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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक 20 मार्च 2021 हरे कृष्ण! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में ७२५ स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे हैं। जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द। जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द।। आपने इसको याद किया? याद करो। अर्जुन? जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द। जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द।। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय! नित्यानंद प्रभु की जय! अद्वैत आचार्य की जय! गौर भक्त वृन्द की जय! इन सभी की जय! जय! जय! जय! फिर विजय। मराठी में कहते हैं विजयो सौ। चैतन्यमहा पुंस:।। गौर पूर्णिमा महोत्सव की जय! जप तथा जप चर्चा में आपका पुनः पुनः स्वागत है। आपका जप अब तक पूरा तो नहीं हुआ होगा? आप कुछ समय के लिए मेरे साथ या सभी के साथ जप कर रहे थे। हम सब संसार भर के भक्त वृन्दों के साथ मिलकर जप कर रहे थे।अब जप के उपरांत जप चर्चा करेंगे। आजकल चैतन्य महाप्रभु के विषय में जप चर्चा हो रही है। यह चैतन्य चरितामृत का ही हल्का सा नहीं अपितु पूर्ण संस्मरण है क्योंकि जितना भी होता है, वह पूर्ण ही होता है। ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।। ईशोपनिषद (ईशस्तुति) अनुवाद:- भगवान् पूर्ण हैं और चूंकि वे पूरी तरह से पूर्ण हैं, अतएव उन से होने वाले सारे उद्भव जैसे कि यह दृश्य जगत, पृर्ण इकाई के रूप में परिपूर्ण हैं। पूर्ण से जो कुछ उत्पन्न होता है, वह भी अपने आप में पूर्ण होता है। चूंकि वे सम्पूर्ण हैं, अतएव उनसे यद्यपि न जाने कितनी पूर्ण इकाइयां उद्भूत होती हैं, तो भी वे पूर्ण रहते हैं। जो बचता है, वह भी पूर्ण होता है। जितना भी बोलते हैं, वह भी पूर्ण होता है। हरि! हरि! श्रीकृष्ण या कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की ऐसी ख्याति है, यहां हल्की कथा या अधूरी कथा नहीं होती। जितनी भी कथा होती है, वह पूर्ण ही होती है। यह सब सिद्धांत की बात है। यह सीखना, समझना भी महत्वपूर्ण है। सिद्धांत बलिया चित्ते ना कर अलस।इहा हइते कृष्णे लागे सुदृढ़ मानस।। ( श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला २.११७) अनुवाद:- निष्ठापूर्वक जिज्ञासु को चाहिए कि ऐसे सिद्धांतो की व्याख्या को विवादास्पद मानकर उनकी उपेक्षा न करें, क्योंकि ऐसी व्याख्याओं से मन दृढ़ होता है। इस तरह मनुष्य का मन श्रीकृष्ण के प्रति अनुरक्त होता है। ( इसे भी याद रखो, कंठस्थ करो) सिद्धांत बलिया चित्ते ना कर अलस। सिद्धांत बोलने में आलस नहीं करना चाहिए। सिद्धांत की बातें उत्साह के साथ करनी चाहिए। जब अवसर प्राप्त होता है, तो उत्साह के साथ बोलो। सिद्धांत बलिया चित्ते ना कर अलस, इससे हमारी श्रद्धा दृढ़ होती है। सिद्धांतो को कहने, सुनने अर्थात इसके विषय में श्रवण करने, समझने से हमारी श्रद्धा दृढ़ होती है। वैसे यह समय सिद्धांत की बातें कहने का नहीं है, यह श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की लीला का कुछ गुणगान करने का समय है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की मध्य लीलाओं की चर्चा हम कुछ दिनों से कर रहे हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने दो बार जगन्नाथ पुरी से प्रस्थान किया और दो बार पुनः जगन्नाथ पुरी वापिस लौटे लेकिन अब तक उनका वृंदावन जाना नहीं हो पाया था। कल के सत्र में हम बता रहे थे कि वे वृंदावन जाना तो चाह रहे थे अर्थात उन्होंने वृंदावन जाने के उद्देश्य से जगन्नाथ पुरी से प्रस्थान तो किया था, लेकिन आपने सुना ही कि क्या समस्या उत्पन्न हुई थी, बहुत सारी भीड़ चैतन्य महाप्रभु के साथ यात्रा करने के लिए तैयार हो गयी थी। तब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने यात्रा करने के विचार को ही छोड़ दिया और जगन्नाथपुरी लौट आए परंतु वृंदावन जाने का विचार तो नहीं छोड़ा। वृंदावन तो उनको जाना ही जाना था। हमें भी ऐसा संकल्प करना चाहिए, चैतन्य महाप्रभु अपने संकल्प के लिए भी प्रसिद्ध हैं। अब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जाने का पुनः प्रस्ताव रखते हैं। रोकथाम तो चल ही रही है। जगन्नाथपुरी के भक्त चैतन्य महाप्रभु के सान्निध्य से वंचित नहीं होना चाहते थे। (सान्निध्य या वंचित होना यह थोड़े परिकृष्ट शब्द हैं। संस्कृत के शब्द हैं पर थोड़े अच्छे शब्द हैं हमें इनको सीखना चाहिए।) एक दृष्टि से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को परवाह नहीं थी कि जगन्नाथ पुरी के निवासी चाहते हैं या नहीं चाहते हैं कि चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जएं या नहीं जाएं। महाप्रभु को उसकी परवाह नहीं थी, उनको तो वृंदावन जाना ही जाना था। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि एक व्यक्ति ही केवल उनके साथ में जाएगा।तत्पश्चात राय रामानंद तथा स्वरूप दामोदर ने एक व्यक्ति बलभद्र भट्टाचार्य का चयन किया वह एक सज्जन भक्त थे व गौरांग महाप्रभु के अनन्य भक्त थे। उनके साथ श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने प्रस्थान किया। चैतन्य महाप्रभु कटक के मार्ग से भी आगे बढ़े। उन्होंने झारखंड के जंगलों में प्रवेश किया, वैसे अब वहां झारखंड फारेस्ट अथवा जंगल नही रहा। ५०० वर्ष पूर्व वह सचमुच जंगल ही था, झारखंड के जंगलों में चैतन्य महाप्रभु ने जंगल में मंगल किया। कीर्तनीय सदा हरिः महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत वादित्रमाद्यन्-मनसो-रसेन रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् अनुवाद:- श्रीभगवान् के दिव्य नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। वैसे वाद्य तो नहीं थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गा रहे थे और साथ में नृत्य कर रहे थे। गायन सुनते ही उनका नृत्य तो प्रारंभ हो ही जाता था, उनकी आत्मा नाचने लगती थी। चैतन्य महाप्रभु के अन्दर उनकी आत्मा नहीं है, पूरे चैतन्य महाप्रभु आत्मा अथवा परमात्मा हैं। उनका देह विग्रह ही सच्चिदानंद विग्रह है, यह सिद्धांत की बात हुई जोकि हमें जाननी चाहिए। चैतन्य महाप्रभु के अंदर चैतन्य महाप्रभु की आत्मा है अर्थात बाहर शरीर है या अंदर आत्मा है? नहीं! नहीं! अंदर और बाहर की बात ही नहीं है। उनके अंदर और बाहर आत्मा ही आत्मा हैं। पैर के नाखूनों से लेकर सिर तक वे केवल आत्मा, परमात्मा सच्चिदानंद हैं।हमनें कहा कि कीर्तन आरंभ होते ही श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु नृत्य करने लगते। उनका सर्वांग नृत्य करता है, उनके सर्वांग में प्रेम का संचार होता है तथा सारे भक्ति के भाव उदित अथवा प्रकट होते हैं। यही सात्विक अष्ट विकार की पराकाष्ठा है। चैतन्य महाप्रभु केवल भाव ही व्यक्त नही करते अपितु महाभाव प्रकट करते। वैसे सार्वभौम भट्टाचार्य ने भी घोषित किया था। महाभाव: ठुकरानी। चैतन्य महाप्रभु महाप्रभु में महाभाव क्यों नहीं होगा क्योंकि राधा रानी ही महाभावा थी। श्रीकृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नहे अन्य*( चैतन्य भागवत) अनुवाद:- भगवान् चैतन्य महाप्रभु अन्य कोई नहीं वरन श्री श्री राधा और कृष्ण के संयुक्त रूप हैं। वे श्री कृष्ण भी हैं और राधा भी हैं। राधा कृष्ण प्रणय- विकृतिर्ह्लादिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह- भेदं गतौ तौ। चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्द्वयं चैक्यमाप्तं राधा- भाव- द्युति- सुवलितं नौमि कृष्ण- स्वरूपम।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला श्लोक १.५) अनुवाद:- श्री राधा तथा कृष्ण की माधुर्य लीलाएँ भगवान् की ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि राधा और कृष्ण अभिन्न हैं, किन्तु उन्होंने अपने आपको अनादि काल से पृथक कर रखा है। अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में मिलकर एक हो गए हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूँ, जो साक्षात कृष्ण होते हुए भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगक्रान्ति के साथ प्रकट हुए हैं। कृष्ण कीर्तन सुनते ही उनके राधा के भाव प्रकट होते थे। कोई भी उनके भावों का दर्शन कर सकता था। इस झारखंड के जंगल में चैतन्य महाप्रभु ने जो लीला खेली है, वह अद्भुत व अद्वितीय हैं। झारखंड के कीर्तन लीला में उनका स्वयं का भी और हरि नाम के प्रभाव का भी दर्शन होता है। चैतन्य महाप्रभु ही ऐसा कृत्य अथवा ऐसा कार्य व ऐसी लीला कर सकते हैं, जैसा कि हमनें कहा ही कि उन्होंने जंगल में मंगल किया। वहां के पशु तथा पक्षी भी चैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आंदोलन में सम्मिलित हुए। प्रभुपाद ने एक बार कहा था, 'एक कुत्ता भी संकीर्तन आंदोलन में सम्मिलित हो सकता है।'श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने वह करके दिखाया। वे जंगली कुत्ते भी हो सकते हैं, भालू तो थे ही। शेर, मयूर, नेवले सब थे, चैतन्य महाप्रभु ने उनको उनका एक दूसरे के प्रति जो स्वभाविक ईर्ष्या द्वेष था, वह भूला दिया और उन्होंने चैतन्य महाप्रभु के साथ नृत्य किया। शेर और हिरण कंधे से कंधे मिलाकर उस कीर्तन में सम्मिलित हुए। चैतन्य महाप्रभु ने यह भी देखा कि पशुओं में कृष्ण प्रेम उदित हुआ है, भगवतप्रेम उदित हुआ। भगवतप्रेम ही नहीं अपितु उन्होंने भक्त प्रेम का भी अनुभव किया, जो कि अधिक महत्वपूर्ण है अर्थात बड़ा महत्व रखता है। हमें केवल भगवान से प्रेम नहीं करना चाहिए अर्थात भगवान् से तो प्रेम करना ही चाहिए साथ-साथ भक्तों से प्रेम करना चाहिए। भक्तों से प्रेम कुछ कम लोग ही करते हैं, भगवान के प्रेमी तो कई मिलेंगे। लेकिन ...( ऐसे लीला आगे नहीं बढ़ेगी) भगवान् कहते हैं, कोई कहता है कि मैं कृष्ण का भक्त हूं। यदि कृष्ण कहते हैं कि नहीं! नहीं! तुम मेरे भक्त नहीं हो। तब यदि आप पुनः कृष्ण को कहेंगे कि भगवन! मैं आपके भक्तों का भक्त हूं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जो स्वयं कृष्ण हैं, कहते हैं- हां, हां तुम मेरे भक्त हो। तुम मेरे भक्त के भक्त हो, तो तुम मेरे भक्त हो। यदि कोई कहता है कि आपका भक्त हूं। तब भगवान कहते हैं कि ठीक है, वे इतने प्रसन्न नहीं होंगे लेकिन कोई उनके भक्तों का भक्त बनता है, यह ऊंची बात है। यह श्रेष्ठतम् बात है, हमें भी कृष्ण के भक्तों का भक्त बनना चाहिए। यह भी चैतन्य महाप्रभु की लीला अथवा जीवन चरित्र अथवा चैतन्य चरितामृत से सीखो। लाइफ एंड टीचिंग ऑफ चैतन्य महाप्रभु अर्थात चैतन्य महाप्रभु की जीवनी अथवा शिक्षाओं से हमें यह सीखने को मिलता है कि हमें भगवान् के भक्तों का भक्त बनना है। हरि! हरि! झारखंड के जंगलों में वही हो रहा था। हिरन और शेर अगल बगल में चल रहे थे। कुछ समय उपरांत चैतन्य महाप्रभु देख रहे थे( युगधर्म, हरिनाम, आप नहीं देखना चाहते हो, इसलिए आंखे बंद कर रहे हो, उठो! देखो! यह सब देखने की चीज़ है झारखंड के जंगल में मंगल हो रहा है, जग जाओ। जीव जागो।सुनो! आज की ताजी खबर, गुड़ मॉर्निंग न्यूज़) श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जब यह दृश्य देखा कि हिरण तथा शेर एक दूसरे को गले लगा रहे हैं, एक दूसरे को अलिंगन दे रहे हैं, एक दूसरे का चुम्बन कर रहे हैं। इसी प्रकार मोर और सर्प जो परस्पर शत्रु है, वे भी एक दूसरे का आलिंगन कर रहे हैं। भक्त प्रेम का प्रदर्शन हो रहा है। जब चैतन्य महाप्रभु ने वह दृश्य देखा तब चैतन्य महाप्रभु कहने लगे वृंदावन धाम की जय!वृंदावन धाम की जय! (अचानक क्या हुआ? महाप्रभु वे वृंदावन धाम की जय क्यों कह रहे थे।) चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जा रहे थे, वे वृंदावन के रास्ते में हैं लेकिन झारखंड के जंगलों में उन्हें लगा कि यही तो वृंदावन है, यहां देखो यहां ना तो ईर्ष्या है और न ही द्वेष है, न झगड़ें है, न ही रगड़े हैं, ना ही यहां पर मारपीट तथा गाली गलौज है, ना ही काम है न ही क्रोध है, न ही लोभ है, न ही मद् मात्सर्य है। वृंदावन में ऐसा भाव होता है। यह वृंदावन ही है। चैतन्य महाप्रभु वृंदावन धाम की जय-जयकार पुकारने लगे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़ रहे हैं। आज़कल झारखंड नामका एक राज्य भी बन चुका है। पहले झारखंड बिहार का अंग था। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु बिहार झारखंड से आगे उत्तरप्रदेश की ओर बढ़ रहे हैं। उस समय तो इसे धर्म प्रदेश कहते थे। तत्पश्चात उसका नाम उत्तर प्रदेश हुआ। चैतन्य महाप्रभु जा रहे हैं। हरि! हरि! चैतन्य महाप्रभु ने जब दूर से मथुरा को देखा तब उन्होंने दूर से मथुरा को देखते ही सांष्टांग दंडवत प्रणाम किया। मथुरा धाम की जय! (श्रृंगार मूर्ति? तुम्हें कई दिनों से देखा नहीं था। अब वृंदावन और मथुरा की चर्चा चल रही है और तुम प्रकट हो गए।) चैतन्य महाप्रभु मथुरा में विश्राम घाट पर पहुंचें और स्नान किया। तत्पश्चात श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु विश्राम घाट से नित्य कीर्तन करते हुए कृष्ण के जन्म स्थान पहुंचें और केशव देव के दर्शन किए, वहाँ का कीर्तन बहुत ही अद्भुत रहा। चैतन्य महाप्रभु ने उद्दंड नृत्य (यह भी नृत्य का प्रकार है) किया। सारे मथुरा वासी चकित हो गए। ऐसा नृत्य और कीर्तन न तो कभी उन्होंने देखा और सुना था लेकिन अब वे देख रहे थे। गौर सुंदर के उस सौंदर्य का क्या कहना। अब मथुरा वासी व वृंदावन वासी कहने लगे कि श्यामसुंदर आ गए श्यामसुंदर आ गए, आयो रे, आयो रे, आयो रे.. वृंदावन में गौर सुंदर आए थे लेकिन सभी ने सोचा कि हमारे श्याम सुंदर लौटआए। तब सारे ब्रज और मथुरा वासी हर्ष और उल्लास से भर गए। एक सनौडिया ब्राह्मण जो कि माधवेंद्रपुरी के शिष्य थे व गृहस्थ थे, उन्होंने श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को अपने घर भिक्षा अर्थात भोजन के लिए बुलाया। आप भी भगवान् को भोजन के लिए बुलाया करो। अकेले नहीं खाना। भगवान का भोग तैयार रखा करो और भगवान को खिलाया करो। तत्पश्चात प्रसाद ग्रहण किया करो अन्यथा भोगी बन जाओगे। भगवान को नैवेद्य खिलाएं बिना जब हम खाते हैं, तब हम लोग भोगी बनते हैं। भोग भगवान् के लिए होता है। भोग तैयार है। भोग तैयार है। हां, हां तैयार है,फिर हम भोग चढ़ाते हैं। वैसे भोगी वह है जो भोग को ग्रहण करता है अर्थात भोग को ग्रहण वाला भोगी कहलाता है। वास्तविक भोगी कौन है? सारे भोग भगवान के लिए हैं, उन्होंने कहा भी है आपने सुना अथवा पढ़ा नहीं है? भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता ५.२९) अनुवाद:- मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्र्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है। सारे भोग मेरे लिए हैं, मैं भोक्ता हूँ। फिर हम लोगों का क्या होगा? हम प्रसाद ग्रहण करेंगे। भोग भगवान के लिए है, प्रसाद हमारे लिए है। यह भी समझ लेना। भगवान जब भोग को ग्रहण करते हैं, तब वह हमारे लिए कृपा प्रसाद बन जाता है। वह प्रसाद हमारे लिए है। अगर भगवान भोक्ता हैं तथा हम उपभोक्ता हैं, हम द्वितीय भोक्ता हैं, वास्तविक भोक्ता तो भगवान हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने सारे ब्रजमंडल अर्थात द्वादश काननों की यात्रा की। याहा सब लीला कोइलो श्रीनन्द नन्दन॥ बारह काननों अथवा वनों में जा जाकर श्रीकृष्ण ने जहां जहां लीलाएं संपन्न की, उन सभी स्थानों पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गए। सभी स्थान पर कीर्तन हो रहा है। (यह पूरा अध्याय ही है।) चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन की यात्रा कर रहे हैं, बारह वनों की यात्रा जैसे हम लोग कार्तिक में ब्रजमंडल परिक्रमा करते हैं, वैसे वही मार्ग, जिस मार्ग पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गए थे, उसी मार्ग पर हम लोग ब्रजमंडल परिक्रमा पर जाते हैं। हमनें ब्रजमंडल दर्शन नामक ग्रंथ में ब्रजमंडल परिक्रमा का वर्णन भी किया है। आप में से कई सारे भक्तों ने उस ग्रंथ को प्राप्त किया होगा अथवा ब्रजमंडल दर्शन को कार्तिक मास में आप पढ़ते ही रहते हैं जिसमें चैतन्य महाप्रभु की यात्रा का वर्णन आता है।भावों का खेल है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब वृंदावन में स्वयं परिक्रमा कर रहे थे, तब उन में जो भाव उदित हो रहे थे उसके सम्बंध में कृष्णदास कविराज लिखते हैं कि चैतन्य महाप्रभु, ब्रजमंडल परिक्रमा करते हुए जो जो भाव प्रकट करते थे, उन भावों का वर्णन मुझ से नहीं होगा। उसका वर्णन अनंतसहस्त्रवाद अर्थात अनंत शेष ही कर सकते हैं, यह मेरे बस का रोग नहीं है। जैसे अंग्रेजी में कहावत है, दिस इज़ नॉट माई कप ऑफ टी, वैसे हम चाय नहीं पीते। चैतन्य महाप्रभु की वृंदावन में भाव भक्ति की सर्वोच्च अवस्था थी। कृष्णदास कविराज गोस्वामी महाराज लिखते हैं कि जब जगन्नाथपुरी में चैतन्य महाप्रभु थे और वहां यदि वे वृन्दावन के सम्बंध में या वृन्दावन की लीला के सम्बंध में सुनते थे, तब उनके भाव सौ गुना बढ़ जाते थे अर्थात वृन्दावन के विषय में सुनते ही उनके भाव सौ गुना बढ़ जाते थे। आगे वह लिखते हैं कि चैतन्य महाप्रभु जी जब मथुरा वृंदावन के रास्ते में थे और मथुरा और वृंदावन का स्मरण ही कर रहे थे या जब वे मथुरा पहुंचे, तब उनकी भाव भक्ति हजार गुना बढ़ गई और जब वे ब्रजमंडल परिक्रमा कर रहे हैं और लीला का स्मरण कर रहे हैं और स्थलों का दर्शन कर रहे थे तब उनके भाव भक्ति अथवा उसके विचार की मात्रा एक लाख गुणा अधिक बढ़ गई है। इसी कारण कृष्ण दास कविराज कहते हैं कि उसका वर्णन कौन कर सकता है, केवल सहस्त्रवदन अनंत शेष ही लिख या वर्णन कर सकते हैं। यदि लिखा जाए तो कोटि कोटि ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। श्रीकृष्ण दास कविराज चैतन्य महाप्रभु की वृन्दावन यात्रा का एक या दो अध्याय में ही वर्णन किया है लेकिन यदि कोई जानकार या भगवान अनंत शेष लिखेंगे तो महाप्रभु की वृंदावन यात्रा के सम्बंध में कोटि-कोटि ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। मुख्य तो उनका भाव अथवा उनका कृष्ण भाव या राधा भाव या उनका भक्तिभाव है। चैतन्य महाप्रभु एक भक्त के रूप में भी यात्रा कर रहे थे। वह भक्त तो राधा रानी हैं जो महाभावा ठुकरानी ही हैं। चैतन्य महाप्रभु यात्रा के उपरांत मथुरा पहुंच गए लेकिन वहां इतने सारे लोगों से मिलना जुलना हो रहा था। चैतन्य महाप्रभु एकांत चाहते थे इसलिए वे अक्रूर घाट पर गए जोकि मथुरा वृंदावन के मध्य में है। वहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कुछ समय के लिए रहे। वैसे रहे तो नहीं, वहां से वे कालिया घाट की ओर जाते थे। एक समय इमलीतला भी गए जहाँ कृष्ण की लीला के समय का एक इमली का वृक्ष है। १०-२० वर्ष पहले तक वह वृक्ष था लेकिन अब नहीं रहा। अब उसके स्थान पर नया वृक्ष उग रहा है लेकिन चैतन्य महाप्रभु के समय तो प्राचीन इमली का वृक्ष था, वहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु उस वृक्ष के नीचे बैठकर जप कर रहे थे। यह स्थान यमुना के तट पर था, इमली तला मतलब इमली के नीचे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* कर रहे थे। हम जप करते हैं ताकि हम कृष्णभावना भावित हो सके। हम अपनी कृष्ण भावना जगाने के उद्देश्य से हम हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब इमली तला के नीचे जब जप कर रहे थे तब वे कृष्णभावनाभावित हो गए। ऐसा नही कि वे पहले नहीं होते थे, उसी समय ऐसा हुआ, नहीं! लेकिन उस समय महाप्रभु ने विशेष भावों का प्रदर्शन किया। उस समय चैतन्य महाप्रभु श्याम वर्ण के हो गए। जब बलराम जी कृष्णभावनाभावित होते हैं, वे भी काले सांवले श्याम वर्ण के हो जाते हैं। वृंदावन में आपको कई बलराम के विग्रह मिलेंगे। दाऊजी का भैया कृष्ण कन्हैया, कृष्ण कन्हैया दाऊजी का भैया। गोकुल के पास व अन्य स्थानों पर दाऊजी के जो विग्रह हैं, वे श्याम वर्ण के हैं। कहते हैं कि जब बलराम भी कृष्ण के विषय में सोचते हैं, तो वे भी कृष्ण के वर्ण को धारण करते हैं। चैतन्य महाप्रभु जप करते करते कृष्णभावनाभावित हो गए। वे उस समय गौरांग नहीं रहे। अन्तः कृष्णं बहिगौंर दर्शिताङ्गादि-वैभवम्। कलौ सङ्कीर्तनाद्यैः स्म कृष्ण-चैतन्यमाश्रिताः ( चैतन्य चरितामृत आदि लीला ३.८१) अनुवाद:- " मैं भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आश्रय ग्रहण करता हूँ, जो बाहर से गौर वर्ण के हैं, किन्तु भीतर से स्वयं कृष्ण हैं। इस कलियुग में वे भगवान् के पवित्र नाम का संकीर्तन करके अपने विस्तारों अर्थात अपने अंगों तथा उपांगों का प्रदर्शन करते हैं चैतन्य महाप्रभु बाहर से गौर वर्ण के हैं, लेकिन अंदर से श्याम वर्ण के हैं। ऐसा चैतन्य भागवत में लिखा है। *श्री कृष्णचैतन्य राधा कृष्ण नहे अन्य* बाहर से राधा हैं और कृष्ण अंदर छिपे हैं। राधा बाहर है तथा कृष्ण राधा के पीछे अंदर छिपे हुए हैं। लेकिन अब अंदर वाले कृष्ण बाहर आ गए हैं राधा रानी पीछे हैं, इसलिए चैतन्य महाप्रभु घनश्याम बन गए हैं। वृन्दावन वासी तो कह ही रहे थे कि हमारे श्याम सुंदर आए हैं, श्याम सुंदर यहां आ गए और चैतन्य महाप्रभु ने यहां दिखा ही दिया कि यस!यस! मैं श्याम सुंदर ही हूं। मैं श्याम सुंदर ही हूं। ठीक है। हमें चैतन्य महाप्रभु को जगन्नाथपुरी लौटाना तो था ही, किन्तु समय बीत चुका है। इसलिए कथा को यहीं विराम देंगे, कल किस प्रकार चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन से प्रयागराज और वहां प्रयागराज से वाराणसी जाते हैं औऱ प्रयागराज में रूप गोस्वामी तथा वाराणसी में सनातन गोस्वामी से मिलते हैं। इसका वर्णन करेंगे। उन दोनों के साथ महाप्रभु का जो वार्तालाप हुआ, अर्थात उन्होंने उनको जो शिक्षाएं प्रदान की, वहां नृत्य और कीर्तन और वाराणसी में जो शास्त्रार्थ हुआ, उसकी भी चर्चा कल करेंगे। कल श्रीचैतन्य महाप्रभु को जगन्नाथ पुरी जरूर पहुंचा देंगे। जय जगन्नाथ! जय गौरांग! जय गौर हरि! प्रकाशानंद सरस्वती के साथ जो शास्त्रार्थ हुआ, जब वह अपने साठ हजार शिष्यों के साथ एकत्रित हुए थे और चैतन्य महाप्रभु ने उनको कैसे परास्त कर उनको भी भक्त बनाया था। यह एक अद्भुत घटना है। हम इसका वर्णन भी सुनेंगे। गौर प्रेमानंदे, हरि हरि बोल!

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