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जप चर्चा पंढरपुर धाम से 23 मार्च 2021 हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे| हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे|| 770 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। मंगोलिया से एक भक्त हमारे साथ जप कर रहे है। अभी वह नोएडा में है पर वह मंगोलिया से है भगवान जब कृपा करते हैं छप्पर फाड़कर कृपा करते हैं। अपनी कृपा की दृष्टि मंगोलिया तक पहुंचा दी भगवान ने ऐसे हैं श्री गौराङ्ग प्रणाम नमो महावदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रदाय ते कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौरत्विषे नमः इसीलिए यह प्रार्थना रुप गोस्वामी ने की हैं। तुमा बिना के दयालु जगत संसारे इस संसार में सबसे दयालु श्री चैतन्य महाप्रभु है चैतन्य चरित्रामृत आदि लीला तृतीय परिच्छेद मतलब अध्याय पढ़ेंगे। चैतन्य चरित्रामृत बांग्ला भाषा में है अभी बांग्ला सीखो पढ़ो नवद्वीप बांग्ला जानते हो पढ़ते हो आप को पढ़ना चाहिए आप पढ़ते हो बहुत अच्छा है सभी लोग प्रयास करो सभी लोग बंगला सीखने का प्रयास करो कठिन नहीं है पर फायदे ही फायदे हैं यदि आप बांग्ला बोल सकते हो तो सीधे आप चैतन्य चरितामृत पढ़ सकते हो यहां और भी गौड़ीय ग्रंथ पढ़ सकते हो।बांग्ला भाषा में हमारी परंपरा गौड़ बंगाल देश से ही स्थित है चैतन्य महाप्रभु बंगाल देश में ही प्रकट हुए हैं। नवदीप मायापुर में चैतन्य महाप्रभु बांग्ला बोलते थे कृष्ण बोलते थे संस्कृत मैं और श्री कृष्ण चैतन्य बोलते थे बांग्ला भाषा में भगवान तो सभी भाषा बोलते हैं बोल सकते हैं तो हमें भी थोड़ा बंगला पढ़ना चाहिए और सीखना भी चाहिए। जय जय श्री - चैतन्य जय नित्यानन्द । जयाद्वैत - चन्द्र जय गौर - भक्त - वृन्द ॥२ ॥ अनुवाद:- श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो ! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो ! अद्वैतचन्द्र प्रभु की जय हो और श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो ! अध्याय की शुरुआत कैसे होती है जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद श्री अद्वैत चन्द्र जय गौर - भक्त - वृन्द गौर भक्त वृन्द की जय..... तृतीय श्लोक का अर्थ पहले कृष्ण दास कविराज गोस्वामी वैसे 14 श्लोक प्रारंभ में उन्होंने कहा है जहां तक मुझे स्मरण है चैतन्य चरित्रामृत के बिल्कुल प्रारंभ में उन्होंने 14 श्लोक कहे हैं और फिर उसमें से एक एक श्लोक को आगे के अध्याय में समझाया है। यह तृतीय श्लोक कहे हैं। कृष्ण दास कविराज गोस्वामी कह रहे हैं तृतीय श्लोकेर अर्थ कैल विवरण । चतुर्थ श्लोकेर अर्थ शुन भक्त गण ॥३।। ॥ अनुवाद मैं तीसरे श्लोक का तात्पर्य बता चुका हूँ । हे भक्तजन , अब कृपा करके ध्यानपूर्वक चौथे श्लोक का अर्थ सुनें कि मैंने अभी-अभी तृतीय श्लोक का अर्थ समझाया है अभी मैं चौथे श्लोक का अर्थ समझाऊंगा। आप चैतन्य चरितामृत का अध्ययन करो या उससे पहले गीता या भागवत का अध्ययन किया ही होगा आपने तो चैतन्य चरित्रामृत आप पढ़ सकते हो चतुर्थ श्लोक कौन सा है उसका पता लगाइए यह आपके लिए घर काम है। पूर्ण भगवान्कृष्ण व्रजेन्द्र - कुमार । गोलोके व्रजेर सह नित्य विहार ॥५ ॥ अनुवाद:- व्रजराज के पुत्र श्रीकृष्ण परम भगवान् हैं । वे अपने सनातन धाम गोलोक में , जिसमें व्रजधाम भी सम्मिलित है , अपनी दिव्य लीलाओं का आनन्द लेते हैं । यदि आप बांग्ला सीखते हो हो तो उसे आप आसानी से पढ़ सकते हो और फिर समझ भी सकता हूं कोई कठिन नहीं है कठिन है ही नहीं डरना नहीं आप कठिन समझते हो फिर पढ़ते नहीं ऐसे संस्कृत भाषा भी किसी ने प्रचार किया कि कठिन है कठिन है कठिन है संस्कृत भाषा सरल है। गोपाल राधे आप समझ रहे हो आप दो बंगाली ही हो पूर्ण भगवान कौन है बृजेंद्र कुमार बृजेंद्र थोड़े से सरल करके समझाना पड़ता है ब्रज के इंद्र नंद महाराज और उनका कुमार मतलब श्री कृष्णा ही है पूर्ण भगवान एक एक शब्द को और उसकी ओर ध्यान देंगे तो उसका शब्दार्थ और भावार्थ हम समझ पाएंगे। और ये ब्रजेन्द्र कुमार गोलोक में भक्तों के साथ नित्य विहार करते हैं। ब्रह्मार एक दिने तिहो एक - बार । का *अवतीर्ण हञा करेन प्रकट विहार ॥६।। अनुवाद :- वे ब्रह्मा के एक दिन में एक ही बार इस जगत् में अपनी दिव्य लीलाएँ प्रकट करने के लिए अवतरित होते हैं । यह बात आपने कई बार सुनी होंगी तो यहां पर लिखा है ब्रह्मा के 1 दिन में यह बृजेंन्द्र कुमार श्री कृष्ण प्रकट होते हैं ब्रह्मा जी के 1 दिन में संभवामि युगे युगे तो चलता ही रहता है हर युग में भगवान अवतार लेते हैं किंतु अवतारी श्री कृष्ण ब्रह्मा के 1 दिन में एक ही बार प्रकट होते हैं ब्रह्मा के दिन को कल्प कहते हैं। ऐसे ही कल्पांतर लीलाए भगवान की चलती रहती हैं। जैसे ये लीला इस स्थान पर की थी ऐसी की थी ऐसे कल्पांतर भेद की बात चलती रहती हैं। सत्य , त्रेता , द्वापर , कलि , चारि - ग्रुग जानि । सेइ चारि - युगे दिव्य एक - ग्रुग मानि ॥७ ॥ अनुवाद:- हम जानते हैं कि युग चार हैं , यथा सत्य , त्रेता , द्वापर तथा कलियुग । ये चारों मिलकर एक दिव्य युग की रचना करते हैं । चार प्रकार के योग हैं आप याद रखिए ऐसा थोड़ा ध्यान होना चाहिए क्या नाम है चार युगों के सत्य त्रेता द्वापर और कली हां ठीक है ना वैष्णवी प्रिया मॉरीशस वाली इस भक्त को संबोधित करते हुए महाराज जी ने पूछा..... यह चार युग मिल कर एक महायूग होता है इसे महायूग कहते हैं या एक योग होता है चार युगों का एक युग होता है इसे महायूग कहते हैं। एकात्तर चतुर्युगे एक मन्वन्तर । चौद्द मन्वन्तर ब्रह्मार दिवस भितर ॥८ ॥ अनुवाद:- एकहत्तर दिव्य युग मिलकर एक मन्वन्तर बनाते हैं । ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मन्वन्तर होते हैं । और ये बात यह भी ज्ञान की बात या सत्य बात है यहा कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिख रहे हैं मन्वंतर होता है 71 युगों का मन्वंतर होता है। 71 मुहायुगों का एक मन्वंतर होता है और एक और एक कल्प मतलब ब्रह्मा के 1 दिन में 14 मनु होते हैं। मनु कहो या मन्वंतर कहो और वैसे श्रीमद भगवतम के द्वितीय स्कंध के तृतीय अध्याय में प्रथम श्लोक में कहां है श्रीमद भगवतम में 10 विषयों की चर्चा है उसमें एक है मन्वंतर,ऊती, ऐसे 10 विषय हैं। उसमेसे एक विषय हैं मन्वंतर मनु में अंतर एक मनु के बाद दूसरा मनु हैं ब्रह्मा जी के 1 दिन में 14 मनु होते हैं और यह सब ब्रह्मा जी के 1 दिन में 1000 महायूग होते हैं। सहस्त्रयुगपर्यन्तमहर्यद् ब्रह्मणो विदु: | रात्रिं युगसहस्त्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः || १७ || अनुवाद:- मानवीय गणना के अनुसार एक हजार युग मिलकर ब्रह्मा का दिन बनता है और इतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात्रि भी होती है | सहस्त्रयुगपर्यन्तमहर्यद् वैसे भगवान श्री कृष्ण ने भगवत गीता में भी कहां है। ब्रम्हा जी के एक दिन में सहस्त्र युग पर्यंत सहस्त्र युग होते है ब्रह्मा जी के 1 दिन में 1000 लोग होते हैं और ब्रह्मा के 1 दिन में 14 मनु होते हैं तो एक-एक मनु के कितने युग हो गए था 1000 ÷ 14=71 होते हैं तो हर मनु का जो कालावधि होता हैं 71 युगों का होता हैं यही बात यहां समझाई गई हैं। ' वैवस्वत ' - नाम एइ सप्तम मन्वन्तर । साताइश चतुर्युग ताहार अन्तर ॥९ ॥ अनुवाद:- वर्तमान मनु सातवें मनु हैं और ये वैवस्वत ( विवस्वान के पुत्र ) कहलाते हैं । अब तक उनकी आयु के सत्ताइस दिव्य युग ( २७×४३,२०,००० सौर वर्ष ) बीत चुके हैं । अभी जो मन्वंतर चल रहा है वैवस्वत मनु का काल है, मनुष्य मनुष्य होते हैं मनुष्य मनु महाराज का काल है वह वैवस्वत मनु है और हर मनु के कितने युग होते हैं कितने होते हैं बताइए 71 युग होते हैं जब 71 लोग हैं या महा युगों में से 27 वा जो युग आता है तब इस 27 वे महायुग के द्वापरयुग के अंत मे श्रीकृष्ण प्रकट होते हैं। वैवस्वत मनु कारोबार संभाल रहे हैं इस समय और उनकी आयु का हो या कारोबार की कालावधी कहो तो 71 में से 27 युग महा युग चल रहा है द्वापर युग के अंत में श्री कृष्णा प्रकट होते हैं और हो चुके है 28 युग के अंत मे द्वापर में श्रीकृष्ण प्रकट हुए। दास्य , सख्य , वात्सल्य , शृङ्गार - चारि रस । चारि भावेर भक्त प्रत कृष्ण तार वश ॥११ ॥ अनुवाद :- दास्य ( सेवक भाव ) , सख्य ( मैत्री ) , वात्सल्य ( माता - पिता का स्नेह ) तथा श्रृंगार ( दाम्पत्य प्रेम ) -ये चार दिव्य रस हैं । जो भक्त इन चारों रसों का आस्वादन करते हैं , भगवान् कृष्ण उनके वश में रहते हैं । तो श्री कृष्णा मथुरा धाम में जन्म लिया और ब्रज मंडल में अपने लीला खेलें और चार भाव वाली भक्ति वहां पर कर रहे थे दास्य,साख्य,वास्तल्य और माधुर्य या श्रृंगार भाव भक्ति वृंदावन में ऐसी भक्ति हुई। दास - सखा - पिता - माता - कान्ता - गण लजा । व्रजे क्रीड़ा करे कृष्ण प्रेमाविष्ट हञा ॥१२ ॥ अनुवाद:- ऐसे दिव्य प्रेम में निमग्न होकर भगवान् श्रीकृष्ण अपने समर्पित सेवकों , मित्रों , माता - पिता तथा प्रेमिकाओं के साथ व्रज में आनन्द का आस्वादन करते हैं । तो इन सभी भक्तों को कुछ ना तो कुछ दासों को भी वैसे वृंदावन में दास कम ही होते हैं। वृंदावन में दास कम होते हैं वैकुंठ में दास होते तो कुछ दास और फिर माता पिता और मित्र और प्रियसी गन इन को लेकर कृष्ण ने प्रेम आवेश में कई सारे लीला ये खेली ऐसे यहां लिखा है। यथेष्ट विहरि ' कृष्ण करे अन्तर्धान । अन्तर्धान करि ' मने करे अनुमान ॥१३ अनुवाद:- जब तक इच्छा होती है , भगवान् कृष्ण अपनी दिव्य लीलाओं का आस्वादन करते हैं और पुनः अन्तर्धान हो जाते हैं । किन्तु अन्तर्धान होने के बाद वे इस प्रकार सोचते हैं भगवान श्रीकृष्ण इस धरातल पर 125 साल रहे वृंदावन में तो 10 या फिर 11 साल ही रहें। उसी वृंदावन में जिस का उल्लेख किया कि जिसमे दास और साख्य वात्सल्य श्रृंगार भाव भक्ति का प्रदर्शन हुआ,लेकिन कृष्ण आगे जब बढ़े मथुरा, द्वारिका इन सब स्थानों को मिला कर 125 वर्षा भगवान इस धरातल पर रहे और फिर अंतर्धान हुए ऐसे यहां लिखा है। अंतर्धान हुए मतलब कृष्ण अपने स्वधाम लौटे कहा हैं भगवान का स्वधाम कहा है स्वर्ग हैं क्या प्रेम पद्मिनी माताजी से पूछते हैं गुरुदेव कहा रहते है कृष्ण स्वर्ग में रहते हैं क्या स्वर्ग में नही रहते होंगे तो कहा वैकुंठ में रहते होंगे यहां भी नही रहते ऐसे कोई कह रहे है तो जो महा वैकुण्ठ हैं कहो गोलोक में रहते हैं श्रीकृष्ण तो जब वहां लौटे तब मने करे अनुमान भगवान वहां विचार कर रहे हैं तो यहां की कृष्ण की लीला संपन्न हुई पूरी हुई भगवान अंतर्धान हुए अपने धाम लौटे और वहां भी विचार कर रहे हैं सोच रहे हैं कृष्ण क्या सोच रहे हैं.... चिर - काल नाहि करि प्रेम - भक्ति दान । भक्ति विना जगतेर नाहि अवस्थान ॥१४ ॥ अनुवाद:- दीर्घ काल से मैंने अपनी अनन्य प्रेमाभक्ति का दान विश्व के निवासियों को नहीं दिया । ऐसी प्रेममयी अनुरक्ति के बिना भौतिक जगत् का अस्तित्व व्यर्थ है । कृष्ण सोच रहे हैं कि मैंने बहुत समय से प्रेम भक्ति का दान नही किया उठो जागो भगवान सोच रहे हैं और आप सो रहे हो भगवान को आपकी चिंता हैं भगवान चिंतिंत हैं और आप बे फिक्र हो आराम हराम है आराम चल रहा है। हरि हरि कृष्ण ने क्या सोचा मैंने प्रेमा भक्ति का दान नहीं किया प्रेम मई भक्ति तो ,और लीला तो मैंने संपन्न की माधुर्य लीला मधुर वृंदावन में पर इसका दान और वितरण नही किया। सकल जगते मोरे करे विधि - भक्ति । मशिन विधि - भक्त्ये व्रज - भाव पाइते नाहि शक्ति ॥१५ ॥ अनुवाद:- " संसार में शास्त्रों के निर्देशानुसार सर्वत्र मेरी पूजा की जाती है । किन्तु ऐसे विधि - विधानों का पालन करने मात्र से व्रजभूमि के भक्तों के प्रेमभावों को प्राप्त नहीं किया जा सकता । इसको थोड़ा ध्यान पूर्वक सुनना होगा थोड़ा कुछ आप लोग हरी बोल हाथ पर कीजिए गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल खड़े हो जाइए कुछ नाची है मू धोइये भी है। आपको देख कर मुझे दया आ रही हैं लेकिन क्या करें आप दया को स्वीकार नहीं करते आप मस्त हो माया की मस्ती में तब आप सुन तो लो भगवान क्या सोच रहे हैं भगवान कह रहे हैं कि ब्रह्मांड भर में या पृथ्वी पर अधिकतर लोग जो साधना भक्ति करते हैं तो वह विधि वैधि भक्ति का अवलंबन करते हैं या रागानुगा भक्ति का अवलंबन नही करते हैं या प्रेमा भक्ति के साधनों का अवलंब नही करते या वैधि भक्ति का अवलंबन करते हैं नियमों को तो पालन करते हैं पर जो प्रेम मई भक्ति हैं रागाणुग भक्ति है उसका अवलंबन नहीं करते या तो इसे वो केवल वैकुंठ तक पोहोच सकते हैं लेकिन मेरे धाम में गोलोक नाम्नी निज धामनी गोलोक धाम में तो नहीं पोहोचेंगे। ऐश्वर्य ज्ञानेत सबे जगत मिश्रित ऐश्वर्य शिथिल प्रेमे नाही मोर प्रीत अपने साधना भक्ति में वैधि भक्ति में ऐश्वर्य ज्ञान से मिश्रित होता हैं। भगवान महान है और हम महान हैं छोटे हैं इससे प्रेम नहीं होता फिर भगवान से भी तो बना रहता है कि भगवान महान है हमें दंडित कर सकते हैं ऐसा भय बना रहता है पर प्रेम नहीं जगता उस वैदि भक्ति से तुम्हें ऐसा कुछ उपाय करना चाहता हूं ताकि या मैं वैसे प्रेम भक्ति का दान ही देना चाहता हूं। वैकुंठ के जाए चतुर्विधा मुक्ति पाइया साष्टी , सारूप्य , आर सामीप्य , सालोक्य । सायुज्य ना लय भक्त नाते ब्रह्म - ऐक्य ॥१८ ॥ अनुवाद:- ये मुक्तियाँ हैं - सार्टि ( भगवान् तुल्य ऐश्वर्य की प्राप्ति ) , सारूप्य ( भगवान् जैसा ही रूप प्राप्त करना ) , सामीप्य ( भगवान् का निजी पार्षद बनना ) तथा सालोक्य ( वैकुण्ठ ग्रह पर निवास करना ) । किन्तु भक्तगण सायुज्य मुक्ति को कभी स्वीकार नहीं करते , क्योंकि यह ब्रह्म से तादात्म्य है । ऐसे चार मुक्ती के नाम यहां कृष्ण ही याद कर रहे हैं वैरी भक्ति का अवलंबन पालन तो उसी के अंतर्गत इस प्रकार के मुक्ति को प्राप्त करते हैं साष्टी, सारूप्य ,सामीप्य,सालोक्य सायुज्य इसके अर्थ समझ में आने चाहिए भक्तिरसामृत सिंधु में सब समझाया सालोक्य मुक्ति कोनसी सामीप्य कोनसी साष्टी मुक्ति का अर्थ क्या है सारूप्य मुक्ति क्या होती हैं भक्तिरसामृत सिंधु को पढ़ना होगा साइंस ऑफ भक्ति योग जिसको प्रभुपाद कहते है जिसमे भक्ति का शास्त्र जिसमे समझाए हैं स्वयम रूप गोस्वामी उसको समझाए हैं। और फिर पाचवी मुक्ति हैं सायुज्य इसको तो स्वीकार करना ही नही चाहते भक्त सायुज्य मतलब ज्योत में ज्योत को मिलाना ब्रम्ह में आत्मा का मिलन अद्वैत वाद निराकार निर्गुणवाद ये सब शंकराचार्य के ठगाई हैं भाष्य हैं मायावाद भाष्य सुनिले होइ सर्वनाश जिसको चैतन्य महाप्रभु कहे जो मायावाद भाष्य सुनते हैं फिर भगवान में लीन होते भगवान के साथ मिलन नही होता मिलन या समेलन मतलब जिससे मिलते हैं वो भी हैं और मिलने वाला भी हैं दोनों भी हैं मिलन होना एक बात है और लीन होना एक बात है लीन होना मतलब अपने अस्तित्व को समाप्त कर देना बस ब्रह्म ज्योति में लीन हो जाना ऐसा कोई होता तो नहीं लेकिन ऐसे गुमराह किया जाता है इस के चक्कर में कई फस जाते हैं तब श्री कृष्ण अपने धाम में गोलोक धाम में सोच रहे कि क्या उपाय कर सकते हैं। युग - धर्म प्रवर्ताइमु नाम - सङ्कीर्तन चारि भाव - भक्ति दिया नाचामु भुवन ॥१ ९ ॥ अनुवाद:-“ मैं युगधर्म नाम - संकीर्तन का अर्थात् पवित्र नाम के सामूहिक कीर्तन का प्रवर्तन स्वयं करूँगा । मैं संसार को प्रेमाभक्ति के चार रसों की अनुभूति कराकर प्रेम - विभोर होकर नृत्य करने के लिए प्रवृत्त करूँगा । श्रीकृष्ण ने संकल्प किया या कर रहे हैं गोलोक में..... 5000 साल पहले थे ना तो लौट गए और फिर वहां लौटने पर थोड़ा शोक भी कर रहे हैं , जो भी हमने किया! थोड़ा देख लेता हूं , मैंने क्या-क्या किया , कुछ किया कि नहीं ? कुछ काम अधूरा रह गया । कहो कि आत्म परीक्षण कर रहे हैं , श्रीकृष्ण सोच रहे हैं कुछ मुद्दे , सोच रहे हैं । कृष्ण यह नोंद कर रहे हैं कि मैंने शुद्ध भक्तों के साथ परिकरो के साथ में प्रेममय लीला खेलता रहा लेकिन दुनिया वालों को मैने लाभान्वित नहीं किया या साधकों को , बद्ध जिओ को उनके उद्धार के लिए मैंने प्रेम भक्ति नहीं दी , प्रेम भक्ति का दान नहीं किया । अनअर्पित चिराम करुनिया चरित्रामृत के शुरुआत में ऐसा उल्लेख हुआ भी है , अन मतलब नहीं , अर्पित मतलब दिया नहीं ,क्या नहीं दिया ? अनअर्पित चिराम , प्रेम नहीं दिया , प्रेम का वितरण नहीं किया। चिराद मतलब बहुत समय से मैंने ऐसा कार्य प्रेम दान का कार्य नहीं किया । अब मैं दोबारा करना चाहता हूं , मुझे यह करना चाहिए । पहले कब किया था ? ब्रम्हा के पहले वाले दिन में किया था , इसके पहले के ब्रह्मा के दिन में मैंने किया था , कृष्ण ब्रह्मा के 1 दिन में भी प्रकट होते हैं और फिर कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रगट होता है । अब वही तो बात हो रही है , श्री कृष्ण अभी अभी यहां से होकर लौटे लगभग 5000 वर्षों के उपरांत फिर सोच रहे कि चलो अब दोबारा मिलते हैं , फिर लौटते हैं , पृथ्वी पर मैं पुनः जाता हूं और पिछली बार जो मैंने कार्य नहीं किया उसको अब मैं पूरा करता हूं , मैं अभी प्रेम का दान देता हूं , और मैं क्या करूंगा ? आपनी करिबो भक्त भाव अंगीकारे इसको भी समझिए , "मैं स्वयं ही भक्त बन जाऊंगा" भगवान सोच रहे हैं , "मैं स्वयं ही भगवान का भक्त बन जाऊंगा , मैं भगवान हूं , लेकिन मैं स्वयं भक्ति भाव को अपनाउगा और भक्ति का आदर्श सारे संसार के समक्ष रखूंगा । अपने आचारी जगद सिखाय अपने आचरण से सारे संसार को सिखाऊंगा । आचार्य भाव दिया चार प्रकार की भक्ति देकर सारे लोगों को नचाउंगा , चार प्रकार की भक्ति मतलब , कुछ को दास भक्ति भी , सांख्य भक्ति , वात्सल्य भक्ति शृंगार भक्ति देकर मैं सबको नचाउगा । सब जपेंगे और नाचेंगे । बजरंगी ? श्री कृष्ण गोलोक में बैठे हैं और ऐसा सोच रहे हैं , कुछ योजना बना रहे हैं , आपने ना कैले धर्म शिखान ना नाय । एइ त ' सिद्धान्त गीता - भागवते गाय ॥ . अनुवाद " जब तक कोई स्वयं भक्ति का अभ्यास नहीं करता , तब तक वह दूसरों को इसकी शिक्षा नहीं दे सकता । इस निष्कर्ष की पुष्टि वस्तुतः पूरी गीता तथा भागवत में हुई है ।* यह मैं नहीं करूंगा तो और कोन करेगा? जो श्रेष्ठ होते हैं उनका जैसा आचरण होता है वैसे फिर दूसरे लोग उसकी नकल करते हैं । ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः || ११ || अनुवाद:-जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ | हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है |* कृष्ण कहते है वर्म मतलब मार्ग जिस मार्ग पर मैं चलूंगा , जो मार्ग में दिखाऊंगा , जीस मार्ग का आदर्श दुनिया के समक्ष रखुंगा दुनिया उसकी ही नकल करेगीे फिर ऐसे ही हुआ । तप्त - हेम - सम - कान्ति , प्रकाण्ड शरीर । नव - मेघ जिनि कण्ठ - ध्वनि ग्रे गम्भीर ॥ अनुवाद:- उनके विस्तृत शरीर की कान्ति पिघले सोने के समान है । उनकी गम्भीर वाणी नये उमड़े बादलों की गर्जना को परास्त करने वाली है ।* श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का प्राकट्य , और उनका स्वरूप और उनका सौंदर्य कैसे होगा ? तप्त हेम मतलब तप्त कांचन मतलब स्वर्ण , सुवर्ण का मैं बनूंगा , प्रकांड शरीर , मेरा महान विशाल विग्रह होगा। आजानुलम्बित - भुजौ कनकावदातौ सङ्कीर्तनैक - पितरौ कमलायताक्षौ । विश्वम्भरौ द्विजवरौ युगधर्मपालौ वन्दे जगत्प्रियकरौ करुणावतारौ ॥ अनुवाद : मैं भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु और भगवान् श्री नित्यानन्द प्रभु की आराधना करता हूँ , जिनकी लम्बी भुजाएं उनके घुटनों तक पहुँचती हैं , जिनकी सुन्दर अंगकान्ती पिघले हुए स्वर्ण की तरह चमकीले पीत वर्ण की है , जिनके लम्बाकार नेत्र रक्तवर्ण के कमलपुष्पों के समान हैं । वे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण , इस युग के धर्मतत्त्वों के रक्षक , सभी जीवात्माओं के लिए दानशील हितैषी और भगवान् के सर्वदयालु अवतार हैं । उन्होंने भगवान् कृष्ण के पवित्र नामों के सामूहिक कीर्तन का शुभारम्भ किया ।* मेरे हाथ लंबे होंगे और मेरे विग्रह में , मेरे रूप में 32 अलग-अलग विशेष लक्षण होंगे , महापुरुष के लक्षण होंगे । नीग्रोध परिमंडल ऐसा एक तांत्रिक नाम है , जिसमें 32 अलग-अलग गुण है। हरि हरि। भगवान के साथ अंग कमल सदृश होंगे ,साथ अवयव कमल जैसे होंगे। भगवान की आंखें हैं , मुख मंडल है , हंस्थ कमल है , चरण कमल है , नाभि है , कमलनाथ , यह साथ भाग कमल जैसे हैं । वैसे तो 32 का उल्लेख किया है , साथ भगवान के शरीर के अवयव गुलाबी रंग के होंगे या उसमें लालिमा होगी । पुंडरीक विद्यानिधि ? केवल भगवान के ही आंखों में लालिमा होती है थोड़ी हल्की लाल छटा होती है , भगवान का तलवा लाल होता हैं , भगवान के ओठ लाल होते , हैं इस प्रकार साथ अंग है । हरी हरी। और भगवान के 3 अवयव में गेहराई होती है। मेघ गँभिर्य वाचा भगवान की जो वाणी होती है उसमें गहराई होती है , भगवान का दिमाग है उस में गहराई होती है , ऐसे तीन भाग हैं । और कुछ भाग लंबे है , जैसे भगवान आजानुलम्बित - भुजौ कनकावदातौ सङ्कीर्तनैक - पितरौ कमलायताक्षौ । विश्वम्भरौ द्विजवरौ युगधर्मपालौ वन्दे जगत्प्रियकरौ करुणावतारौ ॥ अनुवाद : मैं भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु और भगवान् श्री नित्यानन्द प्रभु की आराधना करता हूँ , जिनकी लम्बी भुजाएं उनके घुटनों तक पहुँचती हैं , जिनकी सुन्दर अंगकान्ती पिघले हुए स्वर्ण की तरह चमकीले पीत वर्ण की है , जिनके लम्बाकार नेत्र रक्तवर्ण के कमलपुष्पों के समान हैं । वे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण , इस युग के धर्मतत्त्वों के रक्षक , सभी जीवात्माओं के लिए दानशील हितैषी और भगवान् के सर्वदयालु अवतार हैं । उन्होंने भगवान् कृष्ण के पवित्र नामों के सामूहिक कीर्तन का शुभारम्भ किया । हाथ लंबे है लेकिन गर्दन छोटी होती है और कुछ भाग़ उभरे होते हैं , नाक और विशाल बाल होते हैं छाती रूंद होती है , इस प्रकार 32 विशेष लक्षण , दर्शन भगवान के विग्रह के होते हैं । और ऐसा ही विग्रह होता है वैसे भी होते ही है , यहां प्रकट हो रहे इसिलीये वैसे कुछ प्रयास करते , कुछ कसरत करते है ऐसा नहीं होता , वजन को घटाने हैं बढ़ाते ऐसा कुछ नहीं होता है , वह अपने धाम में जैसे होते है वैसे ही प्रकट होते हैं , वही का ही वर्णन है । हमने 32 में से कुछ कहे और आप बाकी शास्त्रों में से पता लगाइए । स्वरूप चिंतन नामक ग्रंथ अभी हमने लिखा है , प्रिंट हो रहा है देखते हैं पुंडरीक विद्यानिधि कब उसको छापते हैं , हमारा पदयात्रा प्रेस ट्रस्ट , उसमें यह सब वर्णन आया भी है । ठीक है । कमल लोचन भी होगे और यह गौरांग महाप्रभु का वर्णन चल रहा है ऐसा ही मान कर चलो , माने क्या है ही , कृष्ण बनेंगे चैतन्य ! श्री कृष्ण चैतन्य बनेंगे । बनेंगे की बात ही नहीं है वैसे वह भी गोलोक में होते ही हैं , गोलोक के दो विभाग है एक वृंदावन विभाग है और नवद्वीप दूसरा है । यह पर कृपा करके यह दोनों धाम प्रकट है , वृंदावन धाम , मायापुर धाम , मायापुर में उत्सव भी चल रहा है , और कुछ ही दिनों के उपरांत गौर पूर्णिमा महोत्सव भी पूरा संसार और वहां पहुंचे हुए भक्त भी मनाएंगे । गौर पूर्णिमा महोत्सव की तैयारी चल रही है , कृष्ण प्रकट होने के पहले कैसे गोलोक में सोच रहे थे और , सोच कर सोचो साथ में क्या जाएगा ? ऐसे ट्रक वाले लिखते ट्रक के पीछे "सोचकर सोचो" मतलब पुनः पुनः सोचो । कृष्ण ने भी सोचा है और सोच कर एक बार वृंदावन से कृष्ण आते हैं और फिर नवदीप मायापुर जो गोलोक में ही है जिसको श्वेत दीप भी कहां है , वहां से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट होते हैं । किसलिए प्रकट होते हैं ? अभी समझ में आ रहा है कि नहीं ? जिसको हमने कल कहा था , कॉन्फिडेंशीअल रिझन वैसे भगवान आते हैं , परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || अनुवाद:-भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ | यह चलता रहता है ऐसा चलता ही है लेकिन जब वह चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हो रही है तब वह क्लीन और कॉन्फिडेनशीअल रिझन जिसका कुछ स्पष्टीकरण यहां हुआ है और भी है । कॉन्फिडेंशियल रिझन वाली जो बातें हैं , जो गोपनीय कारण की बाते है , जो उनके प्राकट्य के पीछे का उद्देश्य है वहा थोड़ा हम पहुंच चुके हैं ।इस उद्देश्य से भगवान गौरंग प्रकट हुए । मुख्यता प्रेम का दान देने के लिए आए इतना तो समझ जाओ । प्रेम का दान देने के लिए प्रकट हुए थे और प्रेम का दान देने के लिए दाता बनेंगे और जहां वह प्रकट होंगे उस धाम का नाम औदार्य धाम होगा उदार से औदार्य शब्द होता है , माधुर्य धाम वृंदावन है और मायापुर धाम औदार्य धाम है । नमो महावदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रदाय ते कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौरत्विषे नमः नमो महावदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रद कृष्ण प्रेम देंगे , वितरण करेंगे , हरि हरि । वह दयालु होंगे , क्या करेंगे ? कैसे दया दिखाएंगे इस रूप ? कृष्ण प्रेम प्रद कृष्ण प्रेम का दान देंगे इसलिए कृष्ण प्रेम प्रदाय , कृष्ण प्रेम देने वाले नमः है आगे , नमो नमः कृष्ण प्रेम प्रदायते , नमो महादेवाय नमः , कृष्ण प्रेम प्रदायते नमः , कृष्णाय कृष्ण चैतन्य नामिने नमः , गौरत्विशे नमः चार नमस्कार करने होंगे , किये है ही लेकिन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का चार प्रकार से वर्णन हुआ है , ऐसे श्री कृष्ण चैतन्य को मेरा नमस्कार है । वह दानी है , ऐसे दानी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को नमस्कार यह हुआ , दानी है , दाता है ऐसे गुण की बात हुई और आगे लीला की बात है , कौन सी लीला खेलेंगे ? कृष्ण प्रेम प्रदाय, कृष्ण प्रेम देंगे यह लीला है । गुण हुआ , लीला हुई क्या बच गया ? धाम बच गया । कृष्णाय कृष्ण चैतन्य नामिने यह कृष्ण है लेकिन अब उनका नाम होगा श्रीकृष्ण चैतन्य , कृष्णाय कृष्ण चैतन्य नामिने कृष्ण को ही नमस्कार लेकिन कैसे कृष्ण को नमस्कार ? कृष्ण चैतन्य नाम वाले कृष्ण को नमस्कार । अब क्या बज गया ? अभी गुण हुआ , लीला हुई , नाम हुआ , अब क्या बच गया ? उनका रूप बच गया । कैसे रूप वाले हैं ? गौरत्विष नमः त्विष मतलब कांति । गौर वर्ण के गौरांग , गौरंग महाप्रभु को मेरा नमस्कार । ऐसे इस प्रकार छोटे और संक्षिप्त प्रणाम मंत्र में रूप गोस्वामी ने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के नाम , रूप, गन ,लीला का उल्लेख किया है । ऐसे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरण कमलों में बारंबार प्रणाम है। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ।

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