तन क्यों करते हो? *गुरु मोरे मूर्ख देखी करिला शासन* चैतन्य महाप्रभु ने कहा गुरु ने तो मुझे मूर्ख समझा है और कहा है कि हे बेटा! हे शिष्य! तुम और किसी काम के नहीं हो। यह तो कलयुग भी है। *बृहन्नार्दीय पुराण में आता है–* *हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलं|* *कलौ नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव गतिरन्यथा||* *अनुवाद:- कलियुग में केवल हरिनाम, हरिनाम और हरिनाम से ही उद्धार हो सकता है| हरिनाम के अलावा कलियुग में उद्धार का अन्य कोई भी उपाय नहीं है! नहीं है! नहीं है!* ऐसे मेरे गुरु ने मुझको समझाया है। तब से मैं कीर्तन कर रहा हूं। यह कलयुग का धर्म है। तो वहां मायावदी को परास्त करने के जो वचन है। चैतन्य महाप्रभु ने कई शास्त्रों के वचन प्रस्तुत करते हुए, प्रकाशानंद सरस्वती के वचनों को उनके विचारों को परास्त किया है। हरिनाम संकीर्तन धर्म की स्थापना या हरिनाम संकीर्तन ही सर्वोपरि है। इसको सिद्ध किया और प्रकाशानंद सरस्वती मान गए और अपने 60000 शिष्यों के साथ चैतन्य महाप्रभु की शरण ली और चैतन्य महाप्रभु की शरण लेना मतलब हरीनाम की शरण ले ली। वह भी समझ गए कि इस ब्रह्मांड में हरिनाम से बढ़कर और कोई नहीं है। तो प्रकाशानंद सरस्वती के अनुयायी चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी बन गए। वे स्वयं भी हरिनाम संकीर्तन कर भी रहे थे और प्रचार भी करने लगे। देखिए कितना प्रचार प्रसार हुआ होगा। जब प्रकाशानंद सरस्वती चैतन्य महाप्रभु के भक्त या शिष्य बन गए। तो अब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी के रास्ते में है। वाराणसी से जगन्नाथ पुरी लौटे हैं। जगन्नाथ पुरी धाम की जय। इसी के साथ मध्य लीला का समापन हुआ। हम आदि लीला भी सुना रहे थे। मध्य लीला की थोड़ी अधिक चर्चा हुई। अब चैतन्य महाप्रभु नहीं आएंगे जाएंगे। 18 वर्ष जगन्नाथ पुरी में ही रहेंगे। वहां उनकी लीलाएं संपन्न होंगी। उन लीलाओं को गौर पूर्णिमा तक याद करेंगे। हरी हरी। हरे कृष्ण!

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