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30 जून 2019
हरे कृष्ण!!!
आज हमारे साथ 636 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। रविवार होने के पश्चात भी यह एक शुभ संख्या है। आज महीने का आखिरी दिन अर्थात 30 तारीख है।
हमने कल एकादशी के दिन 700 के लक्ष्य को पार किया था। निर्जला एकादशी वाले दिन भी इस कॉन्फ्रेंस में 700 से अधिक भक्तों ने जप किया था। आज आखिरी दिन है, देखते हैं कि हमारी संख्या 700 को प्राप्त कर पाएगी या नही।
पदमाली प्रभु इसका पूरा रिकॉर्ड रख रहे हैं। वह हमें रिपोर्ट दे रहे हैं कि कितने भक्त ,कौन से देश से जप कर रहे हैं और कितने भक्त नियमित रूप से इस जप कॉन्फ्रेंस में आ रहे हैं।
इन सब का रिकॉर्ड हमारे पदमाली प्रभु बहुत बखुबी से बना रहे हैं और हमें रिप्रेजेंट कर रहे हैं।
मुझे प्रसन्नता है कि आप सभी जप कर रहे हैं एवं हरे कृष्ण, हरे कृष्ण का जप करते समय आनंद और सुख का अनुभव कर रहे है।
श्रील प्रभुपाद हमेशा कहते थे,"हरे कृष्ण का जप करिये और सुखी रहिए।"
chant Hare Krishna and be happy
कृष्ण शब्द दो अक्षरों से मिल कर बना है। कृष् और ना। कृष् का अर्थ है जो अपनी तरफ आकर्षित करते हैं और ण का अर्थ है, वे जो परम आनंद को देने वाले हैं।
य: कर्षति: सा कृष्ण:
अर्थात
जो अपनी तरफ़ आकर्षित करते हैं, वहीं कृष्ण है। भगवान हमें शनैः शनैः अपनी ओर आकर्षित करते जाते हैं और हमारे आनंद में वृद्धि करते जाते हैं। भगवान आनंद का स्रोत हैं। जैसे जैसे हम अधिक जप करते हैं वैसे वैसे भगवान हमें अपनी ओर अधिक आकर्षित करते जाते हैं।
जप हमें भगवान के करीब लाता है और हमें कृष्ण की संगति से अधिक से अधिक आनंद मिलता है। अत: कृपया जप करते रहिए और भगवान के करीब आते रहिए।
हमें सांसारिक वस्तुओं से अपने आप को अधिक से अधिक अलग रखना चाहिए। भगवान और भगवान के भक्तों के साथ आध्यात्मिक संबंध प्रगाढ़ करने चाहिए। हमें अपने आध्यात्मिक संबंध को विशेष बनाना चाहिए।
हमारे चारों तरफ जो लोग हैं, उनमें हमें आत्मा का दर्शन करना चाहिए। हमें उनके साथ अपना संबंध अच्छा बना कर उन्हें भी भगवान के निकट लाने का प्रयास करना चाहिए।
हरि हरि!!!
जप करते हुए आपका कृष्ण के साथ एक संबंध विकसित हुआ है और जिससे आप कृष्ण के ओर अधिक करीब आ रहे हैं। आपका दूसरों को देखने का नजरिया बदल रहा है। धीरे-धीरे आप दूसरों और अपने परिवार के सदस्यों को भी आत्माओं के रूप में देखने लग जाएंगे एवं दूसरों के साथ आध्यात्मिक संबंधों को आत्मा की तरह विकसित करने की कोशिश करेंगे।
भगवान कृष्ण ने मुचुकुंद महाराज को गुफा में अपना दर्शन दिया। मुचुकुंद महाराज ने पूछा, "आप कौन हैं?" भगवान कृष्ण ने मुचुकुंद महाराज को अपना परिचय देते हुए जवाब दिया, "मैं वासुदेव हूं और मैं निकट के शहर मथुरा या वृंदावन में रहता हूं और मेरे बहुत सारे नाम हैं।"
भगवान कृष्ण मुचुकुंद महाराज को बता रहे थे कि किस प्रकार से उनके अंसख्य नाम, असंख्य रूप,असंख्य लीलाएं हैं और वह विभिन्न विभिन्न प्रकार के धामों में निवास करते हैं। वैकुंठ, गोलोक धाम , वृंदावन धाम , साकेत धाम में भी भगवान निवास करते हैं। इस प्रकार भगवान अपना परिचय दे रहे थे ।
वे परम परम भगवान हैं। समस्त देवताओं में सबसे उत्कृष्ट हैं। वे अपने कई कई नामों से जाने जाते हैं। कई रूपों में अपने को प्रकट करते हैं। उनकी अनन्त लीलाएं है। उनके अनन्त धाम हैं। ये बहुत सुंदर गौड़ीय वैष्णव सिद्धांत है। जिसके द्वारा वैष्णवों को पता चलता है कि भगवान के विभिन्न प्रकार के नाम, गुण, रूप, लीला आदि हैं।
आज सुबह मैंने अल्लाह-हो- अकबर की आवाज सुनी। कहीं पर नमाज़ पढ़ी जा रही थी। वे सब मस्जिद जाते हैं। मस्जिद में वहाँ कोई रूप नहीं है, बस केवल एक दीवार है जिसको वे प्रणाम और दंडवत कर रहे होते हैं। उनको भगवान के किसी भी नाम का, रूप का पता नही होता है लेकिन भगवान का अस्तित्व होता है और भगवान हैं। भगवान अपने विभिन्न प्रकार के नाम,रूप, गुणों से जाने जाते हैं।
अब इस भ्रांत धारणा का बहुत प्रचार हो रहा है कि भगवान का कोई नाम, रूप, गुण , अतीत, धाम नहीं है जो कि अवैयक्तिकता है। मायावादी लोग भगवान के खिलाफ बहुत सारे प्रचार, उपदेश और बातें कर रहे हैं। भगवान के अस्तित्व को चुनौती दे रहे हैं। ये शून्यवादी, मायावादी, निराकार वादी इस प्रकार का प्रचार करते हैं कि भगवान का कोई रूप गुण, नाम, लीला नहीं है और वो हमारे विरद्ध एक प्रकार का प्रचार है जिसका हमें खंडन करना है।
हम गौड़ीय वैष्णव इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि भगवान विग्रह स्वरूप मंदिर में स्थित रहते हैं और नित्य प्रति उनकी आराधना करते हैं।
श्री-विग्रहराधना-नित्य-नाना-
श्रृंगार-तन-मंदिर-मार्जनादौ
युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्ञतोअपि
वंदे गुरोः श्रीचरणरविन्दम्
(श्री श्री गुर्वाष्टक)
हम लोग भगवान के धाम एवं नाम के विषय में जानते हैं लेकिन ये लोग हमारे विरुद्ध एक बहुत बड़ा दुष्प्रचार करते हैं कि भगवान नहीं हैं। ये बहुत दुर्भाग्य शाली भी है।
हरि हरि!!!
हम जगन्नाथ पुरी, वृंदावन या पंढरपुर जाते हैं। ये प्रभु के निवास स्थान हैं, ये शाश्वत हैं। दुर्भाग्य से हम कृष्ण के नाम, कृष्ण के रूप के विरुद्ध बहुत प्रचार सुन चुके हैं और हम इस तरह के प्रचार से प्रभावित भी हो चुके हैं। कई जन्मों से हम ऐसे विचार या दर्शन सुन रहे थे। परिणामस्वरूप हम आस्थाविहीन हो गए हैं। हमें रूप, नाम आदि में थोड़ा विश्वास है।
अपनी विश्वासहीनता को हराने के लिए हमें सुनना होगा।
नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया।
भगवत्युत्तमश्लोके
भक्तिर्भवति नैष्ठिकी।।
(श्रीमद्भागवतम १.२.१८)
हमें नियमित रूप से श्रीभावगतम, भगवद गीता, चैतन्य चरितामृत का श्रवण करते रहना चाहिए। हमें उचित समझ, उचित ज्ञान के लिए श्रील प्रभुपाद की पुस्तकों को पढ़ना चाहिए जिससे हम पवित्र नाम में अधिक से अधिक विश्वास बढ़ा सकते हैं। भगवान के नाम,रूप, सौन्दर्य, धाम, भक्तों, आचार्यों में अधिक विश्वास बढ़ाने के लिए हमें हरे कृष्ण का जप कीर्तन, श्रवण, पठन-पाठन करते रहना चाहिए।
गीता भगवत करति श्रवण अखाड़ा चिंतन विठोबाचे
संत तुकाराम जी कहते हैं कि हमें भागवतम, भगवतगीता का श्रवण करना चाहिए, जिससे हम अपने आप को हरा सकें। हम लोग स्वयं को ही पराजित कर सकते हैं। हमने पहले कुछ अविधा, अज्ञान सीखा एवं समझा है, उसको परास्त करना है, स्वयं को परास्त करना है। अधिक से अधिक श्रवण करेंगे, भागवतम, गीता पढ़ेंगे और साधु संग करेंगे तब हमारी भगवान के रूप में, हरिनाम में श्रद्धा बढ़ेगी।
जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु पहली बार जगन्नाथ पुरी पहुंचे और उनकी भेंट सार्वभौम भट्टाचार्य जी से हुई । महाप्रभु , सार्वभौम भट्टाचार्य के निवास स्थान पर ही ठहरे थे। सार्वभौम भट्टाचार्य एक कट्टर अवैयक्तिक व्यक्ति थे। वह निराकारी मायावादियों के नेता थे।पूरे इलाके में उनकी ख्याति राजगुरु के रूप में थी।
जब वे चैतन्य महाप्रभु से मिले तो उन्होंने उनको कहा कि चैतन्य महाप्रभु, "आप एक युवा, सुंदर संन्यासी हैं, और आपको वेदांत सूत्र को सीखना चाहिए," चैतन्य महाप्रभु ने कहा, "ठीक है, लेकिन मुझे कौन सिखाएगा?"
तब सार्वभौम भट्टाचार्य जी ने कहा कि मैं ही आपको वेदांत सूत्र का ज्ञान दूंगा, आप मुझसे ही अध्ययन कीजिए। जगन्नाथ पुरी में सात दिनों के लिए वेदांतसूत्र कथा, वेदांतसूत्र सप्ताह था।
तब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु बहुत विनम्रता से सार्वभौम भट्टाचार्य के चरणों में बैठे और वेदांतसूत्र की व्याख्या सुनने लगे।
7 दिनों के अंत में सार्वभौम भट्टाचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु से कहा, “क्या आप समझ रहे हैं कि मैं किस बारे में बात कर रहा हूं? आप केवल चुपचाप सुन रहे हैं। आप कुछ भी नहीं कह रहे हैं, आप कुछ भी टिप्पणी नहीं कर रहे हैं, कृपया वेदांतसूत्र व्याख्या सुनने के बाद स्वयं से कुछ टिप्पणी तो कीजिये कि आपको क्या समझ में आया है। "
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा," जब आप वेदांतसूत्र का पाठ कर रहे थे, उस समय मैं वेदांतसूत्र के मूल अर्थ को समझ रहा था। वेदांतसूत्र वास्तव में प्रकाश का स्रोत है, उससे जो ज्ञान का प्रकाश ऊदीप्त हो रहा है, मैं उसी को समझ रहा था कि किस प्रकार से वेदांत सूत्र से ज्ञान की उत्पत्ति हो रही है। कितना सुंदर ज्ञान है।
लेकिन आप उन वेदांत सूत्रों पर जो तात्पर्य दे रहे थे, आप जैसे भ्रम पैदा कर रहे थे जैसे सूर्य के प्रकाश को किसी बादल ने ढक लिया हो। आपके तात्पर्य उस प्रकाश की किरणों को, भगवान के नाम को, गुणों आदि को ढक रहे थे। वेदांतसूत्र से आने वाली ज्ञान की किरणों को रोक रहे थे। दूसरे शब्दों में आप अपने तात्पर्य द्वारा ज्ञान का अवरोधक खड़ा कर रहे थे। आप एक तरह का बादल बनाकर उस प्रकाश को निकलने नहीं दे रहे थे। भगवान के सुंदर चेहरे को अपने अज्ञान से ढक रहे थे।
हरि हरि!!!
मायावादी-भाष्य शुनिले हय सर्वनाश
चैतन्य महाप्रभु सनातन गोस्वामी से बात कर रहे थे एवं उन्हें सचेत कर रहे थे कि मायावादियों की बात मत सुनो। मायावादी स्वयं भ्रमित हैं। सब कुछ नष्ट हो जाएगा,भगवान के लिए आपकी भक्ति नष्ट हो जाएगी।
मायावादी भगवान के प्रति विभिन्न प्रकार के अपराध करते हैं। वे भगवान के रूप, गुण, लीला आदि को नहीं मानते ।
पदम पुराण में आता है
भाग्यो अयं सुता नाम।
वेदांत सूत्र के रचयिता श्रील वेद व्यास जी हैं। श्रील वेद व्यास जी द्वारा वेदांत सूत्रों के ऊपर विस्तृत तात्पर्य वास्तव में श्री मद्भागवतम में दिया गया है अर्थात वेदांत सूत्र का तात्पर्य भागवतम में है।भागवतम और वेदान्त सूत्र दोनों वेद व्यास जी द्वारा लिखे गए हैं। अतः वेद व्यास जी से अच्छा तात्पर्य कोई नहीं दे सकता इसलिए हमें भागवतम अवश्य पढ़नी चाहिए जो भगवान के रूप, गुण, नाम, धाम को सुंदर तरीके से प्रकशित करता है और हमें मायावादी से बचना चाहिए। मायावादी भगवान के प्रति अपराधी हैं और वे भगवान के रूप, गुण, लीला आदि को नहीं मानते और भगवान के नाम को नष्ट करने की कोशिश करते हैं।
मायावादी कृष्णः अपराधी
मायावादि कृष्ण अपराधी हैं।
मायावादी कृष्ण के चरण कमलों पर कृष्ण के विरोधी हैं। इसलिए उनकी व्याख्या मत सुनो।
पूरे भारत में मायावाद का प्रचार बढ़ चढ़ कर हुआ एवं हो रहा है। मायावादी विभिन्न प्रकार के तात्पर्य बढ़ चढ़ कर देते हैं। वे कर्म कांड, ज्ञान कांड के द्वारा लोगों को भ्रामक स्थिति में डाल देते हैं। वे शंकराचार्य के अनुयायी बन गए हैं। वे अवैयक्तिकता का प्रचार करते हैं इस प्रकार से इतना दुष्प्रचार इन मायावादियों, निराकार वादियों द्वारा किया गया है कि लोगों को पूर्ण ज्ञान नहीं होने दे रहे। जैसे आर्य समाजी भी मूर्ति का खंडन करते हैं, भगवान के रूप, गुण को नहीं मानते हैं। हमें इन सब से बच कर रहना चाहिए।
चैतन्य महाप्रभु और सार्वभौम भट्टाचार्य की वार्ता जो 7 दिन तक चली । जिसका विस्तृत विवरण एवं आगे की बातचीत चैतन्य चरितामृत में है। भक्तों को उस संवाद का गहराई से अध्ययन करना चाहिए इसके ऊपर चर्चा करनी चाहिए और आश्वस्त होना चाहिए कि उसका हमें ज्ञान प्राप्त हो। हमारे अंदर मायावाद, निराकार वाद के प्रति कल्मष भरा हुआ है जिसकी जड़े हमारे अंदर कुछ मात्रा में उपस्थित हैं। इसलिए पहले अपने को विजय बनाना होगा, अपने को समझाना पड़ेगा। हमें पूर्ण रूप से समझ कर ही इसका प्रचार पूरे संसार में करना है। जैसे पहले हमने अपने को विजयी बनाया, उसी प्रकार संसार के ऊपर भी विजय प्राप्त करनी है।
भगवान के रूप, गुण आदि सबको समझ कर दुसरों को समझाना होगा और कृष्ण चेतना स्थापित करनी होगी अर्थात भगवान का नाम, धर्म की स्थापना करनी होगी जिससे मायावाद, निर्विशेषवाद, निराकार वाद को समूल नष्ट किया जा सके।
इस सवांद का चैतन्य चरितामृत मध्य लीला में चौथे या पांचवे अध्याय के अंदर विस्तृत वर्णन किया गया है। आप सभी के घर में चैतन्य चरितामृत अवश्य होनी चाहिए और आप सब को इसको अवश्य पढ़ना भी चाहिए ।चैतन्य चरितामृत मध्य लीला में चैतन्य महाप्रभु जी की इस लीला का वर्णन है- जब वे जगन्नाथ पुरी पहुंचे, सबसे पहले उन्होंने वहां मायावाद का खंडन किया और निराकारवाद, मायावाद को परास्त किया। उन्होंने सार्वभौम भट्टाचार्य को हराया।पराजित अवयक्तिकता भट्टाचार्य इस हद तक सर्वोच्च व्यक्तिवादी बन गए।
भगवतम के 10 संकन्ध 14 वें अध्याय में माया मुक्ति पदे का वर्णन है-
सार्वभौम भट्टाचार्य जो अब तक निराकारवादी थे, अब वो बहुत ही सुंदर साकारवादी बन गए।
भगवान के नाम आदि को समझने लगे उन्होंने चैतन्य महाप्रभु से कहा यह मुक्ति पदे नहीं होना चाहिए, यह भक्तिप्रदे होना चाहिए।
इस प्रकार से भगवान श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की कृपा से सार्वभौम भट्टाचार्य इतने बड़े निराकारवादी से सगुन साकारवादी हो गए थे कि भगवान के नाम ,रूप , गुण आदि को जान सके थे। वे एक महान व्यक्तित्व बन गए एवं चैतन्य महाप्रभु के कट्टर अनुयायी बन गए।
श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अनेक अवसरों पर निराकारवाद निर्विशेषवाद का खंडन किया और सार्वभौम भट्टाचार्य के उपरांत उन्होंने प्रकाशानंद सरस्वती से भी इसके विषय में चर्चा की।
श्री चैतन्य महाप्रभु जी ने श्रील सनातन गोस्वामी को भी ऐसी सुंदर विषयवस्तु दी थी जिससे वो किस प्रकार मायावादी को हरा पाए एवं उनका खंडन कर सकें और सगुण साकारवाद से भगवान के नाम, रूप आदि को विशेष रूप से स्थापित कर सकें।
वाराणसी में महाप्रभु ने विशेष रूप से सनातन गोस्वामी से बात करते हुए कहा, 'नार वपु जाहर स्वरूप" अर्थात भगवान कृष्ण का रूप नार-वपु है। उसका एक रूप है और वह रूप नार की तरह है। वह निराकार नहीं, बल्कि नारकर है। मनुष्यों के समान ही भगवान का आकार है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम
राम राम हरे हरे।।
भगवतगीता, भागवतम और चैतन्य चरितामृत एवं श्रील प्रभुपाद की पुस्तकों का अध्ययन नियमित रूप से करते रहिए और हरे कृष्ण का जप करते रहिए।
चैतन्य महाप्रभु जी भी स्वयं स्वरूप दामोदर पंडित के साथ पूरी रात नियमित रूप से भागवत कथा सुनते थे और चर्चा करते थे एवं वे शिक्षाष्टकम या जयदेव गोस्वामी जी द्वारा रचित गोविंद भाष्य और बिल्वमंगल ठाकुर द्वारा रचित कृष्ण करणामृत पर टिप्पणी और चर्चा भी करते थे और वे बहुत सुंदर हरिनाम कीर्तन भी किया करते थे। वे धर्मग्रंथ, प्रभु के अतीत, रूप, वास, महिमामंडन और पवित्र नाम, नृत्य एवं पवित्र नाम के प्रचार के लिए जाने जाते थे।
श्री चैतन्य महाप्रभु अपने स्वयं के उदाहरण से हम सब को शिक्षा दे रहे थे कि हरिनाम, भागवत सेवन, ग्रंथों का पठन पाठन साथ साथ चलना चाहिए ।
हरे कृष्ण!!!