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*जप चर्चा*, *9 मई 2021*, *पंढरपुर धाम* आप सभी का स्वागत है। 856 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। जैसे छप्पन भोग होते हैं वैसे ही आहुति हो रही है। 856 स्थानों से हम आहुति दे रहे हैं। नाम यज्ञ और संकीर्तन यज्ञ कर रहे हैं और आहुति दे रहे हैं। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* आहुति दे रहे हैं। *कृष्ण वर्णन त्वीश अकृष्ण, संगे पंगस्त्र पार्षद।* *यज्ञे संकीर्तन प्राये, यजन्ति सुमेधसा।* (श्रीमद भागवतम 11.5.32) अनुवाद उनका वर्ण श्याम नही होगा तथा वे सदैव भगवान के नामों का कीर्तन करेंगे। वे सदैव अपने पार्षदों से घिरे रहेंगे । कलियुग में बुद्धिमान लोग संकीर्तन आंदोलन में सम्मिलित होंगे । ऐसी आहुति और यज्ञ बुद्धिमान लोग करते हैं। ऐसा श्रीमद्भागवत का कहना है। *महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् |* *यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः || २५ ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 10.25) अनुवाद मैं महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन (जप) तथा समस्त अचलों में हिमालय हूँ | ऐसा भी भगवत गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं। यज्ञ तो कई प्रकार के होते हैं। लेकिन जो जप यज्ञ है, इसे जप योग भी कहा जाता है। तो कृष्ण ने इसका नाम जप यज्ञ दिया है। तो कई प्रकार के यज्ञो में जप यज्ञ श्रेष्ठ है और *मैं जप यज्ञ हूं* भगवान कह रहे हैं। *यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि* अहम् अस्मि मतलब मैं हूं। सभी यज्ञों में *अहम् यज्ञोस्मि* मैं जप यज्ञ हूं। तो हम अपने अपने 856 स्थानों से जहां भी हैं, वहां जप यज्ञ हो रहा हैं। हरि हरि। यह जप यज्ञ कलयुग का धर्म है। *कृते यद्धयायतो विष्णुं त्रेताया यजतो मखैः ।* *द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात् ॥ ५२ ॥* (श्रीमद भगवतम 12.3.52) अनुवाद जो फल सत्ययुग में विष्णु का ध्यान करने से, त्रेतायुग में यज्ञ करने से तथा द्वापर युग में भगवान् के चरणकमलों की सेवा करने से, प्राप्त होता है, वही कलियुग में केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करके प्राप्त किया जा सकता है। *त्रेताया यजतो मखैः* त्रेता युग का धर्म यज्ञ करना है। त्रेता युग में यज्ञ होते थे। वह भिन्न प्रकार के यज्ञ थे। स्वाहा स्वाहा कहकर अग्नि प्रज्वलित करना और ॐ कहकर आहुति चढ़ाना। वैसे यज्ञ त्रेता युग में होते थे और कलयुग में भी हम यज्ञ करते हैं। बुद्धिमान लोग यज्ञ करेंगे। लेकिन वह यज्ञ, जप यज्ञ होगा। वह संकीर्तन यज्ञ होगा। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* यह जप यज्ञ है। आप जप करते रहिए। सारा परिवार एकत्रित होकर यज्ञ सकता है। पड़ोसियों को, मित्रों को और सगे संबंधियों को साथ में लेकर या वे जहां पर भी हैं वहां पर वे यह यज्ञ करें। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने पूरे संसार के लिए संकीर्तन यज्ञ करने की संस्तुति की है। उन्होंने इसकी भविष्यवाणी भी करी थी कि संसार ऐसा भी करेगा और चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी सच होती ही है, होनी ही चाहिए और हो रही है। हम देखते हैं यहां क्या क्या हो रहा है, यज्ञ हो रहा है, जप और जपा टॉक (जप चर्चा) हो रहा है। विश्व भर के भक्त इसमे सम्मिलित है। यहां यह एक टीम है और विश्व भर में अनेक टीम है, जो जप कर रहे हैं और कीर्तन कर रहे हैं। *चेतो - दर्पण - मार्जन भव - महा - दावाग्नि - निर्वापणं श्रेयः कैरव - चन्द्रिका - वितरणं विद्या - वधू - जीवनम् आनन्दाम्बुधि - वर्धन प्रति - पद पूर्णामृतास्वादन सर्वात्म - स्नपन पर विजयते श्री - कृष्ण - सङ्कीर्तनम् ॥12 ॥* (चैतन्य चरितामृत, अंतिम लीला 20.12) अनुवाद भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागर रूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है , जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतल और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बना है। इसी के साथ *चेतो - दर्पण - मार्जन* भी कर रहे हैं। *चेतो - दर्पण - मार्जन* चेतना का जो दर्पण है (मिरर ऑफ द कॉन्शसनेस)। *चिन्तामपरिमेया च प्रलयान्तामुपाश्रिताः ।* *कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ॥११ ॥* *आशापाशशर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः ईहन्ते* *कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् ॥ १२ ॥* (श्रीमद्भगवद्गीता 16.11-12) अनुवाद उनका विश्वास है कि इन्द्रियों की तुष्टि ही मानव सभ्यता की मूल आवश्यकता है । इस प्रकार मरणकाल तक उनको अपार चिन्ता होती रहती है वे लाखों इच्छाओं के जाल में बँधकर तथा काम और क्रोध में लीन होकर इन्द्रियतृप्ति के लिए अवैध ढंग से धनसंग्रह करते हैं उस पर कोई कलंक, कोई दाग , कोई भौतिक इच्छा, आकांक्षा या कोई *आशापाशशर्बद्धाः* आशा के पाश, हमारी चेतना में, भावना में और विचारों में है। तो उन सबको यह संकीर्तन या हरे कृष्ण जप यज्ञ क्या करता है? *चेतो - दर्पण - मार्जन* उसको साफ करता है और उसको स्वच्छ करता है। जब चेतना का दर्पण स्वच्छ होगा, साफ होगा और कलंक रहित होगा। तो फिर जैसे आईने पर धूल जमी हुई है। तब हमने वह आईना आमने सामने रखा। तब हम उस आईने में देख नहीं पाते क्योंकि आईना तो है, लेकिन आईने के ऊपर धूल है। तो हम स्वयं को उस आईने में नहीं देख पाएंगे। आईने पर कुछ दिखने वाला नहीं है। आप भी नहीं दिखओगे और कुछ भी देखने वाला नहीं है। तो वैसे ही जब यह चेतना और भावना इसी को अंतःकरण भी कहते हैं। मन, बुद्धि और अहंकार से बना हुआ अंतःकरण और उसी के साथ जुड़ा हुआ है। इस प्रकार अंतःकरण हमारी आत्मा को ढक लेता है, अच्छादित कर देता है। ऐसे हम माया से हम मुक्त होते हैं। *माया-मुग्ध जीवेर नाहि स्वतः कृष्ण-ज्ञान।* *जीवेरे कृपाय कैला कृष्ण वेद-पुराण ॥ 122॥* (चैतन्य चरितामृत, मध्य लीला 20.122) अनुवाद बद्धजीव अपने खुद के प्रयत्न से अपनी कृष्णभावना को जाग्रत नहीं कर सकता। किन्तु भगवान् कृष्ण ने अहैतुकी कृपावश वैदिक साहित्य तथा इसके पूरक पुराणों का सूजन किया। *माया-मुग्ध जीवेर नाहि स्वतः कृष्ण-ज्ञान।* उसको खुद का ज्ञान भी नहीं होता है। वह कौन है? है कि नहीं? मैं केवल पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश का पंचमहाभूत का बना हुआ पुतला हूं। इतना ही पता चलता है और फिर इसके साथ जुड़े रहते हैं। इस शरीर को चलाएं मान करते हैं। हमारा मन, हमारी बुद्धि और हमारा अहंकार, कृष्ण ने कहा *विमूढ़ आत्मा कर्ता अहम इति मन्यते।* विमूढ़ आत्मा केवल मूढ़ ही नहीं कहा। इसको विमूढ़ भी कहा मतलब पहली श्रेणी का मूर्ख। विमूढ़ आत्मा क्या करता है? *विमूढ़ आत्मा कर्ता अहम इति मन्यते।* इसकी मान्यता होती है, ऐसा मानता हैं, लेकिन ऐसा होता तो नहीं हैं। ऐसा तथ्य सत्य या हकीकत नहीं होती। किंतु मानकर बैठा रहता है कि *कर्ता अहम इति मन्यते*। ऐसा मान कर बैठता है मतलब *माया-मुग्ध जीवेर नाहि स्वतः कृष्ण-ज्ञान* खुद का भी ज्ञान नहीं होता। फिर आत्मा का ज्ञान नहीं होता और फिर परमात्मा या भगवान का ज्ञान नहीं होता। हमारा जो भगवान के साथ संबंध है उसका ज्ञान नहीं होता। *चेतो - दर्पण - मार्जन* यह *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* , इसका ध्यान या इसका ध्यानपूर्वक जप या अपराध रहित *अपराध शून्य होइया लओ कृष्ण नाम* । अपराध से शून्य होकर जब हम मंत्र मेडिटेशन, हम ध्यान करेंगे। अब यज्ञ कह रहे थे और अब ध्यान कह रहे हैं। यह यज्ञ भी है। त्रेता युग में यज्ञ होते थे। कलयुग में भी हम यज्ञ करेंगे। लेकिन जप यज्ञ होगा। सतयुग में ध्यान होता था। यह नहीं कि हम कलयुग में ध्यान नहीं करेंगे। ध्यान करेंगे, मेडिटेशन होगा। लेकिन मंत्र मेडिटेशन होगा। भगवान के नाम का स्मरण या ध्यान होगा। द्वापर युग आ गया, तो द्वापर युग में भगवान के विग्रह की अर्चना होती है और आराधना होती है। कलयुग में भी हम अर्चना करेंगे। तो कैसी अर्चना करेंगे? यही तो भागवत कह रहा है। *यज्ञे: संकीर्तन प्राय यज्जन्तिहि सुमेध्स:* यज्जन्तिहि मतलब अर्चना, आराधना या पुजन्ति। जो बुद्धिमान लोग हैं, वह कलयुग में भगवान की आराधना करेंगे और अर्चना करेंगे। कैसे करेंगे? यज्ञ करके। केवल यज्ञ करके नहीं कहा। साथ में कहा है कि किस प्रकार का यज्ञ? संकीर्तन यज्ञ। तो संकीर्तन यह विशेषण हुआ। विशेष्य और विशेषण व्याकरण में आता है। विशेष्य यज्ञ और उसका विशेषण संकीर्तन है। हरि हरि। काले सांवले कृष्ण, कृष्ण विशेष्य है। तो विशेषण क्या है? काले और सांवले। कैसे हैं कृष्ण? काले और सांवले। *घन इव श्याम* वह घनश्याम है। इसको विशेष्य विशेषण कहते हैं, जो व्याकरण में चलता है। इस भागवत के 11वे स्कंध का पांचवा अध्याय श्लोक संख्या 32। *कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम्* । *यज्ञै: सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधस:* (श्रीमद भागवतम 11वा स्कंध, 5वा अध्याय, 32वा श्लोक) भावार्थ : कलियुग में, बुद्धिमान व्यक्ति के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन (संकीर्तन) करते है, जो निरंतर कृष्ण के नाम का गायन करता है। यद्यपि उसका वर्ण श्यामल (कृष्ण) नही है किंतु वह साक्षात कृष्ण है । वह अपने संगियों, सेवकों, आयुधों तथा विश्वासपात्र साथियों की संगत में रहता है। इसमें कहा है यजन्ति सुमेधस: , बुद्धिमान लोग, उपजाऊ मस्तिष्क वाले , वे क्या करेंगे, यज्ञ करेंगे कौन सा यज्ञ करेंगे संकीर्तन यज्ञ करेंगे। यज्ञ करेंगे सब , इतना ही कहते सब तो अपने मन की करते, मनमानी करते। यज्ञ करेंगे बुद्धिमान लोग, इतना कहकर यह नहीं रुकता। तुरंत ही कहा यज्ञ संकीर्तन प्राय, वो यज्ञ संकीर्तन यज्ञ होना चाहिए। इस प्रकार संकीर्तन यज्ञ करके आप यजन्ती सुमेधस:, अर्चनः । कलियुग में ये नाम स्मरण कृष्ण कीर्तन, श्रवणं कीर्तन करके एक ही साथ हम सब तृप्त या ध्यान भी करते है। त्रेता युग का यज्ञ भी करते है और द्वापर युग की अर्चना भी करते है। केवल क्या करके? सिर्फ हरि नाम संकीर्तन करके। इसीलिए कहा है – *हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलं* *कलौ नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव गतिरन्यथा* । ना ही कर्म के द्वारा, ना ही ज्ञान और न ही योग के द्वारा इसलिए तीन बार कहा नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव । जिस प्रकार का ध्यान सतयुग में होता था वैसा नही , वैसा ज्ञान नही जो त्रेता युग में और न ही वैसी अर्चना जो द्वापर युग में होती थी । इसलिए नास्त्यैव गतिरन्यथा । जैसा की मैं शुरुआत में कह रहा था की ये जो नाम संकीर्तन है जप यज्ञं है , नाम यज्ञं है ये करने का जो फल है या श्रुति फल कहो। जिसको श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने शिक्षाष्टक में कहते है। जैसे कृष्ण की शिक्षा है भगवद्गीता, ऐसे ही चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा है शिक्षाष्टक। आठ प्रकार की शिक्षाएं है। पहली शिक्षा है– *चेतोदर्पणमार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणम्* *श्रेयःकैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम्* । *आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम्* *सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम्* ॥१॥ अनुवाद: श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो जो हृदय में वर्षों से संचित मल का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी दावानल को शांत करने वाला है । यह संकीर्तन यज्ञ मानवता के लिए परम कल्याणकारी है क्योंकि चन्द्र-किरणों की तरह शीतलता प्रदान करता है। समस्त अप्राकृत विद्या रूपी वधु का यही जीवन है । यह आनंद के सागर की वृद्धि करने वाला है और नित्य अमृत का आस्वादन कराने वाला है। ये पहला श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का शिक्षाष्टक है। और उस पहली शिक्षा में पहली बात कही है चेतोदर्पणमार्जनं। जो प्रथम शिक्षा है और परम विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तन के साथ समाप्त होने वाला प्रथम शिक्षाष्टक्म है। इसमें भी वही विशेष्य है। विशेष्य है परम विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तन। विशेष्य अर्थात कुछ विशेष है लेकिन उसकी क्या विशेषता है उसको कहते है विशेषण। इस शिक्षाष्टकम में चेतो दर्पण मार्जनं जो है उसके सात विशेषण है, ऐसा भक्ति विनोद ठाकुर ने अपने भाष्य में समझाया है । तो उन सात विषष्ठों में पहला विशिष्ट है या कहो लाभ है फायदा है। जप, कीर्तन करने के क्या फायदे है। या कहो क्या महिमा है। तो ये भी सात अलग अलग चेतो दर्पण मार्जन्म जहा अम आएगा ना वहा एक पूरा आ गया। *चेतोदर्पणमार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणम्*। दूसरा हुआ *श्रेयःकैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम्* । इस श्लोक के जो चार पद है हर पद में दो दो विशेषण है। सातवा हुआ *सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम्*। ये किसके संबंध में कहा जा रहा है परम विजयते श्री कृष्ण संकीर्तनम। ऐसे संकीर्तन की जय हो। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने पहले ही घोषित किया की विजय होगी श्री कृष्ण संकीर्तन की। गीता में भी कहे है भगवान जहा योगेश्वर कृष्ण और अर्जुन जैसे धनुरधारी होंगे वहा तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम। अंतिम श्लोक है भगवद गीता का। *यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः* । *तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम* ॥७८॥ (श्रीमद भगवदगीता अध्याय 18, श्लोक 78) अर्थात: जहाँ योगेश्र्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीँ ऐश्र्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है | ऐसा मेरा मत है | भगवद गीता में भी कहा है की विजय निश्चित है। इसी बात को श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु विजय घोषित कर रहे है शिक्षाष्टकम् में । संकीर्तन आंदोलन की विजय होगी। संकीर्तन की विजय होगी। और संकीर्तन करने वालो की भी विजय होगी। संकीर्तन आंदोलन के सदस्यों की, जप करने वालो की विजय होगी। विजय कैसे कहोगे। *जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः* । *त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन*॥९॥ (श्रीमद भगवदगीता। अध्याय 4, श्लोक 9) अनुवाद हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है | इन शब्दों में भी कह सकते है की विजय की परिभाषा ही है। जो भगवान को जनता है और उनके नाम का जप कीर्तन जो करता है। फिर इस नाम के तत्त्व को जानकर की नाम और नामी एक ही है, अभिन्न है। हरि हरी। जो इस बात को जानेगा की नाम ही भगवान है। ऐसा व्यक्ति जब शरीर त्यागता है *पुनर्जन्म नैति मामेति*। पुनः जन्म नही होगा। कृष्ण कहते है। अगर हम थोड़ा संस्कृत समझते है तो इसको भली भांति समझेंगे। जो कृष्ण कहते है पुनर्जन्म नैति। ऐसा व्यक्ति पुनः जन्म प्राप्त नहीं करेगा। तो फिर किसको प्राप्त करेगा मामेति। भगवान कह रहे है कि मेरी ओर आएगा। पुनः जन्म की ओर नही जायेगा मेरी ओर आएगा। यह है विजय। *पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्*। *इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे* यह है पराजय और पुनर्जन्म नैति, यह है विजय। यही बात श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे है। परम विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्। संकीर्तन आंदोलन की जय, और संकीर्तन करने वाले, कीर्तन में सम्मिलित होने वाले जप कर्ताओं की जय। आप सभी की भी जय। आज के आनंद की जय। आप सभी जप करने वालों की भी जय। सदा जप करते रहिए। कीर्तन करते रहिए और यह हमारी साधना का मुख्य अंग है। ये नही कि हम और साधना नही करते है, श्रवणं कीर्तनं विष्णु स्मरणम , स्मरण तो करना ही है, और भी कई है नवदा भक्ति भी है, यहाँ भक्ति के अंग के साथ हम जप और कीर्तन भी करते है। कीर्तन एक कलि कलेर धर्मम् हरी नाम संकीर्तन है। कलियुग का धर्म है नाम संकीर्तन। धन्यवाद। जपा टॉक की शुरुआत में हम 856 थे अब हम 896 हुए। हरी हरि। निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।

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