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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक 05 जून 2021 (जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।। हरे कृष्ण!!! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 805 स्थानों से भक्त सम्मिलित हुए हैं। गौरांगा! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! जय सखी वृंद! तुम्हारी पुत्री भी आज सम्मिलित हुई है, यह बहुत अच्छा है। अपने मित्रों, सगे संबंधियों के साथ जप करो! संकीर्तन आंदोलन मतलब जब हम सामूहिक रूप से जप करते हैं अर्थात हम सभी को मिलकर सारे संसार के ( सारे संसार के साथ नही, अर्थात माया के साथ नहीं) लोगों के साथ जप, कीर्तन, भक्ति करनी है अथवा अधिक अधिक लोगों अथवा जीवों को जोड़ना है। वे जीव आपके परिवार के सदस्य भी हो सकते हैं या आपके देशवासी हो सकते हैं अथवा पूरी मानव जाति हो सकती है। यह कृष्ण भावना सभी जीवों के लिए है। संघे शक्ति कलौयुगे। कलियुग में संगठित होने की महिमा है। संगठन में नंबर्स का मामला भी है। यदि अधिक लोग हैं, तब अधिक शक्ति का प्रदर्शन भी होगा। आप भी औरों के प्रति ऐसे ही दयालु बनिए। जैसे हम कहते हैं कि मैं तो जप कर रहा हूं, अच्छा है कि आप जप कर रहे हो परंतु यह और भी अच्छा होगा जब आप दूसरों को जप करने के लिए प्रेरित करते हो। हरि! हरि! राजा कुलशेखर के भी ऐसे ही प्रयास रहे हैं जिनकी हम प्रार्थनाएं पढ़ रहे हैं। हमनें कल कुछ उनकी प्रार्थनाएं पढ़ी थी। कुछ आज पढे़गें। यह कहा जा सकता है कि वे प्रार्थना करते हुए, सारे संसार के लोगों को प्रेरित कर रहे हैं अर्थात राजा कुलशेखर कृष्ण भावना भावित होने की प्रेरणा दे रहे हैं। कृष्ण त्वदीयपदपङ्कजपञ्जरान्त मद्यैव मे विशतु मानसराजहंसः । प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः कण्ठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते ॥३३ ॥ अनुवाद :- हे भगवान् कृष्ण , इस समय मेरे मन रूपी राजहंस को अपने चरणकमल के डण्ठल के जाल में प्रवेश करने दें । मृत्यु के समय जब मेरा गला कफ , वात तथा पित्त से अवरुद्ध हो जाएगा , तब मेरे लिए आपका स्मरण करना कैसे सम्भव हो सकेगा ? ऐसी कई सारी प्रार्थनाएं है। उसमें से कुल ५३ प्रार्थनाएं इस मुकुंद माता स्तोत्र में हैं। राजा कुलशेखर ने प्रार्थना की है और हमें प्रार्थना करना सिखा रहे हैं। आचार्यों अथवा राजऋषियों का ऐसा प्रयास बना रहा है कि अधिक से अधिक लोग यह प्रार्थना करें, भक्ति करें, जप करें, कीर्तन करें, आत्मनिवेदन करें अर्थात भगवान की शरण ले। नवधा भक्ति करें। हरि! हरि! हमें भी यह करना है। इस भक्ति को केवल स्वयं तक सीमित नहीं रखना है। वैसे भी कहा गया है कि भक्ति भक्तों से प्राप्त होती है। ऐसे भक्ति का संचार व प्रचार-प्रसार होता है अथवा वृद्धि होती है। एक भक्त दूसरे भक्त को भक्ति देता है। यह बातें भी है। हम आपको कुछ उपदेश कर रहे हैं। कुछ आदेश अथवा कुछ गृहकार्य भी दे रहे हैं। लेकिन हमें राजा कुलशेखर की प्रार्थनाएं भी करनी है, सुननी है, समझनी है। कल हमने कुछ प्रार्थनाएं अध्ययन की थी और आज भी हम कुछ प्रार्थनाएं पढ़ेंगे। त्यजन्तु बान्धवाः सर्वे निन्दन्तु गुरवो जनाः । तथापि परमानन्दो गोविन्दो मम जीवनम् ॥३ ९ ॥ अनुवाद:- चाहे मेरे सारे कुटुम्बीजन मेरा परित्याग कर दें और मेरे वरिष्ठजन मेरी निन्दा करें , फिर भी परम आनन्दमय गोविन्द मेरे प्राणाधार बने हुए हैं । राजा कुलशेखर इस प्रार्थना में कह रहे हैं। राजा कुलशेखर राजा अथवा राजऋषि थे। वे श्री संप्रदाय के राजऋषि थे। रामानुजाचार्य का जो श्री संप्रदाय है, उसमें वे एक आचार्य की भूमिका भी निभा रहे थे। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || ( श्रीमद् भगवतगीता 4.8) अनुवाद: भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ । वे भगवान की ओर से धर्म की स्थापना कर रहे हैं, उन्होंने भगवान का कार्य किया। राजा का कार्य ऐसा ही होता है, वे पहले नागरिक होते हैं। राजा, राजऋषि, भगवान के प्रतिनिधि होते हैं और फिर परित्राणाय साधुनाम भी है। यह राजा का ही कर्तव्य होता है। क्षतात त्राय ते इति क्षत्रियः। अर्थ:- क्षति( पाप, अधर्म, कष्ट, शत्रु आदि सर्व प्रकार की क्षति) से रक्षा करना सच्चे क्षत्रिय का परम् कर्त्तव्य होता है।। राजऋषि परित्राणाय साधुनाम भी करते हैं, वे विनाशाय च दुष्कृताम अर्थात दुष्टों का संहार करते हैं या असुरों को दंडित करते हैं अथवा वे अपने राज्य में असुरी प्रवृति का दमन करते हैं और जो समाजकंटक है, उनको उखाड़ कर समूल नष्ट करते हैं। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || ( श्रीमद् भगवत गीता ४.८) अनुवाद: भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ। भगवान, धर्मसंस्थापनार्थाय अर्थात धर्म का संस्थापना का कार्य करते हैं और राजा, ऋषियों की मदद से भगवान का यह कार्य करते हैं। वे राजऋषि कहलाते हैं। वे इस प्रार्थना में कह रहे हैं कि त्यजन्तु बान्धवाः सर्वे निन्दन्तु गुरवो जनाः । तथापि परमानन्दो गोविन्दो मम जीवनम् ॥३ ९ ॥ अनुवाद:- चाहे मेरे सारे कुटुम्बीजन मेरा परित्याग कर दें और मेरे वरिष्ठजन मेरी निन्दा करें , फिर भी परम आनन्दमय गोविन्द मेरे प्राणाधार बने हुए हैं । संभव है कि भगवान या गोविंद का भक्त बनने से मेरे परिवार के कुछ सदस्य मुझे त्याग सकते हैं। 'यह हरि कृष्ण वाला कहीं का।' नफरत कर सकते हैं। ईर्ष्या द्वेष हो सकता है। भेद कर सकते हैं। साम, दाम, दंड, भेद। त्यजन्तु बान्धवाः सर्वे। बंधु बांधव मुझे त्याग सकते हैं। ऐसी संभावना है, ऐसा होता रहता है। हम सभी का अनुभव है, हम जो भक्त बन रहे हैं। कईयों को यह बात पसंद नहीं होती है। हरि! हरि! वे हमें त्याग देते हैं, हमें अलग कर देते हैं। हो सकता है कि वे हमें अपने उत्सवों में ही नहीं बुलाएं। यह हम सभी का अनुभव है। पिता हिरण्यकश्यिपु ने क्या किया था जब उनका पुत्र भक्त बन गया था, वह विश्व प्रसिद्ध बात है। जब कोई भक्त बनता है, तब लगभग कम् या अधिक वैसा ही होता है। दुनिया वाले भक्तों के साथ, वैष्णवों के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं। राजा कुल शेखर कह रहे हैं कि वे करें, सही। त्यजन्तु बान्धवाः सर्वे निन्दन्तु गुरवो जनाः । वे निंदा करेंगे, टीका टिप्पणी होगी। जब हम हरे कृष्ण वाले बनें थे और जब हम लोग प्रचार के लिए निकलते थे। तब उस समय लोग हमें देखते ही पुनः एक ग्रामोफोन रिकॉर्ड चला देते थे, उन दिनों में चलता था - दम मारो, मिट जाए गम'। हरे कृष्णा हरे राम। वे गीत इतनी जोर से सुनाते, सब हमारी ओर संकेत करते हुए कहते कि तुम हो, वे दम मारने वाले । वे हरे कृष्ण वाले भक्तों को नहीं समझते थे इसलिए इस प्रकार की टीका टिप्पणी चलती रहती थी कि हरे कृष्ण वाले ऐसे हैं, धिक्कार है इन हरे कृष्ण वालों पर। हरे कृष्ण वाले अमेरिकन एजेंट है। यह सी.आई.ए. हैं। क्यों नहीं। टॉक ऑफ टाउन, टॉक ऑफ द मुंबई, टॉक ऑफ इंडिया। इन शब्दों में निंदा हुआ करती थी। राजा कुलशेखर कहते थे - निंदंतु अर्थात निंदा करने दो। हरि! हरि! मुझे परवाह नहीं है। तथापि परमानन्दो गोविन्दो मम जीवनम् । बस मेरा तो जीवन गोविंद है। तथापि लोग ऐसा कहेंगे, करेंगे, ऐसा व्यवहार करेंगे, हमें त्याग देंगे, निंदा होगी, यह वह होगा। बहुत कुछ हो सकता है। जब मीराबाई भी भक्त बनी थी तो उसको पीने के लिए जहर ही दे दिया था, मारपीट भी चल ही रही थी किंतु तथापि बस मेरे गोविंद, कैसे गोविंद? परमानन्दो गोविन्द अर्थात परमानंद देने वाले हैं। दुनिया वाले आनंद नहीं दे रहे हैं। कुछ सुख का वर्धन करने, वचन नहीं कह रहे हैं। मुझे परवाह नहीं है। मुझे पर्याप्त आनंद मिल रहा है। भगवान मुझे आनंद दे रहे हैं। मैं आनंद के सागर में गोते लगा रहा हूं। चेतो - दर्पण - मार्जन भव - महा - दावाग्नि - निर्वापणं श्रेयः कैरव - चन्द्रिका - वितरणं विद्या - वधू - जीवनम् आनन्दाम्बुधि - वर्धन प्रति - पद पूर्णामृतास्वादन सर्वात्म - स्नपन पर विजयते श्री - कृष्ण - सङ्कीर्तनम् ।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.१२) अनुवाद :- भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागर रूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है , जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतल और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बना। मेरा सर्वात्म - स्नपन हो रहा है। स्नान कर रहा हूँ। सर्वात्म - स्नपन। (शब्दों का सिलेक्शन भी है।) यहां गोविंद कहा है। कोई कह सकते हैं कि भगवान के कई सारे नाम है। विष्णुसहस्त्र नाम है। गोविंद ही क्यों कहा है। गोविंद से आपको कुछ ध्वनित् हो रहा है? गोविंद मतलब आनन्द की बात है। गो मतलब इंद्रियां अर्थात इन्द्रियों को आनन्द देने वाले भगवान्। इसलिए उनका नाम गोविंद हैं या गायों को आनंद देने वाले अथवा भूमि को आनंद देने वाले। यह तीन अर्थ कहे ही जाते हैं। इंद्रियों, गायों, भूमि को आनंद देने वाले गोविंद हैं। मैं तो आनंद के स्तोत्र के साथ में जुड़ा हूं। मुझे परवाह नहीं है, दुनिया वाले ठकुरा दे या प्यार करें। आई केयर फ़ॉर कृष्ण और गोविंद। आप समझ रहे हो। मुकुंद माधव तुम समझ रहे हो? यह विचार है। यह प्रार्थना राजा कुल शेखर के विचार हैं। हमें भी ऐसे विचार वाले बनना है। हमें भी ऐसी प्रार्थना करनी है। हमारे भाव हमारे विचार कब ऐसे होंगे? ऐसे विचारों को पढ़कर तोते की तरह रटने कर नकल करने की बात नहीं है। शास्त्रों में जो कहा गया है, हम भी कहते हैं। लेकिन यह हमारी भी आवाज हो, हम भी कहे, ऐसे विचार ही, हमारे विचार बन जाए। तहे दिल से हम भी ऐसा कहें। यह साक्षात्कार की बातें हैं। ज्ञान को विज्ञान बनाने की बात है। ज्ञान विज्ञानसहितं .. हे गोपालक हे कृपाजलनिधे हे सिन्धुकन्यापते हे कंसान्तक हे गजेन्द्रकरुणापारीण हे माधव । हे रामानुज हे जगत्त्रयगुरो हे पुण्डरीकाक्ष मां हे गोपीजननाथ पालय परं जानामि न त्वां विना ॥४४ ॥ ( मुकंद लीला श्लोक संख्या 44) अनुवाद:- हे युवा गोप ! हे करुणासिन्धु ! हे सागरकन्या लक्ष्मी के पति ! हे कंस के संहारक ! हे गजेन्द्र के करुणामय उद्धारक ! हे माधव ! हे बलराम के अनुज ! हे तीनों लोकों के गुरु ! हे गोपियों के कमलनयन प्रभु ! मैं अन्य किसी को आपसे बढ़कर महान् नहीं जानता । कृपया मेरी रक्षा करें । जैसे हम किसी को प्रार्थना करते, कहते हैं। प्रार्थना करने वाला किसी को प्रार्थना करता, सुनाता है। वैसे ही यहां राजा कुलशेखर की प्रार्थना है। वे जिनकी प्रार्थना कर रहे हैं, उनके नाम भी यहां गिनवाये जा रहे हैं। ये नाम एक संबोधन के रूप में आ जाते हैं। जो आठ विभक्तियाँ होती हैं, उनमें एक संबोधन है। यह जो प्रार्थना है, संबोधनों से भरी हुई है। हम किसी को संबोधित कर रहे हैं। प्रार्थना अर्थात एड्रेस ( संबोधन) करते हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण यह भी एक प्रार्थना है। पूरे के पूरे जो 16 शब्द हैं, नाम हैं। यह सारे संबोधन हैं। हरे संबोधन है, कृष्ण संबोधन है। इसी तरह सब संबोधन ही संबोधन है। यहां पर भी है संबोधन में हे या अहो या अरे ऐसे कई शब्दों का प्रयोग होता है। अभी तो हे गोपालक्। गाय का पालन करने वाले। हे कृपाजलनिधे । जलनिधि अर्थात समुद्र। कृपाजलनिधे अर्थात कृपा के सागर। हे सिन्धुकन्यापते , सुना? क्या संबोधन है? वैसे नाम है सिंधुकन्यापति! यह लक्ष्मी का नाम है। पति का संबोधन पते हुआ। सिन्धुकन्यापते! सिन्धुकन्या - समुंदर की कन्या लक्ष्मी है। जब समुद्र मंथन हुआ था तब सुर और असुरों ने मंथन किया था 14 रत्न निकले थे। उन में से एक रतन स्वयं लक्ष्मी थी जो समुद्र मंथन से उत्पन्न हुई थी। इसीलिए लक्ष्मी को सिंधु कन्या कहते हैं । इस लक्ष्मी को सिंधु कन्या कैसे कहते हैं? मुझे याद आ रहा है। आप नोट भी कर सकते हो। आठवें स्कंध के आठवें अध्याय का आठवां श्लोक (8.8.8) में वर्णन है ततधाविरभूत्याक्षाच्छी रमा भगवत्परा । रञ्जयन्ती दिश : कान्या विद्युत्सौदामनी यथा ॥ ( श्रीमद् भागवतम् ८.८.८) अनुवाद:- तब धन की देवी रमा प्रकट हुई जो भगवान् द्वारा भोग्या है और उन्हीं को समर्पित रहती हैं। वे बिजली की भाँति प्रकट हुई और उनकी कांति संगमरमर के पर्वत को प्रकाशित करने वाली बिजली को मात कर रही थीं। इस श्लोक में उल्लेख है कि कैसे लक्ष्मी, सिंधु कन्या के रूप में प्रकट हुई। वैसे अष्टलक्ष्मियां भी होती हैं। पुनः एक और आठ का आंकड़ा लक्ष्मी के साथ जुड़ गया। सिंधुकन्यापते! हे कंसान्तक! आप समझते हो कि कंस का अंत करने वाले कौन हैं। हे गजेन्द्रकरुणापारीण। हे गजेंद्र! गजेंद्र पर कृपा करने वाले। आपने पूरी कृपा की है। आधी कृपा या थोड़ी कृपा नहीं की। पूरी कृपा की है। गजेन्द्रकरुणापारीण। भागवत में गजेंद्र मोक्ष लीला है। यह संबोधन में कह रहे हैं। स्मरण कर रहे हैं। गजेन्द्रकरुणापारीण। उस गजेंद्र ने असहाय होकर ( तालाब में उसका संघर्ष चल रहा था) और उसी ने वहीं से अपनी सूंड में फूल उठाया और भगवान् को फूल अर्पित किया। पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति | तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः || ( श्रीमद् भगवतगीता ९.२६) अनुवाद:- यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ। उसने भगवान को ऊपर की दिशा में फूल अर्पित किया। भगवान् ऊपर रहते हैं ना अर्थात ऊपर कहीं होते हैं। भगवान ने गजेंद्र की प्रार्थना भी सुनी। गजेंद्र अपने ढंग से प्रार्थना कर रहे थे, फूल अर्पित कर रहे थे। भगवान् ने पूरी कृपा की। भगवान स्वयं गरुड़ पर विराजमान होकर आए और उस मगरमच्छ को काटा, उसकी जान ली व गजेंद्र को बचाया अथवा मुक्त किया। भगवान् ने उन्हें उस हाथी के शरीर से भी मुक्त किया। पहले कोई शाप मिला था जिसके कारण वे हाथी बने थे। हाथी के शरीर से मुक्त किया। मुक्त हो गजेंद्र चतुर्भुज में आ गए। भगवान् ने उनको गरुड़ पर पीछे बिठाया। 'बैक टू होम, बैक टू बैकुंठ' जैसे स्कूटर का चालक कोई स्कूटर लेकर आता है और अपने जैसे किसी को पीछे बैठा देता है, पीछे बैठ जाओ, मेरे पीछे अपनी सीट ग्रहण करो। वैसे ही भगवान् स्वयं आए। गरुड़ पर बिठाकर गजेंद्र को भगवत धाम ले गए, यह उदाहरण है। भगवान् ने छप्पर फाड़ कर कृपा की। हे माधव! जो कि लक्ष्मी के पति नारायण भी हैं । राधा भी लक्ष्मी हैं, वृंदावन की महालक्ष्मी हैं। राधा के पति माधव। राधा माधव। हे रामानुज! यहां रामानुजाचार्य की बात नहीं हो रही। हे राम के अनुज! यहां राम मतलब बलराम! बलराम के अनुज श्री कृष्ण हैं। बलराम बड़े भ्राता हैं। बलराम सातवें सुपुत्र हैं व उनके बाद में जन्मा हुआ अनुज। अनुज अर्थात अनु और ज। अनु मतलब बाद में , ज मतलब पीछे से जन्मा हुआ। हे रामानुज अर्थात श्री कृष्ण! बलराम के छोटे भाई श्रीकृष्ण! कृष्ण कन्हैया, दाऊ जी का भैया! दाऊ जी का भैया, कृष्ण कन्हैया।। हे जगत्त्रयगुरो। आप जगत् त्रय स्वर्ग, मृत्यु, पताल लोक इन तीनों के गुरु हो। सीधी भाषा में आप जगतगुरु हो। हे जगत्त्रयगुरो, हे पुण्डरीकाक्ष! प्रार्थना भी हो रही है और इसी के साथ प्रार्थना में भगवान् को सम्बोधन होता है। भगवान के अलग अलग गुणों का अथवा लीलाओं, रूप का स्मरण करते हुए संबोधन व प्रार्थना हो रही है। एक एक संबोधन या तो नाम, रूप, गुण , लीला या धाम है। हम ब्रह्म ज्योति को प्रार्थना नहीं कर सकते। भगवान् निराकार हैं। भगवान् निर्गुण हैं। भगवान् प्रकाश हैं, भगवान् ज्योति हैं। उनका कोई रूप, गुण नहीं है, नाम नहीं हैं, धाम नहीं हैं। क्या फिर ब्रह्म ज्योति को प्रार्थना करोगे? क्या ब्रह्म ज्योति आपकी प्रार्थना सुनेगी? यह एक बहुत बड़ी समस्या है। प्रभु कहे, मायाबादी कृष्णे अपराधी।ब्रह्म', 'आत्मा, "चैतन्य' कहे निरवधि ॥ ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला १७.१२९) अनुवाद:- श्रीचैतन्य महाप्रभ ने उत्तर दिया, "मायावादी निर्विशेषवादी लोग भगवान् कृष्ण के सबसे बड़े अपराधी हैं। इसीलिए वे मात्र 'ब्रह्म,' 'आत्मा' तथा 'चैतन्य' शब्दों का उच्चारण करते हैं। इसको नोट करो। मायावादी कृष्ण अपराधी। ऐसे छोटे छोटे नोट लिख सकते हो। दो ही शब्द हैं लेकिन इसमें बहुत कुछ कहा है। मायावादी कृष्ण अपराधी। कृष्ण मतलब सः कृषति सः कृष्ण, कृष्ण कैसे आकर्षित करते हैं?कृष्ण अपने नाम से आकर्षित करते हैं । मायावादी अपराध करते हैं। मायावादी कृष्ण अपराधी कैसे? वे धाम को नहीं समझते। भगवत धाम इत्यादि नहीं लौटते। उनको धाम का पता ही नहीं हैं। बस उन्हें केवल प्रकाश का साक्षात्कार हुआ है। अहम ब्रह्मास्मि अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं । मायावादी प्रार्थना नहीं कर सकते। कोई क्या कर सकता है। हरि! हरि! जो ज्ञानी होते हैं वे मायावादी होते हैं। कर्मकांड, ज्ञान कांड केवल विषेर भांड'। ज्ञानी मायावादी होते हैं। ब्रह्मवादी होते हैं, वे प्रार्थना करते हैं। जो कर्मी होते हैं अर्थात जो देवी देवता के पुजारी होते हैं। अन्तवत्तुफलंतेषांतद्भवत्यल्पमेधसाम् | देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्तायान्तिमामपि || ( श्रीमद् भगवतगीता ७.२३) अनुवाद:- अल्पबुद्धि वाले व्यक्ति देवताओं की पूजा करते हैं और उन्हें प्राप्त होने वाले फल सीमित तथा क्षणिक होते हैं। देवताओं की पूजा करने वाले देवलोक को जाते हैं, किन्तु मेरे भक्त अन्ततः मेरे परमधाम को प्राप्त होते हैं। वे प्रार्थना करते हैं, कुछ लोग प्रार्थना करते हैं। कुछ लोग प्रार्थना करते ही नहीं। अर्थात कुछ लोग देवी देवता की प्रार्थना करते हैं। मायावादी किसी की प्रार्थना नहीं करते। देवी देवताओं को भी प्रार्थना नहीं करते और कृष्ण को भी प्रार्थना नहीं करते। इस संसार में बड़ी बड़ी पार्टी है, वैसे वे धार्मिक तो कहलाती हैं। हरि! हरि! प्रार्थना वैष्णव करते हैं। हे पुंडरीकाक्ष मां हे गोपीजननाथ ! अंत में कहा है कि हे गोपीजनों के नाथ या राधा नाथ पालय यह प्रार्थना है कि पालन करो। रक्षा करो। बचाओ बचाओ। कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! हे । कृष्ण कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण कृष्ण ! कृष्ण ! हे । कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्णः कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्णा रक्षमाम् । कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! पाहि माम् ॥ राम ! राघव ! राम ! राघव ! राम ! राघव ! रक्ष माम् । कृष्णः केशव ! कृष्ण ! केशव ! कृष्ण ! केशव ! पाहि माम् ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला ७.९६) अनुवाद महाप्रभु कीर्तन कर रहे थे . कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! हे कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्णः कृष्ण ! कृष्ण ! हे कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! रक्ष माम् कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! पाहि माम् अर्थात् " हे भगवान् कृष्ण ! कृपया मेरी रक्षा कीजिये और मेरा पालन कीजिये । " उन्होंने यह भी कीर्तन किया राम ! राघवा रामा राघव ! राम ! राघव ! रक्ष माम् । कृष्ण ! केशव ! कृष्ण ! केशव ! कृष्ण ! केशव ! पाहि माम् । अर्थात् हे राजा रघु के वंशज ! हे भगवान् राम ! मेरी रक्षा करें । हे कृष्ण , हे केशी असुर के संहारक केशव , कृपया मेरा पालन करें । हे पुण्डरीकाक्ष मां हे गोपीजननाथ पालय परं जानामि न त्वां विना ।। इस प्रार्थना में पालय कहा है, वह रक्षमाम ही है। इस प्रार्थना में मां भी कहा है। मेरी रक्षा करो।जानामि न त्वां विना। आपके बिना मैं और किसी को जानता ही नहीं हूं। पालन करने तथा रक्षा करने में आप ही सर्वसमर्थ व सक्षम हो। ब्रह्मज्योति मेरी रक्षा नहीं कर सकती। देवी देवता भी मेरी रक्षा नहीं कर सकते। परं जानामि न त्वां विना। हरि! हरि! उत्तरोवाच पाहि पाहि महायोगिन् देवदेव जगत्पते । नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्युः परस्परम् ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 1.8.9) अनुवाद:- उत्तरा ने कहा : हे देवाधिदेव , हे ब्रह्माण्ड के स्वामी , आप सबसे महान् योगी हैं । कृपया मेरी रक्षा करें , क्योंकि इस द्वैतपूर्ण जगत में मुझे मृत्यु के पाश से बचानेवाला आपके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है । उत्तरा ने भी प्रार्थना की थी- रक्षा करो। रक्षा करो। उनके बालक की रक्षा करो। उत्तरा ने प्रार्थना की गर्भ में परीक्षित महाराज की रक्षा करो। उत्तरा ने प्रार्थना की थी महाबाहो, आप बलवान हो। सुंदर हो, ऐसा नहीं कहा कि सुंदर भगवान् रक्षा करो रक्षा करो। सौंदर्य कैसे रक्षा करेगा। आपका बल रक्षा करेगा। 'स्ट्रांग आर्म्स' शक्तिशाली भुजाएं यह रक्षा करेगी। इसलिए प्रार्थना करने वाले सोचकर ही संबोधन करते हैं। महाबाहो यह संबोधन है। महाबाहु का संबोधन महाबाहो हुआ। ठीक है। जानामि न त्वां विना । हमनें कल प्रार्थनाएं प्रारंभ की थी लेकिन आज भी पूरी नही हुई। वैसे बहुत बची है लेकिन जो हमनें चुनी थी, उसमें से भी कुछ बची है,अब यह कल ही होगी। ठीक है। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!

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