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*जप चर्चा* *सोलापुर धाम से* *दिनांक 13 नवम्बर 2021* हरे कृष्ण!!! (जय) राधा माधव (जय) कुंजबिहारी। (जय) गोपीजन वल्लभ (जय) गिरिवरधारी॥ (जय) यशोदा नंदन (जय) ब्रजजनरंजन। (जय) यमुनातीर वनचारी॥ अर्थ वृन्दावन की कुंजों में क्रीड़ा करने वाले राधामाधव की जय! कृष्ण गोपियों के प्रियतम हैं तथा गोवर्धन गिरि को धारण करने वाले हैं। कृष्ण यशोदा के पुत्र तथा समस्त व्रजवासियों के प्रिय हैं और वे यमुना तट पर स्थित वनों में विचरण करते हैं। आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 612 स्थानों से भक्त सम्मिलित हुए हैं। एक ब्रज लीला धाम यह हुआ!हरिबोल!!! आप सब का पुनः स्वागत है।आपका हर दिन अर्थात प्रतिदिन बार-बार स्वागत है( यू आर वेलकम अगेन एंड अगेन एवरीडे एंड डे आफ्टर डे)। आप जानते हो कि मैं इस्कॉन सोलापुर पहुंचा हूँ क्योंकि यहां भगवान राधा दामोदर पहुंचने वाले हैं। हरिबोल! वे रास्ते में हैं। भगवान अपने धाम वृंदावन/ गोलोक से राधा दामोदर के विग्रह के रूप में सोलापुर में प्रकट होने जा रहे हैं। हरिबोल!! बस अब दो दिनों की देरी है। यहां सब तैयारियां है अथवा चल रही है। आज अराइवल डे (आगमन दिवस) भी है। कई सारे भक्त भिन्न-भिन्न स्थानों से यहां पधार रहे हैं। ऑल ओवर महाराष्ट्र या पूरे भारत व कई सारे इस्कॉन के लीडर्स गोपाल कृष्ण गोस्वामी महाराज, महामन प्रभु, रेवती रमन तिरुपति से, हमारे जी.बी.सी. देवकीनंदन प्रभु कानपुर नॉर्थ इंडिया से , गौरंग दास ब्रह्मचारी, गोवर्धन इको विलेज से, जूहू मुंबई से ब्रजधारी प्रभु की भी पहुंचने की सम्भावना है। इस तरह से बहुत लंबी सूची है। सबके आगमन की प्रतीक्षा है। उज्जैन से भी भक्ति प्रेम स्वामी महाराज आ रहे हैं। आप भी सभी सादर आमंत्रित हो। मॉरिशस, थाईलैंड, वर्मा, नेपाल, यूक्रेन आदि जहां जहां से भी आप इस जप कॉन्फ्रेंस में सम्मिलित हुए हो, आप सब का भी स्वागत है। सादर आमंत्रण है। महालक्ष्मी, आ रही हो या नहीं ? तुम तो दूर नहीं हो लेकिन पंजाब थोड़ा दूर है। लुधियाना? ओके जो नहीं आ सकते, उनके लिए हम पहुंचा देंगे। उनके लिए यहां के फंक्शन की होम डिलीवरी होगी। आप इस उत्सव को देख सकते हो, सुन सकते हो। यह कब देखना, सुनना है, इसके विषय में आपको बताया जाएगा। आप को पहले से घोषणा कर दी जाएगी। देखते रहिए और सोलापुर में राधा दामोदर के आगमन उत्सव का आनंद लिजिए। (एंजॉय द फेस्टिविटीज एंड अपीयरेंस ऑफ राधा दामोदर इन सोलापुर।) राधा दामोदर प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव की जय! यदि राधा दामोदर यहां नहीं आने वाले होते तो मैं भी यहां आने वाला नहीं था। मैनें ब्रजधाम या वृंदावन को इस कार्तिक मास के बीच में ही छोड़ा है और यहां सोलापुर पहुंचा हूं। इसका मुख्य कारण राधा दामोदर का आगमन अथवा प्राकट्य होने वाला है। जैसा हम आपको बता रहे थे कि यह कार्तिक मास है, इस मास में वृंदावन में वास करना होता है। इस मास में वृंदावन वास। वहां स्वयं जाकर रहो/ वास करो या वहां जाओ और यथासंभव ब्रज मंडल परिक्रमा करो। अगर ऐसा नहीं कर सकते तो घर बैठे बैठे कम से कम याद तो कर सकते हो। कृष्ण कन्हैया लाल की जय! उनकी लीलाओ को उनके अलग-अलग वनों को, अलग अलग वनों में भगवान जो लीला खेलते हैं,.. केशी घाट, वंशि वट, द्वादश कानन। याहा सब लीला कोइलो श्रीनन्द नन्दन॥ अर्थ:- जहाँ कृष्ण ने केशी राक्षस का वध किया था, उस केशी-घाट की जय हो। जहाँ कृष्ण ने अपनी मुरली से सब गोपिकाओं को आकर्षित किया था, उस वंशी-वट की जय हो। व्रज के द्वाद्वश वनों की जय हो, जहाँ नन्दनंदन श्रीकृष्ण ने सब लीलायें कीं। द्वादश काननों में श्रीकृष्ण अपनी लीला संपन्न करते हैं। जब हम ब्रज मंडल परिक्रमा में जाते हैं और उन स्थानों पर पहुंचते हैं जहां जहां भगवान ने लीला खेली थी। जैसे कल परिक्रमा का पड़ाव मानसरोवर में था। मानसरोवर की जय! वृंदावन में वैसे कई सरोवर हैं, वृंदावन में कुसुम सरोवर, पावन सरोवर भी हैं। सरोवर मतलब कुंड अथवा जलाशय। गोवर्धन में वैसे मानसी गंगा भी है जो भगवान के मन से प्रकट हुई थी। जैसे मानसी गंगा कहते हैं, वैसे मानसरोवर भी है जहां पर राधा रानी एक बार मान कर के बैठी थी। इसलिए राधा रानी को 'माननी' कहते हैं अर्थात मान करने वाली। माननी श्रीकृष्ण को राधा रानी को मनाना पड़ता है। यहां तक कि राधा रानी के पैर छूने पड़ते हैं। कृष्ण उनसे क्षमा याचना मांगते हैं। इसी मानसरोवर के तट पर कृष्ण की रास क्रीड़ाएं संपन्न होती है। यह रास लीला स्थली है। इस मानसरोवर पर एक समय शिव जी भी आए। वह भी इस रासलीला में सम्मिलित होना चाह रहे थे। उन्होंने सोचा मैं भी रासक्रीड़ा में क्रीडा करना चाहता हूं। वैसे कोई भी ऐसे रास क्रीड़ा में घुस नहीं सकता है। जहां पर रास क्रीडा संपन्न होती है। वहां प्रवेश द्वार होता है और प्रवेश द्वार पर गार्ड भी होते हैं। गोपियाँ रखवाली करती है। शिवजी जब वहां प्रवेश द्वार पर पहुंचे, वह प्रवेश करना चाह रहे थे कि मैं भी, मुझे भी.... लेकिन वहां लिखा होता है नो ऐडमिशन विदाउट परमीशन (बिना अनुमति के प्रवेश नहीं हो सकता।) परमिशन (अनुमति) उन्हीं को मिलती है.. अथवा रास क्रीडा के लिए दो बातें अनिवार्य है। गोपी जैसा रूप चाहिए और गोपी जैसा भाव चाहिए। तभी आप रास क्रीडा में प्रवेश कर सकते हो। जब शिव जी आए थे (आप शिवजी को जानते ही हो, शिवजी की जटाएं हैं, त्रिशूल और डमरु है, गले में सर्प है, कानों में बिच्छू हैं, गले में मुंडमाला है। वह इसी वेषभूषा के साथ रास क्रीडा में प्रवेश करना चाह रहे थे। जो संभव नहीं है। ) उनको कहा गया कि वे अपनी वेशभूषा का परिवर्तन करें और गोपी भाव भी चाहिए। इसलिए वे मानसरोवर में थोड़ा नहा लें। तब शिवजी वहां गए और डुबकी लगा ली अथवा मानसरोवर में कूद गए। तत्पश्चात जब पुनः ऊपर आए तब वे गोपेश्वर बन गए। गोपेश्वर महादेव की जय!!! वे गोपी बन गए। एक विशेष गोपी। अथवा महादेव, शंकर, भोलेनाथ का एक विशेष रूप गोपेश्वर महादेव है। तत्पश्चात उनका प्रवेश हुआ इस प्रकार शिवजी महान वैष्णव है। जैसे गोपियां सारी वैष्णवी कहलाती हैं। शिवजी एक प्रकार की वैष्णवी बन गए। सभी वैष्णव में श्रेष्ठ वैष्णव- *निम्नगानां यथा गङ्गा देवानामच्युतो यथा। वैष्णवानां यथा शम्भुः पुराणानामिदं तथा।।* ( श्रीमद भागवतम १२.१३.१६) अनुवाद:- जिस तरह गंगा समुद्र की ओर बहने वाली समस्त नदियों में सबसे बड़ी है, भगवान अच्युत देवों में सर्वोच्च हैं और भगवान शम्भू ( शिव) वैष्णवों में सबसे बड़े हैं। उसी तरह श्रीमद्भागवत समस्त पुराणों में सर्वोपरि है। *वैष्णवानां यथा शम्भुः* गंगा नदी, सारी नदियों में श्रेष्ठ नदी है, सारे पुराणों में भागवत पुराण श्रेष्ठ है। सारे देवों में अच्युत देव श्रीकृष्ण श्रेष्ठ हैं। वैसे ही सभी वैष्णवों में शिवजी श्रेष्ठ हैं। इसलिए वैष्णवानां यथा शम्भुः कहते हैं। यह मानसरोवर रास कीड़ा की स्थली है।आज भक्त मानसरोवर से लोहवन जाएंगे लोहवन भी द्वादश वनों में से एक वन है। एक समय वहां पर लोह जंघासुर नाम का असुर रहता था। भगवान ने वहां उस असुर का वध किया, इसलिए उस वन का नाम हुआ लोह वन। हम मानसरोवर से लोह वन जाएंगे। मानसरोवर और लोहवन का यह क्षेत्र, यह युद्ध भूमि बन चुका था। यहां कृष्णऔर बलराम, जरासंध के साथ 18 साल युद्ध खेल रहे थे। यह युद्ध भूमि भी है, यह रास क्रीड़ा स्थली भी है। भगवान ने यहां पर युद्ध भी खेला। जब कृष्ण ने कंस का वध किया, तब कंस की दो पत्नियां थी एक अस्ति, दूसरी प्राप्ति। उनके पतिदेव नहीं रहे।श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया था। ये दोनों कंस की रानियां अपने पिताश्री जरासंध के पास रोती हुई पहुंची। 'इस बदमाश कृष्ण ने हमारे पतिदेव का वध कर दिया है, पिताश्री, कुछ करो, आप बदला लो।' जरासंध ने संकल्प लिया कि "मैं वध करूँगा, मैं कृष्ण की जान लूंगा।" जरासंध बहुत बड़ी सेना अर्थात 23 अक्षौहिणी डिवीज़न सेना लेकर वहां पहुंचा था। कृष्ण, बलराम युद्ध खेलने के लिए जाते थे और जरासन्ध की सारी सेना का सत्यानाश कर देते थे और केवल जरासन्ध को बचाते थे। जरासंध जब देखता था, "अरे सब तो मारे गए," वह अकेला बचता था तब वह पुनः अपनी राजधानी वापस जाता था और सेना लेकर आता था। हर बार वह 23 अक्षौहिणी डिवीज़न सेना लेकर आता था। आप कल्पना कर सकते हो? कुरुक्षेत्र में तो कुल 18 अक्षौहिणी डिवीज़न सेना पहुंची थी। यहां पर वृंदावन में जो युद्ध हुआ, उसमें हर साल जरासंध 23 अक्षौहिणी डिवीज़न सेना लेकर आता था। कृष्ण बलराम की छोटी सेना हुआ करती थी। उस सेना की सहायता से कृष्ण बलराम सबकी जान ले लेते थे। *परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||* ( श्रीमद भगवतगीता ४.८) अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ | जरासंध स्वयं भी असुर था उसकी सहायता करने वाले उसके मित्र कौन होंगे? वे भी असुर चांडाल चौकड़ी होंगे। कृष्ण उनका वध करते गए- एक बार, दो बार, तीन बार,..... 10 बार, 15 बार ,17 बार, 18 बार। जरासंधअट्ठारहवीं बार सेना लेकर आ गया। यह कृष्ण की पॉलिसी थी। सब को मारना है और जरासंध को बचाना है। जिससे जरासंध अन्य असुरों व अन्य असुर प्रवृत्ति के राजा, महाराजा व उनके सैनिकों को लेकर आये। इससे कृष्ण का काम आसान हो जाता था। कृष्ण को क्या काम करना था अथवा क्या लीला खेलनी होती थी। विनाशाय च दुष्कृताम् अर्थात दुष्टों का संहार करना है। कृष्ण का होलसेल बिजनेस चल रहा था नहीं तो कृष्ण को एक एक घर में जाकर असुर को मारना पड़ता। एक असुर को मार दिया, ओके, अब दूसरे घर में जाकर बेल बजाई, ढिशुम! ढिशुम! फिर तीसरे को मार दिया, फिर चौथे को मार दिया, सोलापुर के घर.. वैसे सभी घर असुर के नहीं है लेकिन जहां जहां छिपे हुए असुर है, ...ऐसे बहुत समय लगता। अच्छा हुआ। जरासंध उन असुरों को लेकर आता था और कृष्ण, बलराम उनका संघार करते जा रहे थे। जब 18वीं बार जरासंध आया तब कृष्ण और बलराम ने कहा- 'यह बोरिंग बिजनेस है कि हर साल यही रूटीन चल रहा है।'तब कृष्ण ने सोचा बस हो गया। 'नॉट इंटरेस्टेड इन दिस बैटल' उसी समय भगवान की रुचि रुक्मिणी में हो गयी। रुक्मिणी महारानी की जय! उनका रुक्मिणी के साथ यहां महाराष्ट्र के कौंडिन्यपुर में कुछ संपर्क हो रहा था।रुक्मिणी नागपुर अमरावती के पास भगवान को याद कर रही थी, उन्हीं के साथ विवाह करना चाह रही थी। जब कृष्ण बलराम तक यह समाचार पहुंच जाता है तब कृष्ण बलराम युद्ध खेलना वहीं छोड़कर वहां से प्रस्थान करते हैं। तब जरासंध कहने लगा रणछोड़! रणछोड़!रणछोड़! डरपोक कहीं का! कृष्ण बलराम ने वहां से प्रस्थान किया। यह अंतिम समय था। कृष्ण18 साल मथुरा में रहे, वह ग्यारह साल वृंदावन में रहे (आप नोट करते जाइए) और भगवान ने लीला खेली। 18 वर्ष मथुरा में रहे और अब वे रणछोड़ बन गए। रणछोड़ कर जब द्वारका पहुंचे तब उनका स्वागत हुआ। रणछोड़राय की जय! द्वारकाधीश का नाम रणछोड़राय भी हैं। इस प्रकार यह मानसरोवर लोहवन क्षेत्र इस युद्ध के लिए भी प्रसिद्ध है। इसका कुछ अधिक स्मरण नहीं दिलाया जाता लेकिन इस लीला का उल्लेख कुछ ज्यादा नहीं होता परंतु है तो हकीकत। यह इतिहास है। ऐसी घटनाएं घटी है। ऐसी लीलाएं कृष्ण बलराम खेलते हैं। युद्ध इत्यादि यह कोई मीठी बातें नहीं है। रसमयी लीला नहीं लगती है। इसलिए हम इसको ज्यादा पढ़ते सुनते या याद नहीं करते किंतु इन लीलाओं का स्मरण करना चाहिए। भगवान असुर का वध करते है, हमें ऐसी लीला का जरूर श्रवण व कीर्तन करना चाहिए। जप करते रहिए। आप जप करते रहिए। मैं सोच रहा था या जब जप कर रहा था तब सारी दुनिया लगभग 10-11 बजे कोई धन कमाना शुरू करती है। 10-11 बजे दुकान खोलती है। धन कमाना प्रारंभ करते हैं लेकिन हरे कृष्ण भक्तों की दुकान तो 4:30 बजे खुलती है। काकड़ आरती/मंगल आरती के बाद हम बैठते हैं और धन अर्जन शुरू करते हैं। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* हम अपने फिक्स डिपाजिट अर्थात एक एक मंत्र का डिपॉजिट करते जाते हैं और उसी के साथ धन्य/ धनी अथवा धनवान बनते हैं। इस प्रकार हम कृष्ण प्राप्ति करते हैं। इसको धन अर्जन कहते हैं। इसको धन अर्जन कहा भी है। *गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन, रति ना जन्मिल केने ताय। संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले, जुडाइते ना कैनु उपाय॥2॥* ( वैष्णव भजन) अर्थ:- गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’ हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है, किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता है, और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता। यह गोलोक वृंदावन का प्रेम धन है। महाप्रभु की दृष्टि के हिसाब से प्रेम धन विना व्यर्थ दरिद्र जीवन। 'दास' करि' वेतन मोरे देह प्रेम-धन"।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.३७) अर्थ:- "भगवत्प्रेम के बिना मेरा जीवन व्यर्थ है। इसलिए मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे अपने सनातन सेवक के रूप में स्वीकार करें और वेतन के रूप में मुझे भगवत्प्रेम प्रदान करें।" चैतन्य महाप्रभु ने कहा है कि 'यदि आप प्रेम धन को प्राप्त नहीं कर रहे हो अथवा यदि प्रेम धन की कोई पूंजी नहीं है तब आपका यह जीवन दरिद्र है। आप दरिद्र हो। आपके पास प्रेम का धन नहीं है।' हरि! हरि!हमारी आत्मा को यह धन ही सुखी करेगा। हमारी आत्मा को शांति देने वाला, आत्मा को सुख देने वाला, आत्मा को प्रसन्न रखने वाला यही धन है। हम कृष्ण की प्राप्ति करते हैं। हम *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* का श्रवण, कीर्तन व स्मरण करते हैं। यही संपत्ति है, यही धन है। अगर हम ऐसे करते जाएंगे हममें जो लोभ नाम की प्रवृत्ति अथवा शत्रु ही है। यह काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मात्सर्य छह शत्रु है जिसे षड् रिपु भी कहते हैं। इनमें से एक बड़ा शत्रु भी है। वैसे सब बड़े-बड़े ही हैं लेकिन सबसे बड़ा काम अर्थात काम वासना है। जब हमारे काम की तृप्ति नहीं होती तब क्रोध आता है। *ध्यायतो विषयान्पुंसः सङगस्तेषूपजायते | सङगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ||* ( श्रीमद भगवतगीता २.६२) अनुवाद:- इन्द्रियाविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है | यदि उस काम से हमारी कुछ तृप्ति हो गयी तो हम लोभी बनते हैं। यदि भोग विलास ने हमें कुछ तृप्त कर दिया तब हम उसी प्रकार की कुछ ओर तृप्ति चाहते हैं। हम लोभी बनते हैं। हमारा लालच अर्थात लोभी होना तो शत्रु है। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* का श्रवण कीर्तन करने से हम कृष्ण का अर्जन करते हैं और इसी के साथ हमारी कामवासना कम होती जाएगी। तब क्रोध भी थोड़ा कम हो जाएगा। विशेष रूप से गृहस्थों व व्यापारियों के लिए जो लोभ है, यह भी कम होगा। तब इतना सारा भागदौड़ और कष्ट करने की आवश्यकता नहीं होगी। 'सिंपल लिविंग, हाई थिंकिंग' अर्थात हम सादा जीवन उच्च विचार वाले बन जाएंगे। ऐसे विचार भी हमें प्राप्त होंगे। हरे कृष्ण महामंत्र के जप से हम ऐसे विचार वाले बन जाएंगे। जैसे एक बार एक व्यक्ति को कहा गया- दौड़ पड़ो। वह दौड़ने लगा। उसको कहा कि तुम जितना दौड़ सकते हो अर्थात जहां तक तुम दौड़ते हुए जा सकते हो, जाओ। वह सारी भूमि तुम्हारी होगी। यह तुम्हारी प्रॉपर्टी होगी। वह व्यक्ति दौड़ने लगा, उसी के साथ वह कुछ गिन रहा था कि दस एकड़ हो गई तब वह और दौड़ने लगा और सोचने लगा कि 20 एकड़ मेरे नाम से होने वाली है, मैं इतना दौड़ चुका हूं। वह दौड़ता गया, दौड़ता गया। सोच रहा था कि थोड़ा और दौड़ू तब और दस- बीस मेरे नाम से हो जाएगी। यह लोभ उसको दौड़ा रहा था। वह दौड़ता गया, दौड़ता गया और दौड़ते दौड़ते उसकी जान चली गई । वह गिर गया। समाप्त (फिनिश्ड) तब उसे कितनी जगह मिली? मात्र 6 फीट। यह लोभ का लोभी। लोभ वाले याद रखो। इस लोभ शत्रु से बचना चाहिए। हरे कृष्ण महामंत्र का जप करना या कृष्ण भावनामृत का जीवन जीना, गीता भागवत का अध्ययन, श्रवण और कृष्ण प्रसाद को ग्रहण करना, दिव्य अलौकिक उत्सवों में सम्मिलित होना चाहिए। यह सब करने से और इस तरह की लाइफ स्टाइल जीने से हम धीरे धीरे काम, क्रोध, मोह, मद, लोभ मात्सर्य से बचेंगे। इन शत्रुओं से हम बचेंगे। हम लोभ से बचेंगे। इसके कई सारे फायदे हैं। कृष्ण भावनाभावित होने के प्रैक्टिकल बेनिफिट्स (व्यवहारिक लाभ) हैं। इस हरे कृष्ण महामंत्र का जप, तप, ध्यान, धारणा के कितने अच्छे परिणाम/ फल हम चख सकते हैं। इसीलिए जप करते रहिए। कीर्तनीय सदा हरि करते रहो और सुखी रहो। ठीक है! हम यहां अब व्यस्त होने वाले हैं। हम यहीं पर रुकते हैं। हरे कृष्ण!!!

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