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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक ०१.०३.२०२१ 714 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। पृथ्वी में गंध होता है और आज मुझे जब माला पहनाई गई इन मोगरा के फूलों कि जो कि बहुत सुगंधित है तो सुगंधते ही मुझे स्मरण आया, हालांकि मैं अलग से नहीं सुंघ रहा था मैं तो केवल स्वास ही ले रहा था,सबसे पहले तो कृष्ण ने इसके बारे में क्या कहा है मुझे यह स्मरण आया कि भगवान भगवद्गीता में कहते हैं कि पृथ्वी में जो गंध है वह मैं हूं। पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्र्चास्मि विभावसौ | जीवनं सर्वभूतेषु तपश्र्चास्मि तपस्विषु || भगवद्गीता 7.9|| मैं पृथ्वी की आद्य सुगंध और अग्नि की ऊष्मा हूँ | मैं समस्त जीवों का जीवन तथा तपस्वियों का तप हूँ| इसलिए जब हम उल्लास का अनुभव करते हैं तो वहां कृष्ण हैं,ऐसा कृष्ण ने हीं कहा है।इसलिए जब कभी आप उदासित हो रहे हो तो उद्यान में जाओ और पुष्पों की सुगंध को सुंघो।या घर में भी किसी सुगंधित वस्तु को सुंघ सकते हो। हरि हरि।। गौरांग। और फिर कुछ और ही विचार आया कि सत्यानाश भी कर देते हैं हम उसी सुगंध का,जब उन्ही पुष्पों कि सुगंध से सौंदर्य प्रसाधन बनाते हैं। फिर उसका लेपन होता है और कुछ लोग फिर उसी सुगंध से मोहित होते हैं। और माया में फस जाते हैं। तो वह सुगंध माया कि सुगंध है। शायद आप नहीं समझे होंगे या समझ ही गए होंगे। ज्यादा मैं नहीं कहना चाहता हूं,आप स्वयं बुद्धिमान है। सुगंध को ही हम दुर्गंध बना देते हैं। समझते तो है कि यह सुगंध है लेकिन वह मायावी सुगंध होती हैं। उसमे माया का नशा आ जाता है। सुगंध तो सीधे कृष्ण से आती है लेकिन जब हम उसे मायावी बना देते हैं तो माया कि दुर्गंध आ जाती है। अगर हम किसी उद्यान में भ्रमण कर रहे हो और वहां अगर कोई फूल देंखें तो दो प्रकार के लोग हो सकते हैं और दो प्रकार के लोग दो प्रकार के ही विचारों से प्रभावित होंगे पहले प्रकार के जो लोग हैं वह यह सोचेंगे कि देखो कितना सुंदर फूल है। इन फूलों कि मैं माला बना लूंगा और राधा माधव को पहनाऊंगा एक विचार यह है और दूसरे प्रकार का व्यक्ति सोचेगा या यूं कहें कि दूसरा विचार यह है कि देखों कितना सुंदर फूल है,इसको मैं अपनी प्रेमिका को दे दूंगा। फूल तो एक ही है लेकिन विचार अलग-अलग है। हम ही हैं जो उसको कृष्ण के केंद्रित अथवा माया के केंद्रित करते हैं। चाहे वह पुष्प हो,फल हो या फूल हो। यह मैं कहना तो नहीं चाहता था पर कह दिया और जो भी कहा मैंने झूठ तो नहीं कहा,वह सत्य ही है। इस संसार में कई अलग-अलग स्थान है और संसार के भी दो प्रकार हैं ।हम संसार कह सकते हैं या साम्राज्य कह सकते हैं और दोनों साम्राज्य भगवान के ही हैं। एक प्राकृतिक साम्राज्य है और दूसरा दिव्य साम्राज्य है। एक लौकिक साम्राज्य है और दूसरा आलौकिक साम्राज्य। इसमें कई सारे स्थान है या स्थानों के प्रकार हैं। इसमें कई सारे स्थान है या स्थानों के प्रकार हैं और उन स्थानों के साथ अलग-अलग भाव जुड़े हैं और हमारे अंदर जिस प्रकार का भाव हैं हम उस स्थान पर जाएंगे या हमें भेजा जाएगा। वही हमारा गंतव्य स्थान बनेगा। अन्तवत्तुफलंतेषांतद्भवत्यल्पमेधसाम्| देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्तायान्तिमामपि || भगवद्गीता 7.23 अल्पबुद्धि वाले व्यक्ति देवताओं की पूजा करते हैं और उन्हें प्राप्त होने वाले फल सीमित तथा क्षणिक होते हैं | देवताओं की पूजा करने वाले देवलोक को जाते हैं, किन्तु मेरे भक्त अन्ततः मेरे परमधाम को प्राप्त होते हैं | ना चाहते हुए भी हमारे भाव और चेतना के अनुसार हमें भेजा जाएगा। ऐसे ही भक्ति के विभाग होते हैं। जैसे 7 गौन भाव या रस है। और 5 प्रधान भाव हैं। जैसे शांत,दास्य,वात्सल्य,माधुर्य तथा साखय। यह भी भाव,रस या भक्ति के प्रकार कहलाते हैं। हममें जो भी भाव होता है उनके अनुसार हमारे अलग-अलग गंतव्य स्थान बनते हैं। यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्| तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ||भगवद्गीता 8.6 || हे कुन्तीपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है | श्रीभगवानुवाच कर्मणा दैवनेत्रेण जन्तुर्देहोपपत्तये। स्त्रिया: प्रविष्ट उदरं पुंसो रेत: कणाश्रय:॥१॥ (श्रीमद भागवतम-3.31.1) हमारे कर्म से ही भाव बनते हैं। हम जैसा भी कर्म करते हैं या फिर अकर्म करते हैं या विकर्म करते हैं ,उसी के अनुसार हमारे अलग-अलग भाव उदित होते हैं।हम अलग-अलग भाव विचार या भावना वाले व्यक्ति बन जाते हैं। और मृत्यु के समय जिस प्रकार का हमारा विचार होगा ,उसी के अनुसार हमें अलग-अलग योनि प्राप्त होती है या योनि प्राप्त ना भी हो, कैसे जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः| त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन|| भगवद्गीता 4.9|| हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है| ऐसा भी हो सकता है कि हमारा पुनर्जन्म ना हो।हम मुक्त हो जाएं अगर हम भक्त होंगे तो मुक्त भी हो जाएंगे।हमे भावों के अनुसार ही अलग-अलग जगह पर भेजा जाएगा। तो इस संसार में जिसको मैंनें साम्राज्य भी कहा,भगवान का साम्राज्य और साम्राज्य के दो प्रकार भी बताये भौतिक साम्राज्य और आध्यात्मिक साम्राज्य।सबसे नीचे नर्क है और ऊपर स्वर्ग है।आपने अगर किसी प्रकार की भक्ति या धर्म के कर्म नहीं किए तो आप नरक जाएंगे।कृष्ण ने ऐसा कहा हैं कि नरक के तीन द्वार हैं काम,क्रोध और लोभ।वैसे 6 होने चाहिए और हैं भी लेकिन भगवान ने तीन का ही नाम लिया।या बड़े-बड़े 3 द्वार है।काम द्वार,क्रोध द्वार,लोभ द्वार।यदि हम कामी,क्रोधी या लोभी है तो सीधे ही हमे नरक मे भेजा जाएगा। या फिर हमारा यमदूत से ही लेनदेन होगा और यमदूत ही नियंत्रित करेंगे फिर हमें। लेकिन यमराज केवल यमदूतो को ही हमारे पास नहीं भेजते वह विष्णु दूतों को भी भेज सकते हैं क्योंकि यमराज वैसे महा भागवत हैं,वैष्णवो को यमराज से डरना नहीं चाहिए। डरना तो उनको चाहिए जो चोर है नरक में कौन जाते हैं ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः| जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः|| भगवद्गीता 14.18|| सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं,रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं ।‌ ऐसा भगवान ने कहा है कि पापी नीचे जाते हैं यानि नरक‌ जाते हैं।और स्वर्ग में कुछ धार्मिक लोग जाते हैं, उनको धार्मिक कहा जा सकता है। वैसे ऐसे धर्म को भगवान ने तो कहा है सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः|| भगवद्गीता 18.66 || समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत। वो धर्म तो है लेकिन उसको भी त्यागो। लेकिन लोग त्यागते नहीं हैं।और कर्मकांड करते रहते हैं।लोग यज्ञ करते हैं और देवताओं के पुजारी बनते हैं अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्| देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि|| भगवद्गीता 7.23|| अल्पबुद्धि वाले व्यक्ति देवताओं की पूजा करते हैं और उन्हें प्राप्त होने वाले फल सीमित तथा क्षणिक होते हैं | देवताओं की पूजा करने वाले देवलोक को जाते हैं, किन्तु मेरे भक्त अन्ततः मेरे परमधाम को प्राप्त होते हैं| जो देवी देवताओं के पुजारी हैं वे स्वर्ग जा सकते हैं। स्वर्ग में भी कोई भक्ति भाव तो नहीं है वहां तो भोग कि वासना ही है। भोग विलास के लिए ही व्यक्ति स्वर्ग जाता है भक्ति के भाव या पांच प्रकार के भक्ति के रस स्वर्ग में नहीं है। स्वर्ग में तो भुक्ति है।आपको समझ आ रहा होगा कि कौन स्वर्ग जाता है,कौन-कौन नर्क जाता है।तो वैष्णव को ना तो स्वर्ग जाने में कोई दिलचस्पी होती है ना नरक जाने में। हां पर जा भी सकते हैं।वैष्णव के लिए तो स्वर्ग और नर्क सब समतुल्य है,अगर भगवान कि सेवा का कोई कार्य हैं तो वह कहीं भी जा सकते हैं। एक और गंतव्य स्थान हैं ब्रह्म ज्योति।चलो स्वर्ग और नर्क से परे तो पहुंच गए या मुक्त हो गए,ऐसी विचारधारा से मुक्त हो गए जो हमको नर्क में भेज सकती हो या उस विचारधारा से या उस भाव से भी मुक्त हो गए जो हमको स्वर्ग भेज सकते हो। यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः| समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते|| भगवद्गीता 4.22 || जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं| एसी स्थिति को भगवान कहते हैं,द्वंद से परे। द्वंद भी कई प्रकार के हैं। फिर उसमें स्वर्ग और नर्क भी द्वंद है। उसके पार पहुंच जाते हैं।जो कर्मी होते हैं यानी कि कर्मकांड करने वाले,स्वर्ग जाते हैं और जो ज्ञानी होते हैं ज्ञान योगी नहीं। ज्ञान योगी होना और ज्ञानी होना अलग है । karma-kāṇḍa, jñāna-kāṇḍa, kevala viṣera bhāṇḍa (श्री प्रेम भक्ति चंद्रिका 8.8) कर्मकांड और ज्ञान कांड के विष का प्याला है या यूं कहें कि जहर ही है । ज्ञान कांड उस ज्ञान कांडी को ब्रह्म ज्योति में लीन कराएगा।जोत से जोत मिलाएगा।जिसके भाव है कि अहम् ब्रह्मास्मि।जो निराकार निर्गुण को लेकर बैठे रहते हैं। जो अद्वैत सिद्धांत से प्रभावित होते हैं और जो शंकराचार्य के अनुयायी होते हैं और बड़ी संख्या में ऐसे जन इस संसार में है।वो हिंदू भी हो सकते हैं या मुस्लिम भी हो सकते हैं। मुस्लिम तो बड़ी संख्या में मायावादी हैं। मायावादी का मतलब भौतिक वादी होना नहीं है। यह भी हमको समझ में नहीं आता।मायावादी कुछ-कुछ तो अध्यात्मवादी होता है किंतु है अद्वैतवादी या निराकार, निर्गुण वादी। तो बताओ क्या हमारे मुस्लिम भाई भगवान के रूप को मानते हैं? उनके मस्जिद में जाओ तो क्या कोई भगवान का रूप हैं? और जो आर्य समाजी हिंदू कहलाते हैं तो आर्य समाज में भी भगवान का कोई रूप नहीं है। तो आर्य समाजी हिंदू और मुसलमान एक ही हो गए। यह सब अद्वैत वादी हैं निरविशेष शुनयवादी पाश्चात्य देश तारिने। श्रील प्रभुपाद गोरवाणी का प्रचार करके संसार भर के हिंदुओं को भी और आर्य समाजियों को भी,मुसलमानों को भी और ईसाइयों को भी सही राह दिखा रहे हैं। और बता रहे हैं कि यह सब धर्म वास्तविक धर्म नहीं है। इसलिए भगवान ने कहा कि सर्वधर्मान्परित्यज्य। हरि हरि।। यह जो तुम मुस्लिम धर्म या आर्य समाजी धर्म को लेकर बैठे हो उसको भी त्यागो।कर्मकांड का धर्म,ज्ञान कांड का धर्म,भुक्ति,मुक्ति,सिद्धि का जो धर्म है यह सारे त्याग कर केवल मेरी शरण लो।जब व्यक्ति नर्क और स्वर्ग के परे पहुंच जाता हैं, ब्रह्मांड से बाहर निकल जाता हैं और विरजा नदी को भी पार कर जाता हैं,तो जो ब्रह्म वादी मायावादी या अद्वैत वादी इनकी जो मंडली है जब विरजा नदी को पार कर जाते हैं तो ब्रह्म ज्योति इनका स्वागत करती है,सब ब्रह्म में लीन हो जाते हैं प्रभुपाद कहते हैं कि हां उन्होंने भगवान के धाम में प्रवेश तो प्राप्त कर लिया है लेकिन भूमि पर नहीं उतर पाए हैं,ऐसे ही हवा में लटक रहे हैं। ना भगवान से हाथ मिला सकते हैं।बस ऐसे ही हवा में लटके रहते हैं। यह आत्महत्या ही है।माया वाद में आत्महत्या होती है।वैसे आत्मा की हत्या नहीं हो सकती लेकिन एक प्रकार से आत्महत्या ही है।भक्ति रसामृत सिंधु में रूप गोस्वामी प्रभुपाद ने साधना भक्ति के दो प्रकार बताए हैं एक है वेदी भक्ति और दूसरी है रागानुगा भक्ति। वेदी भक्ति के विधि-विधानो का पालन करते हुए जो भगवान महान है और हम लहान हैं इस भाव के साथ या फिर दास भाव या दास्य रस मे जो भगवान की भक्ति करते हैं जो विष्णु रूप की भक्ति करते हैं,भगवान के अलग-अलग अवतारों की भक्ति करते हैं । advaitam achyutam anadim ananta-rupam adyam purana-purusham navayauvanam cha vedesu durlabham adurlabham atma-bhaktau govindam adi-purusham tam aham bhajami (ब्रह्म संहिता 5.33) जो दास्य रस में भगवान की भक्ति करते हैं वह बैकुंठ को प्राप्त होते हैं। वैकुंठ भी अनेक हैं।कुछ शांत रस वाले भी हो सकते हैं जो बैकुंठ में जाते हैं।भगवान महान है यह तो जानते हैं,ज्ञान तो है,साक्षात्कार तो है लेकिन वह सेवा भाव अभी जागृत नहीं हुआ।अभी तक वह भगवान के लिए हाथ पैर हिलाना नहीं चाहते।भगवान महान है यह विचार तो दिमाग में होता है किंतु सेवाभाव नहीं होता। तो यह लोग हैं शांत रस वाले।हो सकता है इनमें से कुछ वृक्ष बने,कुछ पहाड़ बने।तो पूरे वैकुंठ में शांत और दास्य रस वाले भक्त फैलै रहते हैं।वेदी भक्ति का पालन करके वे साधना में सिद्ध होते हैं। उनका गमन वैकुंठ में होता है या फिर आगे के जो भक्ति भाव या रस है या भगवान के साथ संबंध हैं। यह रस मतलब संबंध भी है।भगवान के साथ शांत रस का संबंध,दास्य रस का संबंध। मतलब हम हैं दास और भगवान है स्वामी ।यह संबंध है।ऐसी समझ है कि भगवान महान है हम उनके दास हैं।शांत और दास्य रस से ऊपर वाले,और पूर्ण और अधिक विकसित रस वाले रस या भाव या भक्ति के प्रकार हैं,साखय रस,वात्सल्य रस और माधुर्य रस है। हल्का सा साखय रस बैकुंठ में भी हो सकता है या उस साखय रस को कहा गया है ऐश्वर्य मिश्रित साखय रस।अर्जुन का जो साखय रस है,भगवान ने कहा तो सही कि तुम मेरे सखा हो लेकिन उस रस मे ऐश्वर्य और ज्ञान भी हैं कि भगवान परमेश्वर हैं महान हैं और फिर गोलोक में भी सखा हैं।परंतु एक ऐश्वर्य ज्ञान शूनय सखा हैं।जैंसे तुम कौन से घराने के हो?तुम क्या बड़े हो?तुम और हम एक से हैं।चलो खेलो।हम तुमको हराते हैं,तुम हार गए।चलो घोड़ा बनो। हम तुम्हारे कंधे पर बैठेंगे।अब घोड़े तो बन गए लेकिन दौड़ते क्यों नहीं।तो ऊपर बैठने वाला जो मित्र है कृष्ण का वह अपने पैर से लात मार सकता है,ए घोड़े चलो दौड़ो।कृष्ण खेल-खेल में घोड़े बने हैं।तो यह जो साखय रस है ऐसा रस अर्जुन के लिए संभव नहीं है। वैसे अर्जुन तो गोलोक के भक्त हैं गोलोक में भी अलग अलग सतर हैं। गोलोक में हस्तिनापुर भी है,गोलोक में द्वारिका भी है,गोलोक में मथुरा भी है और फिर गोलोक में ही सर्वोपरि है वृंदावन धाम।वृंदावन धाम की जय।। केवल इतना तो नहीं है और भी है लेकिन आज जितना भी आपने सुना हैं यह सब विचार,यह भाव या भक्ति के प्रकार या भक्ति ही हैं या भुक्ति है भुक्ति का परिणाम,भुक्ति का फल कि आप कहां जाओगे आपको कौन सा शरीर प्राप्त होगा। पुण्य कर्म किया आपने तो पुण्यात्मा बनोगे। कोई साधारण पुण्य भी हो सकता है और कोई दिव्य अलौकिक पुण्य भी हो सकता हैं शृण्वतां स्वकथाः कृष्णः पुण्यश्रवणकीर्तनः। हृद्यन्तःस्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम्॥ श्रीमद भागवतम- 1.2.17 प्रत्येक हृदय में परमात्मास्वरूप स्थित तथा सत्यनिष्ठ भक्तों के हितकारी भगवान् श्रीकृष्ण , उस भक्त के हृदय से भौतिक भोग की इच्छा को हटाते हैं जिसने उनकी कथाओं को सुनने में रुचि उत्पन्न कर ली है , क्योंकि ये कथाएँ ठीक से सुनने तथा कहने पर अत्यन्त पुण्यप्रद हैं। लेकिन देवताओं की पुण्य की बात करें तो वह पुण्य का प्रकार अलग है। स्वर्ग में पुण्य का प्रकार अलग है।नारद जी एक समय स्वर्ग में गुणगान कर रहे थे और उस सभा में कुछ स्त्रियां भी थी और पुरुष भी। सभी देवी और देवता उपस्थित थे।उस सभा में नारद जी ने देवताओं के अनेक गुण गाए। पुण्यात्मा तो बने लेकिन देवताओं के गुण गा कर उन्होंने अपराध किया।उनसे दूसरा नाम अपराध हुआ कि भगवान के नाम, भगवान कि गुण गाथा की तुलना देवी देवताओं के गुणों के साथ की। देवी देवताओं के साथ भगवान की कोई तुलना नहीं हो सकती।यह सोचना कि वे समकक्ष है यह अपराध है। तो मैं यह समझाना चाह रहा हूं कि पुण्य- पुण्य में भी अलग-अलग प्रकार हैं। भौतिक पुण्य को कमाओ तो स्वर्ग जाओ और दिव्य पुण्य या अलौकिक पुण्य कमाओ तो बैकुंठ जाओ। जब नारद जी देवताओं का इतना गुणगान गा रहे थे,तो उनसे अपराध हुआ। उसी के कारण उनको अगले जन्म में शूद्रानी का पुत्र बनना पड़ा। उनको शराप दिया गया कि शुद्र बनो।तो इस तरह नाराज जी शूद्रानी के पुत्र बने।तो अब यहां रुकेंगे।इसी विषय को कल आगे बढ़ाएंगे। कल के लिए कुछ विषय को बचा कर रखना होगा हरे कृष्ण।।

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