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जप चर्चा पंढरपुर धाम 26 फरवरी 2021 हरे कृष्ण ! 608 स्थानों से भक्त जुड़ गऐं हैं। तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥ (भगवत गीता 4.34) अनुवादः आध्यात्मिक गुरु के पास जाकर तत्व जानने का प्रयत्न करो। नम्रता पूर्वक उनसे जिज्ञासा करो। और उनकी सेवा करो। वही आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति आप को ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने ही तत्व को जान लिया है।* भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है भगवतगीता के चौथे अध्याय के 34 श्लोक में, आप लिख के ले लो! वहां पर भगवान कृष्ण ने कहा है, तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया* गुरु के पास जाओ सेवा भाव के साथ! विरोधी भाव के साथ नहीं! प्रश्न पूछो और फिर वे गुरुजन आपको उत्तर देंगे। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं क्या देंगे? आपको दिक्षा देंगे। शिक्षा का भी महत्व होता है पहले मैं आपको शिक्षा देंगे। *उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः* क्योंकि उन्होंने तत्व का दर्शन किया हुआ है। वह तत्ववैत्ता हैं। वे आपको उत्तर देंगे। आपके प्रश्नों का उत्तर देंगे। इस प्रकार हम लोगों का यह संवाद हम लोगों का चलता रहता है। भगवान कृष्ण ने ऐसा भी कहा है बोधयंत्तम परस्पऱ एक दूसरे को बोध करते रहते है। हम सुन रहे है और फिर सुनाते भी है। सुनी हुई बातें सुनाते भी है। और ऐसी है श्रृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः साधु व्यस्त रहते है। श्रृण्वन्ति गायन्ति सुनते है, कहते है, ग्रहण करते हैं। नैमिषारण्य में नैमिष नाम का वन है यह वन काफी प्रसिद्ध है। यहां 5000 वर्ष पूर्व हुआ कलियुग के प्रारंभ में, 80000 ऋषि एकत्रित हुए थे। और उनके प्रमुख थे शौनक आदि ऋषि। शौनक आदि ऋषि और अन्य ऋषि वहां एकत्रित है। और व्यासासन पर थे सूत गोस्वामी। शौनक मुनी अन्य और दूसरे ऋषि से जो भी जिज्ञासा होती थी बोलते थे। और फिर सूत गोस्वामी उनका उत्तर देते थे। वहां पर यह संवाद चल रहा है। शौनक आदि ऋषि और सूत गोस्वामी के मध्य में नैमिषारण्य में। श्रीमद्भागवत जब हम पढ़ते हैं, तो कथा तो सुना रहे है भागवत की भागवत में शुकदेव गोस्वामी। शुक उवाच के साथ-साथ , बीच-बीच में सूत उवाच पढ़ने को भी मिलता है । ऐसा क्यों है? वैसे कथा तो यहां नैमिषारण्य में सूत गोस्वामी सुना रहे हैं। यहां पर प्रश्न पूछे हुए है तो फिर उत्तर देते समय उत्तर कैसे देते है? "हां मैं था वहां जब शुकदेव गोस्वामी राजा परीक्षित को कथा सुना रहे थे, तो उस सभा में उस धर्म सभामें मैं भी एक श्रोता था।" आपने जैसा प्रश्न पूछा है मुझे ऐसे ही प्रश्न राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी को पूछा था। तब शुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित के प्रश्नों का उत्तर दिए । उस उत्तर को, है मुनियों में आप सभी को सुना रहा हूं। शुकदेव गोस्वामी और राजा परीक्षित का जो संवाद हो रहा है, वे नैमिषारण्य में पहुंच गये है, गंगा के तट पर हस्तिनापुर के थोड़े ही बाहर वहां जब राजा परीक्षित अलग-अलग प्रश्न पूछते है। वैसे इन सब में पूरा तो नहीं कह रहा हूं थोड़ा कह रहा हूं यह बातें। इसलिए कह रहा हूं, थोड़े दिन पहले मैं इसको पढ़ रहा था। श्रीमद्भागवत दशम स्कंध अध्याय का संख्या 87 उसके प्रारंभ में ही राजा परीक्षित ने प्रश्न पूछे है। श्रीपरीक्षित उवाच ब्रम्हान्ब्रम्हाण्यनिर्देश्ये निर्गुणे गुणवृत्तयः । कथं चरन्ति श्रुतयः साक्षात्सदसतः परे ।। ( श्रीमदभागवतम 10.87.1) अनुवादः श्री परीक्षित ने कहा हे ब्राम्हण भला वेद उस परम सत्य का प्रत्यक्ष वर्णन कैसे कर सकते हैं? जिसे शब्दों द्वारा बतलाया नहीं जा सकता। वैभव प्रकृति के गुणों के वर्णन तक ही सीमित है। किंतु ब्रह्मा समस्त भौतिक स्वरूप तथा उनके कार्यों को लांघ जाने के कारण इन गुणो से रहित है। आपको समझ में आया क्या प्रश्न था? संस्कृत में तो सुना होगा संस्कृत आता है? नहीं आता है, तो फिर संस्कृत सीखो! कन्नड़ और फिर क्या क्या भाषा! ब्रज की भाषा भी आप सीखते हो! अंग्रेजी को म्लेच्छ भाषा कहते है। म्लेच्छो की भाषा आप सिखते हो। देवों की भाषा नहीं सिखते! देव भाषा ही नहीं भगवान की भाषा है। भगवान भी इसी भाषा में बोलते है। श्रीमद्भागवत भी इसी भाषा में बोला गया है। इस भाषा को भी थोड़ा पढ़ो और समझो। आप भाषांतर पर ही निर्भर रहते हो। यह जो प्रश्न है, राजा परीक्षित का अब शुकदेव गोस्वामी इसका उत्तर देंगे। कैसे उत्तर देंगे? वे अब कहने वाले हैं। इसी अध्याय में जिसका मैंने उल्लेख किया है। वह कहेंगे "हे राजा परीक्षित! तुमने जो प्रश्न पूछा है ऐसा ही प्रश्न नारद मुनिने बद्रिकाश्रम में नारायण ऋषि से पूछे थे"। एक समय नारायण ऋषि कई भक्तों से घिरे थे। बैठे थे। विराजमान थे। वहां नारद मुनि आए उन्होंने भी वही प्रश्न पूछा जो तुमने अभी अभी मुझे पूछा। मैं भी उत्तर दूंगा जो उत्तर नर नारायण ऋषि ने दिये थे, वही उत्तर अब मैं तुम्हें सुनाऊंगा। और फिर नारद मुनि भी वही प्रश्न पूछे, जो नर नारायण मुनि है, वो भगवान है बद्रीकाश्रम में उनसे जो प्रश्न पूछे नारद मुनि ने। नरनारायण! नारायण ऋषि भगवान ने कहा वही कहेंगे, हे नारद तुमने जो अभी मुझे यह प्रश्न पूछा, यही प्रश्न जनलोक में यह संवाद हो रहा है। बद्रिकाश्रम में। नारद मुनि और नारायण ऋषि के मध्य में लेकिन जनलोक में एक समय सनाकादी मुनि आपस में चर्चा कर रहे थे। आपस में संवाद विचार हो रहा था। नानाशास्त्र- विचारणेक-निपुणौ सद्धर्म-संस्थापक कौ , ऐसे षड़ गोस्वामी वृंद वृंदावन में शास्त्रार्थ किया करते थे। कई शास्त्रों का ढेर बीच में रखकर बैठे हैं और उस पर मत हो रहा है, चर्चा हो रही है।शास्त्रों का निरूपण हो रहा है। वैसे ही यहां सनकादी मुनि उनमें से 'सनक सनातन' प्रश्न पूछते हैं। सनंदन को प्रश्न पूछते हैं। सनंदन एक भाई है। यह चार भाई है। चार कुमार कहलाते हैं। कुमार इसीलिए कहलाते हैं, क्योंकि ये सदा के लिए कुमार ही रहते रहते है। कौमारं यौवनं! जरा नहीं होता है। कुमार ही रहते हैं। कभी युवक नहीं बनते वृध्द बनने का तो कोई प्रश्न ही नहीं। बालक ही रहते हैं सदा के लिए। कुमार, कुमार ही रहते हैं। एक दो कुमारों ने अपने भ्राताश्री सनंदन से फिर प्रश्न पूछा। नारद मुनि जो यहां बद्रिकाश्रम में थे उनसे भगवान ने कहा, हे "नारद मुनि तुमने मुझे जो प्रश्न पूछा ऐसा ही प्रश्न सनत सनातन ने सनंदन से पूछा था, उन्होंने जो उत्तर दिया वही उत्तर मैं आपको सुनाऊंगा" इस तरह से आप देख सकते हैं परंपरा भी चल रही है। इसका उत्तर ऐसा होगा मुझे लगता है। मेरा विचार यह है। मेरा खयाल हे या यह विचार है, इसको कोई स्थान ही नहीं है। अब सनंदन को प्रश्न पूछा गया तो वह कहने वाले हैं। एक समय की बात है। महाविष्णु आप जानते हो कहां विश्राम करते है? या पहुड़े रहते हैंँ? कारणोंदक्षायी विष्णु! क्षायी मतलब विश्राम करते हैं। यह सभी विश्राम करते हैं। इसीलिए क्षीरोदकक्षायी है, मतलब क्षीरसागर मे विश्राम करने वाले। गर्भोदकक्षायी विष्णु, कारणोंदक्षायी विष्णु कारणोंदक सागर है उस में पहुड़े रहते हैं, वह उनका स्थान है वह महाविष्णु कहलाते हैं। इस प्रकार 3 स्थान है। तीन विष्णु है। जो संकर्षण बलराम ही है। बलराम से संकर्षण, संकर्षण से महाविष्णु, महाविष्णु से गर्भोदकक्षायी विष्णु, गर्भोदकक्षायी विष्णु से क्षीरोदकक्षायी विष्णु। इस प्रकार जो सनंदन है। भगवान योगनिद्रा में थे। महाविष्णु जब संसार में प्रलय होता है तो सारे ब्रह्मांड और ब्रह्मांड में जितने भी बद्धजीव हैं वे सभी के सभी महाविष्णु भगवान के रूप में प्रवेश करते हैं। और यह तब होता है जब ब्रह्मा की रात होती हैं। ब्रह्मा के रात्रि की संध्या होती है। नहीं नहीं रात्रि नहीं क्योंकि, अब ब्रह्मा ही नहीं रहे। क्योंकि ब्रह्मा की जो रात होती हैं तो आंशिक प्रलय होता है। लेकिन ब्रह्मा जो अब 100 साल के हो गए तो ब्रह्मा की मृत्यु होती है। फिर ब्रह्मा ने यह कहा तुमको मैं कैसे वरदान दे सकता हूं। हे हिरण्यकशिपु तुम कह रहे हो की, मुझे अमर बना दो, मैं स्वयं ही मरने वाला हूं बेटा! और तुम मुझसे अमरता का वरदान मांग रहे हो। तो जब ब्रह्मा 100 साल के होते है तो सारे ब्रह्मांड महाविष्णु भगवान से रूप में, विग्रह में प्रवेश करते हैं। यह सब तब होता है। इसीलिए कहते है भगवान महान होते हैं। यह समझा जाता है इन सब बातों से। भगवान जब सास लेने लगते और फिर उश्वास होता हैं, श्वास उश्वास यानी सांस अंदर लेना और सांस छोड़ना। भगवान जब सांंस अंदर लेते हैं तो सारे ब्रह्मांड विभूति जो भगवान की है भगवान में प्रवेश करती है। फिर अब भगवान उश्वास लेंगे मतलब आप फिर सृष्टि होगी पुनः ब्रह्मांड महाविष्णु भगवान के रोम-रोम से निकलेंगे। तो उस समय सनंदन कह रहे हैं। उस समय क्या होगा? वहां सारे वेद पहुंच गए और वेद हो गए मूर्तिमान। मूर्तिमंत वेद भी। कई बार हम आपको बताते हैं वेद भी व्यक्ति है। नदी व्यक्ति है। पर्वत व्यक्ति है। हरि हरि !! पद्मपुराण में जहां भागवत महात्म्य लिखा है। सुनाया है। चार कुमार हरिद्वार में गंगा के तट पर कथा करने जा रहे थे और यह कथा होने वाली थी भक्ति ज्ञान और वैराग्य के लिए। वैसे ज्ञान और वैराग्य के लिए ही यह कथा होने वाली थी। वैसे वहां बताया है। पहले पहले वहां पहुंचने वाले कौन थे? वैष्णव थे। सबसे पहले पहुंचते हैं। और फिर वहां लिखा है, कई सारे आसन बैठने के लिए पहले से ही तय की हुई थी। वेदों के लिए चार आसन थे। और 18 पुराणों के लिए, 18वा पुराण क्योंकि भागवतम है उनके आसन थे। और गंगा जमुना गोदावरी सरस्वती कावेरी 7 नदियों के मुख्य आसन और भी नदिया पीछे बैठी थी। और कई धामों के लिए भी आसन है। पंढरपुर धाम के लिए आसन था। वहां कुरुक्षेत्र धाम के लिए आसन था। वहां हरिद्वार के लिए आसान था वहां। धामों के लिए, नदियों के लिए, शास्त्रों के लिए आसन थे। यह वहां उल्लेख है तो सभी वहां पहुंचे अपना अपना आसन ग्रहण किया। वैसे ही यहां जब योगनिद्रा में पहुड़े हुए है महाविष्णु अब जागेंगे भी और कुछ श्वास भी प्रारंभ होगा। उसी के साथ सृष्टि भी होने वाली है सृष्टि का उत्पन्न होना, ब्रम्हांडो का निकलना महाविष्णु के विग्रह से। उस समय यह सारे वेद मूर्तिमान अपने अपने रूप धारण करके वे भगवान की स्तुति करने वाले हैं। वैसे यह जो अध्याय हैं दसवां स्कंध 87 वा अध्याय उसका नाम है साक्षात वेदों द्वारा स्तुति। साक्षात वेद वहां पहुंचे हैं और स्तुति कर रहे हैं भगवान की स्तुति कर रहे हैं। आदो मध्ये अन्ते हरि सर्वत्र गियते ऐसा हम लोग सुनते है। सभी शास्त्रों में, शास्त्रों के प्रारंभ में, मध्य में, अंत में हरि का गान मिलेगा हरि सर्वत्र गियते। तो यहां स्वयं वेद साक्षात वेद वहां पहुंचे हैं और भगवान का स्तुति गान कर रहे हैं और यहां उल्लेख हुआ है। यह स्तुति गान वैसा ही है जैसे राजा के दरबार में कई बार कवि आते हैं मराठी में उसे शाहिर कहते हैं और वे राजा का गुणगान गौरव गाथा गाते रहते हैं। उनको और भी क्या बोलते है ना! हरि हरि। जो कृष्ण जन्म हुआ तो वहां भी ऐसे जन पहुंचे थे और वे स्तुति गान कर रहे थे। कृष्ण कन्हैया लाल की हाथी घोड़ा पालखी ! तो जैसे राजा के दरबार में राजा की स्तुति करने वाले होते हैं और जो सत्य तथ्य है वही कथा करते है। चमचे गिरी नहीं करते। यहां पर जो वेद हैं स्वयं वे स्तुति कर रहे है। वेद उवाच, सामवेद उवाच, ऋग्वेद उवाच। तो उन वेदों ने क्या कहा? कैसे स्तुति की भगवान की? वही अब यह संनंदन, सनत सनातन को सुनाने वाले हैं। और सनंदन जो बातें सुनाई वही बातें अब बद्रिकाश्रम में.. वह जनलोक था। बद्रिकाश्रम में नर नारायण या नारायण ऋषि भगवान नारद मुनि को सुनाने वाले हैं । वह बद्रिकाश्रम था। और गंगा के तट पर फिर वही बातें शुकदेव गोस्वामी राजा परीक्षित को वही बातें सुनाने वाले हैं जो उन्होंने सुनी है या जो सुनाई थी बातें नारायण ऋषि से। नारायण ऋषि ने की हुई बातें और फिर नैमिषारन्य में सुत गोस्वामी वही बातें सुनाएंगे शौनकादि ऋषि-मुनियों को जो बातें उन्होंने शुकदेव गोस्वामी से सुनी थी। और फिर श्रील प्रभुपाद वही बातें सुनाएंगे जो उन्होंने सुत गोस्वामी से सुनी है। और फिर हम पंढरपुर में आपको वही बातें सुनाएंगे जो श्रील प्रभुपाद ने न्यूयॉर्क में जब उनको प्रश्न पूछा था उस प्रश्न का प्रभुपाद जो उत्तर दिए वही हम आपको सुनाएंगे। फिर वही आप नागपुर में हो या कोल्हापुर में या मायापुर में जिस पुर में भी आप हो या पुरंजन भी हो जो पूरी में रहता है वह पुरंजन कहलाता है, वैसे हम पुरंजन है पुरंजन पुरी में रहने वाले। तो हम जो भी जहां के भी जन है तो हमें जारे देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश जब हम करेंगे तो हमें वही बातें बतानी होगी जो हमने गुरुजनों से शिक्षा दीक्षा गुरुजनों से सुनी है। इसका आधार भी शास्त्र ही है तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते शास्त्र प्रमाण है! यह जो सारे संवाद है उसी से तो बने हैं यह सारे शास्त्र। इसी के साथ "एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः" एवं इस प्रकार तो आगे भगवान परंपरा का तो उल्लेख किए ही है। मैंने यह ज्ञान, यह गीता का यह ज्ञान विवस्वान को सुनाया, और विवस्वान ने मनु को सुनाया, मनु ने इक्ष्वाकु को सुनाया और इस प्रकार एवं मैं पुनः "मयाते अद्य" अद्य मतलब आज अधूनैव अभी अभी मैं सुना रहा हूं। हरि हरि !! एक तो यहां मुझे यह कहना था यह सब कहने के पीछे मेरा एक उद्देश्य यह भी था मुझे यह आपके ध्यान में लाना हैं। एक तो यह परंपरा की बात कैसे चलती है देखो "एवं परम्पराप्राप्तम" या सत्य का कैसे प्रचार-प्रसार होता है। और इसी के साथ जब हम यहां थोड़ा सुन लिए किसने किससे कथा या सत्य को सुना था उन्होंने किससे सुना था, उन्होंने किससे सुना था तो देख लीजिए कितने सारे व्यक्तित्व चरित्र इसमें सम्मिलित है। केवल जीसस नहीं है। भगवान के पुत्र एक हो गए बस। ज्यादा कोई बात नहीं कर सकते और दो चार पुत्र हजरत मोहम्मद यह सब कुछ ही गिने-चुने हैं पाश्चात्य देशों में और तथाकथित और और धर्मों में। धर्म तो एक ही होता है लेकिन यहां पर कितने सारे व्यक्तित्व है यह तो एक बात और उसी के साथ कितने सारे स्थान भी है। पंढरपुर भी हुआ, नैमिषारण्य भी हुआ, वह गंगा का तट भी हुआ, फिर बद्रिकाश्रम भी हुआ, जन लोक भी है। जनलोक का नाम लिया तो फिर जन लोक कहा है। लेकिन जन लोक अकेला नहीं है और भी कई लोक है 14 भुुवन है यानी 14 लोग हैं। "भूर भुव स्वाहा" और येसेही जन लोक हैं, तप लोक है, सत्यलोक है इस तरह इन लोको का इन स्थानों का पता चलता है। फिर केवल एक ब्रह्मांड ही नहीं है है कई सारे ब्रह्मांड है और फिर महाविष्णु है महाविष्णु से सारे ब्रह्मांड उत्पन्न होते हैं। इसिके साथ हमको ब्रह्मांड विज्ञान ( कॉस्मोलॉजी) कहो या खगोल कहो, भूगोल, भूगोल ही नहींं साथ में खगोल भी सब का ज्ञान प्राप्त होता है। या मै सोच रहा था कि पाश्चात्य देशों में , क्रिश्चियनिटी मैं ऐसी गलत धारणा है कि पृथ्वी समतल है। लेकिन भूगोल इस शब्द से जो शब्द कब से है सृष्टि के प्रारंभ से भूगोल, भू मतलब पृथ्वी और कैसी हैं पृथ्वी? गोलाकार! यह ज्ञान तो कब से मौजूद है। लेकिन अभी अभी कुछ साल पहले दो हजार चार हजार साल पहले तक पाश्चात्य देश के लोगों को इतना भी ज्ञान नहीं था। क्योंकि उस समय वे ज्यादा घूम फिर नहीं पा रहे थे। उस समय कुछ ट्रांसपोर्टेशन यह नौकाए बोट नहीं था और विमान इत्यादि ऐसी व्यवस्था नहीं थी। तो लोगों को लगता था कि हम चलते जाएंगे, चलते जाएंगे पर एक समय क्या होगा कि हम गिर सकते हैं। क्योंकि पृथ्वी समतल है। जैसे आप छत पर हो तो जाते रहोगे जाते रहोगेे तो क्या होगा? आप लोग गिर सकतेेे हो। लेकिन इसको भूगोल कहां है भूगोल है, खगोल है, ब्रह्मांड भी अंडे के आकार का है गोलाकार आकार का है। इस प्रकार यह ब्रह्मांड विज्ञान और खगोल विज्ञान ( कॉस्मोलॉजी और एस्ट्रोनॉमी ) खगोल भूगोल का भी ज्ञान इसी के साथ शास्त्र में हमको प्राप्त होता है। इसकी खोज के लिए यह मुरख लोग *न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा: ।* *माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता: ॥ १५ ॥* अनुवाद - जो निपट मूर्ख है, जो मनुष्य में अधम है, जिन का ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते। "न मां दुष्कृत" यह दुष्ट लोग हैं मेरी शरण में नहींं आते। माया ने इनका दिमाग बिगाड़ दिया है बुद्धि को चोरी कि हैं। यह कौन है मुढ़ा हैं रास्कल्स मूर्ख हैंं। इसीलिए प्रभुपाद करते थे.. भगवदगीता यथारूप है, तो मतलब भगवान कहे मुढ़ा तो परंपरा में क्या कहा जाएगा। भगवान ने कहा मुढ़ा यह रास्कल्स हैं शास्त्रज्ञ ( साइंटिस्ट ) मूर्ख है। मैं उनके चेहरे पर लात मारूंगा। तो शास्त्रों का अध्ययन जब हम करते हैं या परंपरा में ही इस ज्ञान को हम सुनते हैं या उसको सुनाते हैं, इसी के साथ यह सब *ॐ अज्ञान तिमिरंधस्य* इस ज्ञान के साथ हमारे अज्ञान का "तिमिरंधस्य" विनाश होता है। "तमसो मा ज्योतिर्गमय" होता है। अंधेरे से प्रकाश की और हम जाते हैं। इसी के साथ मैंने अभी थोड़ा जो सुनाया यहां समाज हो रहा है। वहां समाज हो रहा है तो एक तो स्थानों का भी ज्ञान होता है। या सारी सृष्टि का और साथ-साथ काल की गणना देखो। यह नहीं कि डार्विन के सिद्धांत की क्रांति और अभी-अभी कुछ हजार साल पहले ही सबसे विकसित योनि जो थी वह वानर थे बंदर थे और हम हो गए? बंदर की औलाद। मनुष्य क्या है? बंदर की औलाद है! उनको कहा पता है कि, हम ब्रह्मा की औलाद है, बंदर की औलाद नहीं है। तो डार्विन ने उनका कुछ (बाइसेंटेनिअल) 200 साल पूरा होना भी मना रहे हैं। यह जो काल की गणना देखो नैमिषारण्य में कथा कब हुई। फिर शुकदेव गोस्वामी "कृष्ण स्वधाम उपगते" कृष्ण अपने स्वभाव लौटे। "तद्दीनात कलियुगे" कलियुग आया था क लियुग के जब 30 साल बीत चुके थे तब शुकदेव गोस्वामी कथा सुनाएथे। मतलब लगभग 5000 वर्ष पूर्व शुकदेव गोस्वामी कथा सुनाएं थे। और उसके कई हजारों वर्ष पूर्व नर नारायण या नारायण ऋषि कथा सुनाएं बद्रिकाश्रम में। और फिर हो सकता है लाखो वर्ष पूर्व वहां जन लोक में सनंदन कथा सुनाएं और सृष्टि अब नहीं भी हुई थी और होना प्रारंभ हुआ था तब महाविष्णु की स्तुति की वेदों ने। वह कौन सा काल, कितने प्राचीन काल की बात है तो यह सब आंखें खोलने वाली बातें हैं। और यही है "ज्ञानाञ्जन शलाकया" या फिर "ज्ञानान्गि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा" यह ज्ञान की अग्नि क्या करती है? हमारे पाप की जो राशि है या पाप की या वासना के जो बीज है उनको या उसके ढेर के ढेर पड़े हैं उसको यह अग्नि राख बना देती है जला देती है। उसी के साथ हम मुक्त हो जाते हैं। यह सब बातें सुनकर हम उच्च विचार के बन जाते हैं दूरदृष्टि, बड़े ह्रदय वाले और सचमुच हम ज्ञानी बन जाते हैं। भक्त भी बन जाते हैं ज्ञानी बन जाते हैं। वासुदेवे भगवति भक्तियोग: प्रयोजित: । जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् ॥ ७ ॥ ( श्रीमद् भागवतम 1.2.7) अनुवाद - भगवान श्री कृष्ण की भक्ति करने से मनुष्य तुरंत ही पहले तू ज्ञान तथा संसार से वैराग्य प्राप्त कर लेता है। यह सब श्रवण कीर्तन करना यह भक्ति है। "श्रुन्वन्ति गायन्ति गुणन्ति साधव" यह सब तो कहा ही है ऐसी भक्ति करते हैं उसी के साथ भक्ति करने से ज्ञान आ जाता है ऐसा भागवत का सिद्धांत है। "जनयत्याशु" जनयेति उत्पन्न होता है आशु जल्दी से "वैराग्यं ज्ञानं च" हमारे जीवन में वैराग्य ज्ञान अनासक्ति उत्पन्न होता है। अज्ञानी से हम ज्ञानमय विज्ञानमय बन जाते हैं। पहले हम अन्नमय थे, पेट भर लिया खुश जीवन का लक्ष्य पेट भरना है "पहले पोटोबा बाद में विठोबा"। तो यह सब भूल जाओ आप और सुनो यह सत्य परंपरा में सुनो आप परंपरा में सुनाओ। *हरे कृष्ण !!*

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