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*हरे कृष्ण !* *जप चर्चा* *पंढरपुर धाम* *03 जून 2021* *हरी हरी ! गौर हरी !* 802 स्थानो से भक्त जप कर रहे हैं । हरि बोल ! कुछ प्रश्न उत्तर की ओर मुड़ते हैं । ( परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज भक्तों के द्वारा दिए गए प्रश्नों पत्र पढ़कर पूछे गए, प्रश्नों के उत्तर दे रहे हैं । ) तो यह कौन है ? पहला प्रश्न ! इस्कॉन यूथ फॉर्म (युवा गोष्टी )अमरावती की ओर से ! :- यह क्या अंतर है मन में , चित्त में और अंतकरण में ? वैसे यह जो प्रश्न है ! कथा के उत्तर आप ( भक्त ) भी दे सकते हो या आप में से कई सारे दे सकते हो । इसका भी कुछ अगर व्यवस्था होती है यह प्रश्न मुझे पूछने की वजह ... *मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।* *कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥* ( भगवत गीता 10.9 ) अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं । आप एक दूसरे को परस्पर बोध कर सकते हो । आपके जो टीम मेंबर हैं या आप काउंसली हो किसी काउंसीलर के , ऎसे ही, जो भक्त हैं ..आप के संपर्क में, आपके भक्ति वृक्ष के भक्त, या मंदिर के भक्त हैं ओर ,और भी ब्रह्मचारी हैं मंदिर में ऐसे ही इस्कॉन यूथ फोरम, दूसरे विद्यार्थी हैं तो आप से कोई अधिक जानकार, अधिक प्रगत कर , अधिक ज्ञानी भक्त होता ही है उनको ढूंढना चाहिए । और उनसे प्रश्न पूछना चाहिए । वैसे प्रश्न पूछना यह बुद्धिमता का लक्षण है । बुद्धिमान व्यक्ति प्रश्न पूछता है, क्योंकि बुद्धिमत्ता का लक्षण है प्रश्न पूछना या *अथातो ब्रह्म जिज्ञासा* ! ( वेदांत सूत्र 1.1.1 ) । वेदांत कहता है कि अब तुम मनुष्य बने हो अब अतः इसलिए ब्रह्म जिज्ञासा हो जाए । अब तक तो जड की जिज्ञासा या रोटी,कमरा,मकान संबंध की जिज्ञासा या बाजार भाग की जिज्ञासा, संसार तो प्रश्न उत्तर से भरा पड़ा है । चाहे वह कोर्ट कचहरी में है या सब्जी के बाजार में है यहां वहां सभी जगह या कक्षा में है । प्रश्न उत्तर तो चलते ही हैं और ऐसा भी है कि जब पंक्ति बोलते हैं लगता है कि उनका भी कुछ चल रहा है बोध यंन्तः परस्परम् या कुछ पूछताछ कर रहे हैं । किंतु प्रश्न पूछना या जिज्ञासा कैसी होनी चाहिए ब्रह्म जिज्ञासा ! तो फिर आप बुद्धिमान हो नहीं तो बुद्धू हो । ठीक है मैं आपका स्वागत करता हूं । आपके प्रश्नों का स्वागत है उसके साथ में यह भी सुझाव दे रहा हूं की हर वक्त आप को मेरी ओर दौड़ने की आवश्यकता नहीं है आप मूड सकते हो अपनी और (एक भक्तों को संबोधित करते हुए ) ,श्याम सुंदर प्रभु या उनके शुभांगी माताजी के पूछ सकते हैं वे अधिक लिखी पढ़ी है शास्त्र का ज्ञान है ऐसे ही सब । इसके लिए भी फिर थोड़े नम्रता की आवश्यकता भी होगी । यहां तक कि आप बच्चों से भी पूछ सकते हो । देवहूति माता ने कपिल देव से प्रश्न पूछ रही थी , आप जानते हो श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कंद में , कपिल भगवान ने दिया दीया उपदेश किस को ? देवहूति को । कई सारे अध्याय हैं और संवाद है । तो मां पूछ रही है बेटे से । अथातो ब्रह्म जिज्ञासा हो रहा है । आप किसी को ढूंढ सकते हो मिल जाएंगे । हरि हरि !! और यूथ फॉरम् में भी । जब प्रश्न पूछे जाते हैं तब आप उत्तर भी लिख सकते हो । एसीबी व्यवस्था हम लोग करते ही रहते हैं । तो हर प्रश्न का उत्तर होता ही है । ठीक है ! हरि हरि !! ( एक भक्तों को संबोधित करते हुए ) राधा कुंड बैठे हुए हो । हां ! आपस में प्रश्न उत्तर किया करो मंदिर में । भक्तों के इष्ट गोष्टी में कहो , ताकि हर प्रश्न का उत्तर मुझे देने की आवश्यकता नहीं । हरि हरि ! तो क्या है ? क्या अंतर है मन ,चित्त और अंतकरण में ? यह सूक्ष्म शरीर है अंतकरण । उसमे आते हैं मन , बुद्धि , अहंकार । तो मन तो आ गया, हर एक का फिल्म लक्षण है । इसको कहते हैं 'मन' । यह है बुद्धि , यह है अहंकार । "भिन्न प्रकृर्ति अष्टद्धा" भगवान इसको कहे हैं मेरी 8 प्रकार की भिन्न प्रकृति हैं, 5 स्थूल प्रकृति है ; पृथ्वी,अग्नि,वायु,आकाश,जल और फिर यह 3 मन बुद्धि अहंकार यह भि भिन्न प्रकृति है भगवान के । और यह भगवान की शक्ति है तो मन बुद्धि अहंकार से बन जाता है हमारा सूक्ष्म शरीर उसी को अंतकरण कहते हैं । या अंतकरण उसे कहते हैं जब उसके साथ चेतना का कुछ लक्षण उसमें मिश्रित रहता है चेतना भी । तो आत्मा के कारण चेतन । तो जड़ और चेतन मन,बुद्धि,अहंकार तो जड़ है । और उसके साथ फिर कुछ या आत्मा के कुछ लक्षण दिखते हैं सूक्ष्म शरीर में । तो वही है 'चित्त' , "मच्चित्त्तः" कृष्ण गीता में कहते हैं तुम्हारा चित्त मुझ में लगा दो । "मद्गतप्राणः" तो च्चित का संबंध चेतना से है । और चेतना होती है आत्मा की फिर उसको चेक ना कहो या भावना कहो तो यह मन,बुद्धि,अहंकार साथ फिर चेतना भी दिखती है । तो फिर उसी से यह अंतकरण हमारा जो शरीर का कारण कहो या आधार कहो, जब मृत्यु होती है तो यह अंतकरण स्थूल शरीर से अलग होता है । जब मृत्यु होती है तब मन,बुद्धि,अहंकार से लिपटा रहता है , लिप्त रहता है आत्मा । आत्मा के ऊपर दो आवरण होते हैं ; स्थूल शरीर का 1 , सुख में शरीर का 2 रा आवरण । जब स्थूल शरीर को हम त्यागते हैं लेकिन यह सूक्ष्म शरीर या अंतकरण हमको छोड़ता नहीं उसमें हम बद्ध रेहते हैं । तो वह अलग रहता है । और फिर ... *देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।* *तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥* ( भगवत् गीता 2.13 ) अनुवाद:- जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है । धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता । तथा देहांतर होता है तो स्थूल शरीर से अंतकरण अलग होता है और फिर "तथा देहांतरण" दूसरे शरीर में प्रवेश करता है । हरि हरि ! ठीक है इतना ही कहते हैं । और भी प्रश्न है ! क्या हमारे पूर्व जन्म की जो कर्म या फिर कर्म का जो परिणाम या फल है वह हमको प्रभावित करता है क्या आध्यात्मिक जीवन में ? या जप करने में ? "उत्तर":- निश्चित ही । हं हं ! हरि हरि ! तो भगवान की भक्ति जो प्रेम पूर्वक,ध्यान पूर्वक जो करनी होती है और हम कर नहीं पाते क्यों ? क्योंकि हमारे पूर्व जन्म के कर्म है । सिर्फ पूर्व जन्म के ही नहीं है,इस जन्म के भी यह कल रात को किया गया कोई कर्म हमको परेशान कर सकता है । उसी का स्मरण हो सकता है । यही तो होता है जब हम कर्म करते हैं, कृत्य करते हैं वह कर्म तो क्षणिक होता है । कर्म तो समाप्त हो गया लेकिन पीछे जो छूटता है वह है कर्म की वासना । पाप किया फिर पापकी वासना तो पीछे रे ही जाती है और फिर वह पाप की वासना एक बीज के रूप में हमारे अंतकरण में चेतना में,भावना में बनी रहती है । और फिर वह भी बीज अंकुरित होता है फिर कहां है प्रारब्द्ध कर्म और फिर अप्रारब्द्ध प्रकट हुआ या भक्ति रसामृत सिंधु में यह सब समझाया है । तो जब जब बारी आती है अलग-अलग कर्म वासना और बीज और फिर इसको अंकुरित होना तो उसी के अनुसार आज के दिन यह यह होना है । कल या परसो या नरसो, भूतकाल में कई सारे जन्म तो उस पापका स्वरूप का परिणाम आंश भोगना होगा । चोरी तो कब की की हुई थी लेकिन देरी से चोर पकड़ा गया तो अब उसका फल चखेगा वह ,चोरी का जो फल कर्म फल तो आज के आज के जप के समय भक्ति के समय कोई पहले की कोई कार्य है उसकी परिणाम या पहले के पापका जो परिणाम है फल है वह धीरे-धीरे खुलने लगता है । और परेशान करता रहता है कई प्रकार से । *एवं कायेन मनसा वचसा च मनोगतम् ।* *परिचर्यमाणो भगवाम्भक्तिमत्परिचर्यया ॥* ( श्रीमद् भागवतम् 4.8.59 ) इस प्रकार जो कोई गम्भीरता तथा निष्ठा से अपने मन , वचन तथा शरीर से भगवान् की भक्ति करता है और जो बताई गई भक्ति - विधियों के कार्यों में मग्न रहता है , उसे उसकी इच्छानुसार भगवान् वर देते हैं । काया को परेशानी शरीर को या मन को या वाचर में और फिर जिसको हम पाप त्रय कहते हैं । आदि देविक आदि भौतिक आदि आध्यात्मिक कष्ट फिर हम भोंगते रहते हैं हरि हरि ! हां जरूर । यही तो बात है शास्त्र में । और भी बहुत सारे प्रश्न है ! तो भक्ति जब करते हैं या जब हम जप करते हैं तो हम तब क्या करते हैं ?... *चेतो दर्पण मार्जन भव महा दावाग्नि निर्वापणं श्रेयः कैरव चन्द्रिका वितरणं विद्या वधू जीवनम् ।* * *आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम् सर्वात्मंस्नपनं परं विजयते श्री कृष्ण सङ्कीर्तनम् ॥* ( श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.12 ) अनुवाद:- भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागर रूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है , जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतल और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बना । साफ करते हैं, हमारे आईने साफ करते हैं कई सारे धूल जमी हुई है कई सारे कलंक या दाग लगे हुए हैं हमारे चेतना को हमारे चरित्रे में कई दाग उसकी सफाई करते हैं हम जब हम जप करते हैं । या फिर जप करते समय हम क्या करते हैं हमें समझ में आना चाहिए ! जप करते हैं तो हम लोग प्रयास तो होता है यह लक्ष्य तो है जप करना मतलब भगवान की शरण ले रहे हैं । *सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।* *अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ॥* ( भगवत् गीता 18.66 ) अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत । मेरी शरण में आओ तो भक्ति कर रहे हैं कई प्रकार से हम । नवविधा भक्ती हो रही है ... *श्रीप्रह्लाद उवाच श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।* *अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ 23 ॥* *इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा ।* *क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥ 24 ॥* ( श्रीमद् भागवतम् 7.5.23-24 ) प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप , साज - सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना , उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना , भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना , भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा , कर्मणा उनकी सेवा करना ) -शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है । तो उसी में यह श्रवण कीर्तन हो रहा है,नामस्मरण हो रहा है तो भगवान की हम शरण ले रहे हैं । और हम किए हुए पाप जाने अनजाने उसकी क्षमा मांग रहे हैं । 'क्षमश्व' दया करके मुझे माफ कर दीजिए । ऐसे विचार है और फिर हम जब शरण ले रहे हैं तो फिर होता क्या है ? कृष्ण संभालते हैं । "अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः" तुम मेरी शरण लो यह तुम्हारे लिए कार्य है । तुम मेरे शरण लो तो तुम हो गए धार्मिक । तो तुम पहले जो अधार्मिक थे , पापी थे उस समय किए हुए जो कृत्य है उसका फल जो है तुम को भोगना नहीं होगा । यह बात ध्यान दीजिए .."अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि" मैं तुमको मुक्त करूंगा इस बात से या उस पाप के पलते उसका जो परिणाम निकलने वाला है उसकी शायद बारी आज है या दोपहर को है या रात्रि को है यहां वह हो रहा है । तो वह फल हमको भोगना नहीं होगा, परिणाम को भोगना नहीं होगा भगवान उसको विफल कर देंगे । ''अहं त्वां सर्वपापेभ्यो" "अंह" कौन बोल रहे हैं ? कृष्ण बोल रहे हैं "त्वां" तुम्हारे "पापेभ्यो" पापों से पापात नहीं कह रहे हैं पापात तो मतलब एक पाप से "पापेभ्यः" " रामात रामाभ्यः" मतलब पापों से समस्त पापों से क्योंकि तुम पूरी शरण ले रहे हो .."सर्वधर्मान्परित्यज्य" तो शरण भी पूरी है तो तुम्हारे सारे पापों के फल से मैं तुम्हें मुफ्त करूंगा "मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः" अभी डरो नहीं भगवान कह रहे हैं । हरि हरि ! निश्चित ही हम भक्ति कर रहे हैं, भक्ति के जीवन में या जप मैं तो समय आसकता है , आता है इस पाप के फल को उस पाप फलको चखने का कहो लेकिन अगर हमारी शरणागति पूरी है प्रार्थना हो रही है कृष्ण से हरि हरि ! तो फिर भगवान संभाल लेते तो वही है "ज्ञानाग्नि सर्व कर्माणि भस्मासात कुरुते तथा" जो ज्ञान की अग्नि है जो अब हम और आप सुन रहे हैं कुछ ज्ञान की बात या शास्त्र की बात सुन रहे हो उसी के साथ यह ज्ञान की जो अग्नि है यह 2 लक्षण एक तो प्रकाश देती है अग्नि से , और दूसरा अग्नि में दाहक शक्ति होती है किसी को जलाने की शक्ति होती है । यह जो ज्ञान अग्नि की ज्योति है यह ज्ञान की ज्योति क्या करती है ? एक तो .. "तमोशो मांम ज्योर्तिर्गमय" अंधेरे से निकलते हैं प्रकाश की ओर आते हैं या जीवन को प्राप्त करते हैं । और क्या होता है ? अग्नि की जो दाहक शक्ति होती है, अग्नि की जो जलाने की शक्ति होती है हमारे जो पाप के बीज है या फिर इसके ऊपर के स्तर भी हो सकते हैं । तो फिर उसका अंकुरित हुआ है वह पौधा अब वृक्ष बन रहा है फल लगेंगे ।और फिर कहना है तो, समय होता तो और भी कह सकते हैं । कुछ कड़वे फल है कुछ मीठे फल है । इसका फल तो या तो स्वर्ग प्राप्त हो सकती है या इसका नतीजा नर्क प्राप्ति भी हो सकती है तो तो आमतौर पर तो दो प्रकार के कार्य हम पाप और पुण्य कर्म करते हैं । तो भगवान की शरण जो हम भक्ति करते हुए लेते हैं जप के समय हमारी जो शरणागति है , भगवान की जब शरणागति ली है तो भगवान जिम्मेदारी लेते हैं वह हमको संभालते हैं हमारे सभी कार्य को । वह संभाल लेंगे बिगड़ी बात को भी तो जो भी पाप है यानी पाक के बीच है पापकी राशि है कहो उसको लगाई जाएगी आग उसकी होगी राक । और फिर होगी .."मोक्षयिष्यामि" आप मुक्त हो जाएंगे वह पाप का जो परिणाम फल हमको भोगना नहीं पड़ेगा । हरि हरि ! इसीलिए कल भी शायद हमने कहा, नहीं तो हमारे कई सारे जन्म हमारे प्रतीक्षा में हैं । कौन जानता है ? 10 है कि 100 है कि 1000 है कि 1,00,000 हैं । या वैसे जब तक हम भगवान के शरण में नहीं आते तब तक यह ... *पुनरपि जननं पुनरपि मरणं* *पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्।* *इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥* (शंकराचार्यजी द्वारा रचित भज गोविन्दम् श्लोक 21) अनुवाद:- हे परम पूज्य परमात्मा! मुझे अपनी शरण में ले लो। मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ। मुझे इस संसार रूपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो ईश्वर। यह चलता रहेगा । जैसे ही हम "मामेकं शरणं व्रज" करेंगे ! हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ जब हम करते हैं मतलब यह हम "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ॥" यह सब हो जा रहा है । जब हम इसको अनुसरण करते हैं जो गीता का सार है एक ही प्रकार से कृष्ण अर्जुन के संवाद लगभग समाप्त ही है यह कुछ अंतिम भजन भगवान के ही रहे हैं उसका पालन हम करते हैं जब हम जप करते हैं,कीर्तन करते हैं .. *कृते यद्ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै: ।* *द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात् ॥* ( श्रीमद् भगवतम् 12.3.52 ) अनुवाद:- जो फल सत्य युग में विष्णु का ध्यान करने से, त्रेता युग में यज्ञ करने से तथा द्वापर युग में भगवान के चरणकमलों की सेवा करने से, प्राप्त होता है, वही कलयुग में केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करके प्राप्त किया जा सकता है । जप यज्ञ करते हैं, तो वह अगर ठीक से करें पर पूरी तरह से शरणागति के साथ जिसको हम ध्यान पूर्वक कहते हैं या फिर अपराध रहित कहते हैं, अपराध रहित जप करना, ध्यान पूर्वक जप करना अगर किया तो हमने गीता के उपदेश का पालन किया हमने या गीता का सार रूप में जो उपदेश हम करेंगे और उसे हम पूरे लाभान्वित होंगे । और यही है इसी में है ( prevention is better than cure) इलाज से बेहतर रोकथाम है तो आप सो नहीं रहे हो । कोरोनावायरस को कैसे रोकना ( prevent ) करना चाहिए , हम उसके लिए क्या-क्या कार्य कर सकते हैं , कैसी सावधानी बरतते हैं ताकि यह कोरोनावायरस पॉजिटिव आप और हम ना बने उसी की, यह करो वह करो ताकि प्रस्तुतीकरण मैं भी एक के बाद एक उपरांत कई प्राधिकरण डॉक्टर्स आपको वह बातें बता रहे हैं लेकिन वह थोड़ा ,थोड़े समय के लिए गोली हुआ उस से कैसे बच सकते हैं इस महामारी से यानी कोरोनावायरस से लेकिन यह तब फिर कुछ थोड़ा सा प्रेयस भी हुआ .जहां तक श्रेयस की बात है अरे अरे केबल इस महामारी से उस रोग से उस रूप से बचने के लिए क्या क्या सावधानी बरतनी चाहिए ऐसा ही मत सोचो हमको क्या करना चाहिए उसको रोकने के लिए, हमारे जो भविष्य जीवन है या हमारे कितने सारे जन्म हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं हमने जो जो किया है जो पाप किया है अधिकतर पाप ही किया है तो हमको क्या करना चाहिए ताकि ? *जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।* *त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥* ( भगवत् गीता 4.9 ) अनुवाद:- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है । अगर पुनर्जन्म नहीं होगा तो तो फिर उसी के साथ जन्म ही नहीं होगा तो मृत्यु भी नहीं होने वाली है । जन्म नहीं होगा तो तो फिर इस शरीर ही प्राप्त नहीं होगा जो सारे रोगों की खान है । "शरीरंव्याधि मंदिरं" शरीर कैसा है ? व्याधि का मंदिर है । और फिर पुनर्जन्म ही नहीं होगा तो बुढ़ापा भी नहीं है तो असुविधाएं जो है कृष्ण के शब्दों में चार हैं समस्याएं हैं .. *इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च ।* *जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥* ( भगवत् गीता 13.9 ) अनुवाद:- इंद्रिय तृप्ति के विषयों का परित्याग अहंकार का अभाव जन्म मृत्यु वृद्धावस्था तथा रोग के दोषों की अनुभूति । तो बुद्धिमान व्यक्ति वहां है जो सारे भविष्य के जन्मों को टाल सकता है । तो वह हासिल होगा भक्ति करने से या भगवान की शरण लेने से । और कलयुग में नाम स्मरण से और उसी के साथ कई सारे संबंधित बात फिर तो है विधि निषेध भी । हरि हरि !! और भी कई सारे प्रश्न तो है परंतु देखते भविष्य की प्रस्तुतीकरण में । उसको भी प्रश्न देने का प्रयास करेंगे । गौरांग । इसकी भी चर्चा आपस में करो । ( परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज एक भक्तों को संबोधित करते हुए ) सुंदर कृष्ण ; मंदिर के भक्त इकट्ठे होकर ब्रह्मचारी के अंतर्गत में जो कोई प्रश्न उठते हैं इसके चर्चा आगे हो सकते हैं या अपने काउंसलर के साथ बात हो सकती है । या फिर श्री प्रभुपाद के ग्रंथ को पढ़िए या गीता पढ़ो । महात्मा गांधी भी कहा करते थे जब कोई प्रश्न परेशान करते थे इसका क्या उत्तर है ? इसका क्या उत्तर है ? ऐसे ही प्रश्न या कुछ संकाय अपने मन में थी तो फिर ऐसा अपना अनुभव बताते । जब वह किताब खोलते तुरंत ही उनको वही मिल जाता । जिस प्रश्न का उत्तर वह ढूंढ रहे थे वह क्या है जब हो गीता को खोलते तो जिस उत्तर के खोज में वे थे उनको वहां गीता में मिलता । तो यह भी करना ही होता है । तो कीर्तनया सदा हरी या ... *नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया ।* *भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥* ( श्रीमद् भागवतम् 1. 2.18 ) भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है , जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है । दिन में भी आपको पढ़ना चाहिए गीता भागवत् । *गीता भागवत करीति श्रवण , अखंड चिंतन विठोबाचे* ( संत तुकाराम के द्वारा ) अनुवाद:- जहां भगवद्गीता और भागवत का अनवरत पाठ और भगवान विट्ठल चिंतन होता है । आपको खुद को उत्तर मिलेंगे । या फिर भगवान बैठे हैं चैत्य गुरु है । पहले गुरु हैं भगवान ही है ! "कृष्णं वंदे जगतगुरुं" तो "दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित" आपके मन में भी प्रकट कराएंगे । क्रांति होंगे । ( Seek you will find, ढूंढो तुम पाओगे ) । आप खोजो प्राप्त होगा । ठीक है । *॥ हरे कृष्णा ॥*

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