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*जप चर्चा* *पंढरपुर धाम से* *दिनांक 10 मई 2021* *हरे कृष्ण!* 856 स्थानो से भक्त जप् कर रहे हैं। *जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद, जय अद्वैत चंद्र जय गोर भक्त* *वृंद।* आप सब तो जप करने के मूड में हो,करते रहो। किंतु हरि नाम की महिमा या कृष्ण की महिमा भी सुननी चाहिए।जब हमें हरि नाम की महिमा का पता चलेगा तब हम और भी अच्छे से,अधिक ध्यान पूर्वक, जप या कीर्तन करेंगें और प्रेम से गाते रहेंगे।हरि हरि।प्रभुपाद कहा करते थे कि हमें जप करते समय उस प्रकार से भगवान को पुकारना हैं जैसे एक रोता हुआ बच्चा अपनी मां को पुकारता हैं और हम बच्चे तो हैं ही।जैसे बच्चे को कुछ भी चाहिए हो तो वह रोता हैं और रो कर अपने विचार या इच्छा व्यक्त करता हैं। वह कोई अलग से भाषा नहीं जानता। इसलिए श्रील प्रभुपाद कहा करते थे कि जैसे एक बालक अपनी मां के लिए रोता हैं उसी प्रकार हमारा जप करना भी एक रोने के जैसा होना चाहिए कि जैसे हम रोकर भगवान को पुकार रहे हैं।हरि हरि। बच्चे की जो मां को पाने की इच्छा की जो तीव्रता होती हैं,वैसी ही तीव्रता भगवान को पाने कि होनी चाहिए। बच्चा तो लगातार रोता ही रहता हैं। *अकाम: सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधी:।* *तिव्रेन भक्ति योगेन यजेत पुरुष परम्।* *(श्रीमद भागवतम् 2.3.10)* भगवान की भक्ति तीव्र होनी चाहिए और इसका सातत्य *(भगवद् गीता 10.10)* *“तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |* *ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || १० ||”* *अनुवाद* *जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान* *प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |* भक्ति कैसी होनी चाहिए?*सततयुक्तानां*।जप तो करना हैं ही।कलियुग में और कोई काम की बात हैं ही नहीं। *हरेन म हरेनाम हरेन मेव केवलम् । कलौं नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव* *गतिरन्यथा ।।21 ।।* *(चैतनय चरित्रामृत आदि लीला 17.21)* *अनुवाद* *“ इस कलियुग में आत्म - साक्षात्कार के लिए भगवान् के पवित्र* *नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के* *पवित्र नाम के कीर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य* *कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं हैं।* हरि नाम की महिमा जितनी अधिक हम सुनते और सुनाते रहेंगे उतना ही हम जप और कीर्तन करते रहेंगे और भगवान को पुकारते रहेंगे। रोते रहेंगे कि हे प्रभु!आप ने जगाई और मथाई का भी उद्धार किया था,मेरा भी कीजिए। *dina-hina jata chilo, hari-name uddharilo,* *tara sakshi jagai madhai* *(हरि हरि बिफले, नरोत्तम दास ठाकुर के द्वारा)* आप ने जगाई मथाई जैसे पापी का भी उद्धार किया,मेरा भी कीजिए या फिर अजामिल का भी आपने उद्धार किया, वाल्मीकि का भी उद्धार किया, वह तो आपका नाम भी ठीक से नहीं ले पा रहे थे।शुरुआत में ऐसा होता हैं। वह तो राम राम नही कह कर मरा मरा कह रहे थे। मरा मरा का ही र्कीतन करते करते,राम ने उनहें दर्शन दे दिये। वह राम की लीलाओं का दर्शन करने लगे और लिखने लगे। प्रभु आपने ऐसे असंख्य जीवों का उद्धार किया हैं, मुझ पर भी अपनी कृपा दृष्टि करें। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* यह भगवान से प्रार्थना हीं हैं । हम हरे कृष्ण महामंत्र का उच्चारण इन भावों के साथ ही करते हैं,कि हे प्रभु! मेरा भी उद्धार और कल्याण करें। हे प्रभु! मुझे भी सेवा के योग्य बनाइए। इन विचारों के साथ हम जप कीर्तन और पूरी भक्ति करते हैं।भक्ति के कई प्रकार हैं, इसीलिए इसे नवधा भक्ति कहा जाता हैं और इसमें श्रवन सबसे महत्वपूर्ण हैं।कीर्तन और स्मरण की भी बहुत महिमा हैं। कल हम शिषटाषटक पर चर्चा कर रहे थे। कल हमने इस निम्नलिखित श्लोक पर चर्चा की *चेतो - दर्पण - मार्जन भव - महा - दावाग्नि - निर्वापणं श्रेयः कैरव -* *चन्द्रिका - वितरणं विद्या - वधू - जीवनम् आनन्दाम्बुधि - वर्धन प्रति -* *पद पूर्णामृतास्वादन सर्वात्म - स्नपन पर विजयते श्री - कृष्ण -* *सङ्कीर्तनम् ॥12 ॥* * अनुवाद* *" भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो* *हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागर रूपी* *प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन* *उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है , जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य* *रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन* *है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय* *सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतल और मनुष्य को प्रति* *पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बना* *(अंत: लीला 20.12)* शिषटाषटकम् महाप्रभु की देन हैं, या भेट हैं। यह शिषटाषटकम् चेतनय चरित्रामृत के अंत में दिया गया हैं। इसे अंत: लीला का अंत कहते हैं।अंत: लीला के अंतिम अध्याय,अध्याय संख्या 20 में शिषटाषटकम् का उल्लेख हुआ हैं या रचना हुई हैं। अंत में जो बात कही जाती हैं वह सार की बात होती हैं, सबसे महत्वपूर्ण बात वही होती हैं। जैसे किसी को कहना हो कि यह करना मत भूलना। इस ग्रंथ में नाम,रूप, गुण, लीला का गुणगान हैं। अंत में क्या कहा हैं?अंत में सार की बात कही हैं, यानी यह 8 श्लोक कहे गए हैं। वैसे भी चैतनय चरितामृत उच्च स्नातक शिक्षा हैं और उसमें भी सर्वोपरि नाम का अध्याय हैं। जप करने वालों के लिए यह बड़ा ही महत्वपूर्ण अध्याय हैं। अध्याय की शुरुआत में क्या कहा गया हैं? *जय-जय श्री चैतन्य जय नित्यानंदा श्री अद्वैत चंद्र जय गौरव भक्त* *वृंद* वैसे तो हर अध्याय की शुरुआत ऐसी ही होती हैं। कृष्णदास कविराज गोस्वामी ऐसे ही हर अध्याय की शुरुआत करते हैं। *एइ - मत महाप्रभु वैसे नीलाचले । रजनी - दिवसे कृष्ण - विरहे* *विह्वले ।।3 ।।* *अनुवाद* *जब श्री चैतन्य महाप्रभु इस तरह से जगन्नाथ पुरी ( नीलाचल ) में* *निवास कर रहे थे , तब वे रात - दिन लगातार कृष्ण* *के विरह से* *अभिभूत रहते थे* *अंत: लीला 20.3* इस प्रकार श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु नीलांचल जगन्नाथपुरी में रहे अगर हम कहते हैं इस प्रकार रहे तो आप पूछेंगे किस प्रकार? तो यह इससे पहले के शलोक में लिखा गया हैं। वह रात और दिन विरह की व्यथा में व्याकुल रहे। *स्वरूप , रामानन्द , -एड दुइजन - सने । रात्रि - दिने रस - गीत -* *श्रोक आस्वादने ॥4 ॥* *अनुवाद वे स्वरूप दामोदर गोस्वामी तथा रामानन्द राय , इन दो* *संगियों के साथ रात - दिन दिव्य आनन्दमय गीतों तथा श्लोकों का* *आस्वादन करते थे* *अंत: लीला 20.4* श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अब बस राधा ही बचे हैं। राधा जैसा ही उनका व्यवहार हैं और राधा के भाव ही प्रकट कर रहे हैं। वैसे तो चैतन्य महाप्रभु राधा-कृष्ण हैं, लेकिन कृष्ण होते हुए भी कृष्ण मुख्य पृष्ठभूमि पर नहीं हैं। अभी तो राधा का ही भाग लिया हैं। *राधा कृष्ण - प्रणय - विकृति दिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि* *पुरा देह - भेदं गतौ तौ । चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं ब* *द्युति - सुवलितं नौमि कृष्ण - स्वरूपम् ॥५५ ॥ राधा - भाव* *अनुवाद* *" श्री राधा और कृष्ण के प्रेम - व्यापार भगवान् की अन्तरंगा* *ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि राधा तथा कृष्ण* *अपने स्वरूपों में एक हैं , किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप* *से पृथक् कर लिया है । अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण* *चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ ,* *क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा* *अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं।* *(आदि लीला 1.5)* राधा का भाव है और राधा की कांति भी हैं इसीलिए तो वह गोरांग हैं। *तप्त-कांचन गौरांगी राधे वृंदावनेश्वरी वृषभानु सुते देवी प्रणमामि* *हरि-प्रिये ध्वनि श्रील प्रभुपाद* और यह गौरंगी बन गई गौरांग,अपने गौर वर्ण के कारण।दोनों ही गौर वर्ण के हैं। हरि हरि। *स्वरूप , रामानन्द , -एड दुइजन - सने । रात्रि - दिने रस - गीत -* *श्रोक आस्वादने ॥4 ॥* *अनुवाद* *वे स्वरूप दामोदर गोस्वामी तथा रामानन्द राय , इन दो संगियों के* *साथ रात - दिन दिव्य आनन्दमय गीतों तथा श्लोकों का आस्वादन* *करते थे ।* श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु रात और दिन श्लोकों का आस्वादन कर रहे हैं।नीलांचल जगन्नाथपुरी में गंभीरा नामक स्थान है जहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु रह रहे हैं। *नाना - भाव उठे प्रभुर हर्ष , शोक , रोष । दैन्योद्वेग - आर्ति उत्कण्ठा ,* *सन्तोष ॥5 ॥* *अनुवाद* *वे विविध दिव्य भावों के लक्षणों यथा हर्ष , शोक , रोष , दैन्य ,* *उद्वेग , संताप , उत्कण्ठा तथा सन्तोष का आस्वादन करते ।* *अंत: लीला 20.5* राधा रानी इस प्रकार के दिव्य भाव प्रकट कर रही हैं। शोक का भाव। तो कया राधा रानी शौक करती हैं? कृष्ण ने तो भग्वद्गीता में कहा है कि शौक मत करो। *सर्वधर्मान्परित्यज्य माम् एकम् शरणं व्रज ।* *अहं त्वा सर्व-पापेभ्यो मोक्ष-यिष्यामि मा शुचः॥* *भगवद गीता 18.66* तो क्या राधारानी इतनी सी शिक्षा भी नहीं समझी? शौक भी दो प्रकार के होते हैं। हम जो,जो करते हैं वह प्राकृतिक शौक होता हैं। इस संसार का क्रोध भी होता हैं, लेकिन यहां अध्यात्मिक शोक और क्रोध की बात हो रही हैं। अर्जुन को भी भगवान क्रोधित करना चाहते थे,तभी तो लड़ाई होती।यह क्रोध दिव्य क्रोध हैं।इस क्रोध को भगवान के चरणों में अर्पित किया जा रहा हैं। मेरा स्मरण करते हुए युद्ध करो और अपने क्रोध का प्रदर्शन करो और लड़ो।हरि हरि। *नाना - भाव उठे प्रभुर हर्ष , शोक , रोष । दैन्योद्वेग - आर्ति उत्कण्ठा ,* *सन्तोष ॥5 ॥* *अंत: लीला* *अनुवाद* *वे विविध दिव्य भावों के लक्षणों यथा हर्ष , शोक , रोष , दैन्य ,* *उद्वेग , संताप , उत्कण्ठा तथा सन्तोष का आस्वादन करते ।* *श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु में कई सारे भाव उत्पन्न हो रहे हैं तो* *सावधान हमको सावधान होना चाहिए* श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु दुखी उत्कंठित या दैन्य भाव प्रकट कर रहे हैं। उनकी दीनता की कोई सीमा ही नहीं है। हर भाव की आपस में प्रयोग प्रतियोगिता चल रही हैं। एक भाव दूसरे भाव का दमन करता हैं। यह भावों का खेल या आंदोलन चल रहा हैं। इसलिए आपको यहां समझाया जा रहा है कि राधा के मन में यह भाव उठ रहे हैं। *सेई सेई भावे निज - शोक पड़िया । श्रोकेर अर्थ आस्वादये दुइ -* *बन्धु लञा ॥6 ॥* *अनुवाद* *वे अपने बनाये श्लोक सुनाते और उनके अर्थ तथा भाव बतलाते ।* *इस तरह वे अपने इन दो मित्रों के साथ उनका आस्वादन करके* *आनन्द लेते ।* *अंत: लीला 20.6* नीज श्लोक मतलब यह शिषटाषटकम्, इसकी शुरुआत चेतो दर्पण माध्यम से होती हैं। *आश्विष्य वा पाद - रता पिनष्टु माम् अदर्शनान्मर्म - हता करोतु वा ।* *यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राण नाथस्तु स एव नापरः ।।47* *अनुवाद* *“ अपने चरणकमलों पर पड़ी हुई इस दासी का कृष्ण गाढ़ आलिंगन* *करें या अपने पांवों तले कुचल डालें अथवा कभी अपना दर्शन न* *देकर मेरा हृदय तोड़ दें । आखिर वे लम्पट हैं और जो चाहें सो कर* *सकते हैं , तो भी वे मेरे हृदय के परम आराध्य प्रभु हैं ।* *अंत: लीला 20.47* यह राधा का प्रेम है और यह राधा ही बोल रही है यह राधा का ही वचन हैं। आपको छोड़कर हें! प्राणनाथ मेरा और कोई नहीं हैं। अब आप जैसे भी मेरे साथ व्यवहार करो जैसे हम अपनी भाषा में कहते हैं कि ठुकरा दो या प्यार करो आप हमारे साथ कैसे भी व्यवहार करते रहो। हमें कोई परवाह नहीं हैं। एक बात तो पक्की है कि आप हमारे प्राणनाथ हो। यह आठवां अष्टक राधा ही बोल रही हैं। दो बंधु हैं।स्वरूप दामोदर और रामानंद राय। जैसे ललिता विशाखा को राधारानी अपने पास में बुलाकर श्लोकों का आस्वादन कर रही हो। एक श्लोक ले लिया- *अयि नन्द - तनुज किङ्करं पतितं मां विषमे भवाम्बुधी । कृपया तव* *पाद - पकज स्थित - धूली - सदृशं विचिन्तय ।। 32 ॥* *अनुवाद* *" हे प्रभु , हे महाराज नन्द के पुत्र कृष्ण ! ' मैं आपका सनातन* *सेवक हूँ , किन्तु अपने ही सकाम कर्मों के कारण मैं अज्ञान के इस* *भयावह समुद्र में गिर गया हूँ । अब आप मुझ पर अहेतुकी कृपा करें* *मुझे अपने चरणकमलों की धूलि का एक कण मानें ।* *अंत: लीला 20.32* और पूरी रात भर इस श्लोक का रसास्वादन कर रहे हैं। संबंध के विचार व्यक्त कर रहे हैं और विचारों में तल्लीन हैं और डूब कर गोते लगा रहे हैं और प्रेम सागर में ही वे नहा रहे हैं। इसी अध्याय में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपने ही रचना किए हुए 8 श्लोकों पर भाष्य भी कहां हैं। उनका रसास्वादन करते हुए सुना रहे हैं और बांट रहे हैं।ललिता- विशाखा के साथ राधा रानी यह बांट रही हैं। अध्याय में केवल श्लोक ही नहीं हैं,बल्कि चैतन्य महाप्रभु का अपना खुद का भाषय हैं। चैतन्य महाप्रभु ने ही इन 8 श्लोको की रचना की हैं।ज्यादा कुछ रचना नहीं की केवल यह 8 श्लोको की ही रचना की हैं। हम जो भी सुनते पढ़ते हैं उस पर हमें और विचार करना चाहिए ।इसे विचारों का मंथन कहते हैं जो भी हमको समझ आ रहा है जो भाव उत्पन्न हो रहे हैं उन्हें कहना और लिखना चाहिए। BG 10.9 *“मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |* *कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ९ ||”* *अनुवाद* *मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा* *में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे* *विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते* *हैं* बोधयन्तः परस्परम् कर सकते हैं।और इसी में रमन होना चाहिए। हरे कृष्ण महामंत्र की महिमा शिषटाषटकम् के रूप में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु इसका संस्मरण करते हुए पूरी रात भर जागते थे और इन भावों और विचारों में डूबे रहते थे। *नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले* *श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने ।* *नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे* *निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ॥* *जय श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद,* *श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि गौर भक्त वृन्द* *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥* *हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।*

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