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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक ३०.०१.२०२१
हरे कृष्ण!
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में ७६० स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं।
हरि! हरि!
सुप्रभातम! हरे कृष्ण!
हरिलीला! हरे कृष्ण! उदय, क्या कृष्णभावना का कुछ उदय उदयपुर में हो रहा है? मायापुर चंद्रोदय?
जैसा कि हम पिछले कुछ दिनों से प्रभुपाद द्वारा की गई हरि नाम की महिमा पर रिकॉर्डिंग व भाष्य व गान व विधि विधान या विधि निषेध पढ़ रहे हैं। श्रील प्रभुपाद ने हरि नाम की महिमा के भाष्य में अंत में लिखा है जिसका हम अब अंतिम वचन लेंगे। (श्रील प्रभुपाद यहाँ अंग्रेजी में कह रहे हैं और हम उसे हिंदी में सुना रहे हैं) श्रील प्रभुपाद कह रहे हैं कि हरे कृष्ण महामंत्र जो है, वह तीन बीजों का मंत्र है। वे तीन बीज हैं - राम, कृष्ण, हरा। उसी से राम, कृष्ण, हरे हो जाते हैं। बीज मंत्र जो बीज नाम अथवा मूल नाम है, उससे महामंत्र बनता है। वैसे राम: कृष्ण: और हरा होता है परंतु यहां श्रील प्रभुपाद कह रहे हैं कि जब हम इस बीज मंत्र अर्थात इस बीज नाम वाले मंत्र को पुकारते हैं अथवा संबोधित करते हैं तब हम कृष्ण को संबोधित करते हैं, श्री राम को संबोधित करते हैं, हरा को संबोधित करते हैं। जब हम संबोधित करते हैं तब हरा का हरे संबोधन होता है, हरा का संबोधन शब्द हरे है और राम: के संबोधन में राम ही बचता है और विसर्ग हट जाती है। (विसर्ग समझते हो? वह जो कई शब्दों के अंत में बिंदी लगाते हैं। यह प्रथम विभक्ति है।) राम: का राम होता है। राम: का राम संबोधन है। कृष्ण: का कृष्ण संबोधन है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
जब हम यह महामंत्र कहते और लिखते भी हैं। तब उसमें फिर हरे राम: नहीं है । हरे कृष्ण: नहीं है अपितु हरे राम है, हरे कृष्ण है।
प्रभुपाद कह रहे हैं कि हम राम, कृष्ण, हरा को पुकारते अथवा बुलाते अथवा सम्बोधित करते हैं। हम इस महामन्त्र का कीर्तन और जप करते समय उन्हें पुकारते अथवा सम्बोधित करते हैं। हरि! हरि!
हमारे पुकारने का उद्देश्य क्या होता है? हमारी रक्षा हो। हे राम! हे कृष्ण! हे राधे! हे हरे! बचाओ! रक्षा करो! मुक्त करो! हमें भक्त बनाओ। हमें अपनी सेवा में लगाओ। यह प्रार्थना अथवा सम्बोधन है ताकि हमारी रक्षा हो जिससे हम बचें और हमारा उद्धार हो। इसलिए हम सम्बोधित करते हैं। मूल रूप से राम, कृष्ण, हरे यह महामन्त्र के बीज हैं या बीज नाम हैं। राम और कृष्ण दो नहीं हैं अपितु राम और कृष्ण एक ही हैं। एक कृष्ण को ही हम सम्बोधित करते हैं। पहले आधे मन्त्र में हरे कृष्ण कहते हैं और शेष मंत्र में उसी कृष्ण को हम राम कहते हैं। बस दो अलग- अलग नामों अथवा सम्बोधनों से पुकारते हैं किन्तु व्यक्ति तो एक ही है, हम कृष्ण को ही पुकारते हैं। तत्पश्चात हमनें हरे कृष्ण कहा या हरे राम कहा, उस समय कृष्ण को ही पुकारते हैं। राम और कृष्ण तो एक ही हैं। फिर हरे बच गया। ऐसा भी कहा जा सकता है कि राधा और कृष्ण या कृष्ण और राधा को ही पुकारते हैं।
कौन सा मन्त्र, महामन्त्र है? हरे कृष्ण मन्त्र, महामन्त्र है। हरे और कृष्ण ही बच गए। हरि! हरि!
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने यह भविष्यवाणी की थी
पृथिवीते आछे यत नगरादि- ग्राम।सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।।
( चैतन्य भागवत)
अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठ भाग पर जितने भी नगर व गांव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा।
चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं कि सर्वत्र मेरे नाम का प्रचार होगा और हरे कृष्ण हरे कृष्ण का प्रचार हो भी रहा है।
हां! सही है। क्योंकि 'मोर नाम' देने वाले श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही राधा कृष्ण हैं।
श्री कृष्ण चैतन्य राधाकृष्ण नहे अन्य
( चैतन्य भागवत)
अर्थ:- भगवान् चैतन्य महाप्रभु अन्य कोई नहीं वरन श्री श्री राधा और कृष्ण के संयुक्त रूप हैं।
मेरे नाम का प्रचार होगा अर्थात हरे कृष्ण हरे कृष्ण का प्रचार होगा। क्योंकि मैं राधा हूं, मैं ही कृष्ण हूँ।
राधा कृष्ण- प्रणय-विकृतिर्ह्लादिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह-भेदं गतौ तौ। चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्द्वयं चैक्यमाप्तं राधा-भाव-द्युति-सुवलितं नौमि कृष्ण- स्वरूपम्।।
( श्रीचैतन्य- चरितामृत आदि लीला श्लोक १.५)
अनुवाद:- श्री राधा तथा कृष्ण की माधुर्य लीलाएँ भगवान की अंतरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि राधा तथा कृष्ण अभिन्न हैं, किंतु उन्होंने अपने आप को अनादि काल से पृथक कर रखा है। अब यह दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्री कृष्ण चैतन्य के रूप में मिलकर एक हो गए हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूं, जो साक्षात कृष्ण होते हुए भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंग कांति के साथ प्रकट हुए हैं।
जो दो थे, वे एक हो गए।
हरि! हरि!
वे गौरांग है। गौरांग! गौरांग! उन्हें गौरांग क्यों कहते हैं? वह एक हुए हैं। राधा कृष्ण एक तनु हैं। राधा कृष्ण मिलकर एक विग्रह अथवा रूप बना है। उनका नाम हरे कृष्ण है। हरे राधा! हरे कृष्ण। हरि! हरि!
इतना तो करना स्वामी,
जब प्राण तन से निकले तो आप आ जाना और राधा को भी साथ ले आना - ऐसी प्रार्थना भक्त किया करते हैं। इस प्राकट्य में इस अवतार में अवतारी श्री कृष्ण राधा को साथ में ले आए हैं। अंत: कृष्ण: बाहिर गौर ऐसा चैतन्य भागवत में उल्लेख है। अंदर कृष्ण छिपे हैं और बाहर राधा है। इसलिए वे गौरांग हो गए। बाहर से वह गौरांगी है अर्थात बाहर से वे राधा हैं। उस विग्रह में राधा का रंग और राधा की कांति का दर्शन होता है। श्री कृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नहे अन्य!
राधा-भाव-द्युति-सुवलितं नौमि कृष्ण- स्वरूपम् अर्थात मैं
उस स्वरूप को नमस्कार करता हूं। कौन से स्वरूप को? राधा-भाव-द्युति-सुवलितं अर्थात जिस स्वरूप में भगवान ने राधा के भाव को अपनाया है। राधा-भाव-द्युति, द्युति मतलब कांति अथवा रंग। मैं राधा के भाव व राधा की कांति को अपनाए हुए उस विग्रह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को नमस्कार करता हूं। हरि! हरि! इस महामंत्र में राधा नाम है इसीलिए भी यह मंत्र महामंत्र बनता है। यह केवल कृष्ण नाम या राम नाम का मंत्र नहीं है या अन्य अवतारों के नाम वाला मंत्र नहीं है। अवतारी श्री कृष्ण के साथ में राधा भी है। साथ में राधा होने के कारण यह मंत्र अर्थात हरे कृष्ण महामंत्र बन गया है। केवल कृष्ण होता तो शायद यह केवल मंत्र ही कहलाता लेकिन साथ में राधा है इसलिए यह मन्त्र कहलाता है और महामंत्र है भी। राधा साथ में होने से राधा की कृपा प्राप्त होती है, उस जप कर्ता अथवा कीर्तन कर्ता को अर्थात जो
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। महामंत्र का करता है। जैसा कि श्रील प्रभुपाद समझाते हैं कि हम कृष्ण राधा को बुला रहे हैं, पुकार रहे हैं। जब हम राधा को संबोधित करते हैं, तब इस महामंत्र का जप करने वाले को या इस महामंत्र का कीर्तन करने वाले को राधा की विशेष कृपा और अनुग्रह प्राप्त होती है अथवा वह विशेष लाभान्वित होता है। हम कल ही सुन रहे थे जैसा कि श्रील प्रभुपाद ने कहा था कि हम तटस्था शक्ति हैं, जब हम अंतरंगा शक्ति अथवा दिव्य शक्ति 'हरा' अर्थात राधे के संपर्क में आते हैं और हम राधा को पुकारते हैं तब जीवात्मा सुखी होती है और राधा रानी के कारण आनंद का अनुभव करती है। राधा रानी उसको सुखी अथवा आनंदित बनाती हैं। जीव को राधा रानी से आनंद प्राप्त होता है। यह बात राय रामानंद ने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को कही थी। यह प्रसिद्ध संवाद राय रामानंद और गौरांग महाप्रभु के मध्य हुआ था। जिसका उल्लेख चैतन्य चरितामृत के मध्य लीला अष्टम परिछेद अथवा अध्याय में हुआ है।
कृष्णके आह्लादे, ता'ते नाम- 'ह्लादिनी'। सेइ शक्ति- द्वारे सुख आस्वादे आपनि।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला ८.१५७)
अनुवाद:- ह्लादिनी शक्ति कृष्ण को दिव्य आनन्द प्रदान करती है। इसी ह्लादिनी शक्ति के माध्यम से कृष्ण समस्त आध्यात्मिक आनंद का स्वयं आस्वादन करते हैं।
राधारानी भगवान की ह्लादिनी शक्ति है। भगवान सच्चिदानंद हैं। राधारानी उनको आनन्द देती हैं। अतः आनन्दप्रदा भी कहलाती हैं। आनन्द देने वाली आनन्दप्रदा यह राधारानी का एक नाम है। आनन्दप्रदा अर्थात आनंद देने वाली। किसको आनन्द देती हैं? कृष्णके आह्लादे अर्थात कृष्ण को आह्लाद देती हैं अर्थात आनन्द देती हैं। इसलिए राधा का एक नाम आह्लादिनी हैं अथवा आह्लादिनी शक्ति कहलाती हैं।
'सेइ शक्ति- द्वारे सुख आस्वादे आपनि' श्री कृष्ण जो सुख और आनन्द लूटते हैं अर्थात सुखोउपभोग करते हैं, वह राधारानी के कारण होता हैं
सेइ शक्ति- द्वारे ह्लादिनी शक्ति है। राधा शक्ति हैं। शक्ति के माध्यम से 'शक्ति- द्वारे सुख आस्वादे आपनि' स्वयं श्रीकृष्ण आस्वादन करते हैं अर्थात आह्लाद का अनुभव करते हैं। यह एक बात हुई। दूसरे वचन में आगे राय रामानंद कहते हैं
सुख रूप कृष्ण करे सुख आस्वादन।भक्त- गणे सुख दिते ' ह्लादिनी'- कारण।।
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला ८.१५८)
अनुवाद:- भगवान् कृष्ण मूर्तिमान सुख होते हुए भी सभी प्रकार के दिव्य सुख का आस्वादन करते हैं। उनके शुद्ध भक्तों द्वारा आस्वादन किया गया सुख भी उनकी ह्लादिनी शक्ति से प्रकट होता है।
यह भी रहस्यमयी बात है। कृष्ण तो स्वयं ही सुख का रूप हैं, वे स्वयं ही सुख के सागर हैं। वे स्वयं ही आनन्द की खान हैं। फिर भी राधा रानी उनके सुख और आनंद का कारण बन जाती हैं। हरि! हरि!
यह बातें अचिन्त्य भी कहलाती हैं। जहाँ तक हम कुछ थोड़ा समझ पाए हैं, यह कृष्ण ही जाने या राधा ही जाने कि कौन किसको सुख देता है। राधा कृष्ण को सुख देती हैं अथवा कृष्ण राधा को सुख देते हैं या दोनों में प्रतियोगिता चलती रहती है।
चैतन्य चरितामृत में लिखा है कि कृष्ण हार जाते हैं और कहते हैं कि अगली बार जब मैं अवतार लूंगा तब मैं राधारानी बनूंगा और राधारानी को समझना चाहूंगा।
राधा के भाव, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य का कारण बने। चैतन्य चरितामृतकार, चैतन्य चरितामृत के प्रारंभ में लिखते हैं
भक्त-गणे सुख दिते ह्लादिनी कारण।
भक्तों, जीवों, तटस्थ शक्ति जो सुख प्राप्त होता है वो सुख आह्लादिनी शक्ति के कारण होता है। राधारानी के कारण जीव को भी सुख प्राप्त होता है। राधारानी और आह्लादिनी शक्ति केवल कृष्ण को ही आनन्द नहीं देती हैं अपितु जीवों को भी आनन्द देने वाली भी राधारानी ही हैं।आह्लादिनी शक्ति जीव के सुख का कारण बन जाती हैं। वह दोनों को सुख देती हैं। राधारानी, कृष्ण को भी सुख देती हैं और जीवों को भी सुख देती हैं।
राधारानी की जय!
महारानी की जय!
यह हरे कृष्ण महामन्त्र ऐसा महामन्त्र है जिसमें हम कृष्ण को भी पुकारते हैं और ऐसी राधारानी को भी पुकारते हैं।
श्रील प्रभुपाद जब जलदूत जहाज से न्यूयॉर्क की ओर जा रहे हैं। रास्ते में 10 सितंबर1965 अर्थात न्यूयॉर्क में कुछ ही दिनों में पहुंचने ही वाले थे। 13 सितंबर को वहां बोस्टन क्षेत्र में जलदूत जहाज पहुंचा था। उस समय प्रभुपाद के जो विचार अथवा उदगार रहे, वे उन्होंने एक गीत के रूप में लिखे थे।
(टेक) कृष्ण तब पुण्य हबे भाइ। ए पुण्य करिबे जबे राधारानी खुशी हबे॥ ध्रुव अति बोलि तोमा ताइ। श्री सिद्धांत सरस्वती शची-सुत प्रिय अति कृष्ण-सेवाय जाँर तुल नाए। सेई से महंत-गुरू जगतेर मध्ये उरू कृष्ण भक्ति देय थाइ-थाइ॥1॥ ताँर इच्छा बलवान पाश्चात्येते थान थान होय जाते गौरांगेर नाम। पृथ्वीते नगरादि आसमुद्र नद नदी सकलेइ लोय कृष्ण नाम॥2॥ ताहले आनंद होय तबे होय दिग्विजय चैतन्येर कृपा अतिशय। माया दुष्ट जत दुःखी जगते सबाइ सुखी वैष्णवेर इच्छा पूर्ण हय॥3॥
से कार्य ये करिबारे, आज्ञा यदि दिलो मोरे योग्य नाहि अति दीन हीन। ताइ से तोमार कृपा मागितेछि अनुरूपा आजि तुमि सबार प्रवीण॥4॥ तोमार से शक्ति पेले गुरू-सेवाय वस्तु मिले जीवन सार्थक जदि होय। सेइ से सेवा पाइले ताहले सुखी हले तव संग भाग्यते मिलोय॥5॥ एवं जनं निपतितं प्रभवाहिकूपे कामाभिकाममनु यः प्रपतन्प्रसङ्गात्। कृत्वात्मसात्सुरर्षिणा भगवन्गृहीतः सोऽहं कथं नु विसृजे तव भृत्यसेवाम्॥6॥ तुमि मोर चिर साथी भूलिया मायार लाठी खाइयाछी जन्म-जन्मान्तरे। आजि पुनः ए सुयोग यदि हो योगायोग तबे पारि तुहे मिलिबारे॥7॥
तोमार मिलने भाइ आबार से सुख पाइ गोचारणे घुरि दिन भोर। कत बने छुटाछुटि बने खाए लुटापुटि सेई दिन कबे हबे मोर॥8॥ अजि से सुविधान तोमार स्मरण भेलो बड़ो आशा डाकिलाम ताए। आमि तोमार नित्य-दास ताइ करि एत आश तुमि बिना अन्य गति नाइ॥9॥
अर्थ: शुक्रवार, 10 सितम्बर, 1965 के अटलांटिक महासागर के मध्य, अमेरीका जा रहे जहाज पर बैठे हुए श्रील प्रभुपाद जी ने अपनी डायरी में लिखा, “आज जहाज बड़ी सुगमता से चल रहा है। मुझे आज बेहतर लग रहा है। किन्तु मुझे श्री वृन्दावन तथा मेरे इष्टदेवों- श्री गोविंद, श्री गोपीनाथ और श्री राधा दामोदर - से विरह का अनुभव हो रहा है। मेरी एकमात्र सांत्वना श्रीचैतन्यचरितामृत है, जिसमें मैं चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का अमृत चख रहा हूँ। मैंने चैतन्य महाप्रभु के आदेशानुगामी श्रीभक्तिसिद्धांत सरस्वती का आदेश कार्यान्वित करने हेतु ही भारत-भूमि को छोड़ा है। कोई योग्यता न होते हुए भी मैंने अपने गुरूदेव का आदेश निर्वाह करने हेतु यह खतरा मोल लिया है। वृंदावन से इतनी दूर मैं उन्हीं की कृपा पर पूर्णाश्रित हूँ। ” तीन दिन पश्चात, (13 सितम्बर, 1965) शुद्ध भक्ति के इस भाव में, श्रील प्रभुपाद ने निम्नलिखित प्रार्थना की रचना की।
हे भाइयों, मैं तुमसे निश्चित रूप से कहता हूँ कि तुम्हें भगवान् श्रीकृष्ण से पुण्यलाभ की प्राप्ति तभी होगी जब श्रीमती राधारानी तुमसे प्रसन्न हो जायेंगी।
(1) शचिपुत्र (चैतन्य महाप्रभु) के अतिप्रिय श्रीश्रीमद् भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर की कृष्ण-सेवा अतुलनीय है। वे ऐसे महान सदगुरु हैं जो सारे विश्वभर के विभिन्न स्थानों में कृष्ण के प्रति प्रगाढ़ भक्ति बाँटते हैं।
(2) उनकी बलवती इच्छा से भगवान् गौरांग का नाम पाश्चात्य जगत के समस्त देशों में फैलेगा। पृथ्वी के समस्त नगरों व गाँवों में, समुद्रों, नदियों आदि सभी में रहनेवाले जीव कृष्ण का नाम लेंगे।
(3) जब श्रीचैतन्य महाप्रभु की अतिशय कृपा सभी दिशाओं में दिग्विजय कर लेगी, तो निश्चित रूप से पृथ्वी पर आनंद की बाढ़ आ जायेगी। जब सब पापी, दुष्ट जीवात्माऐं सुखी होंगी, तो वैष्णवों की इच्छा पूर्ण हो जायेगी।
(4) यद्यपि मेरे गुरू महाराज ने मुझे इस अभियान को पूरा करने की आज्ञा दी है, तथापि मैं इसके योग्य नहीं हूँ। मैं तो अति दीन व हीन हूँ। अतएव, हे नाथ, अब मैं तुम्हारी कृपा की भिक्षा मांगता हूँ जिससे मैं योग्य बन सकूँ, क्योंकि तुम तो सभी में सर्वाधिक प्रवीण हो।
(5) यदि तुम शक्ति प्रदान करो, तो गुरू की सेवा द्वारा परमसत्य की प्राप्ति होती है और जीवन सार्थक हो जाता है। यदि वह सेवा मिल जाये तो वयक्ति सुखी हो जाता है और सौभाग्य से उसे तुम्हारा संग मिल जाता है।
(6) हे भगवान् मैं एक-एक करके भौतिक इच्छाओं की संगति में आने से सामान्य लोगों का अनुगमन करते हुए सर्पो के अन्धे कुँए में गिरता जा रहा था। किन्तु आपके दास नारद मुनि ने कृपा करके मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया और मुझे यह शिक्षा दी कि इस दिवय पद को किस प्रकार प्राप्त किया जाय। अतएव मेरा पहला कर्त्तवय है कि मैं उनकी सेवा करूँ। भला मैं उनकी यह सेवा कैसे छोड़ सकता हूँ? (प्रह्लाद महाराज ने नृसिंह भगवान से कहा, श्रीमद्भागवत 07.09.28)
(7) हे भगवान् कृष्ण, तुम मेरे चिर साथी हो। तुम्हें भुलाकर मैंने जन्म-जन्मांतर माया की लाठियाँ खायी हैं। यदि आज तुमसे पुर्नमिलन अवश्य होगा तभी मैं आपकी संगती में आ सकूँगा।
(8) हे भाई, तुमसे मिलकर मुझे फिर से महान सुख का अनुभव होगा। भोर बेला में मैं गोचारण हेतु निकलूँगा। व्रज के वनों में भागता-खेलता हुआ, मैं आध्यात्मिक हर्षोन्माद में भूमि पर लोटूँगा। अहा! मेरे लिए वह दिन कब आयेगा?
(9) आज मुझे तुम्हारा स्मरण बड़ी भली प्रकार से हुआ। मैंने तुम्हें बड़ी आशा से पुकारा था। मैं तुम्हारा नित्यदास हूँ और इसलिए तुम्हारे संग की इतनी आशा करता हूँ। हे कृष्ण तुम्हारे बिना मेरी कोई अन्य गति नहीं है।
श्रील प्रभुपाद ने प्रसिद्ध गीत के प्रारंभ में लिखते हैं
कृष्ण तब पुण्य हबे भाइ। ए पुण्य करिबे जबे राधारानी खुशी हबे॥
श्रील प्रभुपाद ने क्या लिखा है। देखिए या सुनिए। (अनुवाद पढ़ रहे हैं।)
हे भाइयों, श्रील प्रभुपाद दुनिया भर के लोगों या पाश्चात्य देश के लोगों को सम्बोधित करते हुए लिख रहे हैं। 'हे भाइयों, मैं तुमसे निश्चित रूप से कहता हूं कि तुम्हें भगवान् श्री कृष्ण से पुण्य लाभ की प्राप्ति तभी होगी,जब श्रीमती राधारानी तुमसे प्रसन्न होगी।' श्रील प्रभुपाद ने राधारानी का स्मरण किया है। हे दुनिया भर के लोगों! आपको मैं निश्चित रूप से कहता हूं कि भगवान से पुण्य लाभ की प्राप्ति तभी होगी, जबे राधारानी खुशी हबे अर्थात जब राधारानी तुमसे प्रसन्न हो जाएंगी। तत्पश्चात श्रील प्रभुपाद ने इस महामन्त्र को फैलाया । प्रभुपाद न्यूयॉर्क के फुटपाथ पर बैठकर इस महामन्त्र का कीर्तन करने लगे और इस महामन्त्र को शेयर (बांटने) करने लगे अर्थात कृष्ण और राधा को शेयर करने लगे। राधा रानी की कृपा से हम इस महामन्त्र में आठ बार यह हरे हरे कहते हैं और आठ बार कृष्ण के नाम को कहते हैं। आठ कृष्ण के नाम और आठ राधा के नाम से यह षोडश शब्द वाला या सोलह नाम वाला यह महामन्त्र का जब कीर्तन हुआ तब वहां के लोग भी राधारानी की कृपा से सुखी हुए या प्रभुपाद कहा करते थे, हरे कृष्ण जपो और सुखी हो जाओ( चैंट हरे कृष्ण एंड बी हैप्पी)
जब आप हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करोगे तो आपको कौन सुखी बनाएगा। राधारानी आपको सुखी बनाएगी। राधारानी सुख देगी, राधारानी आह्लाद देगी। जब राधारानी की कृपा की दृष्टि की वृष्टि होगी। उससे कृष्ण की कृपा भी प्राप्त होगी।
प्रभुपाद कहते हैं कि राधारानी उसी प्रकार सिफारिश करती हैं जैसे जब दीक्षा होने वाली होती है, तब जो नए भक्त होते हैं, उनको दीक्षा लेनी होती है तब मंदिर के अध्यक्ष या हमारे काउन्सलर दीक्षा के लिए सिफारिश करते हैं। गुरुवर! इसको स्वीकार कीजिये। हे गुरुवृन्द! या गुरुजन, गुरुवृन्दों में से एक गुरु। इसी प्रकार यहाँ राधारानी कृष्ण को सिफारिश करती हैं। मैं इस पात्र के लिए स्ट्रोंगली (मजबूती से) सिफारिश करती हूं। हरि! हरि!
हम दोनों को ही पुकार रहे हैं हरे कृष्ण कहकर। किन्तु राधा अधिक दयालू अथवा कृपालु हैं। कृष्ण से भी अधिक कृपालु राधा हैं। इसलिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को रूप गोस्वामी ने महावदान्याय कहा कि आप जब कृष्ण थे तब आप वादान्य अर्थात दयालु थे लेकिन अब आप महावदान्याय हो गए हो। यह खिताब जो चैतन्य महाप्रभु को प्राप्त हुआ, यह राधारानी के कारण प्राप्त हुआ। कृष्ण, दयालु कृष्ण बने। कृष्ण राधारानी के कारण अति दयालु बनते हैं।
श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु दया कर मोरे। तोमा बिना के दयालु जगत-संसारे॥1॥ ( वैष्णव भजन)
अनुवाद:- हे श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु! मुझपर दया कीजिए। इस संसार में आपके समान दयालु और कौन हैं?
आप जैसा कौन दयालु है। कोई नहीं है, कृष्ण भी नहीं हैं, राम भी नहीं हैं, नरसिम्हा भी नहीं हैं। कोई भी नहीं है। जितने आप दयालु हो। आपका क्या वैशिष्ट्य है। आप इतने क्यों दयालु हो? आप अति दयालु हो क्योंकि आप साथ में राधा को लेकर आये हो। साथ में राधा है और राधा दयालु व कृपालु है इसलिए आप कृपालु बने हो या महा वदान्याय बने हो। इस महामन्त्र में कृष्ण भी हैं और विशेष रूप से राधारानी हैं। यह मन्त्र इसी के साथ महामन्त्र कहलाता है। अन्यथा इतने पतित व संसार भर में जो कलि के चेले बने हुए लोग हैं। पाश्चात्य देश का क्या कहना। वे कितने पतित हैं, पाश्चात्य देश के लोग पापियन में नामी हैं। तत्पश्चात उनका तुरन्त महामन्त्र के कारण उद्धार होने लगा। इस कृपालु और शक्ति और शक्तिमान महामन्त्र के कारण पाश्चात्य देश के लोग भी तरने लगे।
नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने। नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।
पाश्चात्य – देश के लोग भी तर गए। यह महामन्त्र संसार भर के बद्ध जीवों के कल्याण तथा उद्धार के लिए है। व्यवहारिक रूप से हम देख रहे हैं कि किस प्रकार यह महामंत्र उद्धार कर रहा है। किस प्रकार यह महामन्त्र हम पर, विश्व भर कर लोगों के ऊपर, भी कृपा कर रहा है। आप सभी जो उपस्थित हो और आप जप कर रहे हो। ये भी महामन्त्र का जप व कीर्तन का ही फल व परिणाम है। जिसने हमारे जीवन में क्रांति लायी है । ऐसे हरे कृष्ण महामन्त्र की जय!
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय!
पंढरपुर धाम की जय!
श्रील प्रभुपाद की जय!
गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
वैसे अभी भी एक भाग बच ही गया है।।कल आगे करेंगे। सोचा तो था कि आज पूरा करूंगा, पर हो नही पाया।
इस विषय पर कोई प्रश्नोत्तर या टीका टिप्पणी या अनुभव है तो आप चैट पर लिखिए।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
प्रश्न:- कल की चर्चा में बताया गया था कि पापी लोगों को पाताल लोक या नीचे वाले लोकों की प्राप्ति होती है फिर बलि महाराज को सुतल लोक क्यों प्राप्त हुआ?
गुरु महाराज- सुतल लोक, सुतल लोक नहीं रहा, वह गोलोक हुआ अथवा वैकुंठ हुआ। भगवान भी वहां गए थे। भगवान् बलि महाराज के रखवाले बन गए।
नारायणपरा: सर्वे न कुतश्चन बिभ्यति।स्वर्गापवर्गनरकेष्वपि तुल्यार्थदर्शिनः
( श्रीमद् भागवतम ६.७.२८)
अर्थ:- पुरी तरह से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नारायण की सेवा में लीन रहने वाले भक्तजन जीवन की किसी भी अवस्था से भयभीत नहीं होते। उनके लिए स्वर्ग, मुक्ति तथा नरक एकसमान हैं, क्योकि ऐसे भक्त ईश्वर की सेवा में ही रुचि रखते हैं।
भगवान के भक्तों को कोई चिंता नहीं होती है। उनके लिए स्वर्ग नर्क में कोई अंतर नहीं होता। वह जहां भी जाते हैं, वहां भगवान की भक्ति करते हैं। बलि महाराज आत्म निवेदन नामक भक्ति के अधिकारी या आत्म निवेदन के लिए विख्यात है। जिन्होंने आत्म निवेदन किया।
मानस-देह-गेह, यो किछु मोर। अर्पिलु तुया पदे, नन्दकिशोर!॥1॥।
अर्थ: हे नन्द महाराज के पुत्र, मेरा मन, शरीर, मेरे घर का साज-सामान तथा अन्य जो कुछ भी मेरा है, मैं आपके चरणकमलों पर अर्पित करता हूँ।
उन्होंने अपना सब कुछ न्योछावर किया था, अपना सर भी झुकाया और अर्पित किया। ऐसे समर्पित भक्त बलि महाराज को क्या फर्क पड़ता है कि वह स्वर्ग में जाते हैं या नरक में जाते हैं, वह तो अपने आनंद में भक्ति में मगन है। यह तथाकथित दंड है। यह वैसा दंड नहीं है जैसा कि पापियों को दंडित किया जाता है और 28 अलग-अलग प्रकार के पातालों के नाम भी है। इस पाताल में इसको भेजा जाए या उस पाताल में इसको भेजा जाए, इस शराबी को यहां, उस व्यभिचारी को वहां, इस डाकू को वहां... ऐसे ही.... बलि महाराज का तो सुतल लोक यहाँ से तीसरा है। लेकिन उनके लिए वह स्वर्ग ही नहीं वैकुंठ ही है। वहां भगवान स्वयं भी पहुंचे थे। हरि! हरि! यह भक्त की महिमा भी है। तुल्यार्थ अर्थात स्वर्ग नरक जैसा अतुल्य। जैसे दूसरे शब्दों में वे स्वर्ग और नरक से परे अतीत पहुंच जाते हैं। भगवान के भक्त अपने भक्ति भाव के कारण गुणातीत या स्वर्गातीत या नरकातीत से परे है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
प्रश्न- भगवान की बहन सुभद्रा मैया, वह भी आह्लादिनी शक्ति ही है या...
गुरु महाराज - वह अर्जुन की शक्ति है। श्री श्री सुभद्रा अर्जुन की जय! अर्जुन को आह्लाद देने वाली उनकी पत्नी और अभिमन्यु जी जैसे पुत्र को जन्म देने वाली भद्रा। सुभद्रा मैया की जय! वह हमारे जैसे साधारण जीव तो नहीं हो सकती जैसा कि हम जीव हैं लेकिन कोई शक्ति तो है। हर व्यक्ति शक्ति होता ही है। कोई कृष्ण की शक्ति तो कोई तटस्थ शक्ति है तो कोई अतरंग शक्ति के अंतर्गत आता है।
सब अलग-अलग हैं।
न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्र्चाभ्यधिकश्र्च दृश्यते। परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च।
( श्रे्वाश्र्वतर उपनिषद ६.८)
अनुवाद:- भगवान या परमेश्वर के लिए कोई भी करने लायक कर्तव्य नहीं है अर्थात उन्हें कोई भी कार्य करने की जरूरत नहीं है। भगवान् के समान अथवा उनसे बढ़कर कोई नहीं है। उनकी अनन्त दिव्य शक्तियां हैं जो उनमें स्वाभाविक रूप से रहती हैं और उन्हें पूर्ण ज्ञान, बल और लीलाएँ प्रदान करती हैं।
भगवान की विभिन्न-२ प्रकृतियां हैं। ऐसे कहा जाए श्री कृष्ण ही पुरुष हैं। विष्णुतत्व पुरुष हैं। बाकी सब भगवान की शक्तियां हैं। बाकी सब व्यक्ति एक एक शक्ति हैं। सुभद्रा की तुलना हमारे साथ नहीं हो सकती। हम जीव तटस्थ शक्ति हैं। लेकिन सुभद्रा मैया विशेष हैं। वह अन्तरंग शक्ति के अंतर्गत है। वह कृष्ण और बलराम की बहन ही हैं।
उस शक्ति का क्या नाम् है, कह नहीं सकते। मेरे पास कोई नाम नहीं है, वह किस नाम से जानी जाती है। हरि! हरि!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
आज के सत्र को यहीं पर विराम देते हैं। समय भी हो चुका है।
हरे कृष्ण!
श्रील प्रभुपाद की जय!