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जप चर्चा पंढरपुर धाम से 2 मार्च 2021 ओम शांती: हरी हरी । 702 स्थानों से आज जप हो रहा है। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। प्रेम और आनंद से कहो !क्या कहो ? हरि हरि । हरि हरि कहो , मतलब हरि बोल , हरि बोलो। कैसे बोलना चाहिए ? प्रेम से बोलना चाहिए । प्रेम से कहो जय श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद प्रेम से कहो। हरे कृष्ण हरे कृष्ण भी कैसे कहना है ? प्रेम से कहो। हरि हरि। ठीक है आप को तैयार कर दिया है , ओम शांति वगैरे करके और हरि हरि बोल , शांत है जप करना मतलब शांति है । कुछ तो जप ही कर रहे हैं । मन शांत है । जप करने से मन शांत होता है । केवल हम शांत रहो , बी पीसफूल ऐसा ही नहीं कहते , हम लोग क्या कहते हैं ? चँन्ट हरे कृष्णा एंड बी हैप्पी कहते है। शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम् । लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम् वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥ अनुवाद: ₹ श्री विष्णु को प्रणाम, जिनके पास एक शांत उपस्थिति है, जो एक सर्प (आदिस) पर विश्राम करते हैं, जिनके नाभि पर एक कमल है और जो भगवान के देवता हैं, कौन ब्रह्माण्ड का भरण-पोषण करता है, कौन आकाश की तरह असीम और अनंत है, जिसका रंग बादल की तरह है (नीला) और जिसके पास एक सुंदर और शुभ शरीर है, देवी लक्ष्मी के पति कौन हैं, जिनकी आंखें कमल की तरह हैं और जो ध्यान से योगियों के लिए प्राप्य हैं, उस विष्णु को नमस्कार जो सांसारिक अस्तित्व के भय को दूर करता है और जो सभी लोकों का स्वामी है। भगवान स्वभाव से शांत है । कृष्ण के जिवन मे अशांति नहीं है , अशांति का स्थान ही नहीं है । फिर हमारे जीवन में क्यों होना चाहिए ? क्योंकि बाप जैसे हम बेटे लाइक फादर लाइक सन । हम योग करेंगे । कौन सा योग करेंगे ? अष्टांग योग नही (हसते हुये) उसका भी कुछ फायदा है वह भी एक प्रकार का योग है । हम भक्तियोग करेंगे । भक्ति पूर्वक योग करेंगे या भक्ति योग्य करेंगे तो हमारा भगवान के साथ सबंध पुनर्स्थापित होगा । कर्मयोग से भी कुछ स्थापित होता है , ध्यान योग से भी कुछ स्थापित होता है किंतु भक्ति योग से यह स्थापना पूर्ण होती है, हमारे संबंधों की स्थापना पूर्ण होती है । इससे संबंध ध्यान भी होता है , सर्वप्रथम होता है संबंध ध्यान , फिर यग्य प्रयोजन कहते हैं । संबंध से शुरुआत होती है , योग से भगवान के साथ हमारा जो संबंध है वह पुनः स्थापित होता है , वैसे है ही पर हम भूल जाते हैं , संसार हमको भुला देता है । हमारे भगवान के साथ के संबंध को यह संसार भुला देता है और फिर इस संसार में हम लोग इतने सारे संबंध , सगे संबंधी स्थापित कर लेते हैं उस संबंधों के बीच भगवान के साथ वाला संबंध हम भूल जाते हैं । यह एक संबंध है और कई सारे संबंध है उसमें से एक भगवान के साथ संबंध है जो गौण हो जाता है , डायल्युट हो जाता है । हरि हरि । भक्ति पूर्वक जप , हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।। और यह संसार को बंद करो ऐसे महात्मा प्रभु कह रहे थे , 'क्लोज द डोर' संसार के द्वार या जीन द्वारो से हम इस संसार में पहुंचते हैं या जिन द्वारों से संसार हममें प्रवेश करता है वह द्वार बंद करो । सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी | नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् || (भगवद्गीता 5.13) अनुवाद: जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किये कराये सुखपूर्वक रहता है | नवं द्वारे , ऐसे भी कह सकते हैं । नव द्वार है , शरीर में कितने द्वारा है कभी गिने आपने ? सुना तो होगा ? कुछ लोगोने सुना भी नहीं होता हैं । किसी को पूछा कि आपके शरीर में कितने द्वार हैं बता दो ? जल्दी बताओ ? वह बता नहीं सकते । कौन सा द्वार , द्वार की कौन सी बात कर रहे हो ! मुख तो है जिसमें हम अपलोड करते रहते हैं लेकिन कितने द्वार है ? तब भगवान ने कहा है नव द्वार है । ठीक है । संसार को द्वार बंद करो या नव द्वार बंद करो मतलब ही इंद्रिय निग्रह है , मन निग्रह है । गीता के 18 वे अध्याय में 42 श्लोक में कहां है , यह सब बातें है ही वैसे ही शांति की बात है , संसार में अशांति हो तो नव द्वार ही बंद करो , रहने दो संसार में अशांति , और संसार तो अशांति ही रहेगा संसार जो है ! संसार कैसा जो अशांत नहीं है ? अपने स्थान पर संसार को रहने दो और आप अपने स्थान पर रहो , आप शांत रहो , आप भगवान के साथ रहो या भगवान के भक्तों के साथ रहो , गुफा में रहो , हृदय को शास्त्रों में कई स्थानो पर गुफा भी कहा गया है , गुफा में रहो , हिमालय में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है , गुफा ढूंढते ढूंढते जा रहे हैं गुफा ढुंढ रहे है । गुफा भगवान ने दी हुई है , ह्रदय ही गुफा है , गुफा में रहो , वहा एकांत है , अंततोगत्वा दर्शन भी होगा वहां एकांत में , उनकी शरण लो । सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज | अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः || (भगवद्गीता 18.66) अनुवाद: समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत । ठीक है , यह कुछ अधिक हुआ जो मैंने कुछ कहा । कल कुछ कहा था और कुछ बचा था लेकिन अब समय कम बचा है , कुछ बात कह लेते हैं । इस संसार में ऐसा जब कहते हैं तो झट से संसार के दो प्रकार है ऐसा भी कहना पड़ता है । कईयों को पता नहीं है संसार मतलब संसार या साम्राज्य है यह भौतिक साम्राज्य है । परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः | यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति || (भगवद्गीता 8.20) अनुवाद: इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यय प्रकृति है, जो शाश्र्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है | यह परा (श्रेष्ठ) और कभी न नाश होने वाली है | जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता | कभी व्यक्त तो कभी अव्यक्त , कभी प्रकट तो कभी अप्रकट , कभी सृष्टि तो कभी प्रलय होने वाले इस जगत मे अन्य जगत है जीसको भगवान ने सनातन कहा है , इस प्रकार के दो जगत है ,दो साम्राज्य है । संसार प्राकृतिक जगह है एक संसार जो दिव्य है और अलौकिक , वैकुंठे जगत तीन विभूति , इन दोनों प्रकार के जगतों में हमारे लिए , संसार के मनुष्य के लिए गणतव्य स्थान है एक , पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्। इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥ ( शंकराचार्यजी द्वारा रचित भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-21) अनुवाद : हे परम पूज्य परमात्मा! मुझे अपनी शरण में ले लो। मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ। मुझे इस संसार रूपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो ईश्वर। यह होता रहता है और मृत्यु के समय जैसे भाव होते हैं , विचार होते हैं हमारा भविष्य , हमारा स्थान उसी पर निर्धारित होता है , कल हम बता रहे थे वैसे मोटे मोटे इस ब्रह्मांड में , इस जगत में प्राकृतिक जगत में तीन स्थान है , एक है पाताल लोक , पृथ्वी लोक और स्वर्ग लोक । इस संसार में 3 गुण है इन तीन गुणों से प्रभावित हम कई प्रकार के कार्य भी करते हैं और तीन प्रकार के भाव भी है , असुरी भाव , दैवी संपदा अलग-अलग भाव है । ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः | जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः || (भगवद्गीता 14.18) अनुवाद: सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं,रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं ।‌ ऊर्ध्वम गच्छति संपदा , सत्व गुनी है वह स्वर्ग में जाते हैं , तमोगुणी , पापी नरक में जाते हैं । अमेरिकन लोग कहां जाते होंगे ? वह कह सकते हैं हम इस पर विश्वास नहीं करते , आप जो कह रहे हैं उस पर हम विश्वास नहीं करते । इससे कुछ फरक पडता है क्या ? भगवान ने कहा उर्ध्वम गछन्ति , जो सत्वगुणी है वह ऊपर जाएंगे यह नियम किसको किसको लागू होता है ? सिर्फ हिंदुओं को लागू होता है कि केवल भारतीयों को होता है ? भगवान ऐसा क्यों सोचेंगे यह सब को लागू होता है । कौन है ? किस देश के हैं ? यहा कोई जात पात का भेद नहीं है , हम इस धर्म के हैं , यह नियम सभी को लागू होता है । हर देश के लिए अलग-अलग नियम होते हैं । लॉज ऑफ लँड कहते है , इंग्लैंड लँड अमेरिकन लँड , थाईलैंड लँड है , हर लँड के हर देश के प्रदेश के अपने-अपने नियम होते हैं , हो सकते हैं , लेकिन जहां तक लॉज ऑफ लॉर्ड की बात है , प्रभुपाद धर्म की व्याख्या करते हैं , धर्म क्या है ? लॉज ऑफ लॉर्ड । धर्म मतलब क्या है ? भगवान के नियम है , यही धर्म है । लॉज ऑफ लँड अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन लॉज ऑफ लॉर्ड एक ही है , सभी के लिए एक ही नियम है । वैसेही उर्ध्वम गच्छती एक नियम है । जिसका जन्म होगा उसकी मृत्यु निष्चित है । यही एक मूल नियम है यह सब को लागू होता है कि नहीं ? सब को लागू होता है एवं ब्रह्मा को भी लागू होता है । ब्रम्हा भी बच नहीं पाते , तो हम कहते हैं आप ने जन्म लिया है ,मृत्यू प्रमाणपत्र हाथ में लेकर आप जन्में हो , आप जो भी हो , जहां के भी हो या जिस योनि में आपको जन्म मिला है या जिस युग में सत्य , त्रेता , द्वापर कली जीस युग मे आप ने जन्म लिया है , जिस देश में या जिस लोक में , स्वर्ग लोक में या पृथ्वी लोक में आप ने जन्म लिया है तो मृत्यु निश्चित है । लॉज ऑफ लॉर्ड है जो सबको लागू होते हैं , सभी के लिए है । यहां कोई भेदभाव नहीं है प्रेम का भेद नहीं है या देश का भेद नहीं है या धर्म का भेद नहीं है सबके लिए भगवान के नियम एक जैसे हैं । हम कृष्ण को नहीं मानते हम अल्लाह को मानते हैं ऐसा कोई कहेगा , तो कृष्ण और अल्लाह दो भगवान है क्या ? नाम तो हो सकते हैं कोई सूर्य कहेगा , तो कोई भानु कहेगा , कोई रवि कहेगा , कोई मार्तंड कहेगा यह तो सूर्य के नाम हो गए । सूर्य के नाम कितने हैं ? द्वादश है । सूर्य नमस्कार में हम एक-एक नाम लेते हैं भानवे नमः , भानु को नमस्कार , सूर्याय नमः एक-एक नाम सूर्य का लेते हैं और सूर्य नमस्कार होता है । कई सारे नाम है अल्लाह है , जहुआ है । "ईश्वर अल्लाह तेरे नाम सबको सन्मति दे भगवान" ऐसा भी गांधी कह कह के थक गए लेकिन किसी को समझा तो नहीं । समझते है की अलग अलग है , ईश्वर अलग है और अल्लाह अलग है । भगवान एक ही है इसीलिए लॉस ऑफ लॉर्ड , भगवान की नियम भी एक ही है और सभी के लिए एक ही नियम है और वह नियम वैसे आप शास्त्रों में भी पाओगे । आप विस्तार से पढ़ने पर समझ पाओगे लेकिन वेद , पुराण , स्मृति , श्रुति , इतिहास वेदांत सूत्र , ब्रह्म सूत्र का या व्यास सूत्र का आशय है , भागवतम यह सारे ग्रंथ और फिर गौड़िय वैष्णव का अपना वांग्मय है । ऐसा वांग्मय तो फिर और कोई नहीं है । प्रभुपाद पॉकेट डिक्शनरी एंड इनलारज कंप्लीट डिक्शनरी की बात कहते हैं , कुरान , बायबल यह पॉकेट डिक्शनरी है , संक्षिप्त मे कुछ कहा है और लिखा है लेकिन उसको विस्तार से अगर समझना है तो फिर आपको गीता भागवत की और मूढणा होगा और लोग मूड रहे हैं । कई प्रश्नों के उत्तर उनको बाइबल में , कुरान में नहीं मिल रहे हैं । इस सृष्टि की रचना कैसे हुई ? भगवान व्यस्त थे सृष्टि बनाने में और सातवे दिन उन्होंने विश्राम लिया और वह सातवा दिन रविवार था । ऐसी एक सीधी बात है ऐसा कुछ ? सृष्टि कैसे हुई ऐसा समझाया है अब्राहम एक रिलीजन कहे हैं , अब्राहम फिर आगे हुए मोजेस ,जीसस और मुहंमद यह रिलिजन या धर्म अब्राहम ने दिया है। हरि हरि। इससे हमारा समाधान नहीं होता, प्रश्नों के उत्तर प्राप्त नहीं होते। इसीलिए लोग भागवत और गीता की ओर मुड़ रहे है, और इसीलिए अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संग का प्रचार-प्रसार हो रहा है। और श्रील प्रभुपाद कहे थे कि, ग्रंथ ही आधार है! केवल भावुक नही होना चाहिए। हमे कैसा होना चाहिए? धार्मिक और और साथ में तत्वज्ञान ही होना चाहिए। केवल धर्म या तत्वज्ञान नही, दोनों साथ में होना चाहिए। प्रभुपाद ने हमे भगवतगीता, भागवत, चैतन्य चरितामृत ऐस ग्रंथ दिए है। जिसे पढ़कर हमारा समाधान हो जाता है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। आपको सुनाने के लिए कहानी नहीं कह रहे हम! आधी जनता तो मीठी नींद का आस्वादन कर रही है। वह मेरे जप चर्चा के साथ दिव्य अनुभव कर रहे है। तो यह अलग-अलग स्थान है जिसके बारे में हम कल और आज बात कर रहे है। तो नर्क है, स्वर्ग है, देवी धाम और महेश धाम है। शिव जी का भी अपना धाम है। और फिर विरजा नदी को पार करते है तो कृष्ण कहते है, *ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः | जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः || भगवतगीता १४.१८ अनुवाद:- सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं,रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं ।‌ हमें तीन गुणों के परे जाना हे। जब हम गुनातीत होंगे तभी हम साधक या भक्त बनके, संसार और ब्रह्मांड के बाद दूसरा स्थान है, जो सनातन जगत हे उसमे में जब पहुंच पाएंगे? जब हम गुनातीत हो जाएंगे, द्वंद से अतीत हो जाएंगे। स्वर्ग और नरक के लिए भी द्वंद है। यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः | समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते || भगवतगीता ४.२२ अनुवाद:-जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं | द्वन्द्वातीतो विमत्सरः जब इस द्वंद से परे हो जायेंगे, अभी तो सब एयरलाइंस का दीवाना निकला है, लेकिन 10 या 20 साल पहले TWA trans world airline यानी इस दुनिया से परे ऐसे नाम की एक एयरलाइन थी। वह वैकुंठ से आया हुआ विमान नहीं था! लेकिन हरे कृष्ण भक्त उसके साथ कोई भाव विचार जोड देते थे। तो गुणातित होंगे तो फिर हम अतीत में हम पहुंच जाएंगे। या ऐसा जगह जहां पर सृष्टि होती है और प्रलय भी होता है यह भी एक द्वंद है। सृष्टि भी हे और वही प्रलय हुआ तो यह ऐसा द्वंद है। तो फिर विरजा नदी को पार करते ही ब्रह्मज्योति का सामना करना पड़ता है। ठीक है, हम धार्मिक तो थे लेकिन निराकार या निर्गुणवादि थे या अद्वैतवादी थे तो हमारी पोहोंच बस ब्रह्मज्योती तक रहेगी। आओंका आपका भगवान के रोक दो ना लेला और धाम में विश्वास नहीं था तो ब्रह्मा ज्योति मैं समा जाते हैं लेकिन जो, जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः | त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन || भगवतगीता ४.९ अनुवाद:- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है | ऐसा व्यक्ति जो भगवान का जन्म और उनकी लीलाये दिव्य है ऐसा मानता है, यानी भगवान जन्म लेते हैं लेकिन भगवान की मृत्यु नहीं है क्योंकि भगवान अजन्मा है। भगवान का शरीर नहीं है मतलब, भगवान का भौतिक शरीर नहीं है। भगवान का दिव्य स्वरूप है और इसको जो जानते है, तो भगवान कह रहे हैं चौथे अध्याय मे की, इसको जानने वालों का पुनःजन्म नहीं होगा। किसी योनि में उनको जन्म नहीं लेना होगा! ना तो आप स्वर्ग जाओगे ना नर्क जाओगे। अमेरिका देशे दियो वास तुलसी कृष्ण प्रेयसी नमो नमः हमारा जो विजा है वह ग्रैंड हो जाए ताकि हम अमेरिका जा पाएंगे। बाबा बाबा बोला करो, लेकिन बाबा ने तो कोका कोला बाबा ने कहा यानि वह कोका कोला देश गए होंगे। तो भगवान ने कहा उनको जो तत्वतः जानते हैं मतलब उनके नाम, रूप, गुण, लीला, धाम को जानते है, तो वे इन ब्रह्मांड से परे विरजा को पार करके ब्रह्मज्योति जी से आगे बढ़ते हैं। मंत्र पन्द्रह हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् । तत् त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥१५ ॥ ईशोपनिषद १५ अनुवाद:- हे भगवन् , हे समस्त जीवों के पालक , आपका असली मुखमंडल तो आपके चमचमाते तेज से ढका हुआ है । कृपा करके इस आवरण को हटा लीजिए और अपने शुद्ध भक्त को अपना दर्शन दीजिए । यह ईश्वर से प्रार्थना है, भक्त प्रार्थना कर रहे हैं हिरण्मयेन पात्रेण जो भवपाश हे उसको हटाएं और मुझे मुक्त कीजिए। और इस भक्तों को आपके चरण का और मुख मंडल का, सर्वांग का दर्शन दीजिये ऐसी प्रार्थना है। तो भक्त के लिए, वैष्णव के लिए जो राधा कृष्ण के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम को स्वीकार करते हैं और उसका अनुभव किया हुआ है उसको कोई रोक नहीं है। वह ब्रह्मांड के बाहर निकल आएगा वैसे वैकुंठ विमान में बैठकर आएगा तो विरजा नदी को पार करेगा और दिव्या ब्रह्मांड या आकाश है जैसे भौतिक आकाश में कई सारे नक्षत्र है वैसे ही उस दिव्य आकाश में कई सारे ग्रह है जिसे वह वैकुंठ ग्रह या लोक कहते है। इस भौतिक जगत में जिसने भी भगवान का स्मरण किया बस इतना करना स्वामी, जब प्राण तन से निकले गोविंद नाम लेकर प्राण तन से निकले ऐसी प्रार्थना भगवान ने भी सुनी साधक का वैकुंठ लोक में स्वागत होगा और फिर जैसे कल चर्चा हो रही थी जिनकी भक्ति दास्य भाव से सीमित है उनकी वैकुंठ पोहोंच वैकुठ तक की है और जो ऐश्वर्या मिश्रित दास्य और वात्सल्य है वह भी वैकुंठ तक जायेंगे। या उसमें से कोई साकेत लोग है अयोध्या वहां जायेंगे। जो विष्णु लोक में पहुंचते हैं उन्हें वैष्णव कहा जाता है। वैसे कृष्ण को भी विष्णु कहा जा सकता है। तो जो गौडीय वैष्णव है वह जो सर्वोपरि या सर्वोच्च वैकुंठ है, गोलोकधाम है जो भगवान के द्विभूज रूप का धाम हे। वैकुंठ में तो चतुर्भुज होते हे। शंख, चक्र, गदा और पद्म धारी होते हे। किंतु द्विभूज के पुजारी है वह गोलोक वृंदावन पहुंचेंगे। गोलोक में ही द्वारका और मथुरा है। गौडीय वैष्णव है वह द्वारका और मथुरा को पसंद नहीं करेंगे वे वृंदावन को पसंद करेंगे। उस वृंदावन से जहां से भगवान एक पग भी बाहर नहीं जाते। वृंदावन परित्येज्य अकम पादः न गच्छन्ति तो जो मथुरा जाते हैं या द्वारका जाते हैं वह कृष्ण नहीं है क्या? कृष्ण नहीं है तो और कौन है? तो सुनो! द्वारका में भगवान पूर्ण है, मथुरा में पूर्णतर हे और वृंदावन में भगवान पूर्णतम है। हरि हरि। तो वृंदावन या गोलोक में अधिकतर माधुर्य रस का प्राधान्य है। जय जयोज्ज्वल-रस सर्व रससार परकीया भावे याहा, व्रजेते प्रचार ।।10।। जय राधे, जय कृष्ण, जय वृन्दावन वैष्णव गीत अनुवाद:- समस्त रसों के सारस्वरूप माधुर्यरस की जय हो, परकीय भाव में जिसका प्रचार श्रीकृष्ण ने व्रज में किया। तो फिर वृंदावन में तो यह परकीय भाव का प्रचार है। माधुर्य लीला का प्रचार और आचार है। तो ऐसे माधुर्य लीला का आस्वादवान और प्रचार करने हेतु चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए थे। अनर्पित चरिम चिरातकरुंयावतीर्ण: कलौ समरयितुमुन्नतुज्जवल- रसां साव-भक्ति-श्रियं।हरि:पुरट-सुंदर-द्युति-कंदम्ब-संदीपित: सदा हृदय-कंदरे स्फुरतु व: शची- नंदन:।। ( श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.4) अनुवाद: श्रीमती शचीदेवी के पुत्र के नाम से विख्यात वे महाप्रभु आपके हृदय की गहराई में दिव्य रूप में विराजमान हैं। पिघले सोने की आभा से दीप्त, वे कलियुग में अपनी अहैतुकी कृपा से अपनी सेवा के अत्यंत उत्कृष्ट तथा दीप्त आध्यात्मिक रस के ज्ञान को, जिसे इसके पूर्व अन्य किसी अवतार ने प्रदान नहीं किया था, प्रदान करने के लिए अवतीर्ण हुए हैं। मतलब बोहोत समय के उपरांत, ब्रह्मा के 1 दिन जिसको कल्प बोलते है, उसमें भगवान केवल एक ही बार प्रकट होते है जो की द्वापर युग में और उसके बाद का जो कलयुग होता है उसमें चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट होते हैं अनर्पित चरिम चिरातकरुंयावतीर्ण: कलौ करुणा की मूर्ति श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रगट हुए। और प्रगट हो कि उन्होंने क्या किया? उन्नत उज्वल रस देने के लिए प्रगट हुए। तो क्या देने के लिए ? उन्नत उज्वल रस यानी सर्वोच्च रस। मतलब यह गोपिभाव और राधाभाव भक्ति को बांटने के लिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रगट हुए। श्री कृष्ण प्रेम प्रदायते यानी प्रेम के दाता, जो इस भक्ति के जो शिक्षा ग्रहण करके आचरण करते हे। तो मृत्यु के समय उनका ऐसा भाव होगा तो उनका गंतव्य निश्चित है। उनको न तो नर्क जाना है न तो सर्ग जाना है, न ब्रह्मज्योती में विलीन होना है तो वे सारे लोकों को पार करके अपने अपने भावके अनुसार या वैदी साधना और रागानुग साधना उसके अनुसार वे राधा कृष्ण को प्राप्त करते है। वृंदावन को प्राप्त करते हैं! उनके लिए राधा कृष्ण प्राण मोर युगल किशोर होते है। हरे कृष्ण!

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