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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक २७.०१.२०२१
हरे कृष्ण!
आज इस कॉन्फ्रेंस में 692 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं।
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
श्रील प्रभुपाद ने महामंत्र की महिमा का गान किया अथवा उन्होंने महामन्त्र के भावों के संबंध में कहा कि जब हमें जप करना है तो कैसे भाव होने चाहिए, कैसी भक्ति होनी चाहिए। हमारी महामन्त्र अथवा जप के संबंध में जोकि हम प्रतिदिन करते हैं, क्या समझ होनी चाहिए।
आइए वही हम पहले सुनते हैं। कुछ लोग पढ़ कर सुना रहे थे, अब हम प्रभुपाद से सीधे सुनेंगे। यह स्टेटमेंट (वाक्य) इतना महत्वपूर्ण है कि प्रभुपाद ने इसको लिख लिया अथवा रिकॉर्ड भी किया जिससे भविष्य में भक्त इसे सदा के लिए सुन सकें। हम इसे सुन कर समझ सकते हैं अथवा प्रेरित हो सकते हैं। श्रील प्रभुपाद इस स्टेटमेंट में ऐसे ही भावों का उल्लेख करते हैं। हम ऐसे भाव जगाने का अभ्यास कर सकते हैं।
ध्यानपूर्वक सुनिए। शायद यह वाला अंग्रेजी में है। प्रभुपाद ने दोनों भाषाओं में इसकी रिकॉर्डिंग की है, पहले तो रिकॉर्डिंग अंग्रेजी में ही की थी परंतु बाद में उन्होंने इसे हिंदी में भी किया।
देखते हैं कौन सा रैडी (तैयार) है, सुनियेगा।
श्रील प्रभुपाद-( रिकॉर्डिंग)
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
इस महामन्त्र के कीर्तन से उत्पन्न हुई अप्राकृतिक प्रतिध्वनि हमारी अप्राकृतिक चेतना को जागने के लिए अतुलनीय कृष्ण विधि है। जीवात्मा के रूप से हम सब कृष्णभावनाभावित हैं परंतु अनादि काल से जड़ प्रदार्थ के संपर्क में रहने के कारण हमारी चेतना भौतिक वातावरण द्वारा अशुद्ध हो गयी है। इस भौतिक वातावरण को माया कहते हैं, माया का अर्थ है 'वो जो नहीं है।'अब हमें देखना है कि यह माया किस प्रकार की है? माया यह है कि हम सभी इस भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व स्थापित करना चाहते हैं। जबकि वास्तव में हम सभी अपूर्व रूप से इसके कठोर नियम की जकड़ में हैं। जैसे एक नौकर अपने सर्वशक्तिमान स्वामी को नकल करना चाहता है, यह माया का प्रभाव है।
हम इस भौतिक प्रकृति के भंडार का उपयोग करने के लिए सतत् समशील हैं परंतु वास्तव में हम उसकी जटिलता में अधिक से अधिक अबद्ध होते चले जा रहे हैं I कृष्ण भावना मस्तिष्क पर बनावटी दवाब नही है। यह चेतना, यह भावना, जीवात्मा की स्वभाविक प्रारंभिक शक्ति है। जब हम इस मंत्र के कीर्तन से उत्पन्न अप्राकृतिक प्रतिध्वनि को सुनते हैं, तब हमारी यह चेतना सुप्त अवस्था छोड़ कर जगती है। कलियुग में ध्यान की यह सरलतम विधि है व फलदायक मानी गयी है। कोई भी अपने व्यक्तिगत अनुभव से भी जान सकता है कि महामन्त्र के कीर्तन से आध्यात्मिक स्तर से अप्राकृतिक भावना की अनुभूति होती है। आरम्भ में सभी प्रकार की अप्राकृतिक भावना की स्थिति नहीं हो सकती है। जब भगवान् के शुद्ध भक्त द्वारा गाया जाता है तो सुनने वाले पर इसका बड़ा प्रभाव पड़ता है।अतः तत्कालीन परिणाम के लिए इसे प्रभु के पवित्र भक्त से सुनना चाहिए। जो भगवान् के भक्त नहीं हैं उनके मुख से कीर्तन नहीं सुनना चाहिए। जैसे दूध को यदि जहरीले सर्प ने छू दिया है,
वह विषैला हो जाता है। शब्द 'हरा' के द्वारा प्रभु की शक्ति को सम्बोधित किया जाता है। कृष्ण और राम शब्द से प्रभु को सम्बोधित किया जाता है। कृष्ण और राम परम आनंद हैं और 'हरा' प्रभु की परम आनंदमयी शक्ति है। प्रभु की यह आनंदमयी शक्ति हमें उनके पास ले जाने में सहायक होती है।भौतिक शक्ति माया भी प्रभु की विविध शक्तियों में से एक है। हम जीवधारी भी प्रभु की तटस्था शक्ति हैं। जीवात्मा भौतिक शक्ति से विशिष्टय होते हैं। परा शक्ति का अपरा शक्ति से सम्पर्क निरुद्ध परिस्थिति उत्पन्न करता है किंतु परा शक्ति एवं तटस्था शक्ति का सङ्ग प्रसन्नता पूर्ण सामान्य परिस्थिति उत्पन्न करता है। 'हरा', 'कृष्ण' सङ्ग 'राम' यह तीन शब्द महामन्त्र के अप्राकृतिक बीज मंत्र है। कीर्तन, प्रभु तथा उनकी शक्ति को बद्ध आत्मा की रक्षा करने के लिए एक आध्यामिक पुकार है। कीर्तन उस बच्चे के रुदन जैसा होता है जो अपने माता की उपस्थिति चाहता है। माता हर भक्त को पिता अर्थात भगवान् के पास ले जाती है। तब प्रभु श्रद्धा एवं विश्वास के साथ कीर्तन करने वाले भक्त के सम्मुख स्वयं उपस्थित होते हैं।
हरे कृष्ण!
आप सबने सुना? और देखा भी?
आप प्रेजेंटेशन देख रहे थे अर्थात जो कहा जा रहा था, उसको दिखाया भी जा रहा था। इसे आप सभी को लोक संघ या इस chantwithlokanathswami कॉन्फ्रेस में भी भेजेंगे ताकि आप सभी इससे लाभान्वित हो सकें।
हरि! हरि!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
श्रील प्रभुपाद की जय!
वैसे हमनें हरे कृष्ण महात्म्य के विषय में और भी कमैंट्स सुने हैं लेकिन इस्कॉन के संस्थापकाचार्य श्रील प्रभुपाद का दिव्य अलौकिक हरे कृष्ण महामंत्र पर यह भाष्य बड़ा महत्वपूर्ण है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
यह हमारी कृष्णभावनामृत के पुनः जागृत करने की उदात्त विधि है।
वैसे हमनें कुछ दिखाया भी था अथवा कुछ सुनाया भी था। यह हरे कृष्ण महामन्त्र की विधि है, उच्चारण, श्रवण और जप सब उदात्त विधियां हैं और हम सब जीवित इकाइयां है।
हरे कृष्ण!
प्रभुपाद लिखते हैं कि वर्षा होती है तो जल के बिन्दु जब तक आकाश में होते हैं अथवा गिर रहे होते हैं, तब तक वह शुद्ध जल ही रहता है लेकिन जैसे वह बूंदे जमीन अथवा धरती पर पहुंचती हैं,
सारा कचरा, मैला, गंदा, मिट्टी उसमें मिल जाता है और उस जल की स्थिति गंदा जल अथवा गंदा नाला जैसी बन जाती है। वैसे तो हम भी वास्तविक रूप से शुद्ध पवित्र आत्माएं है। हम भी इस जगत के संपर्क में जैसे ही आए, इस जगत का मल कहा जाए, वैसे मल ही हैं,हम सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण से मलिन हो जाते हैं।
अतः पुनः हमारी चेतना, भावना, विचारों और पूरे जीवन में जो मल मिला हुआ है उसको हटाना है, उसको मिटाना है। जब हम हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करते हैं। वही प्रयास होता है, उसी के विषय में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी कहते हैं।
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्। आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥1॥
(श्री श्री शिक्षाष्टकम)
अर्थ:-
श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है।
चेतोदर्पणमार्जनं अर्थात हमारी आत्मा अथवा हमारी चेतना के दर्पण पर पड़े हुए मल को मिटाना है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। करने से यह संभव है।
जीवन की इस प्रदूषित अवधारणा में, हम सभी भौतिक प्रकृति के संसाधनों का शोषण करने की कोशिश कर रहे हैं।
हमारी भावना चेतना जब कुलषित अथवा दूषित होती है तो हम इस संसार के भोग भोगने का प्रयास करते हैं। श्रील प्रभुपाद लिख रहे हैं कि वास्तव में हम जटिलताओं में अधिक से अधिक उलझते जाते है। जब हमारा भोक्ता बनने का प्रयास होता है तो उससे हमारा जीवन और भी अधिक क्लिष्ट हो जाता है। इससे हम अधिकाधिक इस संसार में धंस अथवा फंस जाते हैं। क्रिया- प्रतिक्रिया, कारण और परिणाम होते ही रहते हैं। यह भ्रम माया कहलाती है। यह भ्रम अथवा भ्रांति जो है यह छाया है। यह छाया है, यह माया है लेकिन वास्तविक तो प्रकाश है।
कृष्ण सूर्य सम; माया हय अंधकार।याहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार।।
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला श्लोक २२.३१)
अर्थ:- कृष्ण सूर्य के समान हैं और माया अंधकार के समान है। जहाँ कहीं सूर्य प्रकाश है, वहाँ अंधकार नहीं हो सकता। ज्यों ही भक्त कृष्णभावनामृत अपनाता है, त्यों ही माया का अंधकार (बहिरंगा शक्ति का प्रभाव) तुरंत नष्ट हो जाता है।
श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्
( श्रीमद् भगवतगीता १५.१)
अनुवाद:-
भगवान् ने कहा - कहा जाता है कि एक शाश्र्वत अश्र्वत्थ वृक्ष है, जिसकी जड़े तो ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा पत्तियाँ वैदिक स्तोत्र हैं। जो इस वृक्ष को जानता है, वह वेदों का ज्ञाता है।
भगवान के धाम में जो सुल्टा( सीधा) है, यहां उल्टा हो जाता है। वहाँ कृष्ण है, यह माया है। हम भौतिक प्रकृति के कठोर कानूनों पर अस्तित्व के लिए कठिन संघर्ष करते हैं।
हम सुन तो चुके ही हैं परंतु हम भूल भी जाते ही हैं।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ७.१४)
अनुवाद:- प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है | किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं।
इस मायावी नियमों व कानूनों का उल्लंघन करने या उससे परे पहुंचने अथवा गुणातीत होने के लिए कई सारे प्रयास करने पड़ते हैं। हम कृष्ण चेतना के पुनरुद्धार से भौतिक प्रकृति के विरुद्ध यह भ्रमपूर्ण संघर्ष रोक सकते हैं।
हमारा मायातीत अर्थात माया से परे पहुंचने, गुणातीत पहुंचने का संघर्ष अथवा प्रयास है, वह प्रयास तभी सफल होता है, जब हम हमारी कृष्ण भावना को जगाते हैं। हरि! हरि!
कृष्ण चेतना दिमाग पर एक कृत्रिम दबाव नहीं है, यह चेतना जीवित इकाई की मूल ऊर्जा है
हम कृष्ण भावना से मन को आच्छादित नहीं करते। श्रील प्रभुपाद यह लिख रहे हैं अथवा कह भी गए हैं कि यह कृष्ण भावना जीव की मूल शक्ति अथवा भावना ही है।हम कृष्ण भावना को मन पर लाद अथवा आच्छादित नही कर रहे हैं। दिव्य मन भी हैं, दिव्य बुद्धि भी है। आत्मा तो दिव्य है ही। उसका ही स्वाभाविक, शाश्वत लक्षण है। उसका ही कृष्ण भावना भावित होना भाव है। यह कृत्रिम आच्छादन नहीं है।
हमारी इस समय जो भावना अथवा विचार है, यह सब इस संसार के विचार हैं जिससे हम कलुषित दूषित अथवा आच्छादित हो चुके हैं।
जब हम ट्रांस डेंटल अलौकिक कंपन को सुनते हैं, तो यह चेतना पुनर्जीवित होती है
यह महामन्त्र जो दिव्य ध्वनि है, वह हमारी आत्मा की जो मूल कृष्ण भावना है, उसको जागृत अथवा प्रकाशित करती है। साधु, शास्त्र, आचार्य जो भी प्रमाण है, उनकी भी यही सिफारिश (मराठी में) है कि इस कलयुग के लिए यही विधि है।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।
(बृहन्नारदीय पुराण( ३.८.१२६)
अनुवाद:- इस कलियुग में आध्यात्मिक उन्नति के लिए हरिनाम हरिनाम और केवल हरिनाम के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है अन्य कोई विकल्प नहीं है अन्य कोई विकल्प नहीं है।
व्यावहारिक रूप से आते ही, हम यह समझ सकते हैं कि इस महा-मंत्र का चिंतन करके, एक बार आध्यात्मिक स्तर से दिव्य परमानंद को महसूस कर सकते हैं
प्रभुपाद कहते हैं कि हम सभी का ऐसा व्यवहारिक अनुभव होता है और होना चाहिए कि जैसे जैसे हम महामंत्र को सुनते हैं तब हम कम या अधिक आनंद का अनुभव करते हैं। कृष्ण के सानिध्य का अनुभव करते हैं या कृष्ण के स्मरण का अनुभव करते हैं। कृष्ण का स्मरण होता है। प्रभुपाद कहते हैं कि यह व्यवहारिक अनुभव की बात है। आपका भी ऐसा अनुभव होगा ही, मेरा भी है और सभी का होता ही है ।जैसे ही व्यक्ति इस महामंत्र को सुनता है।
जब कोई आध्यात्मिक समझ के विमान पर होता है- इंद्रियों, मन, बुद्धि के चरणों को पार करने से एक अलौकिक विमान पर स्थित होता है।
यह अलग अलग स्तर है- ऐन्द्रिक, मानसिक तथा बौद्धिक। यह महामंत्र का श्रवण कीर्तन इसके परे पहुंचा देता है। तुण्डे ताण्डविनी रतिं वितनुते तुणडावली-लब्धये कर्ण-क्रोड़-कड़म्बिनी घटयते कर्णार्बुदेभ्यः स्पृहाम्। चेतः-प्राङ्गण- सङ्गिनी विजयते सर्वेन्द्रियाणां कृतिं नो जाने जनिता कियद्भिरमृतैः कृषणेति वर्ण-द्वयी।
(श्री चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला श्लोक१.९९)
अर्थ:- मैं नहीं जानता हूं कि कृष्-ण के दो अक्षरों ने कितना अमृत उत्पन्न किया है। जब कृष्ण के पवित्र नाम का उच्चारण किया जाता है, तो यह मुख् के भीतर नृत्य करता प्रतीत होता है। तब हमें अनेकानेक मुखों की इच्छा होने लगती है। जब वही नाम कानों के छिद्रों में प्रविष्ट होता है, तो हमारी इच्छा करोड़ों कानों के लिए होने लगती है और जब यह नाम ह्रदय के आंगन में नृत्य करता है, तब यह मन की गतिविधियों को जीत लेता है, जिससे सारी इंद्रियां जड़ हो जाती हैं।
श्रील रूप गोस्वामी ने ऐसा भी कहा ही है।
विजयते सर्वेन्द्रियाणां कृतिं
हमारी इन्द्रियों की कृति अथवा कार्य या जो भी है, वह ठप्प हो जाता है। जब हम इंद्रियों को जीत लेते हैं और इंद्रिय निग्रह मन निग्रहः इस हरे कृष्ण महामंत्र के उच्चारण से यह संभव होता है
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
श्रील प्रभुपाद दोहरा रहे हैं कि यह महामंत्र हमें मानसिक, बौद्धिक या कायिक वाचिक स्तरों से परे पहुंचा देता है।
प्रभुपाद कहते हैं कि कीर्तन करो, जप करो। उसकी भाषा समझने की आवश्यकता नहीं है उसकी भाषा तो कृष्ण ही हैं। कृष्ण भाषा हैं। यह चाइनीस, हिंदी, मराठी या हिब्रो ऐसी कोई भाषा तो है नहीं, वैसे जब यह नाम इस जगत का ही नहीं है तब यह महामंत्र इस जगत की भाषा भी नहीं बोलता। हम इस जगत की भाषाओं की मदद से इस महामन्त्र को नहीं समझ पाएंगे। ना तो किसी मानसिक अर्थात मनोधर्म की आवश्यकता है। यह है, वह है, मैं सोचता हूँ कि.. नहीं! यह महामंत्र उस से परे है।
यह स्वचालित रूप से आध्यात्मिक मंच से स्प्रिंग करता है।
आत्मा का जो प्लेटफार्म है, आत्मा का जो स्तर है। आत्मा का जो हृदय है, वहां से उदित होता है प्रकट होता है। कोई भी व्यक्ति बिना किसी पुरानी योग्यता अर्थात पूर्व प्रशिक्षण के बिना कीर्तन और नृत्य कर सकता है वैसे हम सभी का पूर्व प्रशिक्षण तो है क्योंकि एक समय आत्मा यही करती थी जब वह भगवान के साथ थी, भगवत धाम में थी। उसने खूब नृत्य और कीर्तन किया है। वह अभ्यस्त और प्रशिक्षित थी। यह उसका स्वभाव ही था। इसलिए अब जब हम कीर्तन सुनते हैं ओह! कृष्ण! हे कृष्ण! तो उसको पुरानी यादें याद आ जाती है। जग जाती हैं। पुनः पूर्ववत्त वह जीव पहले जैसे वह कीर्तन और नृत्य करने लगता है। हरि! हरि!
मैं सोच रहा हूं कि यहीं विराम देना चाहिए। प्रभुपाद का स्टेटमेंट (वाक्य) अभी और भी काफी है, इसे कल पूरा करेंगे। अब तक जो आपने सुना, इस संबंध में कोई प्रश्न अथवा टीका टिप्पणी है तो आप कह सकते हो। पदमाली उसके पश्चात तुम्हारे स्कोर्स आदि का अनाउंसमेंट क्या है? उसे भी तुम कह सकते हो।
हरे कृष्ण!
यदि आपका कोई प्रश्न है, तो अब
आप चैट पर अपने प्रश्न लिखिए।हरि! हरि! हरि! हरि!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
बाकी सब जप करते रहिए। जिसको लिखना है वह अपने प्रश्न या टीका टिप्पणी लिख सकते हैं। अन्य भक्त जप करते रहिए।
प्रश्न- क्या हमने यहां आने से पहले कृष्ण को देखा है?
गुरु महाराज- आप कह रहे हो कि यहां आने से पहले क्या हमने कृष्ण को देखा है? आपने तो उत्तर दे ही दिया। इतना तो स्वीकार करते हो यहां आने से पहले.... तो यहां आने से पहले आप कहां थे? उत्तर तो है। हम आने से पहले भगवान के साथ ही थे, भगवत धाम में थे। हम भगवान को देखते ही थे। भगवान का दर्शन करते थे। भगवान के साथ हम भी भोजन करते होंगे।हम कृष्ण के साथ खेलते होंगे, नाचते होंगे और हमने क्या-क्या नहीं किया होगा। आप भूल गए? यही तो समस्या है। कृष्ण ने इसलिए भी कहा था।
श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन । तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ४.५)
अर्थ:- श्रीभगवान् ने कहा – तुम्हारे तथा मेरे अनेकानेक जन्म हो चुके हैं | मुझे तो उन सबका स्मरण है, किन्तु हे परंतप! तुम्हें उनका स्मरण नहीं रह सकता है।
भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन तुम्हारे और मेरे कई सारे जन्म हो चुके हैं लेकिन उन सारे जन्मों को तुम भूल गए हो और मुझे वह सारी बातें याद हैं। मुझे याद हैं, तुम भूल गए हो क्योंकि तुम माया में हो। हम एक समय कृष्ण के थे या कृष्ण के साथ थे।हम कृष्ण को देखते थे, हम इस बात को भूल गए हैं इसलिए ऐसा प्रश्न पूछ रहे हैं, क्या हमने कृष्ण को देखा है?
श्रील प्रभुपाद कह रहे हैं कि
'रिवाइवल ऑफ श्री कृष्ण कॉन्शसनेस' अर्थात
कृष्ण भावना को पुनः जगाना है। कृष्णभावना कृष्ण की यादें हैं, स्मृतियां हैं। आत्मा को बस पुनः स्मरण दिलाना है, उसे जगाना है। श्रील प्रभुपाद ने भी यही कहा कि कृष्णभावनामृत मानसिकता और बौद्धिकता पर कोई दवाब नहीं है अर्थात मन और बुद्धि पर हम इसको लादते नहीं हैं। हम आच्छादित नही करते। कृष्ण भावना कृत्रिम नही है अपितु कृष्ण भावना स्वभाविक है। यह कृष्णभावना तो आत्मा की है। कृष्ण ने आत्मा के लिए कही है। हमनें कृष्ण को खूब देखा है। क्या तुम्हें याद है? कोई हमसें पूछ सकता है कि क्या तुम्हें वह व्यक्ति याद है? हम जब कहेंगे कि आप कौन से व्यक्ति की बात कर रहे हो? वह यदि आपको उसका फ़ोटो ग्राफ दिखायगा, तो हम कहेंगे कि हमें याद है, हमने उसको पहले देखा था, उसका चित्र हमें दिखाया जाएगा तो.. हम कहेंगे ओह्ह, वो सांगली में रहता था ना, यस, यस!.. वही बात है। भगवान का नाम, रूप, गुण, लीला, धाम, परिकर जब इसका हम श्रवण करते हैं तब पुनः हम कृष्ण का स्मरण करते हैं। कृष्ण भी याद आते हैं, राधारानी भी याद आती है। नंद बाबा और यशोदा भी याद आते हैं और मधुमंगल भी याद आते हैं। सुरभि गाय भी याद आती है।
चिन्तामणिप्रकरसद्मसु कल्पवृक्ष लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम्। लक्ष्मी सहस्रशतसम्भ्रमसेवयमानं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥
( ब्रह्म सहिंता श्लोक २)
अर्थ:- मैं उन आदिपुरूष भगवान् गोविन्द का भजन करता हूँ, जो लाखों कल्पवृक्षों से घिरे हुए चिंतामणिसमूह से निर्मित भवनों में कामधेनु गायों का पालन करते हैं एवं जो असंख्य लक्ष्मियों अथवा गोपियों द्वारा सदैव प्रगाढ़ आदर और प्रेम सहित सेवित हैं।
कल्प वृक्ष भी याद आते हैं।
सब कुछ याद आते हैं।
प्रश्न- जब हम प्रांरभिक दिनों में जप करते थे तो उसमें कुछ उत्साह और स्वाद होता था लेकिन अब कुछ वर्षों के बाद लग रहा है कि वो स्वाद अब नहीं रहा है? ऐसा क्यों?
गुरु महाराज- इसमें महामन्त्र का कसूर नहीं है। महामंत्र तो मीठा ही है। हो सकता है कि हमसे कुछ अपराध हो रहे हैं। हम ऐसा विचार कर सकते हैं कि कुछ अपराध तो नहीं हो रहा है। नामे रुचि, जीवेर दया, वैष्णव सेवा अर्थात नाम में और औऱ रुचि बढ़ाने के लिए और वैष्णवों की सेवा और जीवे दया करनी होती है। क्या वो हम नहीं कर रहे हैं?
जब अपराध होते हैं तो एक बात यह होती है कि नाम में रुचि नहीं आती। कृष्ण मीठे नहीं लगते। कृष्ण कड़वे लगते हैं।
यहाँ तक कि भगवान् का नाम भी मुख से निकलना मुश्किल हो सकता है। इन अपराधों का परिणाम ऐसा निकलता है। हमनें देखा है।
एक बात् हमें याद है एक भक्त छोड़ कर चले गए या माया ने उनको वहाँ से बाहर कर दिया। पुनः जब वे लौटे तब वह कह रहे थे कि मैं जानता हूं। मैं समझ चुका हूँ कि किसके कारण मैं भक्तों के सङ्ग से वंचित हुआ था, मैं चला गया या मुझे भेजा गया था। मैं वैष्णव अपराधी था। मैं वैष्णवों के प्रति अपराध, निंदा खूब किया करता था। इसलिए मुझे जाना पड़ा। मुझे भक्तों से, भगवान् से दूर भेजा गया। मेरी साधना भी छूट गयी। अब लातों के भूत बातों से नहीं मानते तो मुझे लात मिल गयी है। अब मैं पुनः वैष्णव अपराध नहीं करूंगा। नो मोर! नो मोर! मैं इसका दुष्परिणाम जानता हूँ। हमसे ऐसा तो कुछ नहीं हो रहा ? हम थोड़ा दिल टटोलकर देख सकते हैं। कुछ सिंहावलोकन कर सकते हैं लेकिन यह विश्वास होना चाहिए कि हरिनाम तो मीठा ही है। इसमें कोई दो राय नहीं है। इसका आस्वादन करते जाओ, जप करते जाओ, कीर्तन करते जाओ। एक दिन अवश्य रक्षिबे कृष्ण होगा
दैन्य, आत्मनिवेदन, गोप्तृत्वे वरण। ‘अवश्य रक्षिबे कृष्ण’-विश्वास, पालन॥3॥
(भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित वैष्णव गीत)
अर्थ:- शरणागति के सिद्धांत हैं - विनम्रता, कृष्ण के प्रति आत्म-समर्पण, कृष्ण को अपना पालनकर्ता स्वीकार करना, यह दृढ़ विश्वास होना कि कृष्ण अवश्य ही रक्षा करेंगे।
या
उत्साहान्निश्चयाद्धैर्या त्तत्तत्कर्मप्रवर्तनात् ।
सङ्गत्यागात्सतो वृत्तेः षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति।।
( उपदेशामृत श्लोक 3)
अर्थ:- शुद्ध भक्ति को संपन्न करने में छह सिद्धांत अनुकूल होते हैं:(१) उत्साही बने रहना(२) निश्चय के साथ प्रयास करना(३) धैर्यवान होना(४) नियामक सिद्धांतों के अनुसार कर्म करना( यथा श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणम- कृष्ण का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना)(५) अभक्तों की संगति छोड़ देना(६) पूर्ववर्ती आचार्यों के चरण चिन्ह पर चलना
ये छहों सिद्धांत निस्संदेह शुद्ध भक्ति की पूर्ण सफलता के प्रति आश्वस्त करते हैं।
भक्ति कैसी करनी होती है? उत्साह के साथ, निश्चय के साथ, धैर्य के साथ कि मुझे इस हरिनाम का आस्वादन करना ही है। श्रील प्रभुपाद पीलिया नामक रोग के उदाहरण से समझाया करते थे कि जब आप पीलिया के रोगी को कुछ मीठा शक्कर या मिश्री खाने के लिए दोगे। वह कहेगा कि यह तो कड़वा है। मिश्री तो मीठी ही है लेकिन वह स्वयं मरीज है, बीमार है, रोगी है उसे पीलिया हुआ है।इसलिए पुनः वह डॉक्टर के पास जाकर कह सकता है कि क्या दूसरा कोई उपाय या औषधि नहीं है? डॉक्टर कहेगा नहीं!
जैसे हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।
(बृहन्नारदीय पुराण( ३.८.१२६)
अनुवाद:- इस कलियुग में आध्यात्मिक उन्नति के लिए हरिनाम हरिनाम और केवल हरिनाम के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है अन्य कोई विकल्प नहीं है अन्य कोई विकल्प नहीं है।
उसी प्रकार मिश्री मिश्री मिश्री ही केवलम या मिश्री ही खानी होगी। यह पीलिया रोग की दवा है। जब पीलिया होता है तब गन्ना या गन्ने का रस या मिश्री ऐसे पदार्थ खाने से ही उस रोग से मुक्ति होती है। डॉक्टर कहेंगे- दूसरा उपाय नहीं है। दूसरा उपाय नहीं है। यही उपाय है। इसी को खाना होगा। मरीज, डॉक्टर और दवा में विश्वास के साथ वह मिश्री खाता जाएगा, तो क्या होगा? तत्पश्चात वह हर दिन अनुभव करने लगेगा कि यह मिश्री अथवा शक्कर तो मीठी है। कुछ दिन पश्चात उसे लगेगा और मीठी है, फर्स्ट क्लास है। एक दिन तो वह खाने के लिए तैयार नहीं था, मिश्री खाते खाते खाते वह रोग से मुक्त हो रहा है और अब तो वह और मांग रहा है मुझे और दो, मुझे और मिश्री दो, मुझे और मिश्री दो, मिश्री समाप्त हो गई है, तब खड़े क्यों हो? जाओ, लेकर आओ। मुझे और चाहिए। वैसा ही हरि नाम है। हरेर्नामैव केवलम। हरि नाम तो मीठा है ही। नहीं! नहीं!
यह तो मीठा नहीं है, कुछ और मीठा है क्या? चलो, सिनेमा संगीत ही सुनते हैं। इससे और अपराध होंगे। हरि नाम में श्रद्धा नहीं होना, यह भी दसवां नाम अपराध है। हरिनाम में पूरी श्रद्धा नहीं होना अर्थात इस संबंध में बहुत सारा उपदेश सुनने के उपरांत भी विषय आसक्ति बनाए रखना, सारा उपदेश सुना तो सही लेकिन फिर भी चाय पीते ही जाना। यह अपराध है। यह नाम अपराध है। देखना चाहिए वैसे दस नाम अपराध है तो उस में से कौन सा अपराध हो रहा है। पहला अपराध हो रहा है ? दूसरा हो रहा है? वैसे प्रायः पहला अपराध तो हम सभी करते ही रहते हैं। अपराधपरायण। हम अपराध करने में एक्सपर्ट हैं अर्थात सबसे आगे होते हैं। वैष्णव निंदा क्या यह अपराध तो नहीं हो रहा है? गुरु अवज्ञा तो नहीं हो रही है? श्रुति, शास्त्र, निंदनम तो नहीं हो रहा है? श्रुति शास्त्रों की निंदा तो नहीं हो रही है?.. यह भी देखना है, सोचना है लेकिन हमें किसी हालत में हरिनाम को नहीं छोड़ना है।
ओके! प्रश्न उत्तर को अब यहीं विराम देंगे। समय समाप्त हो चुका है।
हरे कृष्ण!