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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक २२.०३.२०२१
732 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं।राम नाम के हीरे मोती मैं बिखराऊं गली गली।राम नाम का, हरि कथा का या गोर कथा का वितरण करते रहिए।यह कथा सुन रहे हो तो सुनाओ भी।आप सब जप करो, गौर कथा करो,कीर्तन करो। सुनो और सुनाओ।गोर पूर्णिमा अब दूर नहीं है। आज 22 तारीख है और 28 को गौर पूर्णिमा हैं।केवल 28 तारीख को ही गौर पूर्णिमा नहीं मनानी हैं।हम तो बहुत समय से जप करते ही हैं।तो जप करना भी गौर पूर्णिमा उत्सव मनाना ही हैं। हम सब ने अभी जप तो किया ही हैं,कथा और कीर्तन भी करेंगे। वैसे कई भक्त तो मायापुर भी पहुंच गए हैं। नवदीप मंडल परिक्रमा भी कर रहे हैं। कीर्तन मेला भी हो गया है। ऑनलाइन भी चल रहा था। तो क्या सुना आपने? हरि हरि।।
धीरे-धीरे मैं और भी कुछ आपको सुनाने वाला हूँ। कुछ स्मरण हो रहा हैं और उसे बांटने की इच्छा हो रही है। एक बहुत बड़ी घटना जो कि मेरे जीवन में घटी। कैसे मैं रघुनाथ से लोकनाथ बन गया। यह बात है 1971 के मार्च महीने कि।तारीख 25 थी। सायं काल का 6:00 बजे का समय था। उस दिन में श्रील प्रभुपाद को पहली बार मिला। तो उस की 50वीं सालगिरह होने वाली है। कह सकते हैं की 50 वीं वर्षगांठ आने वाली हैं। अंग्रेजी में एनिवर्सरी कहते हैं। मेरा जो श्रील प्रभुपाद से मिलन हुआ या कह सकते हैं कि मुझे जब श्रील प्रभुपाद के प्रथम दर्शन हुए,उसके 50 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं।50वीं सालगिरह होने वाली हैं। उसकी गोल्डन जुबली है।यह उत्सव 1971 में 25 मार्च से 4 अप्रैल तक चला था। मैं प्रतिदिन उस उत्सव में सम्मिलित होता रहा और अमरीकी और यूरोपीयन साधुओं द्वारा किया गया कीर्तन सुनता रहा और श्रील प्रभुपाद का प्रवचन में प्रतिदिन सुन रहा था और वही से कृष्ण भावनामृत को सीखने और समझने की शुरुआत हुई और वही पर मैंने अपने मन में निश्चय कर लिया कि श्रील प्रभुपाद ही मेरे गुरु होंगे। उसी उत्सव में वहां जो काउंटर था वहां से मैंने जपमाला भी ली थी।वहां ग्रंथ के वितरण का भी मेज लगा हुआ था वहां से मैंने श्रील प्रभुपाद के ग्रंथ खरीद लिए थे।तो यह शुभारंभ था और इसी को चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी को वाराणसी में कहा हैं, वैसे तो चैतन्य महाप्रभु की बहुत सारी शिक्षाएं है पर उन्हीं में से एक शिक्षा जो थी वह यह है कि
brahmāṇḍa bhramite kona bhāgyavān jīvaguru-kṛṣṇa-prasāde pāya bhakti-latā-bīja
(चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 19.151)
मैं जो इस ब्रह्मांड में भ्रमण करते हुए गोल गोल घूम रहा था,उस पर श्रील प्रभुपाद ने रोकथाम लगाया और मेरे भाग्य का उदय हुआ। यह 50 वर्ष पूर्व की बात हैं। 50 वर्ष पूरे होने में कुछ ही दिन शेष हैं।बस कुछ ही दिनों में 50 वर्ष पूरे हो जाएंगे।वह उत्सव भी आ ही रहा हैं।वह उत्सव हैं "हरे कृष्ण उत्सव,क्रॉस मैदान चर्चगेट स्टेशन के पास मुंबई"। गोर पूर्णिमा उत्सव और साथ ही साथ मेरे लिए 1971 का हरे कृष्ण उत्सव,यह दोनों उत्सव एक साथ संपन्न होने जा रहे हैं।1971 हरे कृष्णा उत्सव वाली सिर्फ एक सूचना आपको दे रहा हूं। इसे बताए बिना मुझसे रहा नहीं गया। मैने घोषणा तो कर दी हैं देखते हैं क्या होता हैं। शिष्य मंडली 1971 वाले हरे कृष्ण उत्सव को मनाने के लिए कोई कार्यक्रम तो बना रही हैं।इस उत्सव को कैसे मनाएंगे उसकी घोषणा भी अगले कुछ दिनों में यहां हो जाएगी तो तब तक या गौर पूर्णिमा तक जैसे हम पिछले कई दिनों से चर्चा कर रहे हैं वैसे ही भगवान की लीलाओं पर चर्चा करते रहेंगे।
जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद
जय अद्वैत चंद्र जय गौरव भक्त वृंद
(चैतन्य चरितामृत अंत: लीला 1.8)
हर कथा के प्रारंभ में हम ऐसा क्यों कहते हैं?कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने चैतन्य चरित्रामृत को लिखते हुए हर अध्याय के प्रारंभ में ऐसा लिखा हैं,इसलिए हम भी यह प्रार्थना करते हैं।इसके माध्यम से हम अपनी प्रार्थनाओ को महा प्रभु के चरणों में,नित्यानंद प्रभु के चरणों में,अद्वैत आचार्य के चरणों में और सभी गौर भक्त वृंद के चरणों में अर्पित करते हैं ताकि उनकी लीलाएं हमारे समक्ष प्रकट हो सके।महाप्रभु नवद्वीप में 24 वर्ष तक रहे,यह हम संक्षिप्त में सुन चुके हैं।फिर मध्य लीला में हम सुन चुके हैं कि अगले 6 वर्षों तक उन्होंने भ्रमण किया। हमें इन लीलाओं को ना सिर्फ सुनना है बल्कि यह भी स्वीकार करना है कि चैतन्य महाप्रभु स्वयं कृष्ण हैं।
श्री कृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नाहीं अन्य
(श्री गुरु परंपरा 6)
गौरांग महाप्रभु राधा कृष्ण से भिन्न नहीं हैं। हरि हरि ।।
नवद्वीप में श्रीवास ठाकुर के आंगन में उन्होंने 21 घंटे तक एक महा प्रकाश लीला प्रकट की। जब कोई भक्त महाप्रभु को कहते कि आप भगवान हैं आप कृष्ण हैं तो निमाई स्वीकार नहीं करते थे।वह अपने काम बंद कर लेते थे। वह यह सुनना नहीं चाहते थे कि वह भगवान हैं। लेकिन उन्होंने एक दिन स्वयं ही बोला कि आप लोग कहते रहते हैं कि मैं भगवान हूं, मैं भगवान हूं। मैं छुपाने का प्रयास तो कर रहा हूं लेकिन उसमें सफल नहीं हो रहा हूं।क्या सूर्य को कोई छुपा सकता हैं?जैसे सूर्य को छुपाया नहीं जा सकता वैसे ही कृष्ण सूर्य सम हैं या कृष्ण चैतन्य सूर्य के समान हैं। तो उन्हें कौन छुपा सकता हैं। और कौन उनके भगवद्ता को छुपा सकता हैं। उनका प्रयास तो रहा लेकिन उनका प्रयास सफल नहीं हो रहा था। उन्होंने 1 दिन कहा कि ठीक है ,ठीक है। आप सब लोग समझ ही रहे हो कि मैं भगवान हूं तो चलो जो असलियत है उसको प्रकट कर ही देते हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि चलो सब को बुलाओ। सारे नवदीप मंडल के भक्तों को श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने बुलाया। एक एक को याद करके। इसको बुलाओ,उसको बुलाओ। असंख्य भक्त जब वहां एकत्रित हुए तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने 21 घंटे तक बिना रुके अपनी भगवद्ता का प्रदर्शन किया और वहां पर उपस्थित हर भक्त को भगवद् साक्षात्कार कराया। ऐसे ही होता है कि भगवान स्वयं ही कराना चाहते हैं। और हमें भी भगवत साक्षात्कार स्वयं ही कराना चाहेंगे।भगवान स्वयं कहेंगे कि मैं आपको भगवद् साक्षात्कार ,कृष्ण साक्षात्कार कराता हूं।भगवान जब चाहेंगे तो सबको छप्पर फाड़ कर भगवद् साक्षात्कार हो सकता हैं।वैसे भी जब भगवत साक्षात्कार होता है तो हमारी मर्जी से नहीं होता।हमारे प्रयास जरूर होते हैं किंतु अंततोगत्वा भगवान की इच्छा से या भगवान की मर्जी से भगवान जब हमारा चयन करते हैं तो ही हमें भगवत साक्षात्कार होता है।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्
(मुकुंद उपनिषद 3.2.3)
भगवान का साक्षात्कार बहुत अधिक श्रवण करने से भी नहीं होगा। तो कैसे होगा भगवान का साक्षात्कार? जब भगवान स्वयं चयन करेंगे। जब हमारा चयन होगा। उस दिन भगवान ने सभी चयनित भक्तों को अपनी भगवद्ता का प्रदर्शन किया। दूसरे शब्दों में श्रीवास ठाकुर के प्रांगण में जो उपस्थित भक्त थे उन सभी को भगवद् साक्षात्कार और आत्मसाक्षात्कार यह दोनों साक्षात्कार एक ही साथ हुए। यह एक ही साथ होते हैं और होने चाहिए। मैं कौन हूं और भगवान कौन है और हमारा भगवान से क्या संबंध हैं।यह संबंध ज्ञान हैं। यहां संबंध भी हो गया,अभिधेय भी हो गया और प्रयोजन भी हो गया।एक स्तर पर पहुंच कर कृष्ण साक्षात्कार या आत्मसाक्षात्कार होता हैं। मैं यह शरीर नहीं हूं। मैं आत्मा हूं और भगवान परमात्मा हैं।परमात्मा या
एते चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥ (श्रीमद् भागवतम 1.3.28)
कृष्ण स्वयं भगवान है और मैं उन का दास हूं या जो भी हूं
निरोधोऽस्यानुशयनमात्मन: सह शक्तिभि:।
मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थिति:॥
श्रीमद् भागवतम 2.10.6
जो 8400000 योनियों है उन को त्याग कर,यह मानव शरीर जो हमने धारण किया है उसको भी त्याग कर,यहा पर ऐसा नहीं है कि अंतिम संस्कार करना पड़ेगा शरीर तो हैं लेकिन इस भाव को त्यागना है कि मैं यह शरीर हूं और यह स्वीकार करना है कि मैं इस शरीर से भिन्न हूं। मैं आत्मा हूं।इस बात को समझना ही आत्मसाक्षात्कार हैं।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने बताया हैं कि भगवद् साक्षात्कार और आत्मसाक्षात्कार करने का किस-किस को अधिकार हैं। सभी को ही है। आप सभी को अधिकार हैं। आप अधिकारी हो। आप योग्य हो। हमारे पुणे के लोकमान्य तिलक ने कहा हैं कि स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार हैं। स्वतंत्रता संग्राम में वह ऐसे भाषण ठोकते थे। जब वह मैदान में उतरे थे तो कहते थे स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। स्वतंत्र राज्य में रहने का मुझे अधिकार है और उस अधिकार को मैं प्राप्त करके ही रहूंगा। उन्होंने जो भी कहा सच नहीं कहा या कुछ सच्चाई हो भी तो हमे उससे कया।हमें तो माया से स्वतंत्र होना हैं।हम माया के तंत्र या बंधन में फंसे हैं।देश स्वतंत्र हो भी गया तो क्या हो गया। अंग्रेज राज नहीं रहा।छोड़ो भारत के नारे लगे। फिर इंदिरा राज आ गया। तो क्या फर्क पड़ा।राम का राज्य तो नहीं आया, रावन का ही आया।कली का राज्य आ गया। तो देखा जाए तो हम स्वतंत्र तो नहीं हैं। इसलिए श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद ने कहा था कि देश को स्वतंत्र करना कोई मुख्य बात नहीं हैं। कुछ लोगों को करना है तो उन्हें करने दो। लेकिन अब से तुम्हें यह करने की आवश्यकता नहीं हैं। 1922 की बात है जब भक्ति सिद्धांत सरस्वती से प्रभुपाद पहली बार मिले थे।अभी अभी कुछ देर पहले मैंने आपको मेरी पहली मुलाकात बताई थी मेरे गुरु महाराज से। यह मेरे गुरु महाराज की पहली मुलाकात थी उनके गुरु महाराज से। 1971 में मेरी मुलाकात प्रभुपाद से हुई या मुझे प्रभुपाद के प्रथम दर्शन हुए।जब 1922 में श्रील प्रभुपाद को भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज के प्रथम दर्शन हुए थे तो उस वक्त सरस्वती ठाकुर ने प्रभुपाद को यह कहा था।
प्रभुपाद उस समय खादी वस्त्र पहनना शुरू करने ही लगे थे और गांधी के अनुयाई बनने लगे थे।उस समय प्रभुपाद सुभाष चंद्र बोस की सभा में भी जाया करते थे।वह उस समय युवा थे और देश को स्वतंत्र करना है ऐसे नारे लगा रहे थे। श्रील प्रभुपाद उसी चेतना में आ रहे थे कि मैं देशभक्त होकर देश को स्वतंत्र करवाऊंगा। तो उस समय श्रील प्रभुपाद ने श्रील भक्तिसिद्धांत ठाकुर प्रभुपाद को कहा था कि पहले हमको हमारे देश को स्वतंत्र करना होगा। धर्म कार्य तो बाद में भी देखे जा सकते हैं। उस समय श्रील भक्ति सिद्धांत महाराज ने उन्हें कहा था कि नहीं कृष्णभावनामृत कों मुख्य प्रधानता मिलनी चाहिए। आत्मसाक्षात्कार को प्रधानय होना चाहिए। यही एक मनुष्य का प्रथम कर्तव्य हैं।
बाकी तो संसार में परिवर्तन होते ही रहते हैं कि कौन सी सरकार आएगी,जाएगी। हरि हरि।। यह बहुत ही महत्वपूर्ण संवाद हैं। इसको आप सभी को समझना चाहिए। यह वर्ष श्रील प्रभुपाद के जन्म का 125 वां वर्ष हैं।इस्कॉन प्रभुपाद कि 125 वी वर्क वर्षगांठ मना रहा हैं। तो हमें अधिक से अधिक प्रभुपाद भावनाभावित होना चाहिए। हमें श्रील प्रभुपाद के चरित्र को या उनके कार्यों को,उनकी जीवनी को और उनकी शिक्षाओं को समझना चाहिए। इस वर्ष हमें अधिक से अधिक प्रभुपाद लीलामृत का अध्ययन करना हैं क्योंकि यह प्रभुपाद के जन्म की 125 वर्षगांठ हैं।इसे हम पूरे साल मनाएंगे। 1922 में भक्ति सिद्धांत सरस्वती और अभय बाबू के बीच में जो संवाद हुआ उसकी हम चर्चा कर रहे हैं।
श्रील प्रभुपाद उस समय 26 साल के थे जब वह अपने गुरु महाराज से मिले थे। और मैं जब अपने गुरु महाराज से मिला तो मैं 22 साल का था। उस पहली मुलाकात के लिए अभय बाबू अपने एक मित्र नरेंद्र मलिक के साथ गोडीय मठ गए थे।श्रील प्रभुपाद उस समय भक्ति सिद्धांत महाराज से मिलने के लिए तैयार नहीं थे।उन्होंने अनेकों पाखंडी साधुओं को देख रखा था।उनके मित्र उनहे वहां जबरदस्ती ले गए थे।पहली ही मुलाकात में भक्ति सिद्धांत ठाकुर ने श्रील प्रभुपाद को आदेश दिया कि तुम तो बड़े बुद्धिमान लगते हो।तुम पाश्चात्य देशों में अंग्रेजी भाषा में कृष्णभावनामृत का,चैतन्य महाप्रभु के मिशन का प्रचार करो।अभय अभी अभी आकर प्रणाम करके बैठने ही लगे थे तो उन्होंने तुरंत कहा तुम बुद्धिमान हो,अंग्रेजी भाषा में कृष्णभावनामृत का प्रचार करो।यह दोनों ही मित्र भक्ति सिद्धांत महाराज को मिलने के बाद अपने-अपने घर लौटते हुए आपस में चर्चा कर रहे थे।अभय बाबू और उनके मित्र दोनों ही बड़े प्रभावित थे। एक ही मुलाकात में अभय बाबू का जो दृष्टिकोण था कि वे देश को स्वतंत्र करेंगे,गांधी के अनुयाई बनेंगे,सुभाष चंद्र बोस कि देश को स्वतंत्र करने में मदद करेंगे वह बदल गया।जो बहुत सारी योजनाएं उन्होंने बना रखी थी,वह उन सब विचारों से तुरंत ही मुक्त हो गए। प्रभुपाद जब हम भक्तों से बाद में बात किया करते थे तो बताया करते थे कि मैंने उस मुलाकात के बाद मन बना लिया था कि जिन से आज मैं मिला हूं,यही मेरे गुरु होंगे।हरि हरि।।
तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने वहां जो भी उपस्थित थे उनका चयन करके उन्हें वहां बुलाया था और जो वहां नहीं आ पाए थे उन्हें भी बुला बुलाकर अपनी भगवद्ता का साक्षात्कार कराया था।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही स्वयं भगवान हैं,इसका दर्शन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उस दिन सभी को दिया। ऐसी लीलाएं नवदीप मायापुर में संपन्न हो रही थी ।इस लीला को महा प्रकाश लीला कहते हैं।इसका नाम याद रखिएगा। महा प्रकाश लीला जो 21 घंटों तक चलती रही। 21 घंटों तक महाप्रभु का भगवान कृष्ण के रूप में दर्शन हो रहा था। अलग-अलग दर्शन भी हो रहा था।जिसका जैसा भाव था उसे वैसे ही दर्शन हो रहे थे।मुरारी गुप्त ने जब दर्शन किया तो उन्हें तो चैतन्य महाप्रभु के स्थान पर राम जी दिख रहे थे और जब उन्होंने अपनी और देखा तो वह स्वयं हनुमान बने थे। रामलीला के हनुमान जी मुरारी गुप्त के रूप में प्रकट हुए थे। उनको जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु दर्शन दे रहे थे तो राम जी के रूप में दर्शन दे रहे थे क्यों क्योंकि हनुमानजी किसका दर्शन पसंद करते हैं? राम जी का। मुरारी गुप्त को कहा गया था कि हम सब कृष्ण की भक्ति करते हैं तो तुम भी कृष्ण भक्ति करो। एक दिन भक्तों ने एक सभा में मुरारी गुप्त को बुलाया और उनसे कहा कि हम सब कृष्ण के भक्त हैं और तुम अकेले ही राम की भक्ति करते हो। उस दिन तो मुरारी गुप्त ने ठीक है कह दिया था। कि ठीक है मैं कृष्ण भक्त होने कि कोशिश करता हूं।फिर उन्होंने कोशिश की, प्रयास किया राम को भूलने का और कृष्ण भक्त बनने का और कृष्ण का स्मरण करने का परंतु पूरी रात उनको नींद नहीं आई। उनको तो केवल राम ही राम याद आ रहे थे। "जय श्रीराम।। जय श्रीराम"।। अब हनुमान जो थे तो हनुमान जी तो राम ही को याद करेंगे।इनका निवास स्थान मायापुर में ही था,आज भी मायापुर में हैं।जब हम अंतर द्वीप की परिक्रमा में जाते हैं तो मुरारी गुप्त के निवास स्थान पर भी हम जाते हैं । दूसरे दिन जब मुरारी गुप्त पुण: भक्तों से मिले तो उन्होंने भक्तों को कहा कि मुझे माफ करना। मैंने प्रयास तो किया पर मैं राम को भूल नहीं सका।मैं राम की भक्ति को नहीं छोड़ सकता और यही है कि
निरोधोऽस्यानुशयनमात्मन: सह शक्तिभि:
मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थिति:॥
(श्रीमद् भागवतम 2.10.6)
जब हम अपने स्वरूप में स्थित हो जाते हैं तो उस स्वरूप में जब भगवद् साक्षात्कार होता है तो हमारे जो इष्टदेव हैं उन्हीं का दर्शन होता हैं और उन्हीं के साथ हमारा संबंध स्थापित होता हैं। उस महा प्रकाश लीला में ऐसी कई घटनाएं घट रही थी जिस का विस्तृत वर्णन चैतन्य भागवत में आता हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने 24 वर्ष नवदीप में लीला की और 6 साल भ्रमण किया। उस भ्रमण का मुख्य उद्देश्य धर्म की स्थापना करना था और कलियुग का धर्म है हरी नाम संकीर्तन
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे
( भगवत गीता 4.8)
तो चैतन्य महाप्रभु नगर आदि ग्राम में भ्रमण कर रहे थे। कलियुग का जो मुख्य धर्म है नाम संकीर्तन,उसकी स्थापना कर रहे थे। अपने उदाहरण से सारे संसार को सिखा रहे थे।
āpani ācari’ jīve śikhāilā
CCM 1.22
वह केवल उसके बारे में बोल ही नहीं रहे थे। बल्कि अपने आचरण से व्यवहारिक रूप में सिखा रहे थे।चैतन्य महाप्रभु बातें कम करते थे और अधिक से अधिक कीर्तन करते थे।6 साल तक लगातार कीर्तनीया सदा हरी चल रहा था।उन लीलाओं को संक्षिप्त में कुछ दिनों से हम सुन रहे थे।आदि लीला मायापुर नवदीप में हुई।मध्य लीला भी। पूरा भारत कवर कर लिया था। उन्होंने दक्षिण भारत और पूर्वी भारत पूरा भारत कवर कर लिया था।और लौटकर पुरी जगन्नाथ आए और 18 वर्ष महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में ही रहे।
"जगन्नाथपुरी परित्यज एकम पदम ना गच्छति"। जगन्नाथपुरी के बाहर उन्होंने एक पग भी नहीं रखा और इन लीलाओं को कृष्ण दास कविराज ने अंत: लीला का नाम दिया हैं और यह लीलाएं बहुत ही गोपनीय लीलाएं हैं। चेतनय चरितामृत की शुरुआत में ही कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य का गोपनीय कारण बताया हैं। दोनों ही कारण बताए हैं। एक तो सामान्य कारण धर्म स्थापना जो कि हर अवतार में भगवान करते ही हैं। लेकिन इस प्राकट्य में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु एक और उद्देश्य पूरा करने आए हैं। जिसे गोन कारण कह सकते हैं।वह कारण क्या रहा और कैसे-कैसे उनको सफलता मिली। कैसे लीलाएं संपन्न हुई,उसकी चर्चा आने वाले सत्र में करेंगे। मैं तो बस भगवान के हाथ की कठपुतली हूं देखते हैं भगवान मुझसे क्या बुलवाना चाहेंगे। आज यही रुकेंगे।
हरि बोल।।