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*जप चर्चा* *वृंदावन धाम से* *7 नवंबर 2021* हरे कृष्ण ! आज 690 भक्त हमारे साथ जपा टॉक में सम्मिलित हैं। गोरंग! श्री कृष्ण बलराम की जय। श्रील प्रभुपाद की जय। आपका स्वागत है। हरि हरि। आपका वृंदावन में स्वागत है। मैं वृंदावन में हूं, तो आपका स्वागत वृंदावन से कर रहा हूं। हरि हरि। इसी के साथ आपका वृंदावन के साथ संबंध स्थापित करने का प्रयास भी हैं। हरि हरि। यहां पर तैयारियां हो रही है श्रील प्रभुपाद के तिरोभाव महोत्सव की जय। कल है श्रील प्रभुपाद का तिरोभाव महोत्सव। हजारों संख्या में भक्त एकत्रित हुए हैं, हो रहे हैं। हजारों भक्त देश विदेश से यहां पर पहुंचे हैं और पहुंच रहे हैं। हरि हरि। कहीं सारे उत्सव यहां पर संपन्न हो रहे हैं। व्रजमंडल परिक्रमा अभी आप जानते ही हो कि चल रही है। व्रजमंडल परिक्रमा के भक्त भी यहां पर आ जाएंगे। आप भी व्रजमंडल परिक्रमा के अनुयायियों हो। कल यहां पर कृष्ण बलराम की शोभा यात्रा संपन्न हुई। श्री कृष्ण बलराम की जय। वह विशेष शोभा यात्रा निकली और पहली बार हुई थी। पहले तो जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा की रथयात्रा होती थी, इन दिनों कार्तिक मास में। रथ यात्रा पर कुछ प्रतिबंध लगे हुए हैं। हम जब चाहे तब जगन्नाथ रथ यात्रा नहीं निकाल सकते। उसके स्थान पर कल फिर कृष्ण बलराम की शोभायात्रा हुई। हरि हरि और कृष्ण बलराम ने वृंदावन नगर का भ्रमण किया। वह रथ में विराजमान थे और एक रथ का ही रूप दिया गया था। जगन्नाथ के रथ को खींचने के बजाय, वह भक्त वृंद कृष्ण बलराम को खींच रहे थे। वह सभी व्रजवासी खींचने वाले थे। व्रज भाव में उन्हें खींच रहे थे। मैंने भी कुछ खींच लिया कृष्ण बलराम को। हरि हरि। प्रेम का पाश, प्रेम की डोरी या फिर कभी कभी भगवान जैसे हम तो कहते हैं मेरी डोरी तेरे हाथ मेरी डोरी तेरे हाथ लेकिन कल तो कृष्ण बलराम की डोरी हमारे हाथ में थी। कृष्ण बलराम कह रहे थे ठीक है जहां भी तुम मुझे ले जाना चाहते हो आपकी मर्जी। हम भक्तों के अधीन है। श्रीभगवानुवाच अहं भक्त्पराधिनो हय्स्वतन्त्र इव द्विज । साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तर्भक्त्जनप्रिय ॥ (श्रीमद भगवतम 9.4.63) अनुवाद:- भगवान ने उस ब्राह्मण से कहा: मैं पूर्णत: अपने भक्तों के वश में हूं। निसंदेह, मैं तनिक भी स्वतंत्र नहीं हूं। चूंकि मेरे भक्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णत: रहित होते हैं अतएव मैं उनके हृदयो में ही निवास करता हूं। मुझे मेरे भक्तों ही नहीं, मेरे भक्तों के भक्त भी अत्यंत प्रिय है। वृंदावन टीवी वाले भी आए थे और मेरा इंटरव्यू ले रहे थे। उन्होंने प्रश्न किया कि इस कृष्ण बलराम शोभायात्रा का क्या वैशिष्ट्य है? हमने कहा कि कृष्ण बलराम को हम वापस वृंदावन ले आए हैं या ला रहे हैं। जिस दिन अक्रूर कृष्ण बलराम को वृंदावन से मथुरा ले गए और वह भी रथ में बैठा कर, कृष्ण बलराम को रथ में बैठाया। अक्रूर ने रथ को सजाया और कृष्ण बलराम को रथ में बैठाए और उनको रथ में मथुरा ले गए। कृष्ण जाते समय कहते गए कि हे गोपियों मैं आता हूं। मैं अब आ रहा हूं। लेकिन कृष्ण और बलराम भी लौटे नहीं। मथुरा में ही रहे 18 वर्ष और वहां से फिर और आगे बढ़े। हरि हरि। वह द्वारका पहुंचे और फिर द्वारका में ही रह गए और समय के लिए। व्रजवासी तो उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। आज आ जाएंगे, आज प्रातः काल नहीं आए तो कल आ जाएंगे, शाम तक तो आ ही जाएंगे। शाम तक उनको आना ही है। ऐसी आशा लेकर प्रतिदिन प्रतीक्षा चल रही थी। लेकिन व्रजवासियों की आशा की कुछ दुर्दशा निराशा ही हो रही थी और फिर समय आया कृष्ण बलराम द्वारकावासियों के साथ कुरुक्षेत्र में सूर्य ग्रहण के समय पहुंचे। इतना सारा मैंने कल इंटरव्यू में नहीं कहा था। थोड़ा कुछ अधिक कह रहा हूं। आप सो रहे हो? आपको नींद आ रही है। सुलाने के लिए कथा नहीं सुना रहा हूं। हा हा। हरि हरि। आप अंधेरे में बैठे-बैठे तल्लीन हो जाते हो। हरि हरि। तो फिर कृष्ण और बलराम कुरुक्षेत्र गए। उस समय व्रजवासी भी गए कृष्ण बलराम को वृंदावन ले आने के लिए किंतु उस समय भी कृष्ण और बलराम तैयार नहीं हुए। तो फिर कल हमने कहा कि अंततः हमको यश मिला है। लगभग 100 वर्षों के उपरांत कृष्ण बलराम को वृंदावन ले आए हैं। रथ में बैठकर वृंदावन से मथुरा गए थे। रथ में बैठकर ही पुनः वृंदावन आए। व्रजवासी ने उनको पुनः यहां पर लाए। शोभा यात्रा में कृष्ण बलराम के रथ को खींचने वाले सभी व्रज भाव में व्रजवासी उनकी भावनाएं और प्रेम के साथ खींच रहे थे। हरि हरि। उस कृष्ण बलराम को आप मन में बैठा लीजिए। अपने हृदय प्रांगण में उनको स्थान दीजिए। कोई स्थान आपके ह्रदय में खाली है या सारा भर गया? दिल में आपने किस को बैठाया हुआ है। कहीं प्यारे दुलारे आपने बना लिए हैं। हरी हरी। बेकार के मायावी लोग उसमें से कहीं कामी, क्रोधी, लोभी और मात्सर्य से पूर्ण, ऐसे लोगों से आपका लगाव आपका प्रेम होता है। आप उनको चाहते हो। उनको बाहर करो अपने जीवन से, निकाल दो। उस स्थान को रिक्त करो और खाली करो। थोड़ा ही नहीं पूरा खाली कर दो। ऐसे लोगों से ऐसे विचारों से ऐसे लगावो से, ऐसे तथाकथित स्नेह से मुक्त हो जाओ और हृदय प्रांगण में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहा करते थे मोरा मन वृंदावन। अपने मन को वृंदावन बनाओ और उस वृंदावन में कृष्ण बलराम रहेंगे। हृदय को या मन को संसार बना लिया है। तो वहां पर पूरा संसार रहेगा। हमने कई साल पहले जब मुंबई में हम प्रचार के लिए जा रहे थे तो हमने वहां पर एक एडवर्टाइजमेंट देखा। अब देखना ही पड़ता है क्या कर सकते हैं। उसमें एक जवान को देखा जवान क्या कर रहा था। अपना सीना फाड़ कर दिखा रहा था। बिल्कुल हनुमान जी जैसे। लेकिन अंतर यह था इसके अंतः करण में या दिल में कोका कोला का बोतल था। सीता राम या कृष्ण बलराम नहीं थे, उसके दिल में और उसके मन में भी। इस प्रकार हम लोग आसक्त होते है या हुए हैं। हरि हरि। श्री कृष्ण बलराम की जय। राधा श्यामसुंदर की जय। श्रील प्रभुपाद तिरोभाव तिथि महोत्सव की आज प्रातकाल को तैयारी चल रही है। उसी के अंतर्गत कहो या मुझे भी अवसर प्राप्त हुआ। आज प्रातः हमने राधा श्यामसुंदर की, ललिता विशाखा की मंगल आरती की। आपने देखी? आप वृंदावन टीवी को देखते हो या नहीं? आप टीवी देखा करो। अगर वह टीवी वृंदावन टीवी है। तो वह देखने की चीज है। उसको बार-बार देखो या मायापुर टीवी है। आजकल पंढरपुर टीवी भी शुरू हो रहा है। वैसे प्रभुपाद ने कृष्ण टीवी की स्थापना की। राधा श्यामसुंदर की जय। आरती जब मैं कर रहा था तब कई सारे अच्छे विचार तो आरती उतारते समय अगर नहीं आएंगे तो कब आएंगे। राधा श्यामसुंदर भावनाभावित अगर हम तब नहीं होंगे तो कब होंगे। हरी हरी। तो फिर उनके शोभा का क्या कहना। वह सौंदर्य की खान है। वह सारे संसार के सौंदर्य के स्त्रोत राधा श्यामसुंदर ही हैं। कृष्ण का सौंदर्य ही कृष्ण का माधुर्य है। फिर उसमें वेणु माधुर्य है, लीला माधुर्य है, प्रेम माधुर्य है, रूप माधुर्य हैं। चार प्रकार के माधुर्य के लिए कृष्ण प्रसिद्ध है। श्वेत मंजरी तो आरती उतार रही है। हाथ में काम, मुख में नाम। नाम लेते हुए कीर्तन करो। आप वैसे कीर्तन सुन रही हो। मैं जो बोल रहा हूं वह कीर्तन ही है। तो सुनते सुनते आरती भी करो। आरती करते समय मैंने कुछ पढ़ा था। भागवत में जो वेणु गीत है। मैं उसका भी स्मरण कर रहा था और वेणु गीत का स्मरण तो गोपिया द्वारा किया हुआ स्मरण हैं। गोपियां कैसे स्मरण करती हैं या उन्होंने कृष्ण का स्मरण कैसे किया। वहीं उन्होंने कहा है। उस अध्याय का नाम दसवें स्कंध का 21 वां अध्याय है उसका नाम वेणु गीत है। कृष्ण शरद ऋतु ही हैं। कृष्ण बलराम और अपने सखाओ के साथ वन में पहुंचे हैं। द्वादश काननों में गौचरण लीला खेल रहे हैं। उस समय उन्होंने मुरली बजाई। जब वह मुरली कृष्ण बजा रहे थे उसकी नाद गोपियां अपने अपने नगरों में घरों में सुन रही थी। यही तो है वेणु गीत। जब गोपियों ने वेणु की नाद सुनी। तब उनके मन में कौन कौन से विचार आ रहे थे। वह कृष्ण का कैसे-कैसे स्मरण करने लगी। इस अध्याय में उसका उल्लेख हुआ है। कई सारे स्मृतियां और स्मरण हैं। अलग-अलग स्मरण है। उसमें से एक स्मरण यह भी था कि कृष्ण मुरली बजा रहे है। गोपिया उस मुरली की नाद को सुन रही हैं। तब गोपियों का एक स्मरण यह रहा कि वह सोचती है कि जब कृष्ण ने मुरली बजाई उस समय कुछ मोर या मयूर गोवर्धन के शिखर और तलहटी में थे। मयूर ने जैसे ही मुरली की नाद सुनी, एक तो उनको भी कृष्ण दिखे। कृष्ण श्याम सुंदर हैं या घनश्याम है। घन इव श्याम। तब मोर यह सोचने लगे कि यह एक बादल ही है। मयूर जब मुरली की नाद सुन रहे हैं तो उन्होंने सोचा कि कोई बादलों की गर्जना हो रही है और ऐसी स्थिति में फिर मयूर क्या करते हैं? मयूर नृत्य करने लगते हैं । वर्षा के दिनों में जब वर्षा प्रारंभ होती है। तब बिजली चमकती है, तब कृष्ण पीतांबर वस्त्र धारण किए हैं तो जब पीतांबर की लका की चकाती है। कृष्ण का पितांबर वस्त्र साधारण पीला नहीं है। विद्युत की जो छटा होती है। वैसे ही आभा और कांति देखने से लगती है। हरि हरि !! मयूरो ने सोचा कि यहां पर वर्षा हो रही है। मयूर नृत्य करने लगे। वहां पर वर्षा नहीं हो रही थी और बादल नहीं पहुंचे थे। उन्होंने सोचा कि कृष्ण ही बादल है। मुरली की नाद की बादलों की गड़गड़ाहट है, तो मयूर मूड में आ गए और वे नृत्य कर रहे हैं । ऐसे गोपियों ने स्मरण किया । इस प्रकार गोपियों ने एक कारण यह रहा । पूरा तो नहीं हुआ तो आगे वे कहती हैं या हमारे आचार्य वृंद टीका में लिखते हैं, की कृष्ण ने जब देखा मयूर नृत्य कर रहे हैं कृष्ण भी आगे बढ़ते हैं क्योंकि वे भी नृत्यकार है । नटराज है सबसे श्रेष्ठ कलाकार या नृत्यकार । नट मतलब कलाकार । कलाकारों में अग्रगण्य शिरोमणि चूड़ामणि कृष्ण ही है, तो कृष्ण आगे बढ़े और जो मयूर नृत्य कर रहे थे उनके मध्य में कृष्ण पहुंच गए और कृष्ण भी मुरली तो मुरली का वादन तो हो ही रहा है । वैसे नृत्य के लिए गायन जरूरी होता है । सुर और ताल कहते हैं ना सुर और ताल तो ताल मुरली का जो सुर है नाद है तो ये गीत चल रहा है, गीत बज रहा है तो उसके साथ फिर मयूर मोड में आए थे और नृत्य कर रहे थे तो कृष्ण भी वहां अब नृत्य करने लगे । मंच पर, प्रकृति द्वारा वहां मंच था गोबर्धन तलहटी प्रदेश में ये सब यह घटना घट रही है, तो कृष्ण नृत्य करने लगे जब मुरली बजा रहे हैं । सारे मयूर जो थे कुछ समय के लिए वे दर्शक बन गए । प्रेक्षक क्योंकि कृष्ण का दर्शन और कृष्ण का नृत्य प्रेक्षणिय है । समझते हो ! प्रेक्षणीय । प्रेक्षणिय मतलब देखने दर्शनीय, देखने योग्य है, तो मयूरों ने अपना नृत्य बंद कर दिया और वे अब कृष्ण के नृत्य को कृष्ण के मुरली के नाद को सुन रहे हैं और कृष्ण के नृत्य को देख रहे हैं और कृष्ण ने ऐसे नृत्य किए बस। सभी के चित्त की चोरी कीए और सभी तल्लीन थे तत-लीन । उनका ध्यान और कहीं नहीं था और यही है ध्यान करना तो पूरा ध्यान इन मयूरों का अब कृष्ण के ऊपर था । हरि हरि !! तो कृष्ण के नृत्य से सारे मयूर बहुत बेहत खुश थे । पता नहीं उन्होंने तालियां बजाई कि नहीं ? लेकिन कुछ नाचे होंगे पर ही लाए होंगे पंख भी दिखाए होंगे और अपना हर्ष उन्होंने व्यक्त किया । वैसे उन्होंने हर्ष कैसे व्यक्त किया ? यह आचार्यों के टीका में लिखा है । मयूरोंने अपना पंख अच्छा वो बात है तो इस कलाकार की इस कला का जो प्रदर्शन हुआ और उससे जो दर्शक प्रेक्षक थे मयूर प्रेक्षक वो इतने प्रसन्न थे वे सोच रहे थे की इस कलाकार को कुछ पुरुष कर देना चाहिए । जब कोई कलाकार गांव में भी आ जाते हैैं कोई डोंबारी आता है । मराठी में डोंबारी और कोई कोई कलाकार आता है और कुछ खेल कर के दिखाता है तो खेल के अंत में जो भी वहां लोग हैं वे कुछ देते हैं । कुछ बख्शीश देते हैं कुछ पुरस्कार देते हैं कोई भेट देते हैं तो सारे मयूररों ने सोचा कि इस कलाकार के कलाकारी के लिए हमको कुछ पुरस्कार देना चाहिए तो उन्होंने अपने पंख हिलाए और कई सारे उनके जो मयूर के पंख है, वे वैसे दे रहे थे इशारा कर रहे थे यह आपके लिए है । यह जो पंख है यह आपके लिए है । हमारे पास कोई धन संपदा तो नहीं है आपको देने के लिए । लेकिन हमारे पास पंख है मयूर पंख इसका आप स्वीकार कर सकते हो । हम बड़े प्रसन्न हैं आपके इस कलाकारी से तो कृष्ण मयूरों के मन की बात समझ गए तोकृष्णा आगे बढ़े और मयूरों ने जो पंख छोड़े थे गिराए थे उसको उठाएं कृष्ण और अपने मुकुट में उसको धारण किए और उसी के साथ उस समय से वो मोर पंख भगवान के सौंदर्य का अंग का एक अंग बन गया । कृष्ण कभी मयूर पूंछ बिना रहते ही नहीं । कृष्ण ने अपनी भी कृतज्ञता व्यक्ति की और प्रसन्नता व्यक्त की मयूरों से और मयूरों ने दी हुई भेंट को उन्होंने स्वीकार किया अपनाया पहन लिया । गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !! तो मैं जब आरती उतार रहा था राधा श्याम सुंदर की तो ऐसे भी कुछ स्मरण हो रहे थे तो जो भी हम पढ़ते हैं सुनते हैं फिर "श्रवणं कीर्तनं" के बाद क्या होता है फिर ? उसी का स्मरण होता है और यह सारी बातें वेणु गीत में, तो गोपियों का स्मरण ऐसा है । ऐसी गोपियां ये विषय वस्तु है उनके स्मरण के । अब तुलना करके देखो गोपियां क्या सोचती हैं और हम क्या सोचते रहते हैं । गोपियां तो प्रेम की बात सोचती हैं । कृष्ण प्रेम और हो सकता है हम लोग काम की बात, मतलब की बात हम सोचते होंगे यह सही नहीं है, तो काम के स्थान पर प्रेम की स्थापना करनी है । "प्रेम पुमार्थ महान" वैसे चार पुरुषार्थ के अंतर्गत ये काम भी है । इसीलिए ये चार पुरुषार्थ को उसको भी ... सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ ( भगवद् गीता 18.66 ) अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत । धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इसको भी कहना होगा ये भी त्याग दो । ऐसा धर्म जो चार पुरुषार्थों को जोड़ देता है ऐसा धर्म ऐसी अर्थव्यवस्था और उसमें काम भी । कुबेरात्मजौ बद्ध-मूर्त्येव यद्वत्, त्वयामोचितौ भक्तिभाजौकृतौ च । तथा प्रेम-भक्तिं स्वकां मे प्रयच्छ न मोक्षे गृहो मेऽस्ति दामोदरेह ॥ ( श्री दामोदराष्टकम पद 7 ) अनुवाद:- हे दामोदर ! ऊखल से बँधे अपने शिशु रूप में आपने नारद द्वारा शापित दो कुवेर - पुत्रों को मुक्त करके उन्हें महान् भक्त बना दिया । इसी प्रकार कृपया मुझे भी अपनी शुद्ध प्रेमभक्ति प्रदान कीजिए । मैं केवल इसकी कामना करता हूँ और मुक्ति की कोई इच्छा नहीं करता । हमको मोक्ष भी नहीं चाहिए । "कुबेरात्मजौ बद्ध-मूर्त्येव यद्वत्, त्वयामोचितौ भक्तिभाजौकृतौ च । तथा प्रेम-भक्तिं स्वकां मे प्रयच्छ, न मोक्षे गृहो मेऽस्ति दामोदरेह" ॥" हमको मोक्ष भी नहीं चाहिए । बस हमको दामोदर चाहिए । हमको कृष्ण चाहिए और कृष्ण की भक्ति चाहिए, प्रेम मई भक्ति । इसका ज्वलंत उदाहरण तो गोपियां है इसलिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का कहना है मत है, आप उन गोपियों जैसी भक्ति करो तो ये गोपी गीत भी है । अब हम वेणु गीत का हम हल्का सा उल्लेख कर रहे थे । कुछ बिंदु उस सिंधु में से आप केवल छिड़का रहे हैं हम तो गोपियों जैसी भक्ति या गोपियों कि जो नेता है राधा रानी जैसी गोपी और फिर चैतन्य महाप्रभु ने वही किया ना । चैतन्य महाप्रभु भगवान राधा भाव को अपनाएं और भक्ति करके दिखाए । अष्टादश वर्ष केवल नीलाचले स्थिति । आपनि आचरि ' जीवे शिखाइला भक्ति ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्यलीला 1.22 ) अनुवाद:- श्री चैतन्य महाप्रभु अठारह वर्षों तक लगातार जगन्नाथ पुरी में रहे और उन्होंने अपने खुद के आचरण से सारे जीवों को भक्तियोग का उपदेश दिया । हम जो इस जगत के जन है हमको सिखाए । भगवान सिखाए । कृष्ण सिखाए कैसी भक्ति करनी है ? तो सिखाते समय उन्होंने राधा के भाव को अपनाया है । गोपी भाव कहो, राधा भाव कहो, मंजरी भाव कहो एक ही बात है । ये भाव भक्ति भाव राधा भाव गोपी भाव यह सर्वोच्च भाव है । इन भावों के अंतर्गत ये भाव है । फिर सख्य भाव भी है या वात्सल्य भाव भी है, दास्य भाव भी है । इस माधुर्य रस या माधुर्य भाव में या प्रेम रस में । ठीक है मैं यहीं रुकता हूं । ॥ हरे कृष्ण ॥

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