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*जप चर्चा* *वृन्दावन धाम से* *06 नवम्बर 2021* हरे कृष्ण!!! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 740 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हरि! हरि! जय गिरिराज महाराज की जय!!! *जय जय नंद यशोदा दुलार गिरिवरधारी गोपाल...जय जय नंद यशोदा दुलार गिरिवर धारी गोपाल!* ( आप भी गा रहे हो? आपका तो महामन्त्र का जप ही चल रहा है। वो भी अच्छा है।) आप यह दृश्य देख रहे हो? कल ब्रज मंडल परिक्रमा में बरसाने में यह गोवर्धन पूजा महोत्सव सम्पन्न हुआ। आप इस समय वहां के गिरिराज के दर्शन कर रहे हो।यह अभिषेक का दर्शन है। उनकी आरती उतारी जा रही है। मुझे उनकी आरती उतारने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वैसे कई सारे वरिष्ठ नेता, संन्यासी उपस्थित थे अथवा आमंत्रित किए गए थे। राधारमण स्वामी महाराज परिक्रमा का संचालन करते ही हैं। मेरे गुरु भ्राता सच्चिदानंदन स्वामी महाराज जर्मनी से आ गए थे और अफ्रीका से वृहद भागवतामृत स्वामी महाराज आए । अन्य कई वरिष्ठ भक्त त्रिकालज्ञ प्रभु वृन्दावन से, ब्रज विलास प्रभु, टी. ओ. वी. पी. मायापुर से और हमारे पंढरपुर मंदिर के भक्त जैसे प्रह्लाद प्रभु वहां पहुंचे थे। वहां ईष्ट गोष्टी, कथा, कीर्तन, अभिषेक हुआ। सच्चिदानंदन स्वामी महाराज बहुत मधुर कथा सुना रहे हैं। वे सुनाते रहते हैं। महाराज गिरिराज के प्रेमी हैं। महाराज प्रतिवर्ष, पूरे कार्तिक में गोवर्धन के सानिध्य में रहते हैं। (1) *निज-पति-भुज-दंडक-छत्र-भवं प्रपद्य: प्रतिहता-मदा-धृस्तोदंड-देवेंद्र-गरवा अतुल-प्रथुला-सैला-श्रेणी-भूप प्रियं मे निज-निकता-निवासं देहि गोवर्धन तवम्* (2) *प्रमदा-मदन-लीला कंदारे कंदारे ते रकयति नवा-यूनोर द्वंदवं अस्मिन्न अमांडाम इति किला कलानार्थम लग्नकस तद्-द्वायोर मे निज-निकता-निवासं देहि गोवर्धन तवम्* (3) *अनुपमा-मणि-वेदी-रत्न-सिंहासनो वी-रूहा-झारा-दारा-शनु-द्रोणी-संघेसु रंगैहो साहा बाला-सखीभिः सांखेलायं स्व-प्रियं मे निज-निकता-निवासं देहि गोवर्धन तवम्* (4) *रस-निधि-नव-युनोह सक्सिनिम दाना-केलेर द्युति-परिमाला-विद्धाम श्यामा-वेदिम प्रकाश्य: रसिका-वर-कुलनम मोडम अस्फालायण मे निज-निकता-निवासं देहि गोवर्धन तवम्* (5) *हरि-दयातम अपूर्वम राधिका-कुंडम आत्मा-प्रिया-सखम इहा कांठे नर्मनलिंग्य गुप्ता: नव-युव-युग-खेलस तत्र पास्यन रहो मे निज-निकता-निवासं देहि गोवर्धन तवम्* (6) *स्थल-जला-ताला-सस्पैर भुरुहा-छाया च प्रतिपदं अनुकलम हंता सम्वर्धन गहः त्रि-जगती निज-गोत्रम सार्थकम् ख्यापायं मे निज-निकता-निवासं देहि गोवर्धन तवम्* (7) *सुरपति-कृता-दिर्घा-द्रोहतो गोस्थ-रक्षा: तवा नवा-गृह-रूपस्यंतरे कुर्वतैव आगा-बका-रिपुनोकैर दत्त-मन द्रुतम मे निज-निकता-निवासं देहि गोवर्धन तवम्* (8) *गिरि-नरपा-हरि-दास-श्रेणी-वरेति-नाम- मरतम इदं उदितम श्री-राधिका-वक्त्र-चन्द्रत: व्रज-नव-तिलकत्वे कल्पता-वेदैः स्फूतम मे निज-निकता-निवासं देहि गोवर्धन तवम्* (9) *निज-जन-युता-राधा-कृष्ण-मैत्री-रसक्त व्रज-नारा-पसु-पक्षी-व्रत-सौख्यिका-दात अगणिता-करुणत्वन मम उरी-कृत्य तंताम् निज-निकता-निवासं देहि गोवर्धन तवम्* (10) *निरुपाधि-करुनेन श्री-सचिनंदनेन तवायी कपटी-साथो 'पि तवत-प्रियनारपितो' स्मि इति खालू मामा योग्ययोग्यतम मम अग्रनां निज-निकता-निवासं देहि गोवर्धन तवम्* (1 1) *रसदा-दशकम अस्य श्रील-गोवर्धनस्या क्षितिधारा-कुल-भरतूर या प्रयात्नाद अधिते: सा सपदी सुखाड़े 'स्मिन वसं असद्य सक्षक' चुबड़ा-युगला-सेवा-रत्नम अप्नोति टर्नम* अर्थ:- हे गोवर्धन, हे सभी अतुलनीय महान पहाड़ों के राजा, हे पहाड़ी जो अपने भगवान की भुजा के साथ एक छतरी बन गई और फिर देव राजा के गर्व को नष्ट कर दिया, पागलों ने हथियारों से हमला किया, कृपया अपने पास निवास प्रदान करें जो मुझे बहुत प्रिय है। (2) हे गोवर्धन, कृपया मुझे अपने आस-पास निवास प्रदान करें जो युवा दिव्य जोड़े की दृष्टि की गारंटी देगा क्योंकि वे आपकी गुफाओं में भावुक कामुक मनोरंजन का आनंद लेते हैं। (3) हे गोवर्धन, हे पहाड़ी, जहां भगवान कृष्ण खुशी-खुशी बलराम और उनके दोस्तों के साथ अतुलनीय रत्नों के आंगनों, रत्नों वाले सिंह-सिंहासन, पेड़ों, झरनों, पर्वत-धाराओं, गुफाओं, चोटियों और घाटियों में खेलते हैं, कृपया अपने पास निवास प्रदान करें जो मुझे बहुत प्रिय है। (4) हे गोवर्धन, हे पहाड़ी, जो अमृत-खजाने वाले युवा दिव्य युगल के दाना-केली शगल का गवाह है, जो पारलौकिक अमृत का आनंद लेने वाले लोगों के लिए महान आनंद लाता है, कृपया मुझे निवास प्रदान करें तुम्हारे पास। (5) हे गोवर्धन, हे पहाड़ी, अपने प्रिय मित्र, भगवान हरि के प्रिय, अभूतपूर्व राधा-कुंड की गर्दन को छिपाते हुए, गुप्त रूप से युवा दिव्य जोड़े की लीलाओं को देखते हुए, कृपया मुझे अपने पास निवास प्रदान करें। (6) हे गोवर्धन, हे पहाड़ी, जो गायों को अपने पानी, घास और अपने पेड़ों की छाया से पोषण करके तीनों लोकों को अपने नाम की उपयुक्तता घोषित करती है, कृपया मुझे अपने पास निवास प्रदान करें। (गोवर्धन का अर्थ है "वह जो गायों का पोषण (वर्धन) करता है (जाना)।") (7) हे गोवर्धन, हे पहाड़ी, जो आगा और बका के शत्रुओं ने व्रज को सुरा राजा के निरंतर क्रोध से सुरक्षा देने के लिए एक नए घर में बदलकर सम्मानित किया, कृपया मुझे अपने पास निवास प्रदान करें। (8) हे गोवर्धन, हे पहाड़ों के राजा, हे पहाड़ी जिसका अमृत नाम "भगवान हरि के सेवकों में सबसे अच्छा" श्री राधा के मुख के चंद्रमा से बहता है, हे पहाड़ी जिसे वेद व्रज का तिलक चिह्न घोषित करते हैं, कृपया अनुदान दें मैं तुम्हारे पास निवास। (9) हे गोवर्धन, हे परोपकारी, जो व्रज के लोगों, जानवरों और पक्षियों को दिव्य सुख देते हैं, श्री श्री राधा-कृष्ण के लिए मित्रता के अमृत से अभिषेक करते हैं, अपने दोस्तों से घिरे, आपकी असीम दया से, कृपया मुझे दुखी स्वीकार करें और कृपया मुझे अपने निकट निवास प्रदान करें। (10) यद्यपि मैं धोखेबाज़ और अपराधी हूँ, असीम दयालु भगवान शशिनन्दन, जो आपको बहुत प्रिय हैं, ने मुझे आपको दिया है। हे गोवर्धन, कृपया इस बात पर विचार न करें कि मैं स्वीकार्य हूं या नहीं, लेकिन बस मुझे अपने पास निवास प्रदान करें। (11) जो पहाड़ों के राजा श्रील गोवर्धन का वर्णन करते हुए इन दस अमृत छंदों को ध्यान से पढ़ता है, वह बहुत जल्द उस आनंदमय पहाड़ी के पास निवास करेगा और सुंदर दिव्य जोड़े की सेवा के अनमोल रत्न को जल्दी से प्राप्त करेगा। यह जो प्रार्थना है- 'हे गिरिराज, मुझे आप अपने निकट रखिए, मुझे अपना सानिध्य प्रदान कीजिए। ' सच्चिदानंदन महाराज को ऐसा सानिध्य प्राप्त हो रहा है। वे हर वर्ष यह पूरा महीना यहां बिताते हैं। वे गिरिराज के भी प्रेमी हैं। यह गिरिराज अन्नकूट महोत्सव संपन्न हो रहा है। आप सब देख रहे हो ना? ब्रज मंडल में प्रतिवर्ष यह गिरिराज पूजा बड़े धूमधाम से मनाते हैं। यह अन्नकूट देख रहे हो? यह गिरिराज के लिए ऑफरिंग है। यह थाली भर के नहीं अपितु एक कमरा भर कर (रूम फूल) ऑफरिंग है। वैसे तो इस वर्ष गोवर्धन आकार में थोड़े छोटे रहे। परिक्रमा भी छोटी-छोटी हो रही है, संख्या थोड़ी कम है। तब भी परिक्रमा के भक्तों ने थोड़ा प्रयास किया। वे एक-दो दिनों से तैयारियां कर रहे थे। उन्होंने अन्न का कूट बना दिया अर्थात अन्न पहाड़ बनाया। वहां गोवर्धन का सारा दर्शन था, परिक्रमा मार्ग था। राधा कुंड, श्याम कुंड दिखाया था। कुसुम सरोवर और अन्नकूट के ऊपर गिरिराज महाराज विराजमान है। पूंछरी का लौटा, गोविंद कुंड, उद्धव कुंड इत्यादि इत्यादि सारे नामकरण के साइन बोर्ड भी उस अन्नकूट पर लगाए गए थे। (यहां नाम लिखा दिख रहा है। दानघाटी इत्यादि।) एक स्थान पर खड़े होकर पूरे गिरिराज का दर्शन कर सकते हैं जिसको बर्ड्स आई व्यू कहते हैं। 'गिरिराज एट ए ग्लांस।' जैसे हम कल भी कह रहे थे कि गिरिराज दर्शनीय है, दर्शन करने योग्य है, रमणीय है, शोभनीय है। कल जब हमने गिरिराज के दर्शन किए, यह सचमुच दर्शनीय थे। उनकी पूजा हो रही थी, उनकी पूजा हुई, अभिषेक हुआ फिर हमने दंडवती परिक्रमा भी की। दंडवती परिक्रमा करते हुए हम अनुभव कर रहे थे कि साक्षात गिरिराज प्रकट हुए हैं, चलो फायदा उठाते हैं। परिक्रमा करते हैं क्योंकि, इस दिन 5000 वर्ष पूर्व यह पहली परिक्रमा संपन्न हुई थी। दिन में यह गोवर्धन पूजा हुई थी। (कहां हुई थी? यह स्पष्ट ही है। ) गोवर्धन परिक्रमा के मार्ग पर एक गांव है जिसका नाम 'अन्योर' है। वहां पर यह गोवर्धन पूजा हुई थी। इस गोवर्धन पूजा के उपरांत दोपहर के बाद लगभग साय: काल होने जा रही थी तब उस समय परिक्रमा भी हुई। कृष्ण और बलराम ने गोवर्धन की परिक्रमा की, गाय भी परिक्रमा कर रही थी। सारे ग्वाले, बुजुर्ग, बृजवासी भी परिक्रमा कर रहे थे। हमने भी परिक्रमा की, हमने तो दंडवती परिक्रमा की, इस प्रकार हमने आनंद लूटा । जब दिन में सच्चिदानंद स्वामी महाराज कथा कर रहे थे, वे कथा में बता रहे थे कि जीव गोस्वामी पाद अपने भाष्यों में उस दिन की गोवर्धन पूजा का वर्णन लिखते है कि कैसे बृजवासी वहां पहुंचे? वे पहले मानसी गंगा गए, गोवर्धन में ही मानसी गंगा है। सारे ब्रज वासियों ने सबसे पहले मानसी गंगा में स्नान किया, वहां से वे फिर आगे बढ़े। जहां अन्योर है, वहां उन्होंने पहुंच कर पूजा की और अन्न का पहाड़ बनाया। वे अन्नकूट ऑफर कर रहे थे, यह ऑफरिंग स्वीकार करने के लिए गोवर्धन प्रकट हुए। भगवान ने ही गोवर्धन का मूर्तिमान रूप धारण किया, गोवर्धन भगवान हैं। जीव गोस्वामी लिखते हैं कि भगवान प्रकट हुए और कहा *कृष्णस्त्वन्यतमं रूपं गोपविश्रम्भणं गतः। शैलोअ्स्मीति ब्रुवन्भूरि बलिमादद्वहतद्वपुः।।* ( श्रीमद भागवतम १०.२४.३५) अनुवाद:- तत्पश्चात कृष्ण ने गोपों में श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए अभूतपूर्व विराट रूप धारण कर लिया और यह घोषणा करते हुए कि मैं गोवर्धन पर्वत हूं" प्रचुर भेंटें खा ली। मैं गोवर्धन पहाड़ हूं। यह गोवर्धन मैं हूँ, यह गोवर्धन शिला मैं हूं। यह पूरा गोवर्धन एक शिला ही है, यह शिला मैं हूं। उनके हजारों हाथ थे, कुछ लंबे थे, कुछ छोटे थे। गिरिराज सभी हाथों का प्रयोग कर रहे थे। वे सभी हाथों से खा रहे थे। हम कल्पना भी नहीं कर सकते। कितना विशाल यह अन्न का कूट होगा। ब्रज वासियों ने कितनी सारी सामग्री, कितने सारे व्यंजन, कितने सारे भोग प्रदार्थ बनाए थे। कुछ खीर या दाल जैसी वस्तुओं के तो तालाब भरे हुए थे। यह सब कटोरी और थालियों में नहीं था, अपितु कुंडो में भरा हुआ था अर्थात सारी ऑफरिंग के कुंड के कुंड भरे हुए थे। खीर का कुंड, सूप का कुंड, इत्यादि इत्यादि। जैसे जैसे भगवान खा रहे थे अथवा ग्रहण कर रहे थे और कहते भी जा रहे थे- 'अन्योर, अन्योर.. और चाहिए और चाहिए।' कई सारे बृजवासी भगवान का स्तुति गान भी गा रहे थे। वाद्य बज रहे थे, नृत्य हो रहा था। गिरिराज के ऊपर पुष्प अर्पित किए जा रहे थे। इस प्रकार का वर्णन जीव गोस्वामी पाद लिखते हैं। जब हम यह सुन रहे थे तो हमें भी यह लग रहा था कि हम भी उसी का एक अंग बन चुके हैं। हम लगभग वही हैं। इस प्रकार महाराज प्रथम गोवर्धन पूजा का कुछ ऐसा गहराई से वर्णन कर रहे थे जैसे जैसे हम सुन रहे थे, हमें भी लग रहा था कि हम भी पूजा कर रहे हैं, हम भी ब्रज वासियों के साथ वहां पहुंच गए हैं। ब्रज वासियों ने यह भी बताया था कि पूजा कैसी होनी चाहिए? उन्होंने नंद महाराज से केवल यह नहीं कहा था कि पिताश्री! इंद्र पूजा करने की आवश्यकता नहीं है, चलो गोवर्धन की पूजा करते हैं। केवल इतना ही नहीं कहा अपितु यह भी कहा कि गोवर्धन की पूजा कैसी होनी चाहिए? अर्थात कैसी करनी चाहिए? इस प्रकार कृष्ण ने विस्तार से कहा था। कृष्ण ने यह भी कहा था कि केवल गोवर्धन की पूजा ही नहीं साथ में गौ पूजा होनी चाहिए, ब्राह्मण पूजा होनी चाहिए। भगवान ने तीन पूजाओं की बात की- गोवर्धन पूजा, गो पूजा और ब्राह्मण पूजा। *नमो ब्रह्मण्य देवाय गो ब्राह्मण हिताय च। जगदि्धताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 13. 77) अनुवाद:- " मैं उन भगवान कृष्ण को सादर नमस्कार करता हूँ, जो समस्त ब्राह्मणों के आराध्य देव हैं, जो गायों तथा ब्राह्मणों के शुभचिंतक हैं तथा जो सदैव सारे जगत को लाभ पहुंचाते हैं। मैं कृष्ण तथा गोविंद के नाम से विख्यात भगवान को बारम्बार नमस्कार करता हूँ। कृष्ण को गाय प्रिय है, कृष्ण को ब्राह्मण प्रिय है। इसलिए कृष्ण ने कहा कि केवल गोवर्धन की पूजा ही नहीं हो, ब्राह्मणों की पूजा भी होनी चाहिए, गाय की भी पूजा होनी चाहिए। हमने भी गाय की पूजा की, प्रदक्षिणा भी की। गाय को सजाया भी और गाय को लड्डू भी खिलाए। परिक्रमा के सभी भक्तों ने मिलकर गो पूजा की। यह आप सब को करना है इसलिए बता रहे हैं। आपको हर वर्ष गोवर्धन पूजा करनी है और साथ में यह नहीं भूलना कि गाय, ब्राह्मणों की पूजा भी यथासंभव करनी है। कृष्ण ने जो जो निर्देश दिए थे कि कैसे-कैसे पूजा होनी चाहिए? अर्थात जिसके अंतर्गत कृष्ण ने कहा है यह अन्नकूट का जो महाप्रसाद है, उसका वितरण होना चाहिए। केवल ब्राह्मण को ही भोजन ही नहीं कराना अर्थात ब्राह्मणों को ही नहीं खिलाना अपितु सभी जीवों को यह प्रसाद मिलना चाहिए। चांडाल या शुद्र जो भी है, सबको गिरिराज गोवर्धन या अन्नकूट का प्रसाद मिलना चाहिए। हमारे ब्रजमंडल परिक्रमा के भक्त प्रतिवर्ष यह गोवर्धन पूजा बरसाने में ही मनाते हैं और हम भी दीवाली के समय वहां पहुंच जाते हैं। दिवाली के अगले दिन गोवर्धन पूजा होती है। गोवर्धन/ अन्नकूट का प्रसाद खूब बचता है। पूरे बरसाने में भक्त ( वैसे इस साल तो इतने बड़े स्केल पर नहीं हो पाया) हमारे इंग्लैंड के परशुराम प्रभु जो परिक्रमा के साथ बैलगाड़ी लेकर चलते हैं, वे हलवा, पूरी व सारे प्रसाद के साथ पूरी बैलगाड़ी को भर देते हैं। बरसाने में कीर्तन होता है और प्रसाद बंटता है। कल भी हुआ, कल भी एक ठेले में बचा हुआ सारा प्रसाद भर दिया गया अथवा रख दिया और बांटने के लिए ले गए। हमें भी वह प्रसाद वितरण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गोवर्धन पूजा के उपरांत परिक्रमा के हम सब बरसाने की परिक्रमा में गए। बरसाने की भी परिक्रमा है। ब्रजमंडल परिक्रमा के अंतर्गत लोकल परिक्रमा भी होती है जैसे पंचकोसी परिक्रमा , गोवर्धन की परिक्रमा करते हैं। काम वन में काम वन की आंतरिक और बाहरी परिक्रमा होती है वैसे ही जब बरसाने में आते हैं तो बरसाने की परिक्रमा होती है। बरसाने की जो लीला स्थलीय है, वहां की परिक्रमा होती है। हरि! हरि! मैं तो पूरी परिक्रमा में नहीं था लेकिन सीधे लाडली लाल के दर्शन के लिए गया। लाडली लाल की जय! लाडली लाल बड़ा प्यारा नाम है। राधा रानी को लाडली कहते हैं। काफी भीड़ थी। हरि! हरि! हम सीढ़ी चढ़कर पहुंच गए। जब हम जा रहे थे तब रास्ते में एक विशेष दर्शन या अनुभव हुआ। वहां रास्ते में कई सारे भिक्षुक बैठे रहते हैं, कई संत भी होते हैं जो बैठे रहते हैं, भिक्षा की प्रतीक्षा करते रहते हैं। उसमें से हमने एक को देखा कि वह बड़े ध्यानपूर्वक ग्रंथ पढ़ रहा था। (मुझे भिक्षुक कहना अच्छा नहीं लगता है) कुछ दान दक्षिणा के लिए मांग भी कर रहे थे। राधे! राधे! हमको दे दो, हमको दे दो, कई हमारी धोती पकड़ रहे थे, हमें जाने नहीं दे रहे थे। स्वामी जी दे दो, महाराज दे दो भिक्षा दो, भिक्षा दो परंतु यह जो विशेष व्यक्ति थे वह किसी ग्रंथ पढ़ने में मस्त थे। जब हमने गौर से देखा (हम जो आपको दिखा रहे हैं, यह वही दृश्य है ) वह भगवत गीता यथारूप पढ़ रहे थे) यह बाबा जी वही है। हम भक्तों ने औरों को तो दान दक्षिणा नहीं दी लेकिन इस महात्मा को जो भगवद्गीता पढ़ रहे थे, उनको जरूर दे दी। (वह रखी है, उनके बगल में देखो) उनको तो इसकी कोई चिंता नहीं थी, मिले या नहीं मिले लेकिन भगवान कहते हैं- *अनन्याश्र्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ||* ( श्रीमद भगवतगीता 9.22) अनुवाद:- किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्यस्वरूप का ध्यान करते हुए निरन्तर मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो आवश्यकताएँ होती हैं, उन्हें मैं पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके पास है, उसकी रक्षा करता हूँ | जो भगवान की अनन्य भक्ति करते हैं अर्थात औरों को छोड़कर केवल भगवान कृष्ण की भक्ति करते हैं, भगवान उनके लिए क्या करते हैं? योगक्षेमं वहाम्यहम् यह गीता में ही लिखा है। वे वही गीता पढ़ रहे थे। भगवान कहते हैं कि उनकी जो आवश्यकताएं हैं उनकी पूर्ति मैं करता हूं। मैं उनका वहन करता हूं। ऐसा ही कल हुआ। यह व्यक्ति जो भगवे वस्त्र पहने थे, पढ़ रहे थे और पढ़ते जा रहे थे। हम लोग दर्शन करके आधे पौने घंटे के उपरांत जब वापिस लौटे तो उनका अध्ययन चल ही रहा था।( उनका ऊपर जाते समय भी फोटो खींचा और जब नीचे आए तो उनका फिर से फोटो खींचा) "ही वाज़ टोटली ऑब्जर्व इन रीडिंग भगवतगीता एज इट इज।" वह भी एक विशेष दर्शन रहा। श्रील प्रभुपाद का भी स्मरण हुआ। श्रील प्रभुपाद की जय! यह श्रील प्रभुपाद की देन है। कृष्ण की ओर से श्रील प्रभुपाद ने भगवतगीता यथारूप को प्रस्तुत किया और इसका वितरण करने के लिए हमें सभी को प्रेरित करते रहे। ऐसी ही एक भगवतगीता वहां पढ़ी जा रही थी। वह पूर्णता है। भगवतगीता का वितरण जो हुआ, उसकी परफेक्शन( पूर्णता) पढ़ने में हैं। कल लाडली लाल का कुछ विशेष दर्शन था या गोवर्धन पूजा होने के कारण बरसाने में इतनी सारी भीड़ उमड़ आई थी कि कुछ पूछो नहीं। राधा रानी की जय! बरसाने वाली की जय! लाडली लाल की जय! हमनें देखा कि दर्शन के लिए भी समय समय ऐसी व्यवस्था होती रहती हैं कि अंदर गर्भगृह जिसे ऑल्टर भी कहते हैं, वहां से लाडली लाल को बाहर लाया गया था। लाडली लाल विशेष सिंहासन पर विराजमान थी। साथ में ललिता और विशाखा भी थी। बड़ा विशाल दृश्य था। बड़ा जनसुमदाय भी वहां एकत्रित था। हरि! हरि !हम लाडली लाल के दर्शन से लाभान्वित हुए। हरि! हरि! हमारे आंखों की पूर्णता भी इसी में है। यदि भगवान के दर्शन यह आँखें नहीं करती है तो यह आंखें बेकार है। यदि हम मुख से भगवान का नाम, गाथा नहीं कहते हैं तो यह मुख बेकार है और यह जीवन भी बेकार का ही है अगर हमनें यह जीवन समर्पित नहीं किया। *एवं कायेन मनसा वचसा च मनोगतम।परिचर्यमाणो भगवान्भक्तिमत्परिचर्यया।।पुंसाममायिनां सम्यग्भजतां भाववर्धनः।श्रेयो दिशत्यभिमतं यद्धर्मादिषु देहिनाम्।।* ( श्रीमद भागवतम 4.8.59) अनुवाद:- इस प्रकार जो कोई गंभीरता तथा निष्ठा से अपने मन, वचन तथा शरीर से भगवान की भक्ति करता है और जो बताई गई भक्ति विधियों के कार्यों में मग्न रहता है, उसे उसकी इच्छानुसार भगवान वर देते हैं। यदि भक्त भौतिक संसार में धर्म, अर्थ, काम या भौतिक संसार से मोक्ष चाहता है, तो भगवान इन फलों को प्रदान करते हैं। या *सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||* ( श्रीमद भगवतगीता १८.६६ ) अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत । सर्वधर्मान्परित्यज्य करके हम उनको प्राप्ति कर उनकी सेवा, साधना करते हैं और साधना से सिद्ध होते हैं। यदि मनुष्य ऐसा नहीं करता है तो इसके विषय में ही आचार्यवृंद कहते हैं- *हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु। मनुष्य जनम पाइया, राधाकृष्ण ना भजिया, जानिया शुनिया विष खाइनु॥1॥* *गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन, रति ना जन्मिल केने ताय। संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले, जुडाइते ना कैनु उपाय॥2॥* *ब्रजेन्द्रनन्दन येइ, शचीसुत हइल सेइ, बलराम हइल निताइ। दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल, ता’र साक्षी जगाइ-माधाइ॥3॥* *हा हा प्रभु नन्दसुत, वृषभानु-सुता-युत, करुणा करह एइ बार। नरोत्तमदास कय, ना ठेलिह राङ्गा पाय, तोमा बिना के आछे आमार॥4॥* अर्थ (1) हे भगवान् हरि! मैंने अपना जन्म विफल ही गवाँ दिया। मनुष्य देह प्राप्त करके भी मैंने राधा-कृष्ण का भजन नहीं किया। जानबूझ कर मैंने विषपान कर लिया है। (2) गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’ हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है, किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता है, और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता। (3) जो व्रजेंद्रनन्दन कृष्ण हैं, वे ही कलियुग में शचीमाता के पुत्र (श्रीचैतन्य महाप्रभु) रूप में प्रकट हुए, और बलराम ही श्रीनित्यानंद बन गये। उन्होंने हरिनाम के द्वारा दीन-हीन, पतितों का उद्धार किया। जगाई तथा मधाई नामक महान पापी इस बात के प्रमाण हैं। (4) श्रील नरोत्तमदास ठाकुर प्रार्थना करते हैं, ‘‘हे नंदसुत श्रीकृष्ण! हे वृषभानुनन्दिनी! कृपया इस बार मुझ पर अपनी करुणा करो! हे प्रभु! कृपया मुझे अपने लालिमायुक्त चरणकमलों से दूर न हटाना, क्योंकि आपके अतिरिक्त मेरा अन्य कौन है?’’ मनुष्य जन्म पाकर यदि लाडली लाल का भजन नहीं किया तो जानिया शुनिया विष खाइनु। हमनें जहर पी लिया। प्रतिदिन अमृत जैसा दर्शन अर्थात जिस दर्शन को करने से व्यक्ति अमृत बन जाता है। (उस नेक्टर को अमृत क्यों कहते हैं? क्योंकि उसके पान से फिर मरण नहीं होता। ) मृत अर्थात मरना और अमृत अर्थात नहीं मरना। जो भी ऐसा दर्शन करेंगे अर्थात भगवान के विग्रह का दर्शन करेंगे, उनके नामों का उच्चारण करके उनका श्रवण करेंगे *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* यह भी नामामृत है। नामामृत करने से भी हम लोग आराधना ही करते हैं। महामन्त्र का श्रवण कीर्तन करते हैं। इसे भागवत कहता है। यदि कोई व्यक्ति भागवत के मर्म को समझते हैं। भागवत यही कहता है। बड़ा स्पष्ट है। भागवत प्रवचन 11 स्कंध में वर्णन आता है कि नव योगेंद्र हुए। उनकी संख्या 9 थी। इसलिए उनको नव योगेंद्र कहते हैं। नवयोगेंद्रों ने एक-एक करके कुछ उपदेश सुनाया है। उसके अंतर्गत करभाजन मुनि अपना उपदेश सुना रहे थे। *कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम्। यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः।।* ( श्रीमद भागवतम ११.५.३२) अनुवाद:- कलियुग में, बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन करते हैं, जो निरंतर कृष्ण के नाम का गायन करता है। यद्यपि उसका वर्ण श्यामल नहीं हैं किंतु वह साक्षात कृष्ण है। वह अपने संगियों, सेवकों, आयुधों तथा विश्वासपात्रों साथियों की संगत में रहता है। यह भागवत का वचन है । यह सुमेधसः है मेधा मतलब बुद्धि/ दिमाग। अच्छी बुद्धि वाले लोग क्या करेंगे? यज्ञ करेंगे या भगवान की आराधना करेंगे। यजन्ति मतलब आराधना करेंगे। यज्ञ करते हुए आराधना करेंगे। उस यज्ञ का उल्लेख भी किया है। यज्ञे संकीर्तन प्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः। कलियुग में जो बुद्धिमान लोग हैं।( बुद्धू नहीं जो बुद्धिमान लोग हैं। आप सिद्ध करो बुद्धिमान हो या बुद्धू हो )अगर आप संकीर्तन यज्ञ कर रहे हो तो आप इंटेलीजेंट पर्सन (बुद्धिमान व्यक्ति ) हो अन्यथा आप कम बुद्धिमान हो। हरि! हरि! वैसे भगवान दर्शन देते हैं, जब हम कीर्तन करते हैं *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* हरे कृष्ण महामंत्र का उच्चारण अथवा इस यज्ञ के पीछे का उद्देश्य / लक्ष्य भगवान का दर्शन ही है। *महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् |यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ||* (श्रीमद भगवतगीता10.25) अर्थ:- मैं महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन (जप) तथा समस्त अचलों में हिमालय हूँ | भगवान कृष्ण ने स्वयं ही गीता के दसवें अध्याय में कहा है - यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि अर्थात सभी यज्ञ में जप यज्ञ मैं हूं। भागवतम में करभाजन मुनि, निमी महाराज को कह रहे हैं कि कलियुग नें संकीर्तन यज्ञ ही आराधना की विधि या पद्धति है। हरि! हरि! जप करते रहिए। उत्सव भी संपन्न करते जाइए या उत्सव में सम्मिलित होते रहिए। कल आपने उत्सव कैसे संपन्न किया? क्या किया? कुछ अनुभव किया? गोवर्धन पूजा के दिन कहीं आए या गए? कुछ देखा, सुना? आपके कोई साक्षात्कार है? आप भी सुना सकते हो। मेरे पास तो आपको सुनाने के लिए बहुत कुछ है लेकिन आपको भी तो सुनाना चाहिए। हम जब सुनाते हैं तो *तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्। श्रवणमंगलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ये भूरिदा जनाः॥* अर्थ:- आपके शब्दों का अमृत तथा आपकी लीलाओं का वर्णन इस भौतिक जगत में कष्ट भोगने वालों के जीवन और प्राण हैं। विद्वान मुनियों द्वारा प्रसारित ये कथाएँ मनुष्य के पापों को समल नष्ट करती हैं और सुनने वालों को सौभाग्य प्रदान करती हैं। ये कथाएँ जगत-भर में विस्तीर्ण हैं और आध्यात्मिक शक्ति से ओतप्रोत हैं। निश्चय ही जो लोग भगवान् के सन्देश का प्रसार करते हैं, वे सबसे बड़े दाता हैं। गोपियों ने कहा( मैं आगे कह ही रहा हूं। आगे आपको समय नहीं मिलेगा।) जो भी कथामृत का वितरण करते हैं, कथामृत का प्रचार प्रसार करते हैं। वे जन कैसे हैं भूरिदा जनाः है। वे जन जहां तहां है वे जन भूरिदा जनाः है, वे दयालु है, दाता है, दानी है, उदार है। कंजूसी मत करो। कंजूस मत बनो। बांट दो। कुछ बोल बोलो। आप में से कुछ 'भूरिदा' बनो। चैतन्य महाप्रभु ने कहा था राजा प्रताप! कहा था तुम 'भूरिदा' हो, मुझे तुम गोपी गीत सुना रहे हो। ठीक है। अब आप से सुनते है। हरे कृष्ण!

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