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जप चर्चा पंढरपुर धाम 20 अगस्त 2021 832 स्थानो से भक्त जप कर रहे हैं। गौरांग। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। तैयार हो आप सब? जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्त वृंद। जय जय श्री चैतन्य चैतन्य महाप्रभु की जय हो। जय नित्यानंद नित्यानंद प्रभु की जय और गौर भक्त वृंद की भी जय। आप भी गौर भक्त वृंद हो। हो कि नहीं? अगर हो तो फिर आप की भी जय। तो कल हम मना रहे थे श्रील रुप गोस्वामी प्रभुपाद का तिरोभाव तिथि महोत्सव। याद है? तो आज उन्हीं की हमको याद आ रही है या उन्हीं की हमको याद सता रही है। हरि हरि। एक समय रूप गोस्वामी जगन्नाथपुरी गए, क्यों गए होंगे? जगन्नाथ के दर्शन के लिए ऐसा भी उत्तर हो सकता है। किंतु गौडीय वैष्णवों के लिए तो गौरांग महाप्रभु ही जगन्नाथ थे या है। तो वैसे वे गौरांग महाप्रभु के दर्शन के लिए जगन्नाथपुरी गए थे। वैसे चातुर्मास मे और भी भक्त आया करते थे नवद्वीप से, शांतिपुर से, कुलीन ग्राम से, यहां से, वहां से। तो रूप गोस्वामी प्रभुपाद वृंदावन से गए थे जगन्नाथ पुरी। और चार महीने चातुर्मास में और अभी चल रहा है चातुर्मास ही चल रहा है ना। याद है? अब दूसरा चातुर्मास शुरू हुआ। तो धाम वास भी होता है चातुर्मास में, धामवास का महिमा है। कई सारे अलग-अलग स्थानों से पधारे हुए भक्त उनका धाम वास भी हुआ और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का सानिध्य लाभ हुआ। चैतन्य महाप्रभु के लीलाओ का दर्शन किया या उनकी लीलाओं में प्रवेश भी किया। उन्हीं के लीला के वे अंग बन गए, चैतन्य महाप्रभु के परिकर जो थे तो। उन्हीं के साथ श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु लीला खेलते हैं। रूप गोस्वामी वहां पधारे हैं पहुंचे हैं। अन्य या अधिकतर भक्ता चातुर्मास के उपरांत अपने-अपने स्थान प्रस्थान किए। किंतु रूप गोस्वामी जगन्नाथपुरी में ही और कुछ समय के लिए रुके रहे। और पता है जब वह जगन्नाथपुरी गए तो किन के साथ रहते थे? नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर के साथ रहते थे रूप गोस्वामी। मैं कहने जा रहा था कि रूममेट्स होंंगे रूममेट्स जानते हो? रूममेट्स। जब आप कॉलेज के हॉस्टेल में रहते हो तो आपके रूममेट्स होते हैं। जिनके साथ आप रहते हो कमरे शेयर करते हो फिर आप का किराया भी शेयर करते हो रूममेट्स। वहां पर तो कोई रूम थी ही नहीं जहां नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर रहते थे शायद कुटिया में होंंगे। और आप जानते हो सिद्ध बकुल जहां नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर रहते थे। वैसे सिद्ध बकुल तो पहले नाम नहीं था। एक समय वह बकुल और बकुल का वृक्ष जो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ही उगाया। हरि हरि। तो वह वृक्ष भी नहीं था धूप में ही खुले आकाश में नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर जप करते थे धूप मे हीं। या ठंडी में, गर्मी में कोई आश्रय, छत्रछाया नहीं था। कुटिया थी छोटी सी। किंतु फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उस बकुल वृक्ष को उगाया। तो फिर उस स्थान का नाम हो गया सिद्ध बकुल। रूप गोस्वामी नामाचार्य हरिदास ठाकुर के साथ वहां रहे हैं। तो बात वैसे मुझे और कुछ कहनी है, यही बातें अच्छी है या मैं सोच रहा था कि यह हर बात जो हमने कही यह पवित्र बातें हैं, यह हमको शुद्ध करती हैं। फिर रूप गोस्वामी का नाम ही हम सुनते हैं या नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का नाम ही सुने हम। तो वह पवित्र करता है और जगन्नाथ पुरी मे गए रूप गोस्वामी जगन्नाथ पुरी का नाम सुना तो वह नाम हमको शुद्ध करता है। और वे रहने लगे सिद्ध बकुल तो सिद्ध बकुल यह शब्द ही सुना नाम सुना तो वह शुद्ध करता है. हरी हरी। यहीं पर नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर अपना नाम जप हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का कितना जप करते थे? 300000 नाम जप। और रूप गोस्वामी भी जप किया करते ही थे किंतु और भी कार्य करते थे रूप गोस्वामी। वे ग्रंथ लिख रहे थे वहीं पर विदग्ध माधव कल आपको बताया मैंने, बहुत कुछ कल बताएं। कई सारे ग्रंथ उन्होंने लिखें अब जगन्नाथपुरी में विदग्ध माधव ग्रंथ की रचना हो रही थी। तो नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर अपना जप कर रहे है, जप मैं तल्लीन है। तो रूप गोस्वामी प्रभुपाद जप भी कर रहे हैं और ग्रंथ की रचना भी हो रही है विदग्ध माधव। श्री कृष्ण की वृंदावन लीलाओं का वर्णन है विदग्ध माधव में। ललित माधव में द्वारका लीला का वर्णन रूप गोस्वामी करते हैं। तो यह जप हो ही रहा था। प्रतिदिन जप हो रहा है ग्रंथों की रचना हो रही है। तो एक दिन श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहां आए, वैसे हर रोज ही आते थे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहां। लेकिन एक दिन की बात है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु आ गए। आप देख रहे हो अजानुलम्बितभुजौ कनकावदातौ चैतन्य महाप्रभु आ रहे हैं मतलब झट से फिर हमको स्मरण होना चाहिए। चैतन्य महाप्रभु के विग्रह का स्मरण। चैतन्य महाप्रभु आ रहे हैं, पहले उन्होंने जगन्नाथ का दर्शन किया है और अब वह दर्शन देने जा रहे हैं हरिदास ठाकुर को और रूप गोस्वामी प्रभुपाद को। तो इन दोनों में और भी भक्त वहां होंगे, उन दोनों का तो उल्लेख हुआ ही है। और यह सारी बातें जो हम कर रहे हैं, ज्यादा तो नहीं कहा.. सारी हम कह रहे हैं लेकिन ज्यादा तो नहीं कहा। यह अंत्य लीला प्रथम परिच्छेद मैं से वैसे पयार संख्या 99 की बात थोड़े कुछ ही क्षणों में करने वाले हैं। हम तो अंत्य लीला प्रथम परिच्छेद प्रथम अध्याय और 99 श्लोक वर्ष की बात अब होगी ही। नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर और रूप गोस्वामी ने चैतन्य महाप्रभु को आते हुए जैसे देखा तो दोनों ने साष्टांग दंडवत किया श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़े और इन दोनों को उठाया और अपने गले लगाए इन दोनों से। फिर सभी ने अपने अपने स्थान ग्रहण किए हैं और फिर चर्चा शुरू होती है इस विदग्ध माधव की। चैतन्य महाप्रभु ने रूप गोस्वामी से कहा सुना है कि आजकल तुम एक ग्रंथ लिख रहे हो। कहां है? तो रूप गोस्वामी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को अपना ग्रंथ दिखाएं। मानो चैतन्य महाप्रभु अब बुक रिव्यू लिखेंगे। लिखेंगे तो नहीं लेकिन कुछ कहे या कमेंट कर सकते हैं। उस ग्रंथ देखते ही.. ग्रंथ मतलब ऐसा प्रिंटिंग पेपर और बाइंडिंग ऐसा तो नहीं था। 500 वर्ष पूर्व की बात है जब प्रिंटिंग प्रेस नहीं थी और ना तो कागज था। पांडुलिपि में ताल पत्र पर लिखा करते थे। तो देखिए कितना कठिन कार्य था। आजकल तो लैपटॉप आ गया और क्या-क्या, प्रिंटिंग प्रेस तो है ही। लेकिन ऐसे दिन थे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के समय। तो रुप गोस्वामी ने जैसे ही ग्रंथ दिखाया तो देखते ही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रसन्न हुए और प्रशंसा करने लगे। तुम्हारा एक एक अक्षर मानो एक एक मोती है मोती के बिंदु है, मोतीयों की पंक्ति है। ऐसे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा और जब वे ग्रंथ को देख ही रहे थे, तो एक श्लोक में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का ध्यान आकृष्ट किया। और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु उसको पढ़े और कहे उस मंत्र को। यही है श्लोक संख्या 99, प्रथम श्लोक और प्रथम अध्याय अंत्य लीला का तुण्डे ताण्डविनी रतिं वितनुते तुण्डावली - लब्धये ऐसी शुरुआत है। तुण्डे मतलब तोंड मराठी में चलता है ना तोंड़ तो तुण्डे। ताण्डविनी रतिं वितनुते तो इस श्लोक में रूप गोस्वामी हरि नाम का महिमा लिखे हैं। और ऐसे हरि नाम के महिमा का वचन इतना गौरव जिस वचन मे हुआ है, ऐसे वचन बड़े विरला होते हैं। जिसकी प्रशंसा स्वयं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कर रहे हैं और स्वयं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु उसको कह रहे हैं। जैसे में कह रहा हूं ऐसा नहीं। चैतन्य महाप्रभु ने अपने ढंग से कहा। तुण्डे ताण्डविनी रतिं वितनुते जब हम भगवान के नाम का उच्चारण करते हैं तो भगवान का नाम भगवान ही है। वे नृत्य करने लगते हैं अपने मुख में अपने जीव्हा पर, यह नृत्य प्रारंभ होता है भगवान का। रतिं वितनुते जिससे रति, आकर्षण, मिठास बढ़ जाता है और फिर ऐसी स्पृहा, ऐसी आंतरिक इच्छा हो जाती है कि तुण्डावली - लब्धये या मुझे तुण्ड आवली जैसे दीपावली तुण्ड एक मुख, दूसरा मुख, कई सारे मेरे अगर कई सारे मुख होते तो तो उन सारे मुखो से एक में कितना नाम ले सकता हूं मेरी यह इच्छा है कि अगर मुझे हजारों मुख होते तो मैं कितना सारा प्रभु के नाम का उच्चारण करता। तो यह पहली पंक्ति में रूप गोस्वामी लिखे थे, हरि नाम का महिमा, गौरव गाथा। कर्ण - क्रोड़ - कडुम्बिनी और यह जब मुख से उच्चारित किया हुआ प्रभु का नाम जब कर्णो में प्रवेश करता है, कर्ण रंध्र से उसका प्रवेश होता है। फिर क्या होता है? कर्ण - क्रोड़ घटयते कानों से जब मैं सुनता हूं हरि नाम को तो कर्णार्बुदेभ्यः स्पृहाम् फिर लगता है कि दो कानों से कितना सुन सकता हूं। कर्णार्बुदेभ्यः कर्ण अर्बुद एक बहुत बड़ी संख्या होती है अर्बुद। सहस्त्र फिर लक्ष्य, कोटी और दस कोटी, फिर खर्व, निखर्व एक के सामने एक शुन्य, दो शुन्य, दस शुन्य, पंधरा शुन्य फिर बहुत सारे शुन्य उसको अर्बुद कहते हैं। तो क्या अगर मेरे इतने कान होते तो कितना अच्छा होता। इतने सारे कान होते तो मैं इस नाम को भलीभांति फिर श्रवण करता, सुनता, आनंद लूटता। और फिर रूप गोस्वामी प्रभुपाद आगे लिखते हैं चेतः - प्राङ्गण - सङ्गिनी विजयते सर्वेन्द्रियाणां क्रतिं अंततोगत्वा मुख से मैंने कहा, सुना ,प्रवेश हुआ और पहुंच गया, चेतः - प्राङ्गण चेतना का जो प्राङ्गण है, चेतना का भावना का जो प्राङ्गण है या ह्रदयप्राङ्गण ही कहिए, जहां जीव का निवास स्थान है। चेतः - प्राङ्गण - सङ्गिनी और वहां पर इस हरि नाम का अंग संग जीव को प्राप्त होगा। तो वह भावना व चेतना पूरी कृष्ण भावनाभावित होगी। और उस अवस्था में सारा मन पर नियंत्रण होगा, मन तल्लीन होगा इस हरि नाम के श्रवण और चिंतन में। विजयते सर्वेन्द्रियाणां क्रतिं तो फिर उस समय मैं जीतूंगा अपने इंद्रियों पर। इंद्रिया तो निष्क्रिय बन जाएगी। इंद्रिया तो रहेगी लेकिन मन ही जब व्यस्त है हरिनाम में, इंद्रियां है तो क्या कर सकती है बेचारी इंद्रियां? कुछ नहीं कर सकती, उनके कार्य भी ठीक हो जाएंगे। विजयते सर्वेन्द्रियाणां क्रतिं इंद्रियों के जो सारे वृति, कृति, कार्य होते हैं वह सारे बंद हो जाएंगे क्योंकि आत्मा व्यस्त है, तल्लीन है। चेतना में भगवान है कृष्ण भावना है और मन भी उसी में लगा हुआ है अंतःकरण में ही। जो भौतिक मन अभी भौतिक नहीं रहा उसका भी आध्यात्मिकीकरन हुआ, मन भी कृष्णमय है। तो विजयते और यही विजय भी है परम विजयते श्री कृष्ण संकीर्तनं। अपने मन को जीता, अपने इंद्रियों पर.. इंद्रियों का पराभव हुआ और अभी आत्मा मुक्त है। आत्मा पर कोई तनाव दबाव नहीं है। आत्मा तल्लीन है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। नो जाने रूप गोस्वामी उस पयार या श्लोक के अंतिम पंक्ति में लिखते है नो जाने जनिता कियद्धिरमृतैः कृष्णेति वर्ण - द्वयी न जाने कितना अमृत है इन दो अक्षरों में। कृष्ण इति कृष्णेति वर्ण - द्वयी यह जो दो अक्षर है कृष्णा नो जाने जनिता कियद्धिरमृतैः कितना अमृत उत्पन्न होता है, यह नामा मृत, कितना सारा भक्ति रसामृत सिंधु या नामामृत सिंधु। कितने सारे आनंद का स्रोत है यह प्रभु का नाम प्रभु ही है यह तो। प्रभु कितने मीठे हैं, प्रभु का नाम कितना मीठा है ना जाने मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकता। हरी हरी। तो यह वचन या इन शब्दों में रूप गोस्वामी प्रभुपाद यह हमारे गौडीय वैष्णव आचार्य है या प्रमुख आचार्य है प्रधान आचार्य है गौडीय वैष्णव संप्रदाय के। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु द्वारा अधिकृत। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ही उनको ऐसी पदवी दी। इतना एंपावरमेंट दिए, शक्ति दिए, भक्ति दिए रूप गोस्वामी प्रभुपाद को। वैसे भी हम कल कह रहे थे वैसे भी वह लीडर है कृष्ण लोक में, गोलोक में रुप गोस्वामी लीडर तो है ही। मंजिरियों के लीडर है, रूप मंजिरी मंजिरियों का नेतृत्व करती है। तो यहां आ गए प्रकट लीला में, यहां प्रकट हुए हैं चैतन्य महाप्रभु की लीला में 500 वर्ष पूर्व तो यहां भी वह लीडर है। हमारे लीडर गौडीय वैष्णव संप्रदाय के प्रधान आचार्य यह रूप गोस्वामी। उन्होंने हरि नाम का महिमा इन शब्दों में गाया है। हरि हरि। इसको हमने सुन तो लिया तो इसका चिंतन करना चाहिए और हमारा दृष्टिकोण और लक्ष्य भी यही है। हमको भी तैयारी करनी है हम बहुत बहुत बहुत दूर है इस लक्ष्य से। ऐसे मन की स्थिति, ऐसी चेतना, ऐसी भावना और हम कब कहेंगे कबे हबे बोलो से दिन आमार हमारे जीवन में वह दिन कब आएगा कि हम उतना तो नहीं लेकिन कुछ तो तुण्डे ताण्डविनी रतिं वितनुते तुण्डावली - लब्धये मेरे इतने सारे मुख होते तो कितना अच्छा होता इन सारे मुखोसे में...। हमारी स्थिति हम तो एक मुख का भी उपयोग नहीं करते। एक ही मुख है उस मुख का भी हम पूरा उपयोग नहीं करते। हरि हरि। किसी को हरे कृष्ण कहने के लिए कहते हैं, तो उसका मुंह थोड़ा खुला भी था तो झट से वह व्यक्ति क्या करता है ? मूख बंद कर देता है। मैंने कई बार देखा है ऐसे पदयात्रा में देखा है। जहां पर नगर संकीर्तन में जाते हैं तो लोग इकट्ठे हो जाते हैं। तो अंत में या बीच में रुक के जब हरे कृष्ण भक्त उन को संबोधित करते हैं या निवेदन करते हैं कृपया कहो कहो हरे कृष्णा कहो। तो कई कहते हैं लेकिन कई लोग क्या करते हैं.. हरे कृष्णा कहो ऐसा कहने से सुन तो लिया, लेकिन अगर उनका मुंह थोड़ा खुला भी था तो झट से उसको बंद कर लेते हैं। गलती से भी मेरे मुख से नाम ना निकले। यहां भी हम लोग जो जप करने वाले हैं वे भी कहां उपयोग करते हैं। हम थोड़ा मुंह हिलाते हैं, चिव चिव चिव करते हैं। मुख भर के, दिल भर के बलेन बोलो रे वदन भरि हम कहां करते हैं। बलपूर्वक सारे शक्ति का प्रयोग, उपयोग करते हुए जी भर के, दिल भर के, कंठ भर के, मुख भर के हम कहां बोलते हैं। तो एक मुख का भी हम पूरा उपयोग नहीं करते यह हमारी स्थिति है।दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः ऐसे चैतन्य महाप्रभु थी कहे शिक्षाष्टक में। यह हमारी स्थिति, हमारा हाल है। वैसे भी कम से कम हमको पता तो होना चाहिए यह भाव। रूप गोस्वामी ने जो भाव व्यक्त किए है, यह लक्ष्य है और यही है शुद्ध नाम जप। इसको कहते हैं शुद्ध नाम जप। अपराध-शून्य ह’ये लह कृष्ण-नाम जैसे भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं अपराध शून्य हईया तो हमारी समस्या तो यही है हम अपराध करते रहते हैं। कब हम भी अपराध शून्य होकर हरि नाम का उच्चारण करेंगे। फिर वह नामाभास हुआ अपराध शुन्य मतलब नामाभास। हरि हरि। अपराध सहित हम जप करते हैं, कीर्तन करते हैं शुरुआत में अपराध सहित अपराध के साथ। लेकिन हमको अपराध रहित जप करना है अपराध सहित नहीं। तो बीच में क्लीयरिंग स्टेज कहां है नामाभास है, अपराध सहित फिर नामाभास अपराधों से मुक्त हुए और फिर शुद्ध नाम जप। तो भक्ति विनोद ठाकुर के हरिरनाम चिंतामणि को भी हमको पढ़ना होगा, समझना होगा। उसके कई सेमिनार है तो आप अटेंड करो या रिकॉर्डिंग है तो उसको सुनो या उस ग्रंथ को भी आप पढ़ सकते हो। अच्छा है कि भक्तों के सानिध्य में आप उसे समझे। और भी कई सारे अपराध.. अपराध के लिए तो हम बड़े कुशल है। जहां तक अपराध करना है पापियन मे नामि जिसे सूरदास.. उनको कहने की आवश्यकता नहीं थी ऐसा अपनी विनय पत्रिका में सूरदास लीखते हैं। तो वे कहते हैं कि मैं कैसा हूं पापियन मे नामि पापियों में मेरा नाम है। हरि हरि। ईमानदारी सर्वोत्तम नीति है ( होनेस्ट्लि इज द बेस्ट पॉलिसी) अगर हम ईमानदार होते, स्वीकार भी करेंगे कि हां हां मुझसे यह अपराध होता है, मैं यह अपराध करता हूं, वैष्णव अपराध करने में मेरा पहला नंबर है, या फिर जो 10 नाम अपराध है उसको हर एक को थोड़ा ध्यान पूर्वक पढ़ना, समझना चाहिए और देखना चाहिए कि उसमें से मैं कौन सा अपराध करता हूं। या कुछ अपराध हम अधिक करते हैं, कुछ अपराध कम करते हैं। हो सकता है कुछ अपराध हम नहीं करते हैं। इस प्रकार का भी कुछ आत्म निरीक्षण, परीक्षण की भी आवश्यकता है। स्टोप, थिंक, प्रोसिड ऐसा भी कहते हैं थोड़ा रुको, सोचो, विचार करो। जो भी कर रहे हो ऐसे ही कर रहे हो। हम जो भी कर रहे हैं वह कैसे कर रहे हैं? कैसा कार्य कर रहे हैं? कैसी सेवा कर रहे हैं? सही है गलत है? कोई अपराध हो रहे हैं? निरापराध है। हरि हरि। यही बात है जिस पर हमे विचार करना चाहिए। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।

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