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*हरे कृष्ण !!* *जप चर्चा* *पंढरपुर धाम* *20 मई 2021* *हरि बोल !* *'गौरांग' बलिते हबे पुलक-शरीर ।* *'हरि-हरि' बलिते नयने ब'बे नीर ॥* *हरि हरि !!* 866 स्थानो से भक्ति जप कर रहे हैं । *जय जय श्री चैतन्य !* आप सभी तैयार हो ? यानी सदैव तैयार रहना । किसी भी समय चाहे दिन हो या रात हो सदैव तैयार रहना चाहिए । *जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद ।* *जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद ॥* *श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय !* *श्री शिक्षा अष्टक की जय !* *चैतन्य चरितामृत की जय !* शिक्षाष्टक के रसास्वादन को आगे बढ़ाते हैं । शिक्षाष्टक का रसास्वादन कौन नहीं करना चाहेगा ! है कोई ? आप सभी चाहते हो । हां ? ठीक है । कुछ तो संकेत कर रहे हैं अपनी चाह । प्रथम, द्वितीय, तृतीय ..शिक्षाष्टक अब तक हमने पढ़े हैं , सुने हैं और यथासंभव समझे हैं और रसास्वादन हुआ है । तो प्रथम शिक्षाष्टक में ... *चेतो-दर्पण-मार्जनं भव-महा-दावाग्नि-निर्वापणं* *श्रेयः-कैरव-चंद्रिश्रेयःका-वितरणं विद्या-वधू-जीवनम् ।* *आनंदांबुधि-वर्धनं प्रति-पदं पूर्णामृतास्वादनं* *सर्वात्म-स्नपनं परं विजयते श्री-कृष्ण-संकीर्तनम् ॥ 12 ॥* ( श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.12 ) *अनुवाद:-* श्री कृष्ण संकीर्तन की परम विजय हो, जो हमारे चित्त में बरसों से संचित मलको साफ करने वाला तथा बारंबार जन्म मृत्यु रूपी महाग्नि को शांत करने वाला है । यह संकीर्तन यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगल रूपी चंद्रिका का वितरण करता है । समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधू का यही जीवन (पति) है । यह आनंद के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्री कृष्ण-नाम हमें नित्य बांछित पूर्णामृत का आस्वादन कराता है । परं विजयते श्री-कृष्ण-संकीर्तनम् या कृष्ण कीर्तन या हरे कृष्ण महामंत्र की जय ! और उसका महिमा का गान सात अलग-अलग हरि नाम की वेशिष्ठ्य प्रथम शिक्षाष्टक में चैतन्य महाप्रभु कहे हें । दितीय शिक्षाष्टक में चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा ... *नाम्नाम् अकारि बहुधा निज-सर्व-शक्तिः* *तत्रार्पिता नियमितः स्मरणेन कालः ।* एतादृशी तव कृपा भगवन् ममापि* *दुर्दैवं ईदृशम् इहाजनि नानुरागः ॥ 16 ॥* ( श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.16 ) *अनुवाद:-* हे भगवान! आपका अकेला नाम ही जीवो का सब प्रकार से मंगल करने वाला है । 'कृष्ण' 'गोविन्द' जैसे आपके लाखों नाम हैं । आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियां अर्पित कर दी है । इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई भी नियम नहीं है । हे प्रभो ! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम द्वारा अत्यंत ही सरलता से भगवत प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किंतु मैं इतना दूर भाग्यशाली हूं कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है । मैंने सारी शक्ति यानी कृष्ण की शक्ति कृष्ण के नाम में भरी हुई है । और जब कीर्तन के कोई कठिन नियम नहीं है । यह सब होते हुए भी दूर्देब की बात है "नानुरागः" मुझ में तो यह अनुराग उत्पन्न ना नहीं हुआ तू श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहे मैं बताता हूं .. "जेइरुपे कृष्ण-प्रेम उपजये" ! किस प्रकार जप करने से प्रेम उत्पन्न होगा ? तो फिर तृतीय शिक्षाष्टक कहे ... *तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।* *अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥ 21॥* ( श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.21 ) *अनुवाद:-* स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष के समान सहनशील होकर, मिथ्या मान की कामना न करके दुसरो को सदैव मान देकर हमें सदा ही श्री हरिनाम कीर्तन विनम्र भाव से करना चाहिए । और फिर उसका परिणाम क्या होगा ? श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कुछ शर्ते बताएं । इस प्रकार की मन की स्थिति है तो क्या होगा ? फिर "कीर्तनीयः सदा हरिः", I तो अब चतुर्थ शिक्षाष्टक आप जानते हो ? चौथा शिक्षाष्टक ? कौन जानता है ? हां ? हां भक्त चैतन्य जानता है । और कौन कौन जानता है चौथा शिक्षाष्टक ! वैसे सभी शिक्षाष्टक आपको पता होने चाहिए । कंठस्थ करो,याद करो, हरि हरि !! करोगे ? यह आपके लिए घर का पाठ है । यह चैतन्य चरितामृत सार है यह सभी ग्रंथों का सार है यह शिक्षाष्टक । इसको कंठस्थ कीजिए फिर ह्रदयगं भी करना है ही । तो चौथा है ... *न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।* *मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि ॥29॥* ( श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.29 ) अनुवाद:- हे सर्व समर्थ जगदीश ! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दर स्त्री अथवा प्रशंनीय काव्यों का इक्छुक नहीं हूँ । मेरी तो एकमात्र यही कामना है कि जन्म-जन्मान्तर मैं आपकी अहैतुकी भक्ति कर सकूँ । तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहे ..इस अष्टक में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रार्थना कर रहे हैं । यह सारे शिक्षाष्टकं प्रार्थना ही है । और उसमें विशेष प्रार्थना इस चौथे शिक्षाष्टक में ! क्या प्रार्थना है? "भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि" प्राप्त हो । क्या प्राप्त हो ? आपकी भक्ति प्राप्त हो । वह भक्ति कैसी हो ? "अहैतुकी त्वयि" भक्ति का दान दीजिए प्रभु । यह प्रार्थना है । क्योंकि भक्ति करने वाले जो होते हैं बस अभी तो अहैतुकी भक्ति ना तो मांगते हैं या ना तो जानते हैं ना तो करते हैं "अहैतुकी भक्ति" नहीं होती है उनसे अधिकतर लोगों से ,अधिकतर धार्मिक जनों से । उनकी भक्ति मिश्र भक्ति होती है । कैसा मिश्रण होता है ? एक तो कर्म मिश्र भक्ति होती है ! ज्ञान मिश्र भक्ति होती है । योग मिश्र भक्ति भी हो सकती है । अधिकतर उल्लेख करू मिश्र और ज्ञान मिश्र भक्ति का उल्लेख मिलता है इसको हम चैतन्य चरितामृत में पढ़ते हैं । *कृष्ण - भक्त - निष्काम , अतएव ' शान्त ' ।* *भुक्ति - मुक्ति - सिद्धि - कामी - सकलि 'अशान्त' ॥ 149 ॥* ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य-लीला 19.149 ) *अनुवाद:-* " चूँकि भगवान् कृष्ण का भक्त निष्काम होता है , इसलिए वह शान्त होता है । सकाम कर्मी भौतिक भोग चाहते हैं , ज्ञानी मुक्ति चाहते हैं और योगी भौतिक ऐश्वर्य चाहते हैं; अत: वे सभी कामी हैं और शान्त नहीं हो सकते । कुछ धार्मिक लोग भक्ति कर रहे हैं लेकिन केसी भक्ति ? कामना के साथ भक्ति है । कैसी कामना है ? भुक्ति की कामना है । और किस प्रकार की कामना हो सकती है ? मुक्ति की कामना हो सकती है । "भुक्ति - मुक्ति - सिद्धि - कामी - सकलि 'अशान्त" I जब तक कामना है तब तक शांति बनी रहेगी । "कृष्ण - भक्त - निष्काम अतएव ' शान्त " किंतु कृष्ण भक्त निष्काम होते हैं । इसलिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु यहां अहेतुकी भक्ति मतलब दूसरे शब्दों में भी कहा जा सकता है निष्काम भक्ति । मुझे निष्काम भक्ति प्राप्त हो । "सकाम" नहीं । फिर कैसी कामना ? भुक्ति कामना, मुक्ति कामना एसी सकाम भक्ति मुझे नहीं चाहिए । मुझे निष्काम भक्ति चाहिए । या उहेतुकी भक्ति चाहिए । किंतु उसके पीछे कोई भौतिक हेतु नहीं हो । कोई प्राकृत हेतु नहीं हो । हरि हरि !! तो यही बातें श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं । मुझे अहेतुक की भक्ति दीजिए । इतना ही कह सकते थे "भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि" समाप्त फिर एक पंक्ति में काम हो गया । एक ही पद में "भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि", एसी-एसी मुझे भक्ति दीजिए । उसी को ही कहा जाता है दूसरे शब्दों में जैसे हम थोड़े केहे ही रहे हैं ! चैतन्य महाप्रभु ने कहा है ! ऐसी भक्ति दीजिए । और वैसी भक्ति मत दीजिए । निष्काम अहेतुकी भक्ति दीजिए । सकाम या हेतु पूर्वक भक्ति ना दीजिए यह बातें वैसे ही है जैसे कल ("परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज" कह रहे हैं ) मैं के ही रहा था । *स्मर्तव्यः सततं विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित् ।* *सर्वे विधि - निषेधाः स्युरेतयोरेव किङ्कराः ॥ 113 ॥* ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य-लिला 22.113 ) *अनुवाद:-* “कृष्ण ही भगवान् विष्णु के उद्गम हैं । उनका सतत स्मरण करना चाहिए और किसी भी समय उन्हें भूलना नहीं चाहिए । शास्त्रों में उल्लिखित सारे नियम तथा निषेध इन्हीं दोनों नियमों के अधीन होने चाहिए । " गोपिया क्या करती है सब समय ? भगवान का स्मरण करती है । इतना कहना ही पर्याप्त था लेकिन आगे फिर यह भी कहा है "स्मर्तव्यो न जातुचित्" कभी भगवान को नहीं भूलती । भगवान का सदैव स्मरण करते थे । "स्मर्तव्यः सततं विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित्" तो दोनों शब्दों का दोनों दृष्टिकोण से उसको कहा है । भगवान स्मरणीय है । भगवान का सदैव स्मरण करना चाहिए । और दूसरा दृष्टिकोण क्या है ? भगवान का कभी विस्मरण नहीं हो । ( सदैव याद रखना कभी नहीं भूलना ) कहने से बात पूरी हो जाती है । इसी को कहते हैं विधि और निषेध, यम यह है और नियम यह है । तो यहां पर भी हम देख रहे हैं चैतन्य महाप्रभु इस शिक्षाष्टक में या अहेतुकी भक्ति मांग रहे हैं । साथ में यह भी कह रहे हैं इस प्रकार की भक्ति मुझे नहीं चाहिए । सकाम भक्ति मुझे नहीं चाहिए । तो उसका खुलासा करते हुए श्री कृष्ण चरित नाम प्रभु कहे हैं "न धनं न जनं न सुंदरीं, कवितां वा जगदीश कामये।" यह सब जो कर्मी होते हैं या जो भुक्ति कामि होते हैं , अधिकतर अधार्मिक होते हैं और कुछ धार्मिक भी होते हैं । उन्हें कर्मी भी कहते हैं । वहकर्मी है कर्मी । कर्मी में भी दो प्रकार होते हैं ! कुछ तो भौतिकवादी होते हैं । और कुछ तो धार्मिक होते हैं किंतु देवी देवता की पुजारी बन जाते हैं । देवी देवताओं के पास पहुंचकर फिर धनम् देहि जनम् देहि , देही-देही ; देते जाओ देते जाओ इसके लिए फिर यज्ञ भी करेंगे । तो यह सब जय श्री कृष्ण कहे हैं गीता में ... *काङ्न्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।* *क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥ 12 ॥* ( श्रीमद्भगवद्गीता 4.12 ) *अनुवाद:-* इस संसार में मनुष्य सकाम कर्मों में सिद्धि चाहते हैं, फलस्वरूप वे देवताओं की पूजा करते हैं । निस्सन्देह इस संसार में मनुष्यों को सकाम कर्म का फल शीघ्र प्राप्त होता है । महत्वाकांक्षा लेके कुछ जन क्या करते हैं ? "यजन्त इह देवताः" मतलब इस संसार में देवताओं की आराधना करते हैं, यज्ञ करते हैं उन्हें प्रसन्न करने के लिए । क्या नहीं करते देवताओं को प्रशन्न करने के लिए । लेकिन इसके पीछे ... *कामैस्तैस्तैर्ह्रतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।* *तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥ 20 ॥* ( श्रीमद्भगवद्गीता 7.20 ) अनुवाद:- जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा मारी गई है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं और वे अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूजा विशेष विधि-विधानों का पालन करते हैं । श्री कृष्ण कहै ! 'कामै' मतलब कामने , काम-वासना यह क्या करते हैं ? 'र्ह्रतज्ञानाः' उस कामीका यह जो कामना है उसका ज्ञान चुरा लेती है । और फिर वैसा ज्ञान रहित ही हो गया । ज्ञानी हुआ, मूर्ख हुआ फिर 'प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः' ध्यान पूर्वक सुनिए कृष्ण क्या कह रहे हैं ! ऐसे लोग 'कामैस्तैस्तै' मतलब उनके द्वारा जो काम ही है वह शरण में जाते हैं किसकी ? 'प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः' और और देवताओं के शरण में जाते हैं मतलब मेरी शरण में नहीं आते हैं , मेरे शरण में कौन आते हैं ... *बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।* *वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ 19 ॥* ( श्रीमद्भगवद्गीता 7.19 ) *अनुवाद:-* अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है । जो ज्ञानवान है मेरी शरण में यानी कृष्ण की शरण में आता है । और 'कामैस्तैस्तैर्ह्रतज्ञानाः' जो ज्ञान रहीत हैं उनका कामवासना ने उनका ज्ञान चुरा लिया है । वह लोग 'प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः' देवताओं के शरण में जाते हैं । तो यहां श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं एक तो कृष्ण की भक्ति मांग रहे हैं, 'भवताद् भक्तिर् अहैतुकी त्वयि' कृष्ण भगवान की भक्ति मुझे चाहिए । वैसे देवताओं की पुजा उसे भक्ति कहा ही नहीं जा सकता । उसको भुक्ति कहा जा सकता है । भक्ति तो कृष्ण की ही होती है या कृष्ण के और चारों की हो सकती है ... *आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधन परम् ।* *तस्मात्परतरं देवि तदीयानां समर्चनम् ॥ 31 ॥* ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य-लिला 11.31 ) *अनुवाद:-* ( शिवजी ने दुर्गा देवी से कहा 🙂 हे देवी , यद्यपि वेदों में देवताओं की पूजा की संस्तुति की गई है , लेकिन भगवान् विष्णु की पूजा सर्वोपरि है । किन्तु भगवान् विष्णु की सेवा से भी बढ़कर है उन वैष्णवों की सेवा , जो भगवान् विष्णु से सम्बन्धित हैं । परम आरधना तो कृष्णु या कृष्ण की अवतारों की हो शक्ति है । देवताओं की आराधना लोक करते तो है उस आराधना को हम भक्ति कह नहीं सकते उसको शास्त्रों में उसे भुक्ति कहा है । वह भोगी है । देवी देवताओं के पुजारी भोगी हैं । और फिर रोगी बन जाते हैं । लेकिन कृष्ण का भक्त योगी होता है या भक्ति योगी होता है । ' न धनं न जनं ' मुझे न धन चाहिए, न अनुयाई कुछ मशहूर हीरो (कलाकार) मेरे कई सारे चाहने वाले और मुझे अनुसरण करने वाले अनुयाई हो कोई सुंदर स्त्री का उपभोग मैं नहीं लेना चाहता हूं । ना कोई बड़ा कवि बनू । हरि हरि !! और कई बातों का बिस्तार करू कल्पना करके या .. "जोन देखें रवि ते देखें कवि" ऐसी एक कहावत है । जो कवि होते हैं ऐसी कुछ बातें हैं देखते हैं या लिखते हैं जो रवि मतलब सूर्य जिसको सूर्य भी नहीं देखता उसको कवि देखता है । ऐसी मन गठन कथा है । ऐसे होते हैं सांसारिक कवि । तो ऐसा कवि भी नहीं बनना चाहता हूं में । और है जगदीश ऐसी कोई कामना नहीं है । यह एक भाग हुआ , यह कर्म मिश्र भक्ति का भाग हुआ । और दूसरा भाग है ज्ञान मिश्र भक्ति । और वह क्या है ? "जम्मनि जन्म नीश्वरे" जो ज्ञान योगी या ज्ञान मिश्रा भक्ति करने वाले उनकी कामना होती है मुक्ति । मुक्ति को पिसाची कहा है । या हमारे आचार्य कहे हैं ... "कईवल्यम नरकायते" ( चैतन्य-चद्रा मृत 5 ), कईवल्य मुक्ति नरक से भी हिन है । मुझे मुक्ति नहीं चाहिए । वही बात श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु यह कह रहे हैं "मम जम्मनि जन्म नीश्वरे" पुनहा पुनहा मुझे जन्म लेना पड़े तो भी मैं तैयार हूं मैं कहां कह रहा हूं कि मुझे मोक्ष दो ! पुनः पुनः मुझे जन्म देना चाहते हैं तो मैं तैयार हूं प्रभु । मेरे हो जाए कई सारे जन्म लेकिन हर जन्म में क्या हो "भवताद् भक्तिर् अहैतुकी त्वयि" मुझे आपकी भक्ति अहेतुकी भक्ति प्राप्त हो । फिर मैं बैकुंठ या गोलक जा कर आपके सन्निधि में " "सार्ष्टि" , "सालोक्य" , "सारूप्य", "सामीप्य" यह चार प्रकार की मुक्ति है । और "सायुज्य" तो ..ठीक नहीं है । मुक्ति के पांच प्रकार बताए गए हैं । "सायुज्य" तो चाहिए ही नहीं । जिसने ज्योत में ज्योत मिलाने की बात या ब्रह्म में लीन होने की बात अहम् ब्रह्मास्मि यह साक्षात्कार की बात जिसकी चर्चा शंकराचार्य किए हैं 'तत्वमासी' अहम् ब्रह्मास्मि यह सब मोक्ष की कामना यह मुझे नहीं चाहिए । मुक्ति की कामना यानी भक्ति खत्म । 'मेंहीं भगवान हूं' मैं ही ब्रह्म हूं कौन किसकी भक्ति करेगा । तो इस प्रकार श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रार्थना कर रहे हैं तो आगे अपने शब्दों में भी कहे ही हल्का सा आभास ... *" धन, जन नाहि मागों, कविता सुन्दरी ।* *" शुद्ध-भक्ति 'देह' मोरे, कृष्ण कृपा करि " ॥ 30 ॥* ( श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य-लिला 20.30 ) *अनुवाद:-* "हे कृष्ण, मैं आपसे न तो भौतिक संपति चाहता हूं, न अनुयायी, न सुंदर स्त्री सकाम कर्मों का फल चाहता हूँ । मेरी तो भी यही प्रार्थना है कि आप अपनी अहेतुकी कृपा से मुझे जन्म-जन्मांतर अपनी शुद्ध भक्ति प्रदान करें । यह बांग्ला भाषा में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु इस शिक्षाष्टक पर अपना भाष्य कहो या अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं राय रामानंद और स्वरूप दामोदर को सुना रहे हैं । व्यक्त कर रहे हैं राय रामानंद और स्वरूप दामोदर को । तो उन्होंने कहा नहीं मांगता हूं न धनं न जनं नहीं मांगो ,कविता सुंदरी नहीं चाहिए, केवल शुद्ध भक्ति दीजिए । 'कृष्ण कृपा करी' ऐसी कृपा करो कृष्ण मुझे शुद्ध भक्ति प्रदान करो । *अति - दैन्ये पुनः मागे दास्य - भक्ति - दान ।* *आपनारे करे संसारी जीव - अभिमान ॥ 31 ॥* ( श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य-लिला 20.31 ) *अनुवाद:-* अपने आपको भौतिक जगत् का बद्धजीव समझते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने अत्यन्त दीनतापूर्वक पुनः भगवान् की सेवा प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की । तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु यह शिक्षा अष्टक का उच्चारण करते समय या इसे किया , न धनं न जनं कह रहे हैं और उनका विचारों का मंथन भाव उदित हो रहे हैं, केवल उदित ही नहीं हो रहे हैं भावो का आंदोलन , सुनामी चल रही है उनके ह्रदय प्रांगण में , भावों तरंगें, लहरें । तो हुआ क्या यहां कृष्णदास कविराज गोस्वामी अपने भाष्य कर रहे हैं यहां ! वह कह रहे हैं कि .. "अति - दैन्ये पुनः मागे दास्य - भक्ति - दान ।" तो यह जो चतुर्थ शिक्षाष्टक न धनं न जनं यह के ही रहे थें । तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अधिक देन्य, दीनता वही "तृणाद् अपि सुनीचॆन तरोर् अपि सहिष्णुना" यह जो है वो देन्य से दीनता , श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अधिक विनम्र हुए अपने देन्य अधिक प्रदर्शन करने लगे । हरि हरि !! क्योंकि जितना अधिक देन्य उतना अधिक व्यक्ति पात्र बनता है विद्यां ददाति विनयं, *विनयाद् याति पात्रताम्।* *पात्रत्वात् धनमाप्नोति,* *धनात् धर्मं ततः सुखम्॥* *अनुवाद:-* विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता आती है, पात्रता से धन आता है, धन से धर्म होता है, और धर्म से सुख प्राप्त होता है। वह सिद्धार्थ याद रखिए, "विनयाद् याति पात्रताम्" । तो विनय कि भी मात्रता होती है । व्यक्ति विनई तो है लेकिन कितनी विनई है ? हल्का सा है या अधिक है, अति विनई है । वह भी तरत्तम भाव है । अच्छा, बेहतर, श्रेष्ठ । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु सबसे श्रेष्ठ है । ऊंचे देन्य उनमें उत्पन्न हुआ । अधिक देन्य तो अधिक पात्रता भी हे भक्ति प्राप्ति का । और फिर कहें है .. *"आपनारे करे संसारी जीव - अभिमान"* स्वयं को मैं भी एक संसार में जैसे लोग होते हैं 'संसारी' संसार के लोग जैसा चेतन महाप्रभु भी सोच रहे थें मैं भी संसार का पति व्यक्ति हूं तो चैतन्य महाप्रभु ही स्वयं को "आपनारे करे संसारी जीव - अभिमान" हम भी इस संसार के अन्य लोगों जैसे पतीत हैं ऐसा सोच कर *महद्विचलनं नृणां गृहिणां दीनचेतसाम् ।* *नि:श्रेयसाय भगवन्कल्पते नान्यथा क्‍वचित् ॥ 4 ॥* ( श्रीमद्भागवतम् 10.8.4 ) अनुवाद:- हे महानुभाव, हे महान भक्त, आप जैसे पुरुष अपने स्वार्थ के लिए नहीं अपितु दिनचीत्त गृहस्थों के लिए ही स्थान-स्थान पर जाते रहते हैं । अन्यथा इस तरह जगह-जगह घूमने में उन्हें कोई रुचि नहीं रहती । 'दिन चेतसा' जैसे नंद महाराज ,,जब गर्गाचार्य उनके निवास स्थान पर आ गए गर्गाचार्य मथुरा से गोकुल आए और नंद भवन पहुंचे तो नंद महाराज ने उनका स्वागत किया गर्गाचार्य का । 'कर्वामी कीम्' हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं ? ऐसा पूछा भी । तो वहां पर नंद महाराज कहते हैं "गृहिणां दीनचेतसाम्" हम कैसे हैं तो वहां परभी नंद महाराज संसार के ग्रृहस्त लोग जैसे होते हैं उनकी मन की जो स्थिति होती है या विचारों के भी स्थिति तो वैसा ही खुद को नंद महाराज मैं भी ऐसा ही एक गृहस्थ हूं ' । गृहस्थ तो हूं ही और ऐसा कह कर नंद महाराज "गृहिणां दीनचेतसाम्" हम ग्रुप से कैसे होते हैं ? दिन मतलब दीन हीन गरीब, गरीबी किस में 'चेतसाम्' जहां तक चेतना भावना भाव भक्ति के बात है "दीनचेतसाम्" । तो श्री कृष्णा चेतन महाप्रभु फिर चाहे सोचने लगे मैं भी वैसा ही "दीनचेतसाम्" "गृहिणां",, सन्यासी तो थे लेकिन सोच रहे हें । हम भी वैसे ही है । तो उनमें दैन्य और अधिक बढ़ा । "अती दैन्य पून: मांगे' दास्य भक्ति दान" और भक्ति का दान मांगने लगे । और आगे के लोक में उमंग जो है भक्ति दान की मांग पांचवे शिक्षाष्टक में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहेंगे फिर उसको कल कहा जाएगा । तो तब तक के लिए आप आज बिना सुने उस पर और विचार कीजिए सोचे ,विचारों का मंथन कीजिए । या रसास्वादन कीजिए इस शिक्षाष्टक का भी । और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के भावों को कौन जान सकता है लेकिन चैतन्य महाप्रभु चाहते तो है कि हम सीखें, समझे इसीलिए तो उन्होंने रसास्वादन या यह शिक्षाष्टक राय रामानंद और स्वरूप दामोदर के साथ वार्तालाप कर रहे हैं । ताकि एक दिन भविष्य में 21वीं सदी में जो भी लोकजन होंगे ... पृथिवीते अच्छे यत नगरादि ग्राम । सर्वत्र प्रचार हइवे मोरा नाम ॥ 126 ॥ ( चैतन्य भागवत अंत्य-खंड 4.126 ) *अनुवाद:-* पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं , उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा । यह शिक्षाष्टक भी पहुंचे । हर नगर हर ग्राम में । और वहां पर लोग उसको पढ़ें सोने श्रवण करें और फिर चैतन्य महाप्रभु की उपेक्षा था, भविष्यवाणी थी उसकी पूर्ति हेतु श्रील प्रभुपाद चैतन्य चरितामृत का भाषांतर किए अंग्रेजी भाषा में और फिर काहे की अब आप सब शिष्य मंडली क्या करो ? इसका अधिक जितना हो सके अन्य भाषाओं में अनुवाद करो और उसका छपाई करो । उसके बाद मेरे ग्रंथों का उसका वितरण करो । बेशक मेरे ग्रंथों की अध्ययन करो बेशक यह तो है ही । तो इस प्रकार यह 500 वर्ष पूर्व कहे हुए वचन या इस शिक्षाष्टक का रसास्वादन गंभीरा में प्रारंभ हुआ और अब यह 'सोशल मीडिया' माध्यम से घर-घर पहुंच रहा है । केवल नगर में नहीं नगर में से घर घर मैं । *पदार्थाः संस्थिता भूमौ बीजहीनास्तुषा यथा ।* *विप्रैर्भागवतीवार्त्ता गेहे गेहे जने जने ॥ 73 ॥* ( पद्म पुराण 6.193.73 ) मैं भक्ति का प्रचार करूंगा, भक्ति को कहां कहां तक पहुंचाऊंगा ? जने जने हर व्यक्ति तक, गेहे गेहे हर घर में तक मैं पहुंच जाऊंगा । तो गुड़िया वैष्णव की यह योजना है । श्रीला प्रभुपाद ऐसे व्यवस्था करके गए उसके सु व्यवस्था के अनुसार यह शिक्षाष्टक का रसास्वादन आपतक पहुंचाया जा रहा है , आपको भी उसे और आगे पहुंचाना है । *यार देख , तारे कह ' कृष्ण ' - उपदेश ।* *आमार आज्ञाय गुरु हजा तार ' एइ देश ॥ 128 ॥* ( चैतन्य चरितामृत मध्य-लिला 7.12 ) अनुवाद:- " हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । " कृष्ण उपदेश करना है । ठीक है ! *॥"गौर प्रेमानंदे" हरि हरि बोल ॥*

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