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जप चर्चा
20 मई 2020
हरि! हरि!
आज 790 स्थानों से जप हो रहा है। युमनाकृपा, सुन रही हो?
ठीक है।
धन्यवाद! आजकल का जप स्वयं के कल्याण के साथ साथ सभी के कल्याण हेतु विशेषतया कोरोना ग्रस्त अथवा कोरोना से पीड़ितजनों के लिए भी है। वे भी हमारे ही गुरु भाई और गुरु बहनें हैं- हैं या नहीं(वहाँ उपस्थित भक्तों से पूछते हुए)।
वे लोग जहां भी पीड़ित हैं।
विठू माझा लेकुरवाळा संगे गोपाळांचा मेळा विठू माझा लेकुरवाळा
(गीत - संत जनाबाई)
वे लोग हमारे ही हैं। हमारे भगवान की संताने अर्थात पुत्र पुत्रियां हैं। हमारे गुरु भाई , बहनें हुए या नहीं( पूछते हुए) या होने वाले गुरु भाई अथवा भविष्य के गुरु भाई/ बहनें..। आप उन सभी को अपनी प्रार्थनाओं में रखिए।
आप जैसे भक्तों की प्रार्थना से इस्कॉन जुहू, मुंबई मंदिर के अध्यक्ष ब्रज हरि प्रभु जिन्हें कोरोना वायरस पॉजिटिव डायग्नोसिस हो चुका था, वह भी ठीक हो गए हैं।
हरि बोल!
आपकी प्रार्थनाओं ने उन्हें ठीक कर दिया है। वे कुछ ही दिन अस्पताल में रहे थे। अब वे मंदिर वापिस आ गए हैं। आपकी प्रार्थनाओं ने उन्हें मंदिर में वापस पहुंचा दिया है, इसलिए प्रार्थना करते रहिए। इसके साथ ही साथ पंढरपुर में भी रेवती रमण प्रभु के लिए आपको विशेष प्रार्थना करने के लिए कहा जा रहा था। रेवती रमण प्रभु भी जुहू मुंबई के भक्त हैं। वह इस्कॉन ठाणे के संचालक /मैनेजर हैं। वे भी कोरोना वायरस पॉजिटिव की स्थिति में पहुंच गए थे लेकिन उन्होंने स्वयं ही समाचार भेजा और बताया कि मैं भी कोरोना वायरस से मुक्त हो चुका हूं। वह आप सभी का आभार प्रर्दशित कर रहे हैं। भगवान, आप की प्रार्थनाएं सुन रहे हैं। हरि! हरि!
इस समय 806 स्थानों से प्रतिभागी हैं। आज जप चर्चा के अंतर्गत इस संबंध में एक कथा है। श्रील प्रभुपाद द्वारा आज भगवान की कथा होगी। श्रील प्रभुपाद की जय! वैसे ग्राम कथा भी होती है, लोग बेकार की कथाएं करते ही रहते हैं। कथा दो प्रकार की होती है, एक ग्राम कथा, कोरोना वायरस की कथा भी ग्राम कथा ही हो गयी है। सारे संसार भर में राजनीति की चिटचैट (गोष्टी) ब्रेकिंग न्यूज़ चलती ही रहती है, यह सब ग्राम कथाएं हैं। गोटी कथा।
हरि! हरि!
केवल कृष्ण कथा ही होनी चाहिए। केवल सुंदर कृष्ण ही नहीं धनवान कृष्ण या सम अलंकृत कथा...
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्र्चैव षण्णां भग इतींगना।।
( विष्णु पुराण ६.५.४७)
अनुवाद:- 'पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान' उन्हें कहा जाता है जो छह ' ऐश्वर्यों से परिपूर्ण हैं- जिनके पास पूर्ण बल, यश, धन, ज्ञान,सौंदर्य तथा वैरागय है।
अर्थात सारे अलंकार पहने हुए कृष्ण की कथा। श्रील प्रभुपाद अधिकतर अंग्रेजी में ही कथा किया करते थे तो यह कथा भी अंग्रेजी में ही है। इस संबंध में एक कहानी है। श्रील प्रभुपाद की अंग्रेजी कुछ ज्यादा कठिन भी नहीं है। यह कथा प्रेरणादायक अर्थात शिक्षा प्रदान करने वाली है। इस कथा से कुछ शिक्षा मिलेगी, अतः सुनने का प्रयास कीजिए। हर चीज के लिए क्या करना पड़ता है? प्रयास करना पड़ता है। श्रील प्रभुपाद बताते हैं कि एक कथाकार जो धार्मिक नहीं अपितु व्यवसायिक रूप में कथा किया करते थे। कथा करना उनका व्यवसाय था, जिससे उनको धन अर्जन हो सके और उनके परिवार का पालन पोषण इत्यादि हो पाए। एक बार पेशेवर कथाकार अपनी कथा में सुना रहे थे... आप सुन रहे हो ( वहाँ उपस्थित भक्तों से पूछते हुए) प्रयास करो, अंदर बाहर प्रयास जारी रखो। देखते हैं, कौन कौन प्रयास करता है?
पेशेवर कथाकार अपनी कथा में कृष्ण का वर्णन कर रहा था। कैसे कृष्ण का? जिन्होंने कई सारे गहने, अलंकार पहने हुए कृष्ण का वर्णन कर रहा था।
कस्तुरी तिलकम ललाटपटले वक्षस्थले कौस्तुभम। नासाग्रे वरमौक्तिकम करतले, वेणु करे कंकणम । सर्वांगे हरिचन्दनम सुललितम,कंठे च मुक्तावलि । गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते,गोपाल चूडामणी ॥"
अनुवाद:-
" हे श्रीकृष्ण! आपके मस्तक पर कस्तूरी तिलक सुशोभित है। आपके वक्ष पर देदीप्यमान कौस्तुभ मणि विराजित है, आपने नाक में सुंदर मोती पहना हुआ है, आपके हाथ में बांसुरी है और कलाई में आपने कंगन धारण किया हुआ है। "
" हे हरि! आपकी सम्पूर्ण देह पर सुगन्धित चंदन लगा हुआ है और सुंदर कंठ मुक्ताहार से विभूषित है, आप सेवारत गोपियों के मुक्ति प्रदाता हैं, हे गोपाल! आप सर्व सौंदर्य पूर्ण हैं, आपकी जय हो"!!!
भगवान गले में मोतियों की माला व कौस्तुभ मणि पहने हुए हैं। कौस्तुभ मणि बड़ी मूल्यवान मणि है और सारे संसार में केवल एक ही मणि है, दो नहीं है। एक ही मणि है। बाजूबंद, चरणों में नपुर, वक्र कुंडल पहने हुए हैं और कैसे-कैसे अलंकार पहने हुए हैं।'नासाग्रे वरमौक्तिकम' अग्रे अर्थात आगे कभी कभी यहां पर नाक पर लटकाते हैं ( इशारे से बताते हुए) वरमौक्तिकम एक ही विशेष मोती पहनते हैं। यह कथाकार सुना रहा था कि "यह कन्हैया जब गोचारण लीला के लिए जाते हैं। तब वे यह सारे अलंकार पहन कर जाते हैं।" उस कथा में एक चोर भी यह सोच कर बैठा हुआ था कि कथा के अंत में माल- पुआ या हलवा- पूड़ी खाने को मिलेगा, बहुत बढ़िया प्रसाद होता है।
चोर भी बैठे बैठे उस कथा को भी सुन रहा था। उसने भी सुन लिया कि एक बालक की बात हो रही है जोकि बहुत सुंदर है और वह इतने सारे अलंकार पहन कर वन में जाता है। कथाकार सुना रहे थे कि यह बालक वृंदावन में विचरण करता रहता है और गौचारण लीला करता है, खेलता रहता है और बहुत अधिक अलंकार पहन कर वन में जाता है। चोर ने सोचा और विचार किया -"मैं भी उसी वन में क्यों ना जाऊं अर्थात मैं भी उसी वन में जाना चाहूंगा।
मैं उससे सारे अलंकार छीन कर या युक्तिपूर्वक ले लूंगा। वह वन में है, तो अकेला ही होगा। वह इतने सारे अलंकार पहन कर वन में जाता है और उसके साथ में कोई अंगरक्षक (बॉडीगार्ड) नहीं है।
वह लड़का है, बच्चा है, एक बच्चे के अलंकार लेना आसान है। कोई बड़ा होता तो शायद कठिन होता लेकिन बच्चा अथवा बालक है।" ऐसा विचार चोर के मन में आया कि "मैं वन में जाऊंगा और उस बच्चे को ढूंढकर उस बच्चे के सारे अलंकार ले लूंगा।" यह इस चोर का विचार अथवा ऐसा दृष्टिकोण था। प्रभुपाद लिखते हैं( हँसते हुए) चोर कैसा था? चोर बड़ा गंभीर था। गंभीर अर्थात... मैं सोच रहा हूं कि प्रभुपाद सोच रहे हैं कि वो चोर सोच रहा है कि ऐसा अर्थात गंभीर लड़का है। पेशेवर कथाकार तो केवल कथा सुना रहा है, उसका तो विश्वास नहीं होगा कि सचमुच कृष्ण हैं लेकिन जब उस चोर ने यह कथा सुनी तब उस चोर को दृढ़ विश्वास हो गया कि सचमुच एक ऐसा बालक है, उसने ऐसी बात अपने मन में बैठा ली। यह कल्पना नहीं है, कोई दंतकथा नहीं है, यह तो हकीकत है। यह इतिहास है और सत्य है वृंदावन में ऐसा बालक है, जो ऐसा दिखता है व इतनी उम्र का है। ऐसे अलंकार पहनता है, हर रोज वन में जाता है। इसको हम भगवान की नित्य लीला कहते हैं। इस कथाकार का तो ऐसा विश्वास या दृढ़ श्रद्धा नहीं थी लेकिन चोर की दृढ़ श्रद्धा हो गई क्योंकि उसे अलंकार बहुत प्रिय थे। वह अलंकारों की चोरी करना चाहता था, उसको विश्वास हो गया, इसलिए वह गंभीर था, उस चोर ने निश्चय कर लिया। निश्चय होना चाहिए तभी तो कृष्ण मिलेंगे।
उत्साहनिश्चयात धैर्यात तत्तत्कर्मप्रवर्तनात सङ्गत्यागात्सतो वृतेः षडभिर्भक्तिः प्रसिध्यति।।
अनुवाद:- शुद्ध भक्ति को सम्पन्न करने में छह सिद्धांत अनुकूल होते हैं(१) उत्साही बने रहना(२) निश्चय के साथ प्रयास करना(३) धैर्यवान होना(४) नियामक सिद्धान्तों के अनुसार कर्म करना( यथा श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणम्- कृष्ण का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना)(५) अभक्तों की संगति छोड़ देना तथा(६) पूर्ववर्ती आचार्यों के चरण चिन्हों पर चलना। ये छहों सिद्धांत निस्सन्देह शुद्ध भक्ति की पूर्ण सफलता के प्रति आश्वस्त करते हैं।
उसने अपना मन बना लिया। मैं इस लड़के को अवश्य ढूंढ लूंगा और रातों रात अथवा एक ही दिन में, मैं करोड़पति बन जाऊंगा। करोड़पति कौन बनेगा.. मैं बनूंगा।
प्रभुपाद कह रहे हैं अथवा टिप्पणी कर रहे हैं कि इस चोर की अधिकारिता या गुणवत्ता उसकी अनुभूति अथवा उसके भाव या विचार थे। सोचना, महसूस करना, इच्छा करना ... यह सबके मन में चलता रहता है, अर्थात हर एक के मन में। यह मन का कार्य है। मन तीन कार्य करता है- थिंकिंग, फीलिंग, विलिंग (सोचना, महसूस करना, इच्छा करना) मन क्या करता है? मन सोचता है और सोचने से कुछ भाव आ जाते हैं अर्थात कुछ भाव उत्पन्न होते हैं। यह सोचेंगे, वह सोचेंगे मतलब अलग अलग सोचेंगे तो अलग-अलग भाव उत्पन्न होंगे। जैसे शेर के बारे में सोचेंगे तब भय जैसे भयानक भाव आ जाते हैं आदि। थिंकिंग फीलिंग विलिंग (सोचना, महसूस करना, इच्छा करना) फीलिंग.... फीलिंग.... फीलिंग... अर्थात जब ऐसा विचार, भाव और ऐसी भावना उत्पन्न होती है और जब वह भावना दृढ़ होती है तब विलिंग होती है। विलिंग मतलब विल अर्थात इच्छा। इच्छा स्थापित हो जाती है इच्छा दृढ़ होती है। थिंकिंग, फीलिंग, विलिंग अर्थात सोचना, महसूस करना, इच्छा करना।
अंग्रेजी में कहते हैं- वेयर दियर इज विल दियर इज ए वे अर्थात जब हमें तीव्र इच्छा होती है तब हमें मार्ग मिलता है या हम मार्ग निकालते ही हैं। उस समय बुद्धि मन की सहायता करती है। विनाश काले विपरीत बुद्धि.. अब इसके विनाश का समय आ चुका है। इसलिए वह ऐसी इच्छा कर रहा है ताकि विनाश हो। उसको पता तो नहीं है मन और बुद्धि दोनों का सहयोग होता है। तब बुद्धि कुछ रास्ता ढूंढ निकालती है वेयर इज विल दियर इज ए वे इसलिए सावधान भी रहना चाहिए। हमारे थिंकिंग फीलिंग, हमारा विल ... देखना चाहिए जो हमारे अंदर जो इच्छा जग अथवा जागृत हो रही है। वह कृष्ण भावना भावित है या नहीं, यदि नहीं है तो हम उसको ठीक कर सकते हैं, उस इच्छा में सुधार कर सकते हैं, कौन करेगा? हम किसकी मदद से मन में सुधार या मन में संयम अथवा नियंत्रण कर सकते हैं? (पूछते हुए) यह काम बुद्धि का है। किसी बुद्धू का नहीं अथवा बुद्धिमान का है।
जेई कृष्ण भजे सेई बड़ चुतर ..
जो कृष्ण का भजन करता है, वह व्यक्ति बड़ा बुद्धिमान होता है।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीति पूर्वकम्। ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।
(श्रीमद भगवत गीता १०.१०)
अनुवाद:- जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरंतर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं।"
भगवान बुद्धि दे रहे हैं। प्रभुपाद लिख रहे हैं कि उस व्यक्ति ने सोचा कि मैं अवश्य कृष्ण को देखूंगा, उसकी भावना (फीलिंग) ही उसकी योग्यता बन गई। मैं अवश्य कृष्ण को देखूंगा, उस कथाकार ने उस बालक का नाम उसका पता वृंदावन काम्यवन भी बताया था। गायों को लेकर वह सुरभि कुंड पर भी जाता है। यदि मध्यान्ह के समय जाना है तब राधा कुंड जाना चाहिए। यदि दिन में नहीं मिले तब रात्रि को 10:30 बजे इस्कॉन मंदिर के पीछे कृष्ण बलराम पेड़ के पास खड़े हो जाओ, तब यह कन्हैया/ किशोर सारे अलंकार पहने हुए जरूर मिलेगा तब कन्हैया रात्रि की रास क्रीड़ा करने के लिए सेवा कुंज की ओर जाते हुए रास्ते में तुम्हें वहां जरूर मिलेगा।
चोर ऐसे ही सोच रहा था कि 'मैं कृष्ण को अवश्य देखूंगा', 'मैं अवश्य कृष्ण को अवश्य देखूंगा।'
मुझे उस बालक कृष्ण को मिलना ही है। प्रभुपाद लिखते हैं उसका जो फीलिंग व विचार एवं दृढ़ संकल्प था कि मैं कृष्ण को अवश्य देखूंगा, मैं कृष्ण को अवश्य देखूंगा। वह बड़ा उत्कंठित था। उसकी उत्सुकता का परिणाम या उसका फल क्या हुआ? उसने कृष्ण को देखा अर्थात वह कृष्ण से मिला।
हरि बोल!
पुजारियों को भी कृष्ण मिल गए, अलंकार पहना रहे हैं। (श्री राधा पंढ़रीनाथ के विग्रह सेवा में लगे पुजारियों की और इशारा करते हुए) चोर आएगा, थोड़े कम अलंकार पहनाओ।
चोर वृंदावन आ गया। उसने कथा कही कोल्हापुर, सोलापुर, नागपुर ऐसे कही कथा सुनी थी तब वह अगली ट्रेन से या लॉक डाउन चल रहा है, तो वह दौड़ पड़ा और पदयात्रा करते हुए वृंदावन पहुंच गया।
जब चोर कृष्ण से मिला तब चोर ने कहा -तुम सच में बहुत सुंदर बालक हो। हे बालक! हे कृष्ण! तुम कितने प्यारे हो! कितने सुंदर हो! चोर उनकी खुशामद करने लगा।
चोर सोच रहा था कि मैं इस बालक से ऐसा कुछ कहूंगा या ऐसी मीठी मीठी बातें करके ऐसे ही इससे सारे अलंकार ले लूंगा, शायद वह कुछ नहीं कहेगा। मैं इससे सारे गहने ले लूंगा। अभी वह सोच ही रहा था तब उसने कृष्ण को अपना वास्तविक बिजनेस ( व्यापार) अर्थात वो किस उद्देश्य से वहाँ आया हैं, वो बता दिया। चोर ने कृष्ण से पूछा, तुमनें इतने सारे गहने पहने हुए हैं, क्या मैं इसमें कुछ ले सकता हूँ। तुम इतना सारा बोझा ढोते हो, क्या मैं तुम्हारा बोझ कुछ हल्का करू दूँ। तुम छोटे से बालक हो और दस-बीस किलो का यह सारा मूल्यवान माल ढो रहे हो। चोर ने यह भी कहा- " तुम कितने सम्पन्न हो।" कृष्ण बोले- 'नहीं, नहीं, नहीं।' "यशोदा मैया बहुत क्रोधित होगी।जब उनको पता चलेगा कि कोई चोर आया था, उसने अलंकार ले लिए या मैंने ही तुम्हें दे दिए। मैंने तुम्हें रोका भी नहीं, जब यह बातें यशोदा मैया को पता चलेगी तब वह बहुत गुस्सा हो जाएंगी। मैं ये अलंकार आपको नहीं दे सकता।"
कृष्ण एक छोटे से बालक की तरह ही बात कर रहे थे। चोर, कृष्ण से गहने लेने के लिए बहुत अधिक उत्सुक होता जा रहा था। ऐसा थोड़ा संवाद चल रहा था।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोभिजायते।।
( श्री मद्भगवतगीता २.६२)
अनुवाद:-" इन्द्रियविषयो का चिंतन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है।
जो व्यक्ति विषयों का ध्यान करता है तत्पश्चात क्या होता है? सङ्गस्तेषूपजायते अर्थात उसमें विषयों का ध्यान करने से संग तथा आसक्ति उत्पन्न होती है। वह चोर किसका ध्यान करता होगा? वह कृष्ण के चेहरे का थोडे ही ध्यान करता होगा अपितु वह तो कृष्ण के सारे अलंकारों का ध्यान कर रहा था कि ये सारे अलंकार लगभग दस करोड़ के तो होगें ही। वह कभी सारे अलंकारों की ओर देख रहा था और कभी चरणों की ओर देख रहा था। कभी करघनी तो कभी गले की माला देख रहा था, कभी कुंडल तो कभी नासाग्रे वरमौक्तिकम देख रहा था। उसका मन ललचा रहा था। प्रभुपाद इस कथा में कह रहे हैं कि उसकी आसक्ति बढ़ रही थी लेकिन भगवान का सान्निध्य प्राप्त होने के कारण उस चोर के मन के विकारों का शुद्धिकरण होता जा रहा था। उसके चोरी करने का विचार हट रहा था। उनका दमन हो रहा था।
अंततः कृष्ण ने कहा, "ठीक है, ठीक हैं,ले लो, ले लो। तुम्हारी मर्जी,तुम इतनी मेहनत करके इतने प्रयास के साथ यहां पहुंचे हो और तुम चाहते ही हो तो ठीक है, तुम्हारी मर्जी, ले लो। चोर एकदम भक्त बन गया। क्या हुआ? जब भगवान ने कहा- 'ले लो' लेकिन तब तक वह चोर भक्त बन चुका था। उसने अलंकार नहीं लिए उसने तो भगवान को ही लिया। जैसे अर्जुन को भगवान मिले थे और दुर्योधन को भगवान की नारायणी सेना अर्थात सम्पति मिली थी। सेना भी एक तरह की सम्पति है। दुर्योधन भगवान की संपत्ति व वैभव पाकर खुश हो गया था और भक्त अर्जुन को कृष्ण ही मिले और उसे कुछ नहीं मिला। इस चोर ने भी भगवान को ही पसंद किया कि मुझे धन नहीं चाहिए।
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि
(श्री चैतन्य चरितामृत, अन्त्य लीला २०.२९)
अनुवाद:- ' हे सर्वशक्तिमान प्रभो! मुझमें न तो धन संचित करने की इच्छा है, न ही सुंदर स्त्रियाँ चाहता हूं, न मुझे अनेक अनुयायियों की कामना है। मैं तो जन्म-जन्मांतर आपकी अहेतु की भक्ति का ही इच्छुक हूँ।
न धनं न जनं न सुन्दरीं
कवितां वा जगदीश कामये - वह ऐसे भाव वाला चोर बन गया।
डाकू भगत।( हँसते हुए) वैसे बड़ोदरा के भक्तों ने और एक दो बार यहीं के भक्तों ने भी इस लीला का प्रदर्शन नाटिका के माध्यम से किया हैं। उन्होंने इस नाटिका का नाम क्या रखा था? डाकू भगत। बहुत बढ़िया! मैं उसे कभी नहीं भूल सकता। बहुत सुंदर नाटिका है।
श्रील प्रभुपाद लिख रहे हैं कि येन केन प्रकारेण हमें भगवान के संपर्क में आना चाहिए। हम
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। के माध्यम से या भगवान की कथा लीला के माध्यम से भगवान के संपर्क में आते हैं। यह भी भगवान का सानिध्य ही है। यदि हम भगवान के विग्रह के माध्यम से भी या भगवान के प्रसाद के माध्यम से संपर्क में आते हैं, तब भी हमारा संपर्क भगवान के साथ स्थापित हो सकता है।
हरि! हरि!
और यदि हम भगवान के भक्तों के संपर्क में आते हैं तब भगवान के भक्त क्या करते हैं ? भक्त हमारा संबंध भगवान के साथ स्थापित कर देते हैं। प्रभुपाद आगे भी इस कथा का वर्णन करते हैं। प्रभुपाद रूप गोस्वामी के एक कोटेशन अर्थात एक विशेष वचन को शेयर करते हैं।
स्मेरां भंगित्रयपरिचितां साचिविस्तीर्णदृष्टिं वंशीन्यस्ताधरकिशलयामुज्ज्वलां चन्द्रकेन। गोविन्दाख्यं हरितनुमितः केशीतीर्थोपकण्ठे मा प्रेक्षिष्ठास्तव यदि सखे बन्धुसंगेऽस्ति रंग।।
अनुवाद:- हे सखे! अगर तुम्हारे मन में अन्य बन्धुओं का साथ संगसुख-उपभोग की लालसा है तो केशीतीर्थ का उपकूल में स्थित मृदुमन्द हास्ययुक्त त्रिभंग भंगिमा, तीसरी कटाक्षयुक्त, वंशीशोभित अधरयुक्त, मयूरपिच्छ द्वारा उज्ज्वल श्रीगोविन्दनाम का हरिविग्रह के दर्शन न करना, क्योंकि यह विग्रह दर्शन करने से तुम्हारा संसार बन्धन मुक्त हो जायेगा।
श्रील प्रभुपाद अंग्रेजी में समझा रहे थे और यह उसका अंतिम भाग है। एक गोपी दूसरी गोपी को कह रही है कि हे मेरी प्रिय सखी, एक लड़का अथवा एक नवयुवक है, जिसका नाम गोविंद है। वह यमुना के तट केशीघाट पर खड़ा है। आप देख रहे हो। ( भक्तों से पूछते हुए) आपको सुनते सुनते देखना भी है।
वह अपनी मुरली बजा रहा है।
अर्थात वह बालक क्या कर रहा है ? मुरली बजा रहा है, वह कितना सुंदर है। विशेषतया पूर्णिमा के दिन या रात्रि को जब वह मुरली बजाता है तो उसके सौंदर्य का क्या कहना। वह कितना कितना आकर्षक है। ऐसा एक गोपी दूसरी गोपी को कह रही है। यदि तुम अपने परिवारिक जीवन में भोगों अर्थात इतने अच्छे बच्चे, धनसंपदा, यह हैं हमारे घर में या वह हैं हमारे घर में। उसका उपभोग चाहती हो और भोगों में, मौज उड़ाना चाहती हो, यदि तुम ऐसे विचार वाली हो तब तुम भूल कर भी केशी घाट पर नहीं जाना और पूर्णिमा के दिन तो जाना ही नहीं। यदि तुम गलती से वहाँ चली भी गई त्रिभंग ललितम वंशी वादन करते हुए उस बालक गोविंद को देखना नहीं। कृष्ण हमेशा त्रिभंगी रूप में खड़े रहते हैं। यदि तुम्हारा संसार में सुख वैभव ढूंढने का अथवा संसार के आनंद को चखने का विचार है तब वहाँ जाने की ऐसी गलती नहीं करना।
श्रील प्रभुपाद टिप्पणी करते हुए लिख रहे हैं कि यदि आप एक बार कृष्ण को देखोगे तो तुम सब भूल जाओगे यह संसार बकवास (नॉनसेंस) है संसार कैसा है ? संसार बकवास (नॉनसेंस) है, नौ सेंस जिसका कोई मतलब नहीं निकलता है जो भी कर रहे हैं क्यों कर रहे हैं ? संसार के सारे कार्यकलाप केवल सुखी होने के प्रयास हैं। यदि केवल एक बार तुम कृष्ण को देख लोगे, तब सब कुछ भूल जाओगे। प्रभुपाद निष्कर्ष में कहते हैं। यदि कोई एक व्यक्ति कहता है कि मैंने कृष्ण को देखा है। यदि उसने सचमुच कृष्ण को देखा है, उसको दर्शन हुआ है या उसने दर्शन किया है, ये कैसे पता चलेगा? वह व्यक्ति इस संसार में सुख नहीं ढूंढेगा। संसार की ओर उसकी पीठ होगी और उसका मुख सदा के लिए भगवान की ओर होगा। पीछे मुख नहीं करेगा। अंग्रेजी में कहते हैं टर्न अराउंड ( मुड़ो)
टर्निंग इन 180 डिग्री। प्रभुपाद उस व्यक्ति के विषय में बताते हैं कि यदि उसने कृष्ण को देखा है या देखना चाहता है, वह अंतर्मुखी होगा। वह हर रोज देखता है और राधा पंढ़रीनाथ के दर्शन कर रहा होगा।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। और आप भी इस समय भी देख रहे है या नहीं। जब हम हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते हैं, तब वह भी एक दर्शन है। हम जप के समय दर्शन के उद्देश्य से जप करते हैं। जप का उद्देश्य भी कृष्ण का दर्शन ही है। ऐसे कृष्ण को देखो, वैसे कृष्ण को देखो और उसे मन में बैठाओ जिससे संसार की ओर जब आप देखोगे तो आप थूकोगे। तब भगवान का दर्शन उच्चयम लगेगा और संसार का दर्शन तुच्छयं।
गौर प्रेमानंदे, हरि हरि बोल!