Hindi

हरे कृष्ण !! जप चर्चा पंढरपुर धाम दिनांक 28 फरवरी 2021 आज हमारे साथ 666 स्थानों से भक्त जप कर रहे है। हरि हरि। तो हमारे साथ इतने सारे स्थानों से भक्त जप कर रहे है। श्रील नरोत्तम दास ठाकुर की जय! उनका अभिरभाव तिथि महोत्सव है। नरोत्तम यानी नर में उत्तम, उन्हें जीव गोस्वामी कहे थे कि तुम नर में उत्तम हो इसीलिए नरोत्तम कहलाओगे। वे लोकनाथ गोस्वामी के शिष्य रहे। और जीव गोस्वामी के भी शिष्य रहे, शिक्षा शिष्य है। हरि हरि। तो नरोत्तम दास ठाकुर का आज भी कुछ अधिक स्मरण हम करेंगे। वह गुणों की खान थे, उनमें कई सारे अच्छे गुण थे। वैसे वैष्णव तो गुणों की खान होते ही है! जैसे ही कृष्ण कथा होती रहती है। कोई-कोई सप्ताह के लिए करते है, जिसे भागवत सप्ताह कहा जाता है। हमारे आचार्य की कथा भी सप्ताह के लिए हो सकती है, या अधिक समय के लिए भी हो सकती है। वैसे भागवत कथा या चैतन्य भागवत कथा, गौर कथा और गौर भक्त कथा में कोई अंतर नहीं है। केवल कृष्ण की कथा करो, कृष्ण के भक्तों का नाम भी नहीं लेना ऐसा कभी भी संभव नहीं है। कृष्ण की कथा, कृष्ण के भक्तों के उल्लेख के बिना कर ही नहीं सकते! और केवल भक्त की कथा करना कृष्ण का नाम ही नहीं लेना यह भी संभव नहीं है। तो कृष्ण की कथा कृष्ण भक्त की कथा बन जाती है और भक्त की कथा भी कृष्ण की कथा हो जाती है। तो नरोत्तम दास ठाकुर का यह भी कहना था चैतन्य महाप्रभु के समय इस धरातल पर इतने सारे असंख्य भक्त थे उनकी गणना कौन कर सकता है! केवल अनंत शेष प्रयास कर सकते है। तो इन सभी भक्तों का केवल राधाकृष्ण से ही संबंध नहीं था इनके लिए राधा कृष्ण प्राण नहीं थे, या गौर नित्यानंद ही उनके प्राण नहीं थे किंतु इन सभी भक्तों का आपस में एक दूसरों के प्रति भी बहुत प्रेम था, मैत्री थी। इसका भी हम कब सीखेंगे यह भी सीखना होगा केवल भगवान से प्रेम नहीं करना है, भगवान के भक्तों से भी प्रेम करना है! वैष्णव सेवा और वैष्णव प्रेम या वैष्णव से मैत्रीपूर्ण व्यवहार यह सीखने को मिलता है गौडीय वैष्णव परंपरा में,और उनके चरित्रों के अध्ययन से। तो नरोत्तम दास ठाकुर भी कई सारे गीत लिखे जैसे आपको बताया तो उन गीतों में एक प्रसिद्ध गीत यह भी है, जे आनिल प्रेम -धन करुणा प्रचुर । हेन प्रभु कोथा गेला आचार्य ठाकुर ।।1।। तो यह नरोत्तमदास ठाकुर की रचना जब हम पढ़ते हैं या गाते हैं तो उसे एक संकेत मिलता है की, हम समझ सकते हैं एक-एक भक्त और प्रस्थान कर रहे है, उनका तिरोभाव हो रहा है, यह जैसे ही नूरोत्तमदास ठाकुर को पता चलता है तो उनके विरह व्यथा से नरोत्तम दास ठाकुर परेशानी है, दुखी है, मर रहे हैं तो फिर उन्होंने यह गीत लिखा कहा की, कॉँहा मोर स्वरूप-रूप काँहा सनातन । काँहा दास रघुनाथ पतित पावन ।।2।। तो कहा *पाषाणे कुटिबो माथा, अनले पशिब। गौरांग गुणेर निधि कोथा गेले पाबो ।।4।। मैं तो आप अपना सिर फोड़ सकता हूं या अब मैं आग में प्रवेश कर कर करूंगा मुझसे यह विरह सहन नही हो रहा। ऐसा भाव नरोत्तम दास ठाकुर व्यक्त किए है। तो उनके ग्राम से वृंदावन की ओर आ रहे थे तब उन्हें पता चल रहा था कि, उन्हें यह गोस्वामी नहीं रहे वह गोस्वामी नहीं रहे तो यह सब सुनकर उन्हें कष्ट हो ही रहा था तो अब उनमें वृंदावन में बहुत समय बिताने के उपरांत जीव गोस्वामी ने नरोत्तमदास ठाकुर और श्यामानंद पंडित और श्रीनिवास आचार्य इनको गौड़िय ग्रंथ लेकर, बैलगाड़ी में लादकर बंगाल ले जाओ! और उसका वितरण करो प्रचार करो इस ज्ञान का प्रचार प्रसार करो! भक्ति पूरक ज्ञान! केवल ज्ञान योगियोंका ज्ञान नहीं! तो यह तीनो आचार्य यूपी या बिहार से बंगाल में जब वे पहुंचे तो वहां एक विष्णुपुर नामक के गांव में वे पहुंचे थे तो रात्रि के समय उनके सारे ग्रंथों की चोरी हो गई। तो वे सभी बहुत अच्छी-अच्छी कि हुए आचार्य चकित हुए और वह तीनों अलग-अलग स्थानों पर खोज रहे थे लेकिन ग्रंथों नहीं मिले। और फिर उन्हें पता चला कि वहां के राजा जो डाकू थे। वीरहम उनका नाम था। उन्होंने यह सोचकर से चुराया था कि, इसमें कुछ खजाना है, सोना चांदी है, क्योंकि वह इसको वृंदावन से लाए थे तो उनको लगा कि यह खजाना हो सकता है! वैसे यह खजाना ही था! ज्ञान का खजाना था! तो श्रीनिवासाचार्य कहे की मैं इसको संभालता हूं, यह जो चोरी हुई है मैं राजा से मिलूंगा और यह सब निपट लूंगा, आप आगे बढ़ो! तो नरोत्तम दास ठाकुर वृंदावन के लिए प्रस्थान किए। श्यामानंद प्रभु ओडिशा यानी नरसिंहपुर गए। तो नरोत्तम दास ठाकुर खेर जाने से पहले उन्होंने सोचा कि वे कभी नवद्वीप या जगन्नाथपुरी या शांतिपुर नहीं गए थे, या गौरमंडल भूमि और वहां के कई आचार्यों के तीर्थ नहीं गए और गंगा में उन्होंने स्नान नहीं किया था तो नरोत्तम दास ठाकुर सर्वप्रथम नवद्वीप आते है। और गंगा में स्नान करते है। गंगा मैया की जय! और गंगा के तट पर लौट जाते है। और गौरांग! गौरांग! गौरांग! करने लगते है। पुकारने लगते है। और पूछते हैं कि, शचिनंदन का निवास स्थान कहां है? तो एक बाबा जी उनको संकेत करते हैं और फिर नरोत्तम वहां पर पहुंचते है। लेकिन वहां पर शचिमाता, गौरांग और विष्णुप्रिया नहीं थे। वहां उनको शचिमाता के सेवक मिले ईशान नाम के ईशान प्रभु मिले! और वहां पर शुक्लअंबर ब्रह्मचारी योगपीठ का सेवा कर रहे थे, भजन कर रहे थे। तो इन दोनों से नरोत्तम दास ठाकुर मिले, उनको गले लगाए और उनसे पूछताछ की आप कैसे हो? और इन दिनों में यह कौन है? कौन नहीं रहे? क्योंकि अधिकतर आचार्य प्रस्थान कर चुके थे इसीलिए शुक्लांबर ब्रह्मचारी पूछ रहे थे। वृंदावन से आए हैं तो षड गोस्वामी के बारे में कुछ बताइए तो शुक्लांबर ब्रह्मचारी के साथ कई सारे बाते हो रही। तो कई दिन वहा बिताने के उपरांत नरोत्तमदास ठाकुर शांतिपुर के लिए प्रस्थान करते है। और वहां पर आचार्य भी नहीं थे। आचार्य जहां जहां पर भी जाते थे वहां पर वह पता लगाते तो, वहां पर वह आचार्य प्रस्थान कर चुके होते थे। अद्वैत आचार्य की शिला थी तो उसका दर्शन किए और अद्वैत आचार्य के पुत्र अच्युतानंद को मिले और उनको आलिंगन दिया और बैठ के बातचीत कि और विरह की व्यथा की बातें, चरित्र की बातें हुआ करती थी, जहां कहा नरोत्तम दास ठाकुर जाते रहे। फिर वहां से नरोत्तम दास ठाकुर खर नाम का स्थान है वहां पर गए। जब नित्यानंद प्रभु ग्रहस्त बने तो वहां पर रहा करते थे। तो नित्यानंद प्रभु अब संसार में थे नहीं किंतु नरोत्तम दास ठाकुर जानवा माता को मिले, उनकी धर्मपत्नी से मिले और वहां पर भी कई दिन बिताए वहां पर भी चर्चा हुई। क्योंकि वृंदावन से लौटे थे इसलिए षड गोसवामी यों की चर्चा हो रही थी। वहां से सप्तग्राम जाते है जो लोकनाथ गोस्वामी का स्थान था। लेकिन वहां तो कोई नहीं था लेकिन वहां पर उद्धरण भक्त नाम के एक चैतन्य महाप्रभु के परीकर उनसे मिलते है। फिर नरोत्तम दास ठाकुर वहां पर कीर्तन और नृत्य करते रहे और हरी कथाएं होती। अब नरोत्तम दास ठाकुर जगन्नाथपुरी जाना चाहते थे। जय जगन्नाथ! क्योंकि वह जानते थे की, चैतन्य महाप्रभु सन्यास ले कर शांतिपुर गए थे और वहां से जगन्नाथपुरी गए थे। और जगन्नाथपुरी में 18 वर्ष रहे। तो फिर नरोत्तम दास ठाकुर जगन्नाथपुरी के लिए प्रस्थान किए जगन्नाथ का दर्शन किया, स्तुति गान कर रहे थे, स्तुतिया गा रहे थे। फिर वहां से जहां पर नामाचार्य हरिदास ठाकुर जो चैतन्य महाप्रभु के प्रस्थान से पहले प्रस्थान कर चुके थे। वहां नरोत्तम दास ठाकुर प्रेम के सागर में गोते लगा रहे थे। वहां कहीं सारी कीर्तन और कथाएं हो रही थी पर कहीं सारे भक्त उपस्थित थे। फिर रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी वृंदावन से जाते हैं। फिर नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर के अतिथि बनके वहां रहा करते थे। उस स्थान पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रतिदिन हरिदास ठाकुर को दर्शन देने के लिए आया करते थे। हरिदास ठाकुर तो जगन्नाथ पुरी मंदिर में जाकर दर्शन नहीं किया करते थे क्योंकि मुसलमान परिवार में जन्म होने के कारण ऐसा संभव नहीं था। उस स्थान पर स्वयं जगन्नाथ जो अब गौरांग के रूप में उपस्थित हैं, सिद्धबकु जा कर नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर को दर्शन दिया करते थे। यह नरोत्तम दास ठाकुर ने देखा। तो सब स्मरण कर रहे थे वहां की लीलाएं और कथाएं। वहां से वह जाते हैं काशी मिश्र भवन। जहां चैतन्य महाप्रभु ने उसको गंभीरा भी कहते हैं, स्थान भी वैसे गंभीर है। चैतन्य महाप्रभु की अंतिम लीलाएं भी वही संपन्न हुई थी। गंभीरा जैसा स्थान और दूसरा नहीं है अतुलनीय। वहां चैतन्य महाप्रभु के प्रयान, प्रस्थान और अंतर्धान होने के उपरांत। वहां कुछ समय के लिए वृकेश्वर पंडित रहा करते थे। लेकिन जब नरोत्तम दास ठाकुर पहुंचे हैं तब वृकेश्वर पंडित भी वहां नहीं थे। उनके शिष्य गोपाल गुरु गोस्वामी से मिलन हुआ। वहां गंभीरा में नरोत्तम दास ठाकुर ने हरि कथा और हरि कीर्तन किया। वहां के विग्रह के दर्शन राधा राधाकांत। यह एक समय के कांचीपुर के विग्रह जगन्नाथपुरी पहुंचे थे और चैतन्य महाप्रभु के समय गंभीरा में उनकी आराधना हुआ करती थी। उन विग्रहों का दर्शन करने के उपरांत नरोत्तम दास ठाकुर टोटा गोपीनाथ मंदिर जाते हैं। गदाधर पंडित इस टोटा गोपीनाथ के पुजारी थे। वे पुजारी नहीं थे, उनके स्थान पर एक श्री मामू गोस्वामी कर के प्रधान पुजारी थे। उनसे नरोत्तम दास ठाकुर का मिलन होता है और अंतर्धान होने की कथा और लीला नरोत्तम दास ठाकुर सुनते हैं। एक दिन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु उस मंदिर में प्रवेश किए और वहां से फिर बाहर निकले ही नहीं। गोपीनाथ के विग्रह में उन्होंने प्रवेश किया था। जब प्रवेश किया तब अचानक सर्वत्र अंधेरा छा गया। ऐसी लीलाएं और कथाएं जब नरोत्तम दास ठाकुर सुन रहे थे। तो उनको ध्यान ही नहीं रहा और वहां नरोत्तम दास ठाकुर लोटने लगे। महाप्रभु का इसी स्थान से प्रस्थान और अंतर्ध्यान होना, टोटा गोपीनाथ के विग्रह में प्रवेश करना। नरोत्तम दास ठाकुर के लिए यह असहनीय था। वहां नरोत्तम दास ठाकुर ने और कुछ स्थान देखे। जगन्नाथ वल्लभ उद्यान, वहां श्रीकृष्ण महाप्रभु की संपन्न हुई लीलाएं, उनका श्रवण वहां करते हैं। गुंडीचा मंदिर जाते हैं और गुंडीचा मंदिर के विग्रह के दर्शन रथयात्रा के समय साल में एक सप्ताह भर के लिए आते हैं। नरेंद्र सरोवर के दर्शन करते हैं और इस प्रकार वह जगन्नाथ पुरी की यात्रा का समापन कर रहे हैं। अब उनको स्मरण होता है उनके सहयोगी वृंदावन से बंगाल जो साथ में आए वह श्यामानंद पंडित थे। विष्णुपुर से जहां चोरी हुई ग्रंथों की वहां से श्यामानंद गए थे। उड़ीसा में नरसिंहपुर करके स्थान है। नरोत्तम दास ठाकुर वहां के लिए प्रस्थान किए। वहां उनका मिलन होता है बहुत समय के उपरांत दोनों मिले हैं। गाढ आलिंगन और क्या कहना और बैठकर जब हरी कथाएं हो रही है तो उनको पता नहीं चल रहा है रात है या दिन है। रात की दिन और दिन के रात करके कथाएं चल रही थी। इस प्रकार वह मिलन का आनंद लूट रहे थे, एक दूसरे से मिल रहे थे। लेकिन कथाएं तो गौरंग गौरंग नित्यानंद नित्यानंद की कथा वह सुन रहे थे और सुना रहे थे। फिर वहां से नरोत्तम दास ठाकुर पुनः बंगाल आते हैं। बंगाल में और कुछ स्थान बचे थे। एक तो उनको राड देश जाना था। राड देश में नित्यानंद प्रभु के जन्म स्थल एकचक्र ग्राम पर जाना था। वहां पर भेंट देते हैं और वह उस निवास स्थान पर जाते हैं। जहां हढाई पंडित और पद्मावती के पुत्र रत्न नित्यानंद प्रभु जहां जन्मे थे वह जन्मस्थली देखने गए। श्री नित्यानंद प्रभु ने एक विग्रह की स्थापना की एकचक्र ग्राम में उनका नाम बंकिम राय और उनके साथ में राधारानी भी थी। तो दर्शन किए और नित्यानंद की लीला स्थली, उस विद्यालय को भी भेंट दिए होंगे। नित्यानंद प्रभु उस विद्यालय के प्रांगण मंछ अपने मित्रों के साथ और विद्यार्थियों के साथ कई सारी लीलाएं खेलते थे। वृंदावन की लीलाएं फिर राम लीला भी और कई अवतारों की लीलाएं। वहां से नरोत्तम दास ठाकुर जाते हैं खंड या कभी श्रीखंड भी कहते हैं जो खाने का नहीं है। वह यात्रा करने का स्थान है। तो खंड में पुराने चैतन्य महाप्रभु के समय के समकालीन गौर पार्षद थे, मुकुंद दत्त अब नहीं रहे। मुकुंद दत्त के पुत्र रघुनंदन थे, इनके संबंध में वैसे चैतन्य महाप्रभु ने पूछा था कि मुकुंद बता दो तुम और तुम्हारे पुत्र में से, बाप कौन और बेटा कौन है? फिर मुकुंद कहे थे मेरा पुत्र ही मेरा बाप है क्योंकि वह काफी उन्नत और प्रगत भक्त थे, उनका पुत्र था। वह स्वयं भी थे ही किंतु यह उनकी नम्रता भी है। तो वह रघुनंदन जिन्होंने विग्रह कों जब भोजन खिलाया। विग्रह पूरा का पूरा थाली साफ किए थे। मैं विश्वास नहीं कर सकता, महाप्रसाद कहां है? महाप्रसाद तो नहीं है भगवान सारा खा लिए। भगवान थोड़ी खाते हैं दिखाओ। रघुनंदन फिर वापस से भोग लगाया और भोग जब लग रहा था, तब मुकुंद दत्त छुप कर पर्दे के पीछे देख रहे थे भगवान खाते हैं या नहीं। तो उन्हें देखा भगवान ने आधा लड्डू ही खाया। उन्होंने पूछा आधा लड्डू ही क्यों खाया? तो रघुनंदन ने कहा था कि भोजन के अंत में मीठा खाना होता है और भगवान का पेट भरा हुआ था। तो पुनः भगवान एक और थाली ग्रहण नहीं कर सकते थे। तो उन्होंने केवल आधा लड्डू ही खाया है। नरोत्तम दास ठाकुर यह सब लीला और कथाएं सुने ही होंगे। अब वहां से वह अब खेचरी ग्राम के लिए प्रस्थान करेंगे। जो उनके जन्म स्थान, पद्मावती की नदी के तट पर। नरोत्तम दास ठाकुर रास्ते में जब थे तो खेचरी ग्राम वासियों को पता लगा नरोत्तम आ रहे हैं, नरोत्तम आ रहे हैं। तो नरोत्तम के चचेरे भाई संतोष उस समय के राजा संतोष, वहां के राजा थे। कृष्णानंद, नरोत्तम दास ठाकुर के पिताश्री थे और पुरुषोत्तम, संतोष के पिता थे। तो वह दोनो भी पिता और चाचा नरोत्तम दास ठाकुर के नहीं रहे। लेकिन पुरुषोत्तम पुत्र संतोष अब राजा थे। तो उनको भी जैसे पता चला। तो अपने चचेरे भ्राताश्री नरोत्तम का भव्य स्वागत समारोह आयोजन किया। उनकी अवगानी करने, कई नागरिकों के साथ, खेचरी ग्राम वासियों के निवासियों के साथ आगे बढ़े। जब नरोत्तम को दूर से ही देखे तो उन्होंने साक्षात दंडवत प्रणाम किया। एक दूसरे को मिलने के लिए दोनों उठकंठित थे और आगे बढ़े। दोनों ने गले लगाएं है और एक दूसरे को गाढ आलिंगन हुआ है। राजा संतोष अपने चचेरे भ्राताश्री नरोत्तम को राजमहल में ले आए। कई सारे नागरिक वहां एकत्रित थे। ये समय कुछ गौर पूर्णिमा या फाल्गुन पूर्णिमा के एक दो महीने पहले का था। जैसे अभी तो एक महीना बाकी है। लेकिन जब उस साल नरोत्तम दास खेचरी गांव पहुंचे। तो एक-दो महीनों के उपरांत गौर पूर्णिमा उत्सव संपन्न होना था। राजा संतोष और नरोत्तम के भाव भक्ति से प्रभावित थे। वह शिष्य बने और नरोत्तम दास ठाकुर या महाशय उन्होंने राजा संतोष को दीक्षा दी। अभी दीक्षित और शिक्षित शिष्य संतोष है। इनकी एक बहुत समय से इच्छा थी कि खेचरी ग्राम में एक मंदिर हो। अब नरोत्तम आए ही हैं। उन्होंने कहा मैं मंदिर का निर्माण करूंगा और इस मंदिर में भगवान के विग्रहों की प्राण प्रतिष्ठा करूंगा। उन्होंने कहा ठीक है तुम मंदिर बनाओ। इतना समय था एक दो महीने थे। दो महीने में राजा संतोष ने ऐसा अद्भुत मंदिर बनाया, विशाल भव्य और दिव्य। अब गौर पूर्णिमा के दिन प्राण प्रतिष्ठा होगी। छ: अलग-अलग विग्रहों की प्राण प्रतिष्ठा होगी। तो यह गौर पूर्णिमा महोत्सव और विग्रह प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव के लिए सारे गौडीय वैष्णव को आमंत्रण भेजा। जहां जहां भी अभी नरोत्तम दास ठाकुर मिलकर आए ही थे। वहां वहां संदेश भेजे गए और यहां सब तैयारी भी हो रही थी। वैष्णव पहुंच रहे थे और पुनः यह सारे वैष्णवो का स्वागत हो रहा था। पद्मावती नदी से नौका में बैठाकर उनको पार किया जा रहा था। खेचरी गांव की ओर तट पर पहुंचते। तो वहां से उन्हें पालकी में बैठा के या रथों में बैठा के सारे अतिथियों को पहुंचा रहे थे। तो फिर गौर पूर्णिमा के दिन जैसे कल हम सुन रहे थे। चैतन्य महाप्रभु के अंतर्ध्यान होने के उपरांत यह पहला गौर पूर्णिमा महोत्सव था। प्रथम गौर पूर्णिमा उत्सव खेचरी ग्राम में हुआ।नरोत्तम दास ठाकुर और उनके शिष्य राजा संतोष ने सारी व्यवस्था की। इस व्यवस्था की तुलना मानो युधिष्ठिर महाराज द्वारा आयोजित राजुस्य यज्ञ हो रहा था। हरि हरि। तो नरोत्तम दास ठाकुर गा रहे थे, कीर्तन कर रहे थे। पंचतत्वों का आगमन हुआ और पांचतत्वों के सानिध्य में, वहां के सभी उपस्थित गौर भक्त बंधुओं ने गौर पूर्णिमा महोत्सव खेचरी ग्राम में संपन्न किया। *गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!* *नरोत्तम दास ठाकुर की जय!* *श्रील प्रभुपाद की जय!*

English

Russian