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जप चर्चा १९.०८.२०२० हरे कृष्ण! आज इस जप कॉन्फ्रेंस में 815 स्थानों से प्रतिभागी सम्मलित हैं। हरि! हरि!सुप्रभातम्! 'गुड़ मॉर्निंग!' कैसी है प्रभात? प्रभात समझते हो? ' प्रात:काल, मॉर्निंग या गुड़ मॉर्निंग,' हरि! हरि! सदाचारी गौर, कुछ समझ आ रहा है? लोग कहते तो रहते हैं, गुड़ मॉर्निंग अर्थात सुप्रभातम्, लेकिन हरे कृष्ण भक्त ही जानते हैं कि प्रभात को कैसे सुप्रभात या मॉर्निंग को कैसे गुड़ मॉर्निंग बना सकते हैं। जैसे हम केवल हैप्पी बर्थडे या हैप्पी डे या हैप्पी न्यू ईयर ही नहीं कहते हैं बल्कि जो भगवान् ने कहा है और श्रील प्रभुपाद भी कहा करते थे 'हरे कृष्ण का जप करो और सुखी हो जाओ' (चेंट हरे कृष्ण, एंड बी हैप्पी) भगवान् का नाम लो और सुखी हो जाओ। हम वही कहते हैं। वैसे ही हम यदि प्रात: काल को सुप्रभात या मॉर्निंग को गुड़ मॉर्निंग बनाना चाहते हैं तो हमें क्या करना चाहिए। (स्क्रीन में कुछ भक्तों द्वारा माला दिखाते हुए) माला दिखा रहे हैं (हँसते हुए)। बहुत अच्छा( वेरी गुड़)। माला का जप करना चाहिए व प्रभु नाम का उच्चारण करना चाहिए। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। भगवान को पुकारना चाहिए। 'कॉल कृष्ण।' भगवान् हमें सुखी रखें, हमें केवल ऐसी प्रार्थना ही नहीं करनी चाहिए अपितु हमारे अंदर ऐसा विश्वास भी होना चाहिए कि वे हमें सुखी ही रखेंगे। हम ऐसी शुभेच्छाओं के साथ गुड़ मॉर्निंग या गुड़ डे या हैप्पी बर्थडे कहते हैं। कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय! श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु इस संसार को कहते हैं कि मधुंर मधुरेभ्यो’पि मङ्गलेभ्यो’पि मङ्गलम्। पावनं पावनेभ्यो’पि हरेर नामैव केवलम्॥1॥ आब्रह्मा-स्तंब-पर्यंतम् सर्वमाया-मयं जगत्। सत्यं सत्यं पुनः सत्यम् हरेर नामैव केवलम्॥2॥ स गुरुः स पिता चापि सा माता बांधवो’पि सः। शिक्षयेच्चेतसदा स्मर्तुम् हरेर नामैव केवलम्॥3॥ निःश्वासे नहि विश्वासः कदा रुद्धो भविष्यति। कीर्तनीय मतो बाल्याद् हरेर नामैव केवलम्॥4॥ हरिः सदा वसेत् तत्र यत्र भागवता जनाः। गायन्ति भक्तिभावेन हरेर नामैव केवलम्॥5॥ ओ दुःखं महादुःखम् दुःखाद् दुःखतरं यतः। काचायं विस्मृतं रत्न हरेर नामैव केवलम्॥6॥ दीयतां दीयतां कर्णो नीयतां नीयतां वाचः। गीयतां गीयतां नित्यम् हरेर नामैव केवलम्॥7॥ तृणकृत्य जगत्सर्वम् राजते सकल परम्। चिदानन्दमयं शुद्धम् हरेर नामैव केवलम्॥8॥ अर्थ (1) अन्य समस्त मधुर वस्तुओं से भी अधिक मधुर; अन्य समस्त शुभ वस्तुओं से भी और अधिक शुभ; समस्त पवित्र करने वाली वस्तुओं में अत्याधिक शुद्ध व पवित्र करने वाला- श्रीहरि का पवित्र नाम ही केवल, सबकुछ है। (2) संपूर्ण ब्रह्माण्ड, उच्च एवं श्रेष्ठ ब्रह्माजी से लेकर निम्न घास के झुण्ड तक परम भगवान् की माया, भौतिक शक्ति का उत्पादन है। केवल एक ही वस्तु है, वास्तविक है। एकमात्र श्रीहरि का पवित्र नाम ही सबकुछ है। (3) वह वयक्ति एक सच्चा, समझने परखने की क्षमता रखने वाला है, या एक सच्चा पिता, एक सच्चीमाता, और एक सच्चा मित्र यदि वह वयक्ति को सदा ये स्मरण रखने की शिक्षा देता है कि, केवल श्रीहरि का नाम ही सबकुछ है। (4) कुछ निश्चित नहीं है कि कब आखिरी सांस आ जाए और वयक्ति की सारी भौतिक योजनाओं पर आकस्मिक बाधा या रोक लगा दे इसलिए बुद्धिमत्ता इसी में है कि बचपन से ही सदा नाम जप या उच्चारण का अभ्यास करें। श्रीहरि का पवित्र नाम ही एकमात्र सबकुछ है। (5) भगवान् हरि शाश्वत् रूप से उस स्थान पर वास करते हैं जहाँ सच्ची श्रेष्ठ, आध्यात्मिक रूप से उन्नत आत्माएँ, शुद्ध भक्ति के भाव में भगवन्नाम का गान करती हैं। एकमात्र श्रीहरि का पवित्र नाम ही सबकुछ है। (6) अहो! कितने दुख की बात है, कितना बड़ा दुख है। संसार के अन्य किसी भी दुख से अधिक कष्टदायक इसको केवल एक काँच का टुकड़ा समझकर लोग इस रत्न को भूल गए हैं। केवल श्रीहरि का पवित्र नाम ही सबकुछ है। (7) अपने कानों से इसे बार-बार श्रवण करना चाहिए; अपनी आवाज में इसका बार-बार उच्चारण करना चाहिए; इसे फिर से, नए सिरे से, निरतंर गाते रहना चाहिए-केवल श्रीहरि का पवित्र नाम ही सबकुछ है। (8) इससे संपूर्ण ब्रह्माण्ड एक घास तिनके के समान महत्त्वहीन प्रतीत होता है यह वैभवपूर्ण तरीके से परम भगवान् का समस्त लोगों पर शासन करवाता है यह शाश्वत् रूप से चेतन दिवय प्रेमाभाव से पूर्ण है श्रेष्ठ रूप से शुद्ध है- केवल श्रीहरि का पवित्र नाम ही सबकुछ है। हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्। कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।। ( श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला ७.७६) अनुवाद:- इस कलियुग में आध्यात्मिक उन्नति के लिए हरिनाम, हरिनाम और केवल हरिनाम के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है, अन्य कोई विकल्प नहीं है, अन्य कोई विकल्प नहीं है।" आप भगवान् का स्मरण कीजिए। स्मरण कैसे होगा? श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम। इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्र्चेन्नवलक्षणा। क्रियते भगवत्यद्धा तन्मन्येअ्धीतमुत्तमम्। ( श्री मद् भागवतम् ७.५.२३-२४) अनुवाद :- प्रह्लाद महाराज ने कहा: भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप, साज- सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना, भगवान् के चरण कमलों की सेवा करना, षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान की सादर पूजा करना, भगवान को प्रार्थना अर्पण करना, उनका दास बनना, भगवान को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना) शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं। जिस किसी ने इन विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है, उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है। हम श्रवण करेंगे, कीर्तन करेंगे या उस कीर्तन का श्रवण करेंगे तो उससे स्मरण होगा, जिससे हम सुखी होंगे। यह हरे कृष्ण महामंत्र सारी समस्याओं का समाधान अथवा हर व्यक्ति के शंका या प्रश्न अथवा उलझन का समाधान है अर्थात यह सभी समस्याओं का हल है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। किसी एक व्यक्ति की समस्या हो या समाज या देश या पूरे मानव जाति की समस्या हो। इसका एक ही समाधान है, ' हरे कृष्ण का जप करो।' चेंट हरे कृष्णा।' हरि! हरि! यह एक बात हुई। हम कल भी बता रहे थे। योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय । सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ (श्रीमद् भगवतगीता २.४८) अनुवाद :-हे अर्जुन! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो। ऐसी समता योग कहलाती है। योग में स्थित हो जाओ। प्रात: काल में जप अथवा श्रवण कीर्तन करते हुए अपने कृत्य करो। नित्यम भागवत सेवा भी श्रवण कीर्तन है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। हरे कृष्ण यह भी श्रवण कीर्तन है। योगस्थः योग अर्थात कृष्ण भावना या भगवान के चरण कमलों में स्थित हो जाने के पश्चात कुरु कर्माणि अपने दिन भर के कार्य करो। तब वह कार्य भी कृष्ण भावना भावित या कृष्ण से प्रेरित हुए कार्य होंगे। हरि! हरि! मुझे और भी कुछ याद आ रहा है। कल मैं ब्रह्म विमोहन लीला प्रसंग सुन रहा था। हरि! हरि! ब्रह्मा, भगवान् के मित्रों व बछड़ों की चोरी करके उनको ब्रह्मलोक में छिपा कर वापिस ब्रज में लौट आए। ब्रह्मा के लौटने तक ब्रज का अथवा इस पृथ्वी पर एक वर्ष बीत चुका था। ब्रह्मा लौट कर ब्रज मंडल का हाल देख रहे थे कि कृष्ण क्या कर रहे हैं? उन्होंने देखा कि भगवान की लीलाएं पूर्ववत ही संपन्न हो रही हैं। सभी बछड़े व सभी मित्र भी हैं। कुछ भी बात बिगड़ी नहीं है । वे सोचने लगे कि क्या कृष्ण पुनः उन बछड़ों और गायों को वापस ले आए जिनको मैंने छिपाया था? तब ब्रह्मा पुनः ब्रह्मलोक लौट गए और देखा कि वह सभी बछड़े, मित्र, बालक सोए हुए हैं, ब्रह्मा ने उनको बेहोश किया हुआ था। वे सुध बुध खो बैठे थे और लेटे हुए थे। ब्रह्मा पुनः ब्रज में लौट कर आए और उन्होंने एक दृश्य देखा कि वहाँ कृष्ण भी है, कृष्ण के बछड़े भी हैं व उनके मित्र भी हैं। भगवान ने उन्हें ऐसा दृश्य दिखाया। तत्पश्चात भगवान ने उनको अगला दृश्य दिखाया कि जितने बछड़े व बालक थे, उनके स्थान पर उतने ही चतुर्भुज रूप धारण किए हुए भगवान उपस्थित थे व उन चतुर्भुज रूपों की आराधना देवता, ऋषि मुनि कर रहे हैं। तत्पश्चात अगले दृश्य में भगवान ब्रह्मा जी को दिखाते हैं कि वे जो चतुर्भुज बने थे, वे पुनः द्विभुज या कृष्ण बन गए हैं अर्थात जितने बछड़े व मित्र थे, वे सब कृष्ण हैं। इसके पश्चात अगले दृश्य में भगवान दिखाते हैं कि कोई बछड़ा नहीं है, कोई मित्र नहीं है और कृष्ण केवल अकेले हैं और वह अपने मित्रों और बछड़ों को खोज रहे हैं। यह एक वर्ष पूर्व का दृश्य या लीला प्रसंग था। कृष्ण अपने मित्रों के साथ भोजन कर रहे थे और भोजन के बीच में से उठकर बछड़ों को खोजने के लिए चले गए थे। अब एक वर्ष के उपरांत ब्रह्मा पुनः कृष्ण को देख रहे हैं कि कृष्ण के हाथ में वही कलेवा है। उन्होंने अपने हाथ को धोया भी नहीं था। वह ऐसे ही बछड़ों को खोजने के लिए चले गए थे। उन्होंने अपने हाथ में जिस दही भात या जो भी लिया था वह अब भी है। ब्रह्मा ऐसा देखते हैं कि कृष्ण अपने मित्रों व बछड़ों को खोज रहे हैं। मेरे बछड़े कहां हैं? मेरे मित्र कहाँ हैं? भगवान् दृश्य के उपरांत दृश्य ब्रह्मा जी को दिखा रहे थे और ब्रह्मा उनका दर्शन कर रहे थे। वे समझ गए यह कृष्ण की अद्भुत लीला है। कृष्ण अद्भुत हैं। यह ब्रह्म विमोहन लीला है। इस प्रकार भगवान् ने ब्रह्मा को भी मोहित किया। हरि! हरि! भागवतम् में थोड़ा विस्तृत वर्णन है कि ब्रह्मा का फिर क्या हाल हुआ? ब्रह्मा कैसे धड़ाम से भूमि पर गिर जाते हैं? और कैसे नतमस्तक होते हैं व उस धूलि पर लौटने लगते हैं जिस धूलि का स्पर्श भगवान के चरण कमलों ने किया है अर्थात ब्रज की रज में लौटते हैं और आंसू बहाते हैं। वे अपने उन अश्रुओं से भगवान के चरण कमलों का अभिषेक या पाद प्रक्षालन करते हैं। तत्पश्चात वे मुश्किल से खड़े हो करबद्ध प्रार्थना /क्षमा याचना अथवा स्तुति करते हैं। श्रीमद् भागवतम् के दसवां स्कंध का चौदहवां अध्याय उनकी स्तुति से भरा पड़ा है। हमें इसका अध्ययन करना चाहिए। इसमें ब्रह्मा के साक्षात्कार हैं। गोविन्दमादिपुरषं तमहं भजामि। ब्रह्मा जी ने ब्रह्मसंहिता की रचना की और पुनः पुनः गोविन्दमादिपुरषं तमहं भजामि गाया। हे गोविंद, आप आदि पुरुष हो। मैं आपका भजन करता हूँ। आपकी वंदना अथवा आराधना करता हूँ। जय जय गोराचाँदेर आरतिक शोभा। जाह्नवी तट वने जगमन लोभा॥1॥ दक्षिणे निताईचाँद बामे गदाधर। निकटे अद्वैत श्रीवास छत्रधर॥2॥ बसियाछे गौराचाँदेर रत्न-सिंहासने। आरति करेन ब्रह्मा-आदि देवगणे॥3॥ नरहरि आदि कोरि चामर ढुलाय। सञ्जय मुकुंद वासुघोष आदि गाय॥4॥ शंख बाजे घण्टा बाजे, बाजे करताल। मधुर मृदंग बाजे परम रसाल॥5॥ (शंख बाजे घंटा बाजे, मधुर मधुर मधुर बाजे। निताई गौर हरिबोल हरिबोल हरिबोल हरिबोल॥) बहु कोटि चन्द्र जिनि वदन उज्जवल। गलदेशे वनमाला करे झलमल॥6॥ शिव-शुक नारद प्रेमे गद्गद्। भकति-विनोद देखे गौरार सम्पद॥7॥ अर्थ (1) श्रीचैतन्य महाप्रभु की सुन्दर आरती की जय हो, जय हो। यह गौर-आरती गंगा तट पर स्थित एक कुंज में हो रही है तथा संसार के समस्त जीवों को आकर्षित कर रही है। (2) उनके दाहिनी ओर नित्यानन्द प्रभु हैं तथा बायीं ओर श्रीगदाधर हैं। चैतन्य महाप्रभु के दोनों ओर श्रीअद्वैत प्रभु तथा श्रीवास प्रभु उनके मस्तक के ऊपर छत्र लिए हुए खड़ें हैं। (3) चैतन्य महाप्रभु सोने के सिंहासन पर विराजमान हैं तथा ब्रह्माजी उनकी आरती कर रहे हैं, अन्य देवतागण भी उपस्थित हैं। (4) चैतन्य महाप्रभु के अन्य पार्षद, जैसे नरहरि आदि चँवर डुला रहे हैं तथा मुकुन्द एवं वासुघोष, जो कुशल गायक हैं, कीर्तन कर रहे हैं। (5) शंख, करताल तथा मृदंग की मधुर ध्वनि सुनने में अत्यन्त प्रिय लग रही है। (6) चैतन्य महाप्रभु का मुखमण्डल करोड़ों चन्द्रमा की भांति उद्भासित हो चमक रहा है तथा उनकी वनकुसुमों की माला भी चमक रही है। (7) महादेव, श्रीशुकदेव गोस्वामी तथा नारद मुनि के कंठ प्रेममय दिवय आवेग से अवरुद्ध हैं। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैंः तनिक चैतन्य महाप्रभु का वैभव तो देखो। गौरांग महाप्रभु की भगीरथी गंगा के तट पर जब आरती होती है। तब वहां ब्रह्मा जी भी आरती करते हैं। "आरति करेन ब्रह्मा-आदि देवगणे।" अन्य देवता भी उपस्थित हैं। इससे यह समझ में आता है कि कृष्ण ही स्वयं चैतन्य महाप्रभु हैं। ब्रह्मा, कृष्ण अर्थात चैतन्य महाप्रभु की आराधना करते हैं। मुझे मन में और भी कुछ याद रहा है। वैसे यही ब्रह्मा, ब्रह्म हरिदास ठाकुर बनते हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु उनको नामाचार्य की पदवी भी देते हैं। नामाचार्य हरिदास ठाकुर स्वयम् ब्रह्मा हैं। वे कलियुग में आराधना करते हैं और आराधक हो जाते हैं। वे कैसी आराधना करते हैं? हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। श्री नामाचार्य हरिदास ठाकुर ने तीन लाख नाम जप प्रतिदिन उच्चारण किया। वे स्वयं साक्षात ब्रह्मा ही थे। हरि! हरि! कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम्। यज्ञैः संकीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः।। (श्रीमद्भागवतगम ११.५.३२) अनुवाद:-कलियुग में, बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन( संकीर्तन) करते हैं, जो निरतंर कृष्ण के नाम का गायन करता है। यद्यपि उसका वर्ण श्यामल( कृष्ण) नहीं है किंतु साक्षात कृष्ण है। वह अपने संगियों, सेवकों, आयुधों तथा विश्वासपात्र साथियों की संगति में रहता है। भागवतम् में भी ऐसा वर्णन है कि बुद्धिमान लोग कलियुग में भगवान की आराधना करेंगे। यज्ञैः संकीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः यह एक विशेष वचन है। आपको इसको भी नोट करना चाहिए। हर शब्द महत्वपूर्ण है।'संकीर्तनयज्ञेप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः' कलियुग में बुद्धिमान लोग संकीर्तन यज्ञ करके भगवान् की आराधना करेंगे। कलियुग में संकीर्तन यज्ञ से ही भगवान की आराधना होगी। मुझे यह भी कहना था कि श्रीमद् भागवतम के दसवें स्कंध के तेरहवें अध्याय के अंत में वर्णन है कि ब्रह्मा जी जब वृन्दावन में यह सारे दृश्य देख रहे थे तब उन्होंने एक दृश्य यह भी देखा कि पशुओं और मनुष्यों में जो नैसर्गिक वैरीय अर्थात ईर्ष्या द्वेष होता है। (निसर्ग में ऐसा भी होता है कि हिसंक पशु मनुष्यों को खा भी सकते हैं। निसर्ग की रचना ऐसी है कि उसमें वैर भाव होता है) किंतु ब्रह्मा जी ने देखा कि वृंदावन के सारे पशु और मनुष्य में कोई वैरभाव नहीं है। वे एक दूसरे के प्रति मित्रतापूर्ण व्यवहार कर रहे हैं। ब्रह्मा यह भी देख रहे थे कि पशु-पशु के मध्य में भी जैसा कि हिरन और बाघ के मध्य में भी जो वैर होता है वैसे भी वहां नहीं है। सर्प और मयूर एक दूसरे के कट्टर शत्रु माने जाते हैं लेकिन वृंदावन में ऐसा भाव अथवा ऐसा स्वभाव नहीं है अपितु वे सभी कृष्णभावनाभावित हैं । वे हैं तो पशु और उन्होंने अलग अलग योनियों के शरीर धारण किए हुए हैं, लेकिन उनमें कोई वैर भाव या पशुवत व्यवहार नहीं है। हरि! हरि! श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब जगन्नाथपुरी से वृंदावन आ रहे थे, तब रास्ते में झारखंड के जंगलों के मध्य में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने वहां के पशु और पक्षियों को संकीर्तन करवा उन्हें नचाया भी था। पशु पक्षियों ने इस हरि नाम हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे इस नाम को सुना भी गाया और नृत्य भी किया। इससे उनका जो पशुत्व है, वह नष्ट हो गया अर्थात उसका वध हो गया व उसका नामोनिशान भी नहीं रहा। वहां पशु पक्षियों के बीच में जो भी वैरभाव था, वह पूरी तरह समाप्त हो चुका था। भगवान देख रहे थे कैसे हिरन और बाघ अगल बगल में एक दूसरे से कंधे से कंधा मिलाते हुए चल रहे थे। चैतन्य महाप्रभु ने अगले दृश्य में यह भी देखा कि हिरन और बाघ कैसे एक दूसरे को आलिङ्गन दे रहे हैं। तत्पश्चात अगले दृश्य में उन्होंने यह भी देखा कि हिरन और बाघ एक दूसरे को चुंबन कर रहे हैं। जब चैतन्य महाप्रभु ने झारखंड के जंगलों में यह दृश्य देखा तब चैतन्य महाप्रभु कहने लगे' वृंदावन धाम की जय! वृंदावन धाम की जय! वृंदावन धाम की जय!' कल जब मैंने यह ब्रह्म विमोहन लीला सुनी। तब मुझे समझ में आया कि जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने झारखंड के जंगल में पशु पक्षियों को कीर्तन में नृत्य करते देखा और पाया कि उनमें आपस में कोई वैरभाव नहीं है। तब चैतन्य महाप्रभु 'वृंदावन धाम की जय' ऐसा क्यों कहने लग गए थे।' उनको वृंदावन क्यों स्मरण आया था। समझ यह है कि वृंदावन में जो कृष्ण भावना है अर्थात वहां के ब्रज वासियों, मनुष्यों या पशुओं के बीच में कोई वैरभाव नहीं है। वे मैत्रीपूर्ण व्यवहार करते हैं। वहां मनुष्य और पशु के मध्य व पशु पशु के मध्य में भी मैत्रीपूर्ण व्यवहार होता है। उसका स्मरण ही झारखंड के जंगलों में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हो आया था । उनको लगा यही तो वृंदावन है। इसी का नाम वृंदावन है। यह दृश्य जो मैं देख रहा हूँ, यह वृंदावन का भाव है। ब्रजवासी ऐसे ही भाव वाले होते हैं। ईर्ष्या, द्वेष से रहित होते हैं, वे आपस में झगड़ा नहीं करते, उनमें राग द्वेष नहीं होता। हरि! हरि! इतना सुनकर आप वैसे कई सारे निष्कर्ष आसानी से निकाल ही सकते हो। यह जप करने वालों के ऊपर हरि नाम का प्रभाव या हरि नाम का महात्म्य या हरि नाम का परिणाम है। कम से कम मनुष्यों के मध्य में ऐसे विचारों की क्रांति संभव है। हरि! हरि! यदि वहां पशु भी बृजवासी बन सकते हैं और बृजवासी जैसा व्यवहार कर सकते हैं , एक दूसरे से स्नेह प्रेम कर सकते हैं। मैत्री पूर्ण व्यवहार कर सकते हैं तब क्या कीर्तन या जप करने से हम मनुष्य वैसे ही नहीं बन सकते हैं? जैसा कि भगवान् ने झारखंड के जंगलों में पशुओं को बनाया था। ऐसी दुनिया ऐसा संसार बन सकता है, पूरी दुनिया तो नहीं। यह संसार है तो संसार रहेगा। लेकिन विचारों या भावों में काफी बदलाव, परिवर्तन, क्रांति संभव है। फिर हम जगाई मधाई का उदाहरण ले सकते हैं। दीन हीन यत हरि नाम उद्धारलो जगाई मधाई। यह हरि नाम की महिमा है। ऐसा सम्भव है। ऐसे भावना व ऐसे विचार वाला व्यक्ति भी कृष्ण भावना भावित बन सकता है। हाँ! हाँ! कोई सबूत है। देखो! कैसे थे जगाई- मधाई फिर वे कैसे महात्मा बने गए थे। वे जगदानंद और माधवानंद बने। पहले वे अच्छे भले आदमी थे लेकिन इस कलि के प्रभाव से वे बदमाश बन गए थे। तत्पश्चात हरिनाम के प्रभाव से पुनः उनकी भावना में परिवर्तन अथवा जागृति हुई। हरि! हरि! ऐसा वातावरण होते हुए श्रील प्रभुपाद ने भी सारे संसार भर में हरि नाम का प्रचार किया और उसका अपेक्षित फल या परिणाम आपके समक्ष है। आप देख सकते हो यह दुनिया वाले अथवा संसार के लोग पशुवत या द्विपाद पशु या पशु से कुछ कम नहीं है। वे इस संसार के प्रेजेंट वर्जन आर् एडिशन ऑफ ह्यूमन बीइंग हैं। उनका दुराचार, पशु से भी अधिक घृणास्पद है। ऐसे मनुष्यों में भी परिवर्तन हो रहा है। आप में हुआ होगा, कुछ परिवर्तन हो रहा है क्या? आप में कुछ परिवर्तन आ रहा है या नहीं। आनंदप्रदा में परिवर्तन आ गया। हरि बोल! इसीलिए आनंद ही आनंद में है। क्या किसी और में परिवर्तन आया? या आ रहा है राधा विनोद जी पहले कैसे थे आप? अब कैसे हुए? कुछ सुधार है या बिगाड़ है? क्या है? आपके इष्ट मित्र भी, पड़ोसी भी या जिनको भी आप जानते हो या आपको परेशान करने वाले लोग भी हैं, उनसे भी हरि नाम बुलवाओ। किसी तरह से उनको प्रसाद खिलाओ, उन्हें जन्माष्टमी उत्सव में ले जाओ या कीर्तन में थोड़ा नचाओ या कुछ करो। उन्हें कृष्ण बुक पढ़ने के लिए दे दो। वे सुधर जाएंगे और फिर वे आपका भी जीवन थोड़ा आसान सरल कर सकते हैं। यह सारी दुनिया वाले मिलकर आपस में झगडा कर रहे हैं। युद्ध हो रहे हैं। यह इस संसार में यह पशुवृति है आहरनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्। धर्मों हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।। ( हितोपदेश) अनुवाद:- मानव व पशु दोनों ही खाना, सोना, मैथुन करना व भय से रक्षा करना इन क्रियाओं को करते हैं परंतु मनुष्यों का विशेष गुण यह है कि मनुष्य आध्यात्मिक जीवन का पालन कर सकते हैं। इसलिए आध्यात्मिक जीवन के बिना, मानव पशुओं के स्तर पर हैं। धर्म हीन व्यक्ति पशु के समान है। मैंने कहा था कि आप भी निष्कर्ष निकालो और जो भी कहा है, उससे कुछ सीखो,समझो और कारवाई करो और करवाओ। यह हरि नाम का महिमा व महात्यम भी है। ऑल राइट! धन्यवाद! हरे कृष्ण!

English

19 August 2020 Harinama is the medicine that cures all enmity Hare Krsna! Welcome all of you to the Japa session. Today 815 participants are chanting from different locations. Suprabhat! Good Morning! It's a pleasant morning, good morning. People usually say good morning! But only the Hare Krsna people know how to make it good. Like we simply don't say, “Happy birthday, Happy New Year etc.” because we know what it means and how to make it happy. Srila Prabhupada says, “Chant Hare Krsna and be happy.” This is how we become happy and make it a good morning. What should we do? We should call the names of Krsna. We are starting our day with chanting. Then the Lord will keep us happy and it should not just be a prayer, but we should have firm faith in this. We don’t just wish you, ‘Good day, Good Morning etc,’ because Caitanya Mahaprabhu is asking each and every person in this world to chant the names of the Lord. harer nāma harer nāma harer nāmaiva kevalam kalau nāsty eva nāsty eva nāsty eva gatir anyathā Translation 'For spiritual progress in this Age of Kali, there is no alternative, there is no alternative, there is no alternative to the holy name, the holy name, the holy name of the Lord.' [CC Adi 7.76] śrī-prahrāda uvāca śravaṇaṁ kīrtanaṁ viṣṇoḥ smaraṇaṁ pāda-sevanam arcanaṁ vandanaṁ dāsyaṁ sakhyam ātma-nivedanam Translation ‌Prahlāda Mahārāja said: Hearing and chanting about the transcendental holy name, form, qualities, paraphernalia and pastimes of Lord Viṣṇu, remembering them, serving the lotus feet of the Lord, offering the Lord respectful worship with sixteen types of paraphernalia, offering prayers to the Lord, becoming His servant, considering the Lord one’s best friend, and surrendering everything unto Him (in other words, serving Him with the body, mind and words)—these nine processes are accepted as pure devotional service. (SB 7.5.23) How to do it? Sravanam, kirtanam and visnoh smaranam. We will hear and then sing the glories. While singing the glories or the holy names of the Lord, we will hear about the Lord also. Then we will remember the Lord which will make us ultimately happy. This is the solution. This resolves all the material doubts and distress. This is the solution to every confusion. This Hare Krsna, Hare Krsna is the solution. Whether it is the issue of a society, community, entire country or the entire humanity, the one and only solution is Chant Hare Krsna. This is one thing. Yesterday we were talking about BG 2.48 where it is written yoga-sthaḥ kuru karmāṇi which means to be steadfast in the performance of your duties. Chanting Hare Krsna and Reading Srimad-Bhagavatam is also sravanam kirtanam. If we do this everyday in the morning we get situated in Krishna consciousness and then whatever we do during the entire day becomes Krishna conscious. Like Krsna said, “Remember Me and do your duties simultaneously.” tasmat sarvesu kalesu mam anusmara yudhya ca mayy arpita-mano-buddhir mam evaisyasy asamsayah Translation Therefore, Arjuna, you should always think of Me in the form of Krsna and at the same time carry out your prescribed duty of fighting. With your activities dedicated to Me and your mind and intelligence fixed on Me, you will attain Me without doubt. (BG 8.7) This reminds me of the Brahma Vimohan lila. Brahma stole all of Krsna’s friends and calves, and was returning to the earth after hiding them in Brahmalok. He saw Vraja-mandal and what Krsna was doing. He found all of them in their regular pastimes with Krsna. He was shocked and could not believe his eyes. He thought someone had brought them back, but when he went back to Brahmalok to check, he saw that they were where he had hidden them. He understood that Krsna is not ordinary. He came back and then Krsna revealed to him a wonderful sight. The scene He saw was that all those friends and calves turned into the divine four armed forms. All the demigods and saints were worshipping those four armed forms. The third scene he saw was that they all turned into two armed forms, now all he saw was so many Krsnas. All the calves and friends are Krsna Himself. The fourth scene he saw was that there are no calves and friends around and Krsna was all alone. No one was around. One year ago when Brahma stole all of them, that scene came in front of his eyes now, that Krsna was alone now and leaving His food half way, He left to look for His friends and calves with some food in His hand, without washing His hands. Nothing had changed and Krsna was searching, “Oh, where are My calves? Where are My friends?" In this way Brahma could see the different sights by the will of Krsna. Brahma understood that this was wonderful, amazing Krsna. This is Brahma Vimohan Lila. Brahma became illusional in this pastime. Seeing all this Brahma fell off his seat. He started rolling in the dust of Vrindavan. The same dust which has touched the lotus feet of Krsna. Tears started rolling from his eyes and with those tears Brahma washed the divine feet of Krsna. He got up with a lot of difficulty. Then he asked for forgiveness in his prayers. Brahma starts singing the glories of Krsna. It is given in Srimad Bhagavatam 10.14. It is full of his prayers and glories of Krsna. We should read these realisations of Brahma. Brahma sings His glories and it has been compiled in the Brahma Samhita also. Brahma repeatedly chants Govindam adi purusham tam aham bhajami. O Govinda, the eternal being, I worship you! ārati koren brahmā-ādi deva-gaṇe Translation Lord Caitanya has sat down on a jewelled throne, and the demigods, headed by Lord Brahma, perform the arati ceremony. [Gaura Aarti] Even he performs the arati of Gauranga Mahaprabhu on the banks of Ganga. This also proves that Caitanya Mahaprabhu is Krsna Himself. Because Brahma says, “I only worship Govinda and he is also worshipping Mahaprabhu.” This same Brahma incarnated as Haridas Thakur and practiced sincere chanting. Caitanya Mahaprabhu named him Namacarya. Namacarya is Brahma. He attained perfection in chanting by chanting 300 thousand names of the Lord daily. Hare Krsna Hare Krsna Krsna Krsna Hare Hare Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare What is the way of worshipping the Lord in the age of Kali? In Srimad-Bhagavatam, 11.5 it is mentioned that the intelligent beings will worship Krsna by performing Sankirtan Yajnas. kṛṣṇa-varṇaṁ tviṣākṛṣṇaṁsāṅgopāṅgāstra-pārṣadamyajñaiḥ saṅkīrtana-prāyairyajanti hi su-medhasaḥ Translation "In this Age of Kali, people who are endowed with sufficient intelligence will worship the Lord, who is accompanied by His associates, by performance of saṅkīrtana-yajña." [SB 11.5.32] People in Kali will perform sacrifice by chanting. Every word of this verse in important. Those with sufficient knowledge will worship the Lord by performing saṅkīrtana-yajña. Well, I also wanted to mention that in the 13th chapter of the 10th canto it has been mentioned that when Brahma was seeing the different sights, he saw that, usually in the animals and humans there is nesargik vair, specific violence or envy or enmity. Sometimes humans eat animals. This world is designed in a way that there is nesargik vair, enmity between humans and animals naturally. Brahma saw there was no such enmity. There was no enmity between the animals and humans of Vrindavana. There was all-prevailing friendship. The serpent and peacock are strong enemies, but there was nothing like that in Vrindavan. In Vrindavan there is no enmity. They have bodies like that of material humans and animals, because they are all Krishna conscious. When Caitanya Mahaprabhu was coming to Vrindavan from Jagannatha Puri, on the way was the forest of Jharkhand. He was passing chanting the Hare Krsna maha-mantra. Mahaprabhu made the animals chant and dance to Hare Krsna maha-mantra. Hare Krsna Hare Krsna Krsna Krsna Hare Hare Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare The wild animals were listening to Mahaprabhu chanting and singing. By this their enmity was destroyed. They gave up their material natures. The enmity among deer and tigers, snakes and peacocks was destroyed. He saw that the deers and tigers were dancing together, rubbing their shoulders. Then he saw them exchanging hugs and that they started kissing each other out of ecstasy. Seeing this Mahaprabhu started shouting loudly "Vrindavan Dhama Ki Jai" in the forest of Jharkhand. I thought, ‘Why did He remember Vrindavan?’ Because that is the place where it is possible. There every entity is Krishna conscious and void of enmity, envy and jealousy between humans and animals and between different species of animals. Mahaprabhu realised this in the forest of Jharkhand and He thought, "This is Vrindavan. Vrajavasis have the same emotion, love for each other." When I was reading this pastime yesterday, I realized this. Just by this we can also derive the important influence and effect of the holy name. This is the effect on humans. How it brings a revolutionary change in its chanters. When animals can behave like Vrajavasis, express friendship, affection and love through kirtana, then why can't we humans? Such a world is possible. Though it may not be possible that the entire world becomes like this, because after all it is the material world. But many of us can be transformed by accepting to chant the holy name. Jagai and Madhai are the proof of this. dina−hina yata chilo hari−name uddharilo, ta'ra saksi jagai−madhai "Caitanya Mahaprabhu is so magnanimous that He delivered all kinds of sinful men simply by allowing them to chant the Hare Krsna mantra. The evidence of this is Jagai and Madhai." They had become sinners by the effect of Kali, but by the mercy of the holy name they were completely transformed and became sadhus. This is possible. Someone who is such a sinner, can also be transformed into a sadhu. Someone may ask, "What is the proof?" Jagai and Madhai turned into Jagdananda and Madhavanad which were their actual names. Srila Prabhupada travelled across the globe to bring this change by preaching the holy names of the Lord. The desired result is in front of us. People who were engaged in just eating, sleeping, mating and defending, have been transformed. There are people who have various bad habits, but we can see how so many people have been and are being transformed. Are you all also experiencing the change in you? Try to bring more people and neighbours and friends to this change. Make them chant and give them prasada. Invite them for Janmastami. Share your change with others. Bring them to the temple, invite them for celebrations and festivals, give them Krsna book. Those who bother you , try to change them so that your life may become easy. Everyone is like that. Battles are taking place in this world. People are engaged in eating, sleeping, mating and defending. These qualities are the same in the animals as well. It is only the dharma that differentiates a human from an animal. āhāra-nidrā-bhaya-maithunaṁ ca sāmānyam etat paśubhir narāṇām dharmo hi teṣām adhiko viśeṣo dharmeṇa hīnāḥ paśubhiḥ samānāḥ Translation Eating, sleeping, sex, and defence—these four principles are common to both human beings and animals. The distinction between human life and animal life is that a man can search after God but an animal cannot. That is the difference. Therefore a man without that urge for searching after God is no better than an animal. So try to find the conclusion. Give the holy names of Lord to others. Engage in reading and chanting. Thank you. Hare Krsna.

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