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जप चर्चा दिनांक २८ नवम्बर २०२० हरे कृष्ण!

(जय) राधा माधव (जय) कुंजबिहारी।(जय) गोपीजन वल्लभ (जय) गिरिवरधारी॥ (जय) यशोदा नंदन (जय) ब्रजजनरंजन। (जय) यमुनातीर वनचारी।।

अर्थ:-वृन्दावन के कुंजों में क्रीड़ा करने वाले राधामाधव की जय! कृष्ण गोपियों के प्रियतम हैं तथा गोवर्धन गिरि को धारण करने वाले हैं। कृष्ण यशोदा के पुत्र तथा समस्त व्रजवासियों के प्रिय हैं और वे यमुना तट पर स्थित वनों में विचरण करते हैं।

हरि! हरि!

आज 650 स्थानों से भक्त उपस्थित हैं। आप सब का स्वागत है। हरिबोल!

नियमित रूप से जपा टॉक में सम्मिलित होने वाले भक्तों एवं साथ साथ यहाँ उपस्थित दीक्षार्थियों का भी स्वागत है।

हरि! हरि! वैसे आप का स्वागत गोकुल धाम में हो रहा है। गोकुल धाम की जय!

यह प्रार्थना और आशा है और साथ ही आपके प्रयास भी हैं, एक दिन आपकी आत्मा गोकुल अथवा वृंदावन में पहुंच जाए और वहां पर आप का स्वागत हो। हरि! हरि!

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।। ( श्री मद् भगवतगीता ४.९)

अनुवाद:-हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।

एक दिन ऐसा ही आपका स्वागत हो,उसी की तैयारी है। जिससे हम एक दिन भगवान को प्राप्त करें, हमें उनका दर्शन हो और हम उनके धाम पहुंच जाए। क्या आप ऐसा कुछ चाहते हो या नही! या फिर सोलापुर ही अच्छा है? पंढरपुर तो अच्छा है ही। लेकिन मौड अच्छा नहीं है। जीना यहाँ, मरना यहाँ, सोलापुर,मोड़, सांगला छोड़कर जाना कहाँ? ऐसी बात नहीं होनी चाहिए। आप समझ रहे हो या आपने अनुभव किया है या आप परेशान हो या अभी उतनी परेशानी नहीं है। वैसे आप समझें नहीं हैं। आपको भी उस बात के साक्षात्कार की जरूरत है। भगवान ने संसार को दुःखालयमशाश्वतम् कहा ही है। यह संसार दुःखालयमशाश्वतम् है। यह संसार दुःख का आलय है।

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् । नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥ ( श्री मद् भगवतगीता ८.१५)

अनुवाद:- मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत् में नहीं लौटते, क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है।

संसार को सुख दुःख का मेला भी कहते हैं,यह संसार अशाश्वतम् है! हरि! हरि! हमें इस बात के अनुभव अथवा साक्षात्कार की आवश्यकता है, तभी हम भगवान की ओर मुड़ेंगें या हमें भगवान की याद आएगी।

दुःख में सुमरिन सब करे, सुख में करें न कोई।

यह समस्या है। हम दुख में भगवान को याद करते हैं। यदि आपने दुख का अनुभव किया है तो आपको भगवान याद आने चाहिए। इसलिए भी आप अब तैयार हो रहे हो। मैं सुखालय चाहता हूं लेकिन यह स्थान दुःखालय है। चलो इस दुःखालय को सुखालय बनाते हैं। ऐसे प्रयास भी सृष्टि के आरंभ से हुए हैं। नेता, वैज्ञानिको अपितु सारे संसार ने प्रयास किया है परंतु कोई सफल नही हुआ। सभी असफल ही हुए हैं। भगवान् ने सृष्टि को दुःखालय के रुप में बनाया है अथवा दुःख देने के लिए बनाया है। सुख चाहिए तो स्वर्ग जाते हैं।

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति | एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते।। ( श्री मद् भगवतगीता ९.२१)

अनुवाद:- इस प्रकार जब वे (उपासक) विस्तृत स्वर्गिक इन्द्रियसुख को भोग लेते हैं और उनके पुण्यकर्मों के फल क्षीण हो जाते हैं तो वे मृत्युलोक में पुनः लौट आते हैं | इस प्रकार जो तीनों वेदों के सिद्धान्तों में दृढ रहकर इन्द्रियसुख की गवेषणा करते हैं, उन्हें जन्म-मृत्यु का चक्र ही मिल पाता है | लेकिन पहले पुण्य कमाना होगा, पुण्य कमाया तो स्वर्ग जाएंगे लेकिन वहाँ सदा के लिए नहीं रह सकते। भगवान बताते हैं कि 'क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति' अर्थात पुण्य क्षीण होते ही इस मृत्यु लोक में पुनः आ जाओ और मरते रहो। हरि! हरि!

अत्यंत दुख निवृति का मार्ग भक्तिवेदांत स्वामी मार्ग है। श्रील प्रभुपाद की जय!

यह श्रील प्रभुपाद या महाजनों द्वारा दिखाया हुआ पथ/मार्ग है। तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नासावृषिर्यस्य मतं न भिन्नम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्धाः॥ ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला १७.१८६)

अनुवाद:-श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, "शुष्क तर्क में निर्णय का अभाव होता है। जिस महापुरुष का मत अन्यो से भिन्न नहीं होता, उसे महान् ऋषि नहीं माना जाता। केवल विभिन्न वेदों के अध्ययन से कोई सही मार्ग पर नहीं आ सकता, जिससे धार्मिक सिद्धान्तों को समझा जाता है। धार्मिक सिद्धान्तों का ठोस सत्य शुद्ध स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के हृदय में छिपा रहता है। फलस्वरूप, जैसाकि सारे शास्त्र पुष्टि करते हैं, मनुष्य को महाजनों द्वारा बतलाये गये प्रगतिशील पथ पर ही चलना चाहिए।"

बोले तैसा चालै शची वन्दा ही पाउली।

जैसा वो बोले, वैसा वह चले भी। हमें भी ऐसे महाजनों, भक्तों, संतो, आचार्यों के चरणों का अनुगमन करना है।

आप भी ऐसा अनुगमन करने के लिए तैयार हो रहे हो। आप का स्वागत है। भगवान ने आप पर कृपा की है। ब्रह्मांड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव। गुरु- कृष्ण- प्रसादे पाय भक्ति लता बीज।। ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१५१)

अनुवाद:- सारे जीव अपने अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्मांड में घूम रहे हैं। इनमें से कोई कुछ ग्रह मंडलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह मंडलों को। ऐसे करोड़ों भटक रहे जीवों में से कोई एक अत्यंत भाग्यशाली होता है, जिसे कृष्ण की कृपा से अधिकृत गुरु का सानिध्य प्राप्त करने का अवसर मिलता है। कृष्ण तथा गुरु दोनों की कृपा से ऐसा व्यक्ति भक्ति रूपी लता के बीज को प्राप्त करता है।

भगवान ने आपको भाग्यवान बनाकर अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ तक पहुंचाया है। इस अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ में आपको साधु सङ्ग प्राप्त हो रहा है। संघ के कुछ सदस्य आपके पथ प्रदर्शक गुरु तथा कुछ शिक्षा गुरु बन रहे हैं और आप दीक्षा के लिए भी तैयार हो रहे हो। तत्पश्चात दीक्षा गुरु के साथ भी आपका मिलन हो रहा है। ऐसा मिलन अथवा मुलाकात दुर्लभ होती है।

भजहुँ रे मन श्रीनन्दनन्दन, अभय चरणारविन्द रे। दुर्लभ मानव-जनम सत्संगे, तरह ए भव सिन्धु रे॥1॥ ( वैष्णव गीत)

अनुवाद:- हे मन, तुम केवल नन्दनंदन के अभयप्रदानकारी चरणारविंद का भजन करो। इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर संत जनों के संग द्वारा भवसागर तर जाओ!

मनुष्य जीवन भी दुर्लभ है तथा इस सत्संग का लाभ होना भी दुर्लभ है। यह भी कहा गया है कि हर जन्म में माता पिता मिलते ही रहते हैं अर्थात हर जन्म में माता- पिता होते ही हैं फिर चाहे वह मनुष्य जीवन हो या कुत्ते- बिल्ली का जीवन। हर जन्म में माता- पिता होते ही हैं लेकिन गुरु केवल एक ही बार मिलते हैं या एक ही जन्म में मिलते हैं। माता- पिता हर जन्म में मिलते हैं किन्तु गुरु एक ही जन्म में मिलते हैं। गुरु भगवान का प्रतिनिधि होता है। गुरुओं की अपनी एक् टीम है। गुरुवृंद में जब कोई पथ प्रदर्शक गुरु या शिक्षा गुरु बनते हैं तब ये हमारी मुलाकात दीक्षा गुरु से करवाते हैं। तत्पश्चात बात बनती है और हम आगे बढ़ सकते हैं।

यदि आपकी कोई समस्या व उलझन है,आप उन्हें बता सकते हो। वैसे वे आपके बताने से पहले ही जानते हैं कि आप की क्या समस्या है। भगवान ने उन्हें बताया हैं क्योंकि वे भगवान का प्रतिनिधित्व करते हैं।

अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्। आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः।। इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च ।जन्ममृत्युजराव्याधिदु:खदोषानुदर्शनम् ।।असक्तिरनभिष्वङगः पुत्रदारगृहादिषु। नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु। मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा।। ( श्रीमद् भगवतगीता १३.८-१२)

अनुवाद:- विनम्रता, दम्भहीनता, अहिंसा, सहिष्णुता, सरलता, प्रामाणिक गुरु के पास जाना, पवित्रता, स्थिरता, आत्मसंयम, इन्द्रियतृप्ति के विषयों का परित्याग, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा रोग के दोषों की अनुभूति, वैराग्य, सन्तान, स्त्री, घर तथा अन्य वस्तुओं की ममता से मुक्ति, अच्छी तथा बुरी घटनाओं के प्रति समभाव, मेरे प्रति निरन्तर अनन्य भक्ति, एकान्त स्थान में रहने की इच्छा, जन समूह से विलगाव, आत्म-साक्षात्कार की महत्ता को स्वीकारना, तथा परम सत्य की दार्शनिक खोज - इन सबको मैं ज्ञान घोषित करता हूँ और इनके अतिरिक्त जो भी है, वह सब अज्ञान है।

यदि आपको पूरा समझ में भी नहीं आया तब गुरु आपको बताते हैं कि जन्म,मृत्यु, जरा, व्याधि यह समस्याएं है। वैसे समस्या यह है कि हमें यह ही पता नहीं चलता कि क्या समस्या है।

श्रील प्रभुपाद समझाते हैं आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नाणाम्। धर्मो हि तेषामदिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानः।। ( हितोउपदेश)

अनुवाद:- मानव व पशु दोनों ही खाना, सोना, मैथुन करना व भय से रक्षा करना इन किय्राओं को करते हैं परंतु मनुष्यों का विशेष गुण यह है कि मनुष्य आध्यात्मिक जीवन का पालन कर सकते हैं। इसलिए, आध्यात्मिक जीवन के बिना, मानव पशुओं के स्तर पर है।

दुनिया आहार, निद्रा, भय, मैथुन को समस्या समझती है और इसके उपाय ढूंढती है कि किस प्रकार आहार की प्राप्ति होगी या निद्रा की कैसी अवस्था होगी या इस भय या उस भय से हम कैसे बचेंगे या मैथुन की व्यवस्था कैसे होगी। इसे पशुवृत्ति कहा जाता है अर्थात यह पशुओं की वृत्ति है। पशु का विचार या पशु का स्वभाव सीमित होता है। पशु बस इतना हु सोचते हैं कि आहारनिद्राभयमैथुनं .... समाप्त।

आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नाणाम्।

पशुओं तथा नरों में आहारनिद्राभयमैथुन सामान्य है। वैसे यदि हम सिद्ध करना चाहते हैं कि हां, मैं मनुष्य हूं या मैं मनुष्य बन गया हूँ लेकिन जब तक आपकी सारी प्रवृत्ति अथवा सारे प्रयास आहार, निद्रा, भय, मैथुन में ही लगे हैं तब तक आप मनुष्य नहीं हो। शास्त्र कहता है कि आप द्विपाद पशु हो। वैसे पशु चतुष्पाद होते हैं। पशुओं के चार पैर होते हैं लेकिन हम दो पैर वाले द्विपाद पशु हैं। हरि! हरि!

वह मनुष्य कहलायेगा जो कि मनु से उत्पन्न होता है। मनु से मनुष्य बनते हैं। मनु ने हमें मनु संहिता भी दी है एवं धर्म के नियम भी दिए हैं।

'धर्मेण हीनाः पशुभिः समानः'

यदि हम धर्म हीन हैं तो हम पशु के समान हैं।'धर्मो हि तेषामदिको विशेषो'

वैसे मनुष्य की पहचान है कि वह धर्म का अवलंबन करता है। आहार, निद्रा, भय, मैथुन यह चलता ही रहता है लेकिन एक अतिरिक्त बात धर्म अथवा कृष्ण भावना अथवा भक्ति है जिसे वह अपनाता है और फिर मनुष्य बन जाता है। धर्मो हि तेषामदिको विशेषो।

जो दीक्षार्थी हैं या जो पहले ही दीक्षा ले चुके हैं या अन्य भक्त जो तैयारी कर रहे हैं या जिन्होंने अभी विचार नहीं किया है अथवा जिनकी तैयारी हो चुकी है और जिन्होंने निर्णय लिया है कि "बस अब मैं इस दुखालय से मुक्त होना चाहता हूं, मुझे सुखालय चाहिए। मैं समस्या समझना चाहता हूं जोकि मुझे अभी तक पता नहीं चली थी कि समस्या क्या-कौन सी है' लेकिन अब समझ में आ रहा है कि यह जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि ही समस्या है। यही उलझन है, तब सुलझन क्या है?

भगवान भगवत गीता में कहते हैं। तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥ ( श्री मद् भगवतगीता ४.३४)

अनुवाद:- तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो | उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो | स्वरुपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है।।

इसलिए अब मैं तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन कर रहा हूँ भगवान कह रहे हैं कि आप जो कर रहे हैं या करना चाहिए वैसे आप उसकी शुरुआत कर ही रहे हो। भगवान् कहते हैं - समझो, समझो, आपको समझना चाहिए। प्रणिपातेन- शरण में जाओ, आश्रय लो, आश्रय ले कर उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः अर्थात आगे बढ़ो। जो तत्वदर्शी अथवा तत्ववेत्ता अथवा गुरुजन अथवा परम्परा में आने वाले आचार्य, गुरुजन अथवा दीक्षा गुरु हैं। उनके पास जाओ और परिप्रश्नेन अर्थात उनसे प्रश्न पूछो।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु:।स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।। ( श्रीमद् भगवतगीता ४.२) अनुवाद:- इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा। किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है।

गुरुजन से परंपरा में आने वाले आचार्य अथवा गुरु के पास पहुंच कर प्रश्न पूछो। अथातो ब्रह्म जिज्ञासा:। ( वेदान्त सूत्र१.१.१)

अनुवाद:- अतः अभी ब्रह्म ( पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान्) के विषय में प्रश्न पूछने चाहिए। बाजार भाव की चर्चा और प्रश्न तो बहुत हो गए। क्या भाव है? अब कुछ ब्रह्म जिज्ञासा करो। वेदांत सूत्र भी ब्रह्म जिज्ञासु बनने को कहता है। अब भक्ति तथा भगवान के संबंध में प्रश्न पूछो या स्वयं के सम्बंध में प्रश्न पूछो।

के आमि, 'केने आमाय जारे ताप-त्रय'। इहा नाहि जानि-केमने हित हय'।। ( श्री चैतन्य चरितामृत २०.१०२)

अनुवाद:- मैं कौन हूँ? तीनों ताप मुझे निरन्तर कष्ट क्यों देते हैं? यदि मैं यह नहीं जानता, तो फिर मैं किस प्रकार लाभान्वित हो सकता हूँ? मैं कौन हूँ? केने आमाय जारे ताप-त्रय' - हम यह कष्ट क्यों भोग रहे हैं। कैसे राहत मिल सकती है। इस प्रकार परिप्रश्नेन और साथ ही साथ सेवा तथा विनय भाव से प्रश्न पूछो। आप जिससे प्रश्न पूछ रहे हो, वह आपको उपदेक्ष्यन्ति ते अर्थात उपदेश देंगे। भाष्य में कहीं कहीं पर उपदेक्ष्यन्ति ते को दीक्षा भी कहा अथवा समझाया गया है। वह आपको उपदेश करेंगे अथवा आपको दीक्षा देंगे। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानम। ज्ञान का उपदेश करेंगे, ज्ञान देंगे। हरि! हरि! आप सभी दीक्षार्थियों का स्वागत / अभिनंदन है। बधाई! आपने ऐसा निर्णय ले ही लिया। अब तक आपको यह संसार गुमराह कर रहा था लेकिन अब भगवान आपको सद्बुद्धि दे रहे हैं।

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् | ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || ( श्रीमद् भगवतगीता १०.१० )

अनुवाद:- जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं। भगवान ने आपको सद्बुद्धि दी है। जिससे आप भगवान के और अधिक निकट पहुँचोगे।

आप सब के लिए ऐसी भी प्रार्थना और आशीर्वाद है कि वे आगे भी ऐसी सद्बुद्धि आपको देते रहे।

बुद्धि ही संचालक है। बुद्धि ही ड्राइवर है। हमारा जो प्रवास अर्थात यात्रा इस संसार में चल रही है उसे कृष्णभावना भावित होना और भगवतधाम लौटना और भगवत प्राप्ति करना यह बुद्धिमान व्यक्ति का कार्य है, बुद्धू का नही है। भगवान् बुद्धि देंगे तो आप बुद्धिमान बन जाओगे। भगवान् ने कुछ तो बुद्धि दी है और जिन्होंने बुद्धि दी है, उनको भी आप शुक्रिया अदा करो। उनका आभार मानो। भगवान के प्रतिनिधि बन कर ही भक्त, साधु, संत, शिक्षा गुरु, दीक्षा गुरु हमें बुद्धि देते हैं। हरि! हरि!

वैसे भगवान् भी हमें देना चाहते हैं और देते ही रहते हैं लेकिन हमें सुनाई ही नहीं देता या हम ध्यान नहीं देते। इसलिए भगवान गुरु के रूप में हमारे समक्ष आ जाते हैं। जब हम उनको सुनते हैं, तब हमें समझना चाहिए कि हम भगवान् को ही सुन रहे हैं। या भगवान ही हमें बुद्धि दे रहे हैं अथवा दिमाग दे रहे हैं या हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं।

ठीक है, आज तो केवल दीक्षार्थियों का नामकरण ही है। यह प्रक्रिया कई दिनों से चल रही है। जैसा कि आप घोषणा सुन रहे हो तो 30 तारीख को यज्ञ होगा और यह दीक्षा की विधि संपूर्ण होगी। आज तो थोड़ा सा मार्गदर्शन और आपका परिचय होगा।हम भी कुछ परिचयात्मक बातें कह रहे हैं। तत्पश्चात आपका नामकरण आज होने जा रहा है। सभी भक्त जुड़े रहिए और जप करते रहिए। आप भी साक्षी बनिए और अपनी शुभकामनाएं व्यक्त कीजिए। जो भक्त आज दीक्षा ले रहे हैं, उनको भी आपका आशीर्वाद और प्रोत्साहन चाहिए। ठीक है। ओके!

गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!

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