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जप चर्चा
21 मई 2020
पंढरपूर धाम..
श्री श्री गुरू गौरांग जयत:
780 स्थानों से जप हो रहा है । लॉकडाउन से आप धीरे-धीरे मुक्त हो रहे हो तो इसलिए हो सकता है अब कम स्थानों से जप हो रहा है । आशा और प्रार्थना है कि आप ऐसा ना करें । जप करते रहे और जप चर्चा भी सुनते रहे , इसका फायदा लेते रहिए । ठीक है , संख्या में धीरे-धीरे वृद्धी हो रही है ।
लिलेश्वर ! ठीक हो ? ठंडी लग रही है ।
जयभद्रा माताजी आप भी है ।
ठीक है , चर्चा शुरू करते हैं । चलो दो बातें सुनते हैं ।
हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
हम इसको रटते ही रहते हैं , इसका हम जप करते ही रहते हैं , एक बार जप कर लिया तो हो गया ऐसी अवस्था क्यों नहीं है ? और क्यों हम उसी
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
महामंत्र को पुनः पुनः दोहराते रहते हैं ? यह सही है या गलत है ? यह सही ही है , ऐसा ही करना होता है । जप मंत्र का होता है और जप के विधि को मनन भी कहा है , हम जप करते हैं तो मनन भी करते हैं । इस मनन को चिंतन भी कहते हैं । चिंतन और मनन यह दोनों समानार्थी शब्द है । चिंतन करते हैं , मनन करते रहते हैं । चिंतन मतलब ध्यान भी है । मंत्र उसको कहते हैं , मनः त्रायते , मन की रक्षा करने वाला या मन को मुक्त करने वाले जो शब्द होते हैं , नाम होते हैं , उसको मंत्र कहते हैं । मंत्र ! दोही शब्द है वैसे , मंत्र । मन को त्रायते , मनकी रक्षा करता है । कैसे रक्षा करता है ? मन को शुद्ध करता है और शुद्ध करके मन की जो बद्धता है उसको मुक्त करता है । एक बद्धस्थिति होती है एक मुक्तस्थिति होती है । बद्ध है मुक्त है ।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।
बन्धाय विषयासंगो मुक्त्यै निर्विषयं मनः ।।
(अमृतबिंदू उपनिषद 2)
अनुवाद : मन ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का भी कारण है । इन्द्रियविषयों में लीन मन बन्धन का कारण है और विषयों से विरक्त कर मोक्ष का कारण है ।
ऐसा भी एक विशेष सिद्धांत है या सत्य है । कटु सत्य भी हो सकता है । मन ही तो है । मन कैसा है ? मन एव, एव मतलब निश्चित ही , मन एव मनुष्याणां मनुष्य का मन निश्चित ही है , क्या है ? कारणं कारण है । किसका किसका कारण है ? बन्धमोक्षयोः हमारे बन्ध का कारण मन है , हमारे मोक्ष का कारण मन है । हम मन के कारण बन्ध है , हम मन के कारण मुक्त है या मुक्त हो रहे हैं । मन को मुक्त करने के उद्देश्य से , वैसे मन को तो मुक्त नहीं करते मन को शुद्ध करते हैं । मन को कुछ दोषों से मुक्त करते हैं या उसकी जो चंचलता है उससे मुक्त करते हैं । मन को स्थिर करते हैं , मन को एकाग्र करते हैं । मन जब स्थिर हो गया , एकाग्रता आ गई मन में तो फिर मन भी दोषों से मुक्त हो गया । और उसी के साथ वैसे बन्ध और मुक्त जीव है ।जीव बन्ध या मुक्त है और उस बन्धता या मुक्तता का कारण मन बनता है ।
जीव को मुक्त होना है तो हम कह सकते हैं जीव को मुक्त करना हमारा साद्ध है । साधन से होती है सिद्धि , मुक्ति या भक्ति कहीये । साध्य है तो साधन क्या है ? मन साधन है और कैसा मन जीव को मुक्त करेगा ? शुद्ध मन या पवित्र मन , स्थिर मन , एकाग्र मन हमको , मुझे ,आपको , आपकी आत्मा को मुक्त करेगा । आप आत्मा हो , आप मन नहीं हो , आप बुद्धि नहीं हो , आप शरीर नहीं हो , तो मन की हमारे जीवन में बहुत बड़ी भूमिका है । जहाँ तक मानव जीवन का लक्ष है या कृष्णप्रेम प्राप्त करना है , कृष्ण की निरंतर सेवा प्राप्त करनी है और अंत तो भगवत धाम भी लौटना है , मनुष्य जीवन का तो यही लक्ष्य है । तो इसको प्राप्त करने के लिए मन कैसा है ? जिन-जिन साधनों का उपयोग करते हैं वह साधन कैसे है ? फिर साधन को सुधारते हैं ,
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
यह महामंत्र का जो उच्चारण करते हैं उसी के साथ में मन दोषों से मुक्त होता है । इस प्रकार हम लोग जप के समय मंत्र को और मन को इकट्ठे लेकर आते हैं । मंत्र का अपना प्रभाव है , मंत्र की अपनी शक्ति है , मंत्र स्वयं ही पवित्र है । ऐसे मंत्र का सानिध्य मन को प्राप्त होने से मन में सुधार होता है । इसको श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहते है ,
चेतोदर्पणमार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणम्
श्रेयः-कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम् ।
आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम्
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम् ॥
(शिक्षाष्टकं 1)
अनुवाद : चित्त रूपी दर्पण को स्वच्छ करने वाले, भव रूपी महान अग्नि को शांत करने वाले, चन्द्र किरणों के समान श्रेष्ठ, विद्या रूपी वधु के जीवन स्वरुप, आनंद सागर में वृद्धि करने वाले, प्रत्येक शब्द में पूर्ण अमृत के समान सरस, सभी को पवित्र करने वाले श्रीकृष्ण कीर्तन की उच्चतम विजय हो ।
चेतोदर्पणमार्जनं चेतना के अंतर्गत मन भी है । चेतना को हम अंतःकरण कहते हैं । हमारा जो सूक्ष्म शरीर है , देह है , मन , बुद्धि , अहंकार वाला जो अंतःकरण है इस सब को मिलाकर चेतना भी कहते हैं । चैतन्य या चेतना । चेतना जीव है या जो अंतःकरण है उस चेतना का जो दर्पण है उसका मार्जन यह महामंत्र करता है । जब हम पुनः पुनः इसका उच्चारण करते हैं तो दर्पण का मार्जन करते है। मंत्र का जप करना या मनन करना कहां है । मनन और चिंतन मन और मंत्र का मिलन है , उसका जो सानिध्य इसमें कुछ क्रिया - प्रतिक्रिया से फिर मनः त्रायतें मन मुक्त होगा , मन पवित्र होगा ओर हमको भगवान मिलेंगे । यह बात भी सही ही है , हम जो आत्मा है और भगवान है या भगवान का नाम है इसके बीच में मन है । अगर मन दोषों से मुक्त है , पवित्र है तो वैसा मन हमारे जीव को , हमारे आत्मा को परमात्मा के साथ मिलायेंगा , परमात्मा का दर्शन करायेंगा । इस प्रकार जप करके पुनः पुनः मनन करके, हर रोज 16 मालाये या अधिक मालाये करके हमारा मन पारदर्शक बन जाता है ।
पारदर्शक जैसे कांच होती है । इस दर्शन मंडप के बाहर की वस्तु दिखाई दे रही है क्योकी इसके बिचमे पारदर्शक कांच है । सभी पारदर्शक नहीं होती । एक अर्ध पारदर्शक कांच होता है , कुछ दिखता है कुछ नहीं दिखता । और पुरा पारदर्शक कांच होता है तो पुरा दिखता है । बाहर की जो अतिथिगृह की दीवार है वह भी दिख रही है , अभी बीच में जो कांच है वह कैसी है ? पारदर्शक है । आत्मा और भगवान , भगवान के नाम के बीच जो मन है वह मन भगवान को छुपा सकता है या भगवान से परिचय करा सकता है , पर यह निर्भर करता है कि मन कैसा है ? तो बताइये मन कैसा होना चाहिए ? मन पवित्र हो , शुद्ध हो , पारदर्शक हो, स्थिर हो , एकाग्र हो तो आत्मा भगवान तक पहुंच सकता है भगवान को देख सकता है । इस बात को मैंने लंबा खींचा या आपको सीधा नहीं बताया ।
हरिभक्तिविलास नामक ग्रंथ में जो सनातन गोस्वामी की रचना है वे दीक्षाविधान की बात करते है । और दीक्षा जब होती है तो दिक्षा में क्या प्राप्त होता है ? मंत्र प्राप्त होता है । हरे कृष्ण महामंत्र वाले हैं , गोडीय वैष्णव है तो हरे कृष्ण महामंत्र प्राप्त होता है । उस संबंध में सनातन गोस्वामी मन को कहते हैं ,
यथा कांचनतां याति कांस्यं रसं विधानत: । तथा दीक्षाविधानेय द्विजत्वम् जायते नृणाम ।।
अनुवाद : जिस प्रकार कांसे को पारे से अधिकृत करके उसे सोने में बदला जा सकता है उसी प्रकार निम्न कुल में उत्पन्न मनुष्य को वैष्णव कार्यो मे लगाकर ब्राह्मण बनाया जा सकता है ।
कांचनतां कंचन मतलब , सोना प्राप्त होता है । जैसे सोने को हम उत्पन्न कर सकते हैं ऐसी एक प्रक्रिया है , रासायनिक क्रिया है जिससे आप को सोना मिल सकता है । दो विधियां है एक दीक्षाविधान और दूसरा रसविधान है । रसविधान तो प्रयोगशाला में जो रसायन शास्त्र है , अलग-अलग रस है , एक रस को दुसरे रस के साथ मिलाओ तो सोना मिल सकता है । और जो दिक्षाविधान है यहां पर भी हम मंत्र का प्रयोग करेंगे ।दिक्षा हो गई मंत्र मिल गया तो हम हमारे ह्रदयप्रांगण की प्रयोगशाला में उस मंत्र का प्रयोग करेंगे तो द्विजत्वम् जायते नृणाम व्यक्ति का तुरंत द्विजत्वम् दुसरा जन्म , नया जन्म या सही जन्म होता है । मैं आत्मा हूं इसका आत्मसाक्षात्कार होगा , भगवत साक्षात्कार होगा । क्या करने से होगा ? इस दीक्षा विधान से दिक्षा में जो मंत्र प्राप्त होता है , उस मंत्र और मन के मिश्रण से द्विजत्वम् दुसरा जन्म प्राप्त होत है । जहां तक सोना प्राप्त करने की बात है तो उसको सोना भी मिल सकता है , भगवान मूल्यवान है , धनवान है ।
प्रभुपाद कह रहे थे , व्यक्ति को सोना चाहिए था लेकिन मिले कोन ? भगवान ही मिले । असली सोना तो भगवान ही है , तो प्रयोगशाला में रासायनिक प्रक्रिया से जैसे सोना मिल सकता है वैसे ही दीक्षा विधान से हमको जो महामंत्र प्राप्त होता है इसके साथ इस मन को मिलाने के प्रयास से , इस के मिश्रण से हमको भी , द्विजत्वम् या दूसरा जन्म , सही जन्म मिलेंगा या हम आत्मा बनकर जन्म लेंगे , आत्मा का अनुभव होगा , भगवान का अनुभव होगा ।
श्रील प्रभुपाद स्वयं एक केमिस्ट थे । इसलिए वह बताते थे शास्त्र की बात। सोना प्राप्त करने की जो विधि है, यह प्राचीन बात है, सल्फ्यूरिक एसिड और मर्करी जो थर्मामीटर मैं होता है तो मर्करी और सल्फ्यूरिक एसिड के सहयोग से गोल्ड प्राप्त हो सकता है लेकिन सल्फ्यूरिक एसिड और मर्करी को मिलाना यह कोई आसान बात नहीं है ।यह जो प्रक्रिया है इसमें कड़ी मेहनत करनी पड़ती है । क्योंकि जो लक्षण है मर्करी का कभी देखा है? आपने वह हिलता रहता है उसका कोई भरोसा नहीं है। वह घनीभूत नहीं होता द्रव्य होता है, गल सकता है। स्थिरता नहीं होती जैसा मन होता है।
भगवद गीता श्लोक 6 . 34
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् || ३४ ||
भावार्थ
हे कृष्ण! चूँकि मन चंचल (अस्थिर), उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यन्त बलवान है, अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है |
वैसा ही गुण,धर्म है इस मरक्यूरी का इसलिए मर्करी और सल्फ्यूरिक एसिड के बीच की जो रसायनिक प्रक्रिया है इसको निरंतर करते ही रहना पड़ता है। प्रभुपाद ने कहा तो नहीं कितने समय तक पर बहुत घंटे ही नहीं ,बहुत दिन, बहुत महीने या उससे भी अधिक। मैं नहीं कह सकता ,कितना समय लगेगा दोनों को मिलाने में? और जब अंततः इनका सहयोग होता है तब बन जाता है गोल्ड। श्रील सनातन गोस्वामी हरि भक्ति विलास में समझा रहे हैं कि ऐसा ही दीक्षा विधान है। मंत्र प्राप्त होता है। मंत्र और फिर मन दोनों का मिलन। दोनों का सहयोग और उसमें जो परिश्रम , मेहनत ध्यान और समय लगता है। इस प्रकार दोनों की तुलना की हुई है । इस प्रकार कुछ ही घंटों में काम बन गया सोना प्राप्त हुआ ऐसा तो होता नहीं उसको करते ही रहना पड़ता है उसी प्रकार हमको महामंत्र और मन में मिलाप करने की जो प्रक्रिया है कार्य है यह करते ही रहना पड़ता है तो यह पूरा जीवन भी हो सकता है और बहुत जीवन भी लग सकते हैं वह हमारे प्रयास पर निर्भर करता है। तो जैसा हम सुनते हैं कि यह प्रक्रिया धीरे-धीरे होती है तो मैं सोच रहा था जो मूर्तिकार है छेन्नी और हथौड़ी का प्रयोग करता है वह असंख्य बार थोड़े से घाव बनाता है ।
हम विग्रह का जब आर्डर देते हैं जयपुर में तो कारीगर कहता है स्वामी जी छह महीने लगेंगे हर दिन थोड़ा-थोड़ा उसका चलता ही रहता है।उसको भगवान का आकार देने के लिए ताकि वह पत्थर हूबहू भगवान जैसा ही लगे। भगवान का रूप का दर्शन होगा उस पत्थर में तो ।वैसा ही हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।एक बार ठोका ( पहला मंत्र) उस कारीगर ने हथौड़े से दूसरा मंत्र, तीसरा मंत्र फिर चौथा मंत्र ।तो यहां ठोक दिया वहां थोक दिया, कभी नाप ठीक नहीं है ।जो जप कर रहे हैं धीरे-धीरे भगवान का कुछ अस्पष्ट रुप दिखने लगता है पर यह जो रूप जैसा है वैसा भगवान का साक्षात्कार करने के लिए जैसा कि कारीगर शुरुआत से लेकर अंत तक उसका प्रयास चलता ही रहता है । पत्थर था शुरू किया एक बार ठोका हथौड़ी से तो बन गई मूर्ति ऐसा नहीं होता। प्रयत्न करते रहना पड़ता है।प्रयत्न करने से मतलब मनन करना। इसी मंत्र को पुनः पुनः पुनः, बारंबार प्रणाम है या बारंबार कहना है और मन को समरस बनाना है।
दोनों का एक जैसा रस मन में कैसा रस, कृष्ण रसायन ,कृष्ण जैसे मीठे हैं मधुर हैं या मन को कृष्णआइसेड(krishnaized) करना है या मन को उसके गुण धर्म लक्षण में परिवर्तन करना हैl तो यह होगा जब हम पुनः पुनः पुनः जप करते हैं तो जप करने का मतलब ही है पुनः पुनः पुनः उसको कहना भी है और सुनना भी है।श्रवणं, कीर्तनम और श्रवण करके फिर आगे स्मरण भी करना है। बृहद अरण्य पुराण नाम का एक उपनिषद है, इसमें ध्यान की विधि समझाई है तो वहां ऐसा मार्गदर्शन है कि श्रवण भी करना चाहिए और श्रवण के उपरांत मनन भी करना चाहिए ।और वहां समाप्त नहीं होता निधि ध्यास भी बताया है। श्रवण, मनन ,निधि ध्यास। वहां यह समझाया है कि हम जब जप करते हैं उसकी तुलना हम जो भोजन करते हैं और भोजन करके हम सशक्त होते हैं, शक्ति प्राप्त करते हैं ,उसके साथ जप की विधि की तुलना करके समझाया गया है। जब हम श्रवण करते हैं तो थाली में जो भोजन है उसको उठाकर हम मुंह तक ले आए वह है श्रवण, या मुंह में रख दिया। श्रवण हुआ तो खाना पूरा हो गया क्या? मुंह में रखने से तो भूख नही मिटेगी। हम जो ग्रास रखते हैं फिर उसको चबाते हैं चर्वण होता है और उस चर्वण को वह मनन कहते हैं ।या जप में जो मनन है यह भोजन के समय किया हुआ जो चर्वण है और कितनी बार चबाते हैं ?32 बार चबाना चाहिए, यह भोजन का एक सुनहरा नियम है ।क्योंकि 32 दांत हैं और जब हम चर्वण करते हैं तो उसमें रसों का स्वाद आता है उसके साथ मिलन और मिश्रण होता है ।
तो हरी नाम का जो आस्वादन है वह मनन से है। हम श्रवणं, कीर्तनम ऐसा कह देते हैं पर श्रवणं तो केवल एक शुरुआत है। भोजन मुख में रख देना , भोजन की शुरुआत हो गई पर चर्वण भी तो है ।चर्वण ही है मनन पुनः पुनः हम जो कहते हैं महामंत्र वह है चर्वण। तो श्रवण हुआ मुंह तक लाया हुआ भोजन मुंह में रख दिया और मनन चर्वण( कंटेंपलेशन )जो हमने सुना है उसको पुनः सुनते हैं, समझने का प्रयास करते हैं। तो श्रवण मनन और निधि ध्यास क्या है फिर ?उसको पेट तक पहुंचाना है वहां पर और चर्वण होगा ।पहले चर्वण मुख में होता है और आगे का चर्वण पेट में भी होता है। और वहां और रस से बन जाता है, रक्त बन जाता है। सात धातु है जिससे शरीर बनता है एक के बाद एक उसका उत्पादन होता है लेकिन पहला है रस। तो यह निधि ध्यास है और रस से फिर पुष्टि होती है ,वर्धन होता है। फिर आत्मा का बन जाता है महात्मा। तो यह श्रवण है और फिर मनन है निधि ध्यास है तो कुछ आस्वादन मुख में भी हुआ और आगे फिर पेट में भी जठर में, जठराग्नि इत्यादि है ।वहां और रस का मिलन और मिश्रण होगा फिर सारे रस प्राप्त होंगे। फिर प्राप्त होंगे मास इत्यादि और फिर वीर्य ।मंत्र तंत्र विशारद। मंत्र की विधि ।कैसे मंत्र का उच्चारण करना है ?उसके संबंध का जो ज्ञान है उसको तंत्र कहते हैं। यह थोड़ी तांत्रिक बातें हैं। इसको समझना अनिवार्य है ।हमको इसको समझना चाहिए ताकि हमारे अपने जप का पुनः लाभ ,पूरा फल श्रुति फल जो कृष्ण प्रेम है वो प्राप्त हो। कृष्ण प्रेम प्रदायते । और फिर मन का शुद्धिकरण चेतो दर्पण मार्जन्म पुनः पुनः पुनः जप करने से मन संयम में आ जाता है, निग्रह में आ जाता है।
भगवद गीता 18.42
“शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च |
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् || ४२ ||”
अनुवाद
शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान,विज्ञान तथा धार्मिकता – ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्मकरते हैं |
यह शम दम यह मंत्र से होता है और बाद में ध्यान होता है। पहले मन को नियंत्रण करना है फिर नियंत्रित मन की मदद से हम ध्यान कर सकते हैं । बहुत लोग कहते रहते हैं ध्यान करो ध्यान करो ।बहुत से मेडिटेशन सेंटर चलते रहते हैं पर कोई सीधे ध्यान के लिए नहीं बैठ सकता। पहले मन को सुधारना होगा ,मन पर नियंत्रण करना होगा ,मन पर नियंत्रण करने का कार्य महामंत्र करता है ।और जब मन नियंत्रित हुआ तो केवल यही लक्ष्य नहीं है। कृष्ण प्राप्ति, कृष्ण प्रेम ,कृष्ण सेवा प्राप्ति यह लक्ष्य है। तो जो हमारी मंजिल है वहां तक पहुंचा देता है यह महामंत्र ।तो इसीलिए एक तीर से दो निशाने ।* मनः त्रायते* ,मन का शुद्धिकरण ,मन का संयम और फिर ऐसे संयमित मन की वजह से हम मुक्त होंगे, आत्मा मुक्त होगी और आत्मा कृष्ण भावना भावित होगी। इसीलिए हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे करते रहे।
बृहन्नार्दीय पुराण
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलं
कलौ नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव गतिरन्यथा।
कलियुग में केवल हरिनाम, हरिनाम और हरिनाम से ही उद्धार हो सकता है| हरिनाम के अलावा कलियुग में उद्धार का अन्य कोई भी उपाय नहीं है! नहीं है! नहीं है! ।हरि बोल