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जप चर्चा पंढरपुर धाम दिनांक 27 फरवरी 2021 हरे कृष्ण! हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।। आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 674 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हरिबोल! जीव जागो! आज का दिन भी महान है। हरि! हरि! आज पूर्णिमा भी है, गौर पूर्णिमा एक माह दूर है। आज की बसंत पूर्णिमा श्री कृष्ण मधुर उत्सव का दिन है, आज रास क्रीड़ा का भी दिन है। भगवान् की रास क्रीड़ाएं होती रहती हैं लेकिन जब पूर्णिमा आती है, तब पूर्णिमा का चांद और तारे भी उदित होते हैं। कृष्ण चंद्र गोपियों तथा राधा के साथ रास क्रीड़ा खेलते हैं। शरद पूर्णिमा की रात्रि की रास क्रीडा एक विशेष रास क्रीड़ा मानी जाती है। जिसे वृंदावन में खूब धूमधाम से मनाते हैं। रास क्रीड़ा तो केवल वृंदावन में ही होती है और कहीं नहीं होती। अन्य स्थानों पर कीर्तन होता है, नवद्वीप मायापुर में संकीर्तन होता है। शरद पूर्णिमा अथवा रास क्रीड़ा की पूर्णिमा महत्वपूर्ण है। आज की पूर्णिमा भी क्योंकि यह वसंत ऋतु की पूर्णिमा है। बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् । मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता १०.३५) अनुवाद:- मैं सामवेद के गीतों में बृहत्साम हूँ और छन्दों में गायत्री हूँ | समस्त महीनों में मैं मार्गशीर्ष (अगहन) तथा समस्त ऋतुओं में फूल खिलने वाली वसन्त ऋतु हूँ। भगवान कहते हैं कि ऋतुओं में वसंत ऋतु में हूं, वसंत ऋतु श्रेष्ठ है। पुष्प सर्वत्र खिलते हैं, कृष्ण भी रास क्रीड़ा के लिए तैयार हो जाते हैं। ऐसी मान्यता अथवा समझ है कि बंगाल में शरद पूर्णिमा वृंदावन क्षेत्र में मनाते हैं। आज की पूर्णिमा बंगाल में अधिक प्रचलित है इसलिए बंगाल में इसे मनाया जाता है। श्री कृष्ण पूर्णिमा मधुर महोत्सव की जय! यह संभावना है कि सहजिया मंडली भी इसे अपने ढंग से मनाती है, ये लोग ही कृष्ण बन जाते है। स्त्रियों को गोपियां व राधा बनाते हैं व नँगा नाच करते हैं। कृष्ण के रास क्रीड़ा की नकल करते हैं। हरि! हरि! इन्होंने धर्म का सत्यनाश कर दिया है, ऐसे सहजियों को धिक्कार है। सावधान! इन सहजियों से दूर रहो। हरि! हरि! आज के ही दिन नरोत्तम दास ठाकुर का अविर्भाव दिवस भी है। नरोत्तम अविर्भाव तिथि महोत्सव की जय! एक बार श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु एक विशेष दिशा की ओर मुड़ कर जोर-जोर से 'नरोत्तम' 'नरोत्तम' नरोत्तम पुकारने लगे। किसी को पता ही नहीं चल रहा था कि महाप्रभु क्यों जोर जोर नरोत्तम नरोत्तम पुकार रहे हैं। महाप्रभु खेंचुरी ग्राम की ओर देखते हुए जोर-जोर से 'नरोत्तम' नरोत्तम' पुकार रहे थे। बहुत समय के उपरांत भक्तों को साक्षात्कार हुआ कि चैतन्य महाप्रभु भविष्यवाणी कर रहे थे कि एक नरोत्तम दास ठाकुर नाम के महात्मा प्रकट होंगे। वे आज के दिन गंगा की एक धारा अर्थात पदमावती नदी के तट पर स्थित खेंचुरी ग्राम में प्रकट हुए थे। वे राज पुत्र थे, कल मुझे भी नरोत्तम दास ठाकुर के जन्म स्थान पर जाने का अवसर प्राप्त हुआ। वृंदावन के कुछ भक्त यह उपस्थित है, कल मेरे जन्म स्थान पर अरावड़े गए थे, मैं भी नरोत्तम दास ठाकुर के जन्म स्थान पर गया था। हमनें वह स्थान देखा और दंडवत प्रणाम किया और वहाँ नरोत्तम दास ठाकुर का स्मरण भी किया। दुनिया वाले कहते हैं कि खेंचुरी ग्राम बंगाल देश में है। जब हम पदमावती नदी के तट पर थे, हमनें वहां पदमावती नदी के तट पर स्नान भी किया। वहाँ बंगला देश है और नदी के तट पर इंडिया है। वहां कोई भी बाधा नहीं थी, वहां कोई भी तैर कर नदी पार कर भारत पहुंच सकता है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने पद्मावती नदी में प्रेम की स्थापना की अर्थात वहाँ प्रेम डिपॉजिट किया। जैसा कि हम सुन ही रहे हैं की नदियों का व्यक्तित्व है, चरित्र है, उनका रूप है। नदियां मूर्तिमान होती हैं, भगवान् ने पद्मावती नदी को कहा कि यह कृष्ण प्रेम रखने को अपने पास रखो और नरोत्तम को दे देना। नदी ने पूछा कि मैं कैसे पहचानूँगी कि नरोत्तम कौन है?। चैतन्य महाप्रभु ने कहा जब नरोत्तम दास यहाँ पहुंचेगें और तुम में प्रवेश करेंगे अथवा तुम्हारे जल में आएंगे, तब तुम में बाढ़ आएगी तुम्हारा जल वर्धित होगा। उछलेगा, कूदेगा अथवा आन्दोलित होगा व सर्वत्र फैलेगा तब समझना कि वह व्यक्ति नरोत्तम है तब उसे यह प्रेम दे देना। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ऐसी व्यवस्था करके गए। नरोत्तम दास ठाकुर को बचपन से ही कृष्ण प्रेम प्राप्त था। इसलिए उनको घर अथवा राज महल से कोई आकर्षण अथवा लगाव नहीं था। बचपन से उन्हें गौर नित्यानंद से आकर्षण था। गौर नित्यानंद की लीलाएँ, कथाएं श्रवण का अवसर प्राप्त था। वह सदैव सोचते थे कि मैं कब गौर नित्यानंद को प्राप्त करूंगा, उस समय वैसे गौर नित्यानंद अंतर्ध्यान हो चुके थे। उनकी अभिलाषा थी कि कम से कम मैं वृंदावन जाऊंगा और वह इसी प्रयास में रहे। यह बात वैसी ही है जैसे रघुनाथ दास गोस्वामी भी हर समय सोचा करते थे कि मैं जगन्नाथ पुरी जाना चाहता हूं। मैं चैतन्य महाप्रभु से मिलना चाहता हूं, उनके आंदोलन में सम्मिलित होना चाहता हूं। एक समय जब नरोत्तम दास ठाकुर के पिताजी घर पर नहीं थे, वे शहर के बाहर थे। नरोत्तम दास ठाकुर ने इसका फायदा उठाया और युक्तिपूर्वक घर से निकल गए । हममें से कइयों को ऐसा करना पड़ता है। हमनें भी किया था। हरि !हरि! वे सीधे वृंदावन पहुंच गए। वृंदावन सीधे पहुंच गए, यह कहना तो आसान है लेकिन किस भाव के साथ वह वृंदावन जा रहे थे कि गौर नित्यानंद को नहीं मिलूंगा लेकिन राधा कृष्ण को मिलूंगा। राधाकृष्ण प्राण मोर युगल-किशोर। जीवने मरणे गति आर नाहि मोर॥ ( नरोत्तम दास ठाकुर द्वारा रचित) अनुवाद:- युगलकिशोर श्री श्री राधा कृष्ण ही मेरे प्राण हैं। जीवन-मरण में उनके अतिरिक्त मेरी अन्य कोई गति नहीं है। यह रचना नरोत्तम दास ठाकुर की है। उनके लिए यह सब बातें कहने व लिखने की नहीं है। ऐसा उनका साक्षात्कार व भाव है, वह उसी को कहते व लिखते अथवा गाते गए। उनके प्राण राधा कृष्ण ही थे । राधाकृष्ण प्राण मोर युगल-किशोर। वे वृंदावन जा रहे हैं। पूरे भक्ति भाव व विरह व्यथा के साथ आगे बढ़ रहे हैं।'गौर नित्यानंद को तो नहीं मिलूंगा, वे नहीं हैं। उनकी प्रकट लीला अब सम्पन्न नहीं हो रही है लेकिन कम से कम उनके परिकरों को मिलूंगा। उनके भक्तों को मिलूंगा। रूप, सनातन से मिलूंगाऔर ब्रज के जो गौर पार्षद हैं, उनसे मेरी मुलाकात होगी। उन्हें मिलूंगा व उन्हें गले लगाऊंगा।' ऐसे स्वप्न व ऐसी आशा व लालसा के साथ वह वृंदावन जा रहे थे। किन्तु जैसे जैसे वह वृंदावन की और आगे बढ़ रहे थे अथवा मथुरा वृंदावन के निकट पहुंच रहे थे तब उन्हें समाचार मिला कि अब सनातन गोस्वामी भी नहीं रहे, फिर समाचार मिला रूप गोस्वामी भी नहीं रहे। यह गोस्वामी भी नहीं रहे, वह भी नहीं रहे। बंगाल की ओर से आते हुए वह पहले मथुरा पहुंचे। मथुरा में पहुंचकर उन्हें और भी समाचार मिले कि यह नही रहे, वह नहीं रहे। तब नरोत्तम दास ठाकुर सोचने लगे कि अब मैं भी जीवित नहीं रहना चाहता हूं। उनके मन में आत्महत्या के विचार चल रहे थे। तब स्वपन में रूप, सनातन गोस्वामी ने आकर उनको धीरज दिया व प्रोत्साहन दिया। जीते रहो, ऐसा विचार नही करना, जान देने की बात नही करना। तब नरोत्तम दास ठाकुर ने मथुरा से वृंदावन को प्रस्थान किया।नरोत्तम दास ठाकुर के वृंदावन आगमन से वृंदावन में खलबली मच गई। सर्वत्र नरोत्तम के विषय में चर्चा होने लगी कि नरोत्तम आए हैं, नरोत्तम आए हैं। जीव गोस्वामी ही केवल वृंदावन में थे जोकि दूसरी पीढ़ी है। सभी गोस्वामियों व चैतन्य महाप्रभु के परिकरों में सबसे छोटे थे। वे युवक थे, उस समय वे भी अति प्रसन्न थे। उन्होंने नरोत्तम् को भविष्य में ठाकुर पदवी प्रदान की। नरोत्तम दास ठाकुर वृंदावन में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। जीव गोस्वामी वृंदावन के शिक्षा गुरु थे किंतु नरोत्तमदास लोकनाथ गोस्वामी से दीक्षा लेना चाहते थे। लेकिन लोकनाथ गोस्वामी दीक्षा नहीं देना चाहते थे, उन्होंने किसी को दीक्षा नहीं दी थी जिस प्रकार गौर किशोर बाबा जी किसी को दीक्षा नहीं देते थे और न ही देने के मूड़ में थे लेकिन श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज जो कि हठ लेकर बैठे थे, उन्हें दीक्षा दी। वैसे ही नरोत्तम दास ठाकुर अपनी गुरु भक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं। वैष्णव भक्ति और वैष्णव सेवा और उसमें भी गुरु सेवा व गुरु निष्ठा प्रमुख थी। नरोत्तम दास ठाकुर दयनीय भाव से सेवा कर रहे थे लेकिन लोकनाथ गोस्वामी नरोत्तम की सेवा को स्वीकार ही नहीं करना चाहते थे। उनकी अपनी दयनीयता थी। नरोत्तम दास जी छिप छिप कर सेवा करते थे। हरि! हरि! हम जब सेवा करते हैं, हम चाहते हैं कि हमारी सेवा की घोषणा होनी चाहिए कि फलाने शिष्य ने सेवा की, हमारा नाम घोषित होना चाहिए कि हमनें यह सेवा की, हमारा नाम घोषित क्यों नहीं किया? हमनें गुरु या गुरु पूजा के दिन या व्यास पूजा के दिन यह सेवा की या वह सेवा की। हम तो मैनेजमेंट से कई बार नाराज होते हैं कि मैनें इतनी सारी सेवा की, और मेरा नाम नहीं कहा। यहां नरोत्तमदास ठाकुर ने गुरु को पता भी नहीं चलने दिया कि वह सेवा कर रहे हैं। गोस्वामी गण जहाँ शौच आदि क्रिया करते थे, वहाँ न जाने कौन आकर उसको साफ किया करता था। ऐसा कार्य या ऐसी सेवा कौन करना चाहेगा। नरोत्तमदास ठाकुर ही करना चाहेंगे। वे गुरु सेवी थे। तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः।। ( शिक्षाष्टक श्लोक ३) अनुवाद:- स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, मिथ्या मान की भावना से सर्वथा शून्य रहकर दूसरों को सदा ही मान देने वाला होना चाहिए। ऐसी मनः स्थिति में ही व्यक्ति हरिनाम कीर्तन कर सकता है। अंततोगत्वा लोकनाथ गोस्वामी ने अपने जीवन में एक शिष्य नरोत्तम दास ठाकुर को अपनाया। बस एक ही चांद काफी है, सितारों की क्या आवश्यकता। एक ही पर्याप्त है। हरि हरि। जीव गोस्वामी ने अनेक शिष्यों के साथ नरोत्तम दास ठाकुर, श्रीनिवास ठाकुर, तथा श्यामानंद पंडित को प्रचार के लिए भेजा। इनको आचार्य त्रयः भी कहते हैं, गौड़ीय ग्रंथों से इनकी बैलगाड़ी भर दी और कहा कि प्रचार के लिए जाओ। पूर्व बंगाल ही नहीं पूरे भारत में प्रचार के लिए भेजा। तीनों जाते हैं, लेकिन रास्ते में बहुत बड़ी समस्या आती है। मार्ग में ग्रंथ चोरी हो जाते हैं। तत्पश्चात तीनों अलग अलग क्षेत्र में प्रचार करते हैं। श्यामानंद पंडित ने उड़ीसा में प्रचार किया। श्रीनिवास आचार्य ने बंगाल तथा नरोत्तम दास जी ने अपनी जन्मभूमि खेंचुरी ग्राम को ही मुख्यालय बनाया और प्रचार प्रसार किया। हरि! हरि! यह प्रचार प्रसार का माध्यम जैसे श्रील प्रभुपाद भी कहा करते थे, बुक्स आर् द् बेसिस अर्थात पुस्तकें ही आधार है। नरोत्तम दास ठाकुर अपने वैष्णव गीतों के लिए प्रसिद्ध हैं। वैसे व्यक्ति की पहचान तब होती है जब वह व्यक्ति कुछ बोलता या लिखता है। वह विद्वान है अथवा मूर्ख है। श्रील प्रभुपाद कहा करते थे, उसको माइक्रोफोन दे दो, तब वह बक बक करता है। तत्पश्चात हम समझ जाते हैं। व्यक्ति की असली पहचान वैसे उसकी वाणी अथवा वचनों से होती है। उसके जो भी विचार होते है, वही विचार या भाव ही तो मुख से निकलते हैं। नरोत्तम दास ठाकुर के भावों का क्या कहना, उच्च विचार, उच्च भाव। उनके उच्च विचार उनकी वाणी तथा गीतों से ही प्रकट हो रहे थे। उनका प्रार्थना नाम का गीतों का एक संग्रह है, श्री प्रेम भक्ति चन्द्रिका नामक गीतों का संग्रह है। श्रील प्रभुपाद इन गीतों के संबंध में चाहे यह नरोत्तम दास ठाकुर के हैं या लोचन दास ठाकुर अथवा भक्ति विनोद ठाकुर या अन्य किसी के हैं, विषय में टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि यह वेदवाणी है। नरोत्तम दास ठाकुर के गीतों के संबंध में गौर किशोर बाबा जी महाराज कहा करते थे कि क्या भगवत साक्षात्कार में आपकी रुचि है, अगर रुचि है और आपके पास चवन्नी या अठन्नी हैं तो नरोत्तम दास ठाकुर के गीतों का संग्रह खरीद लो। उसको पढ़ो व उसको गाओ, कुछ उस पर मनन चिंतन करो और आप भगवत साक्षात्कारी पुरुष बनो। गौर किशोर दास बाबा जी महाराज उनके गीतों की महिमा का ऐसा गान किया करते थे।उनका क्या कहना? वह तो वैकुंठ मैन थे। नरोत्तम दास ठाकुर केवल वैकुंठ वासी ही नहीं अपितु गोलोक निवासी थे। गोलोक वैकुण्ठ से भी ऊंचा है। गोलोक के निवासी नरोत्तम दास ठाकुर आज ही के दिन प्रकट हुए थे। उन्होंने प्रेम धर्म की स्थापना का सफल प्रयास किया। जब वे इस संसार में वृंदावन या अन्य स्थानों बंगाल या मणिपुर अथवा खेंचुरी ग्राम में विद्यमान थे। उस समय तो प्रचार किया ही लेकिन वे आज भी पुस्तकों के रूप में प्रचार कर रहे हैं। जैसा कि प्रभुपाद कहा करते थे कि यदि कोई मुझे जानना चाहता है, तो मेरे ग्रंथो को पढ़े। वैसे ही नरोत्तम दास ठाकुर को कोई जानना चाहता है तो वह उनके गीतों को पढ़े। श्रील प्रभुपाद कहा करते थे, जब तक मेरे ग्रंथ हैं और उनका वितरण हो रहा है, उनको पढ़ा जा रहा है तब तक मैं जीवित रहूंगा। कौन कह सकता है कि वैष्णव मरते अथवा उनकी मृत्यु होती है। यह बात सच नहीं है। नरोत्तम दास ठाकुर आज भी अपनी वाणी तथा गीतों के रूप में विद्यमान हैं, उनके गीतों का प्रचार सर्वत्र हो रहा है। श्रील प्रभुपाद ने हमें नरोत्तम दास ठाकुर के गीत इंट्रोड्यूस करवाये अथवा दिए। अब विश्व भर मंग नरोत्तम दास ठाकुर के गीत गाए जाते हैं। श्रीगुरुचरण पद्म, केवल भकति-सद्म, वन्दो मुइ सावधान मते। याँहार प्रसादे भाई, ए भव तरिया याइ, कृष्ण प्राप्ति हय याँहा हइते॥1॥ गुरुमुख पद्म वाक्य, चितेते करिया ऐक्य,आर न करिह मने आशा। श्रीगुरुचरणे रति, एइ से उत्तम-गति, ये प्रसादे पूरे सर्व आशा॥2॥ चक्षुदान दिलो येई, जन्मे जन्मे प्रभु सेइ, दिवय ज्ञान हृदे प्रकाशित। प्रेम-भक्ति याँहा हइते, अविद्या विनाश जाते, वेदे गाय याँहार चरित॥3॥ श्रीगुरु करुणा-सिन्धु, अधम जनार बंधु, लोकनाथ लोकेर जीवन। हा हा प्रभु कोरो दया, देह मोरे पद छाया, एबे यश घुषुक त्रिभुवन॥4॥ अनुवाद:- (1) हमारे गुरुदेव (आध्यात्मिक गुरु) के चरणकमल ही एकमात्र साधन हैं जिनके द्वारा हम शुद्ध भक्ति प्राप्त कर सकते हैं। मैं उनके चरणकमलों में अत्यन्त भक्ति एवं श्रद्धापूर्वक नतमस्तक होता हूँ। उनकी कृपा से जीव भौतिक क्लेशों के महासागर को पार कर सकता है तथा कृष्ण की कृपा प्राप्त कर सकता है। (2) मेरी एकमात्र इच्छा है कि उनके मुखकमल से निकले हुए शब्दों द्वारा अपनी चेतना को शुद्ध करूँ। उनके चरणकमलों में अनुराग ऐसी सिद्धि है जो समस्त मनोरथों को पूर्ण करती है। (3) वे मेरी बन्द आँखों को खोलते हैं तथा मेरे हृदय में दिवय ज्ञान भरते हैं। जन्म-जन्मातरों से वे मेरे प्रभु हैं। वे प्रेमाभक्ति प्रदान करते हैं और अविद्या का नाश करते हैं। वैदिक शास्त्र उनके चरित्र का गान करते हैं। (4) हे गुरुदेव, करूणासिन्धु तथा पतितात्माओं के मित्र! आप सबके गुरु एवं सभी लोगों के जीवन हैं। हे गुरुदेव! मुझ पर दया कीजिए तथा मुझे अपने चरणों की छाया प्रदान दीजिए। आपका यश तीनों लोकों में फैला हुआ है। कइयों को पता नहीं होता कि यहां लोकनाथ क्यों लिखा है?इसे एक शिष्य ने लिखा है अर्थात इस गीत को लिखने वाले नरोत्तम दास ठाकुर हैं अर्थ मेरे गुरु लोकनाथ हैं। वे सभी लोगों के जीवन हैं। लोकनाथ लोकेर जीवन यह गीत संसार भर में गाया जाता है। अन्य भी कई सारे गीत हैं। गौरांङ्ग’ बलिते ह’बे पुलक-शरीर। हरि हरि’ बलिते नयने ब’बे नीर॥1॥ अनुवाद:- वह दिन कब आयेगा कि केवल ‘श्रीगौरांङ्ग’ नाम के उच्चारण मात्र से मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा? कब, ‘हरि हरि’ के उच्चारण से मेरे नेत्रों से प्रेमाश्रु बह निकलेंगे? या हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु। मनुष्य जनम पाइया, राधाकृष्ण ना भजिया, जानिया शुनिया विष खाइनु॥1॥ अनुवाद:- हे भगवान् हरि! मैंने अपना जन्म विफल ही गवाँ दिया। मनुष्य देह प्राप्त करके भी मैंने राधा-कृष्ण का भजन नहीं किया। जानबूझ कर मैंने विषपान कर लिया है। हर गीत में एक एक पंक्ति है। एक एक श्लोक अथवा एक एक वचन अथवा एक एक विचार है। गोलोके प्रेमधन हरि नाम संकीर्तन या श्रीरूपमञ्जरी-पद, सेइ मोर सम्पद, सेइ मोर भजन-पूजन। सेइ मोर प्राण-धन, सेइ मोर आभरण, सेइ मोर जीवनेर जीवन॥1॥ अनुवाद:- श्रीरूपमञ्जरीके चरणकमल ही मेरी वास्तविक संपदा है। उनकी सेवा ही मेरा भजन-पूजन है। वे ही मेरे प्राणधन, मेरे आभूषण, एवं वे ही मेरे जीवनके भी जीवनस्वरूप हैं। नरोत्तम दास ठाकुर अपने दल की एक मंजरी ही हैं। रूप मंजरी एक लीडर हैं, जो रूप गोस्वामी के रूप में प्रकट हुए थे। बाद में अन्य मंजरियाँ व गोपियां भी प्रकट हुई थी। ऐसे ही एक मंजरी प्रकट हुई। वृन्दावन रम्यस्थान, दिवय चिन्तामणिधाम, रतन-मन्दिर मनोहर। आवृत कालिन्दी-नीरे, राजहंस केलि करे, ताहे शोभे कनक-कमल॥1॥ अनुवाद:- वृन्दावन नामक रम्य-स्थान आध्यात्मिक जगत् का एक दिव्य धाम है। वह दिव्य चिंतामणि रत्नों से बना हुआ है। वहाँ कई मनोहर रत्नों से बने हुए मंदिर हैं तथा वहाँ राजहंस यमुना के जल में क्रीड़ा करते हैं। यमुना के जल में शत पंखुडियों वाला एक सुवर्णकमल शोभायमान है। वैसे ही एक गीत है- निताइ-पदकमल, कोटिचन्द्र-सुशीतल, जे छायाय जगत् जुडाय़। हेन निताइ बिने भाइ, राधाकृष्ण पाइते नाइ, दृढ करि’ धर निताइर पाय़॥1॥ अनुवाद:- श्री नित्यानंद प्रभु के चरणकमल कोटि चंद्रमाओं के समान सुशीतल हैं, जो अपनी छाया-कान्ति से समस्त जगत् को शीतलता प्रदान करते हैं। ऐसे निताई चाँद के चरणकमलों का आश्रय ग्रहण किये बिना श्रीश्री राधा-कृष्ण की प्राप्ति नहीं हो सकती। अरे भाई! इसलिए उनके श्रीचरणों को दृढ़ता से पकड़ो। यह सब उनके साक्षात्कार अथवा भाव हैं। गौरांगेर दु’टि पद, याँर धन सम्पद, से जाने भकतिरस-सार। गौरांगेर मधुर लीला, याँ’र कर्णे प्रवेशिला, हृदय निर्मल भेल ता’र॥1॥ अनुवाद:- श्रीगौरांगदेव के श्रीचरणयुगल ही जिसका धन एवं संपत्ति हैं, वे ही व्यक्ति भक्तिरस के सार को जान सकते हैं। जिनके कानों में गौरांगदेव की मधुर लीलायें प्रवेश करती हैं, उनका हृदय निर्मल हो जाता है। अथवा श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु दया कर मोरे। तोमा बिना के दयालु जगत-संसारे॥1॥ अनुवाद:- है श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु! मुझपर दया कीजिए। इस संसार में आपके समान दयालु और कौन है? यह तो हमारे पंचतत्व का आधार गीत है। कुछ गौरांग निष्ठा व कुछ नित्यानंद निष्ठा वाले गीत हैं व कुछ लालसामयी प्रार्थनाएं हैं। किसी में दयनीय भाव प्रकट करते हैं। ऐसे अलग अलग भाव उन्होंने अपने गीतों में प्रकट किए हैं। जे आनिल प्रेमधन करुणा प्रचुर। हेन प्रभु कोथा गेला अचार्य ठाकुर॥1॥ अर्थ:- अहो! जो अप्राकृत प्रेम का धन लेकर आये थे तथा जो करुणा के भंडार थे ऐसे आचार्य ठाकुर (श्रीनिवासआचार्य) कहाँ चले गये? यह पंचतत्व का उल्लेख हुआ। नरोत्तम दास ठाकुर ने हमें गौर पूर्णिमा उत्सव दिया जो हम आजकल मना रहे हैं। प्रभुपाद ने भी हमें मायापुर गौर पूर्णिमा उत्सव दिया है। सर्वप्रथम मायापुर उत्सव मनाने व संपन्न करने वाले नरोत्तम दास ठाकुर ही थे। उन्होंने खेंचुरी ग्राम में एक बहुत बड़ा आयोजन किया। उन दिनों में पृथ्वी पर जो भी गौड़ीय वैष्णव जहां तहां थे अर्थात वृंदावन या जगन्नाथ पुरी, शांतिपुर या नवद्वीप मायापुर में थर या कोई खंड वासी थे, उन सब को खेंचुरी ग्राम में आमंत्रित किया। उन दिनों में गौड़ीय वैष्णव आचार्य नित्यानंद भार्या श्रीमती जहान्वा माता अर्थात गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय की जो रक्षक थी, वह भी वहाँ उपस्थित थी। जो जो भी गौड़ीय वैष्णव आचार्य व भक्त थे, वे सब वहां पहुंचे थे। खेंचुरी ग्राम में कई सारे विग्रहों की प्राण प्रतिष्ठा हो रही थी। कीर्तन कथाएं भी चल रही थी। नरोत्तम दास ठाकुर जब कीर्तन करने लगे। *नाहं तिष्ठामि वैकुण्ठे योगिनां हृदयेषु वा। मद्भक्ताः यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।* ( पद्म पुराण) अनुवाद:- न मैं वैकुण्ठ में हूं, न योगियों के ह्रदय में। मैं वहाँ रहता हूँ, जहाँ मेरे भक्त मेरी लीलाओं की महिमा का गान करते हैं। गौर पूर्णिमा उत्सव में सबने वहां इसका अनुभव किया। यह प्रथम गौर पूर्णिमा उत्सव मनाया जा रहा था। नरोत्तम दास ठाकुर जब गान कर रहे थे, श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु दया कर मोरे। तोमा बिना के दयालु जगत-संसारे॥1॥ ऐसे ही बहुत कुछ गाया होगा। *(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द* मैं सोच रहा था कि पंचतत्व मंत्र भी गाए होंगे। सारे पंच तत्व के सदस्य प्रकट हो गए वहां ।जबकि सभी के सभी अंतर्ध्यान हो चुके थे, उनकी लीला का समापन हो चुका था किंतु नरोत्तम दास ठाकुर ने उनके गुण गाए, उनको पुकारा अथवा उनसे प्रार्थना की । वे सभी के सभी प्रकट हुए। सभी ने उनके दर्शन किए। देखो नित्यानंद, देखो गौरांग। पंचतत्वों के साथ वहां के उपस्थित सभी भक्त वृन्द ने कीर्तन और नृत्य किया और क्या कहने की जरूरत है। नरोत्तम के परिचय का एक ही आइटम ही ठीक है। गौर पूर्णिमा महोत्सव में उनका गान तथा वहां पंचतत्व की उपस्थिती, उससे नरोतम दास ठाकुर उनकी महिमा का कुछ परिचय प्राप्त हुआ। हमारे ऐसे ऐसे आचार्य रहे है, यह उनकी पूंजी अथवा उनकी सम्पति है अपने जीवन चरित्र, कार्यकलापों से अपने ग्रंथों अथवा अपने गीतों से सभी ने श्री कृष्ण आंदोलन अर्थात गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय को समृद्ध अथवा धनाढ्य बनाया है । ऐसे नरोत्तमदास ठाकुर की जय हो! हम सभी धन्य हैं क्योंकि उन्होंने हमें धनी बनाया है। नरोत्तम दास ठाकुर के कारण हम धनी बन रहे हैं। आप धन्य हो, आप धनी हो। हमारा जीवन धन्य बनाने वाले नरोत्तम दास ठाकुर हैं। उनके गुण या उनके गीत ही गाया करो। आपके पास भी संग्रह होना चाहिए। कम से कम इस्कॉन का वैष्णव गीत पुस्तक होनी ही चाहिए। आपके पास है? है! ठीक है, फिर उसको गाया करो। सभी प्रेम चंद्रिका को भी प्राप्त करो और गाया करो। हरि हरि! दिन में उनके भजनों को गाओ। गुरु पूजा का समय हो चुका है। वह गीत तो गा ही लो। श्रीगुरुचरण पद्म, केवल भकति-सद्म,वन्दो मुइ सावधान मते।याँहार प्रसादे भाई, ए भव तरिया याइ, कृष्ण प्राप्ति हय याँहा हइते॥1॥ ठीक है। नरोत्तम दास ठाकुर अर्विभाव तिथि दिवस की जय ! गौरांग नित्यानंद, नित्यानंद गौरांग! खेंचुरी ग्राम धाम की जय ! हरे कृष्ण!

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