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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक 19 मई 2021 हरे कृष्ण। आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 871 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हरि! हरि! गौरांगा! (जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।। आजकल श्रीचैतन्य महाप्रभु द्वारा किए गए शिक्षाष्टकम के रसास्वादन पर विषय चल रहा है। चैतन्य महाप्रभु के साथ हम भी आस्वादन कर रहे हैं अर्थात हम भी उनके द्वारा आस्वादन की हुई बातों का, उनके जूठन अथवा उच्छिष्ट के प्रसाद का चर्वण व आस्वादन कर रहे हैं। हम भी महाप्रभु के चरण कमलों का अनुसरण करते हुए (अनुकरण नहीं अपितु अनुसरण करते हुए ) कुछ प्रयास कर सकते हैं अथवा कर रहे हैं अर्थात हम उनके शिक्षाष्टकम के रसास्वादन का प्रयास कर रहे हैं। यह रसास्वादन भी साधना भक्ति के अंतर्गत आता है। क्या आपको शिक्षाष्टक का तीसरा अष्टक याद है? तीसरा अष्टक कौन सा है? सभी अष्टक आपको याद होने चाहिए। आपको कंठस्थ करने चाहिए। यह आपके लिए गृह कार्य है। आपको कुछ श्लोक, कुछ मंत्र, कुछ अष्टक, कुछ प्रार्थनाएं कंठस्थ होनी ही चाहिए। हर गौड़ीय वैष्णव को यह शिक्षाष्टक कंठस्थ करना चाहिए। यह भी कहना होता ही है कि इसको ह्रदयंगम करना चाहिए। हम आपको कई बार कह चुके हैं। कंठ में बिठाना एक बात है और हृदय में इसकी स्थापना करना दूसरी बात है। यह ऊंची बात है। जैसे तोता रटता है, वे कंठस्थ बातें होती हैं। तोता भी कभी-कभी राम राम करता है।जैसा भी उसको सिखाते हैं लेकिन उसका राम का उच्चारण या अन्य कोई भी शब्द कंठस्थ तक ही सीमित रहता है। कंठस्थ का अर्थ यह भी होता है 'रेडी टू गो' अर्थात कंठस्थ है, कंठ में बैठा हुआ है। केवल उसका उच्चारण करने की देरी है। वह तैयार है, उसको कंठस्थ कहते हैं। हमें उसको कंठस्थ के साथ ह्रदयंगम भी करना चाहिए। हमें उसका उच्चारण अर्थात कीर्तन करना चाहिए। कीर्तन करने का अर्थ है कि श्रवण करना। जब कीर्तन और श्रवण होगा, तब उसका स्मरण होगा। अतः ह्रदयंगम होगा अर्थात हृदय में बात बैठेगी। ठीक है! हमें अभी शिक्षाष्टक का रसास्वादन करना है। तीसरा शिक्षाष्टक है- तृणादपि सु - नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान - देन कीर्तनीयः सदा हरिः ।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.२१) अनुवाद : जो अपने आपको घास से भी तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है, वह सदैव भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यन्त सुगमता से कर सकता है । ' याद रखिए, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने हमारे लिए कल कहा था। हम इसको काल की दृष्टि से सोच रहे हैं। चैतन्य महाप्रभु तो यह सब शिक्षाष्टक कहा ही करते थे, हर समय इसका रसास्वादन चलता ही रहता था, आज भी कर रहे हैं, ऐसा समझना होगा। कल जो रसास्वादन हो रहा था उसके अंतर्गत दूसरे अष्टक में चैतन्य महाप्रभु ने कहा था। (उसको याद रखने से यह शिक्षाष्टक हम और अधिक अथवा भली-भांति समझेंगे।) नाम्नामकारि बहुधा निज - सर्व - शक्तिस् तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः । एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः ।। 16 ।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत २०.१६) अनुवाद " हे प्रभु , हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् , आपके पवित्र नाम में जीव के लिए सर्व सौभाग्य निहित है , अत : आपके अनेक नाम हैं यथा कृष्ण तथा गोविन्द , जिनके द्वारा आप अपना विस्तार करते हैं । आपने अपने इन नामों में अपनी सारी शक्तियाँ भर दी हैं और उनका स्मरण करने के लिए कोई निश्चित नियम भी नहीं हैं । हे प्रभु , यद्यपि आप अपने पवित्र नामों की उदारतापूर्वक शिक्षा देकर पतित बद्ध जीवों पर ऐसी कृपा करते हैं , किन्तु मैं इतना अभागा हूँ कि मैं पवित्र नाम का जप करते समय अपराध करता हूँ, अतः मुझ में जप करने के लिए अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाता है । मेरा दुर्दैव है कि इस महामंत्र में मेरा अनुराग उत्पन्न नहीं हो रहा है। द्वितीय अष्टक में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ऐसा भाव व्यक्त किया है। चैतन्य महाप्रभु ने रसास्वादन करते समय स्वयं को दुर्दैवमीदृश कहा है अर्थात कहा है कि महामंत्र अथवा इस नाम जप में मेरा अनुराग नहीं हो रहा है। चैतन्य महाप्रभु ने कहा था कि मैं तुमको उपाय बताऊंगा, ये - रूपे लइले नाम प्रेम उपजय । ताहार लक्षण शुन , स्वरूप - राम - राय ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्तय लीला २०-२१) अनुवाद:- श्रीचैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा , " हे स्वरूप दामोदर गोस्वामी तथा रामानन्द राय , मुझसे तुम उन लक्षणों को सुनो , जिस प्रकार मनुष्य को अपने सुप्त कृष्ण - प्रेम को सुगमता से जागृत करने के लिए हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करना चाहिए । मैं तुमको उपाय बताऊंगा कि कैसे जप करने से प्रेम उत्पन्न होगा। हमें धीरे-धीरे तीसरे शिक्षाष्टक की ओर मुड़ना है। हम मन की कैसी स्थिति में जप करें जिससे प्रेम उत्पन्न हो, यह बात मैं कहूंगा, ये - रूपे लइले नाम, वही बात इस शिक्षाष्टक के तीसरे श्लोक में श्री चैतन्य महाप्रभु उसका उत्तर दे रहे हैं अथवा उसका खुलासा कर रहे हैं। उसका स्पष्टीकरण हो रहा है। चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि तृणादपि सु - नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान - देन कीर्तनीयः सदा हरिः ।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.२१) अनुवाद : जो अपने आपको घास से भी तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है, वह सदैव भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यन्त सुगमता से कर सकता है । हमारे मुख से मुश्किल से नाम भी नहीं निकलता क्योंकि अनुराग उत्पन्न नहीं हो रहा था। नाम बड़ा मुश्किल से निकल रहा था। नाम को बाहर निकालने के लिए हमें मजबूर होना पड़ता है लेकिन अब चैतन्य महाप्रभु इस तृतीय शिक्षाष्टक् के अंत में कह रहे हैं कि कीर्तनीय सदा हरि। नाम जप कुछ खंडित हो रहा था, नाम जप कुछ नियमित नहीं हो रहा था, नाम जप कुछ ध्यानपूर्वक भी नहीं हो रहा था लेकिन अब चैतन्य महाप्रभु ने तीसरे शिक्षाष्टक में जो उपाय बताया है - उसके बाद अब क्या हो रहा है? कीर्तनीय सदा हरि- अब तो कीर्तन हो रहा है, सदैव कीर्तन हो रहा है। अखंड कीर्तन हो रहा है, अखंड जप हो रहा है। अखंड कीर्तन या अखंड जप हो सकता है लेकिन कब हो सकता है? इस अष्टक में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कुछ शर्ते बता रहे हैं। इस तृतीय अष्टक का अंग्रेजी में जो भाषांतर है, उसमें भक्त कहते हैं मन की ऐसी स्थिति में भगवान् के नाम का जप कर सकता है। मन तो वही है लेकिन जब मन की ऐसी स्थिति होगी, तब ही व्यक्ति प्रभु का नाम सदैव ले सकता है। सतत ले सकता है। तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् | ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ।। ( श्रीमद् भगवतगीता १०.१०) अनुवाद:जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं। या स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे । अहैतुक्यप्रतिहता ययात्मा सुप्रसीदति ॥ ६ ॥ ( श्रीमद्भागवतगम १.२.६) अनुवाद:- सम्पूर्ण मानवता के लिए परम वृत्ति ( धर्म ) वही है जिसके द्वारा सारे मनुष्य दिव्य भगवान् की प्रेमा - भक्ति प्राप्त कर सकें । ऐसी भक्ति अकारण तथा अखण्ड होनी चाहिए जिससे आत्मा पूर्ण रूप से तट हो सके । अहैतुक्यप्रतिहता मतलब अखंड। मन की ऐसी स्थिति में अर्थात जब मन की ऐसी स्थिति बनेगी तब व्यक्ति निरंतर नाम लेता जाएगा। रोकने पर भी रुकने का नाम नहीं लेगा। जैसे हरिदास ठाकुर। वह मन की कौन सी स्थिति है? (यह हल्का सा शब्दार्थ और भाषांतर देखते हैं) चैतन्य महाप्रभु ने इस अष्टक के ऊपर अपना भाष्य भी सुनाया ही है, उसको भी पढ़ना है। हरि! हरि! तृणादपि सु - नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान - देन कीर्तनीयः सदा हरिः ।।211 अनुवाद :जो अपने आपको घास से भी तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है , वह सदैव भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यन्त सुगमता से कर सकता है । ' तृणादपि सु -नीचेन तृण मतलब घास। घास से भी अधिक नम्र। आप भी विचार करो, कल्पना करो। थोड़ा दिमाग लड़ाओ कि क्या कहा जा रहा है। यह कठिन है लेकिन यहां पर कठिन कार्य ही करने के लिए ही चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं। घास के तिनके से भी अधिक विनम्र बनो। घास को कई लोग ठोकर मारते रहते हैं। उसी पर चलते रहते हैं लेकिन वह तिनका कभी शिकायत नहीं करता है। वह तिनका ऐसा विनम्र होता है। 'तृणादपि सु -नीचेन' हरि! हरि! तरोरिव सहिष्णुना- जहां तक नम्रता की बात थी, विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि शुनि चैव श्र्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः || ( श्रीमदभगवदगीता ५.१८) अनुवाद: विनम्र साधुपुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान् तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं। भगवान ने ब्राह्मणों के दो गुण बताएं हैं 'विद्याविनयसंपन्ने' अर्थात ब्राह्मण के दो मुख्य लक्षण बताए हैं। ब्राह्मण विद्वान होता है, वेदपाठत भवे विप्र: अर्थात वेद पाठ करने वाला होता है। उसने वेदों का अध्ययन किया है, ब्राह्मण विद्वान भी होते हैं और विद्याविनयसंपन्ने भी होते हैं, विनयी व विनम्र होते हैं। सभी बातें वैदिक वांग्मय में कही ही है। विद्या ददाति विनियम ( हितोउपदेश संख्या ५) विद्या विनय देती है। विद्या हम में विनय उत्पन्न करती है। विनयी और विनम्र नही होने का कारण हम अनाड़ी हैं। हम जब ज्ञान का अर्जन करेंगे, तब हम समझ जाएंगे कि हम कितने छुद्र हैं, कितने लहान है, हम छोटे हैं। हम ही केवल संसार में नहीं हैं, अनेक जीव हैं। वे भी तो हैं ही। वे भी भगवान के हैं। हरि! हरि! विद्वान स्वभाविक ही नम्र होते हैं। तृणादपि सु - नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान - देन कीर्तनीयः सदा हरिः ।।211 अनुवाद : जो अपने आपको घास से भी तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है , वह सदैव भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यन्त सुगमता से कर सकता है । तरु मतलब वृक्ष या वनस्पति। तरोरिव या तरोर्पि। प्रकार से इसका उल्लेख हुआ है। तरोरिव या तरोर्पि कहो। सहिष्णुना-यहां सहनशीलता की बात है। यह मन की स्थिति चल रही है। पहली स्थिति नम्रता है, दूसरी सहनशीलता मतसर्ता परा उत्कर्ष असहनीयं ( श्रीधर स्वामी) उससे नफरत उत्पन्न होती है, हमसे औरों का उत्कर्ष, विकास प्रगति सहन नहीं होती। हमें सहनशील होना चाहिए। हरि! हरि! कितना सहनशील होना चाहिए? यहां पहले भी नम्रता की बात आयी। वहां पर भी तिनके का उल्लेख हुआ। यहां सहनशीलता की बात अर्थात यहां वृक्ष या वनस्पति का उल्लेख है। घास का तिनका या घास ही कहो या पौधा कहो, वृक्ष कहो, उसकी सहनशीलता वृक्ष जैसे सहन करता है। जैसे कल कोस्टल एरिया कोंकण, गोवा, मुंबई, गुजरात यह जो आंधी तूफान वर्षा का दृश्य आपने देखा क्या हो रहा था, मनुष्यों का तो क्या कहना। इतना दिखाई नहीं दिया मनुष्यों का क्या हाल हो रहा था वैसे ही सारा जगत कोरोना वायरस से पीड़ित और फिर इसके ऊपर से यह आदिदैविक समस्या या ताप और फिर मनुष्यों से अधिक तो वृक्ष परेशान थे लेकिन बेचारे सहन कर रहे थे। अतः सहनशीलता का उदाहरण देते हुए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु पक्षियों का उदाहरण दे रहे हैं वृक्ष जैसे सहनशील होते हैं तरोरपी सहिष्णुना उसी वृक्ष की छत्रछाया में आप आराम कर रहे हो। आप में से कोई बदमाश क्या कर सकता है कुल्हाड़ी लेकर उसी वृक्ष की कोई शाखा तोड़ सकता है। वृक्ष शिकायत नहीं करता, सहन करता है। चोरी कर रहे हो ना आप और फल भी वृक्ष के हैं। तुम चोर हो उस वृक्ष से अनुमति भी नहीं ली, वृक्ष को निवेदन भी नहीं किया कि क्या मैं फल ले सकता हूं ? आपने उस वृक्ष को प्रणाम भी नहीं किया वांछा कल्पतरुभश्चय यहां पुनः पुनः तरु आ गया वांछाकल्पतरू, वृक्ष कैसे होते हैं या कई वृक्ष हरि हरि ! भगवत धाम में सभी वृक्ष कल्पतरु (डिजायर ट्री) ही होते हैं। लेकिन इस संसार में भी वृक्ष वैसे वांछा कल्पतरु होते हैं। नारियल का वृक्ष है वह कुछ कम कल्पवृक्ष नहीं है इतनी सारी वांछाये उनकी पूर्ति करता है। एनीवे यह सब कहते कहते समय बीत रहा है। हम उस वृक्ष को हानि पहुंचाते रहते हैं लेकिन वह सहिष्णुना वह सहन करता है। अतः सहनशीलता ऐसे मन की स्थिति, एक शर्त है। फिर यह दो बातें हुई तृणादपि सु - नीचेन एक नम्रता की बात हुई और तरोरिव सहिष्णुना वृक्ष जैसी सहनशीलता हुई और क्या है अमानिना मान - देन अमानिना एक शब्द है और मान - देन यह दो मूल शब्द , तो अमानिना है और मान - देन है। इसका संस्कृत की तृतीया विभक्ति में जब उपकरण के रूप में शब्द का प्रयोग होता है तो तृतीया का प्रयोग होता है। अर्थात उसका हो गया अमानी का अमानिना हुआ। जो व्यक्ति अमानिना बनके मतलब अपने लिए मान सम्मान की अपेक्षा नहीं रखता है या ना कोई योजना बनाता है कि मेरा मान सम्मान सत्कार हो, ऐसा विचार भी नहीं करता और ऐसी परिस्थिति को भी उत्पन्न नहीं करता मुझे मान सम्मान मिले इसको अमानि एक बात और उसी के साथ जुड़ी हुई एक और बात खुद के लिए तो मान सम्मान की अपेक्षा नहीं करते हो तो यह अच्छी बात है। थोड़ी नकारात्मक बात भी हो सकती है लेकिन यह सकारात्मक ही है। किन्तु लग सकती है कि कोई नकारात्मक बात कही जा रही है या करने के लिए कही जा रही है। अपने लिए मान सम्मान की अपेक्षा मत करो, ये नकारात्मक बात, ऐसा कोई सोच सकता है। परन्तु ये बात भी सकारात्मक ही है। यहां फिर मान- देन मान - द व्यक्ति को कैसा होना चाहिए ऐसे शब्द भी हैं बढ़िया-बढ़िया संस्कृत में मान -द , द मतलब देने वाला, मान देने वाला ,अर्थात ऐसा मान देने वाला बनकर, बनो मान -देन यहां संक्षिप्त में कुछ ही शब्दों में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने यह उपाय है ये - रूपे लइले नाम, नाम प्रेम उपजय मन की कैसी स्थिति में जप करने से प्रेम उदित होगा ताहार लक्षण शुन , स्वरूप - राम - राय उसके लक्षण मैं बताता हूं। चैतन्य महाप्रभु ने कहा था और फिर लक्षण बताएं या मन की ऐसी स्थिति समझाई। ऐसा करोगे तृणादपि सु - नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान - देन कीर्तनीयः सदा हरिः ऐसा व्यक्ति सदैव और प्रेम पूर्वक, सदैव तो कह सकते हैं सदा की बात कही जा रही है या जप कर सकते हैं। इसलिए इसे नोट कीजिए चैतन्य महाप्रभु ने क्या कहा संक्षिप्त में चैतन्य महाप्रभु जो इस पर भाष्य सुनाएं है वह है उत्तम हा आपनाके माने तृणाधम । दुइ - प्रकारे सहिष्णुता करे वृक्ष - सम ।।२०. २२॥ (चैतन्य चरितामृत अन्तय) अनुवाद ये उसके लक्षण हैं , जो हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करता है । यद्यपि वह अति उत्तम होता है , किन्तु वह अपने आपको धरती की घास से भी तुच्छ मानता है और वृक्ष की तरह वह दो प्रकार से सब कुछ सहन करता है । उत्तम हा आपनाके माने तृणाधम संभावना है कि कई भक्त वैसे नम्र ही हैं और फिर मानते भी हैं और उनका सारा व्यवहार भी ऐसा होता है तृण से भी अधम तृणाधम या उत्तम होते हुए या उत्तम भक्त होते हुए भी जैसे सनातन गोस्वामी या और भी कई सारे उदाहरण हैं वैसे जो अधिक उत्तम या उत्तमोत्तम भक्त हैं वे स्वयं को अधमाधम मानते हैं। जो कनिष्ठ भक्त होते हैं थर्ड क्लास वही स्वयं को उत्तम मानते हैं या स्वयं को महान मानते हैं। मैं कुछ विशेष हूं ऐसा उनका अहंकार होता है। कनिष्ठ अधिकारी से जब वह मध्यम अधिकारी बन गया तब वह स्वयं को अधिक अधम मानेगा, अधिक नम्रता पूर्ण व्यवहार करेगा। जब कनिष्ठ से बन गया मध्यम अधिकारी और मध्यम से उत्तम, नरोत्तम दास ठाकुर तब वे स्वयं को अधिक से अधिक अधम मानने लगते हैं तृणाधम तृण से भी अधिक अधम ऐसे चैतन्य महाप्रभु यहां समझा रहे हैं वृक्ष येन काटिलेह किछु ना बोलय । शुकाञा मैलेह कारे पानी ना मागय ।। २०.२३ ।। (चैतन्य चरितामृत अन्तय) अनुवाद " जब वृक्ष को काटा जाता है , तब वह कुछ बोलता नहीं है और सूखते रहने पर भी कभी किसी से पानी नहीं माँगता । इसको तो हमने थोड़ा समझाए था चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं किसी पेड़ को कोई काटता है तो ना बोलें वृक्ष कुछ प्रत्युत्तर में नहीं कहेगा केवल सहन करते जाएगा और कभी सूख रहा है जल नहीं है तो पानी को नहीं मांगेगा मेरा यह करम है ऐसा मानते हुए उसको सहन करते जाएगा उनकी इच्छा से जो भी प्राप्त होगा उसी में समाधान या संतुष्ट रहकर, ऐसे वृक्ष पानी नहीं मिला तो भूखे प्यासे रहेंगे। पेड़ ये मागये , तारे देय आपन - धन ।धर्म - वृष्टि सहे , आनेर करये रक्षण ।। २०. २४ ।। (चैतन्य चरितामृत अन्तय) अनुवाद " वृक्ष हर किसी को अपने फल , फूल तथा जो भी उसके पास होता है , दे देता है । वह तपती धूप तथा वर्षा की झाड़ी को सहन करता है , फिर भी वह अन्यों को आश्रय देता है। कोई धन मांगता है और कोई आता है मांगने तो उसको दे देते हैं उसको जरूरत है ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्याति पृष्छति । भुड.कते भोजयते चैब पडविरं प्रीति-लकषणम् ॥४॥ उपदेशामृत अनुवाद- दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार स्वीकार करना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना। भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं। ऐसे यह संतों के लक्षण हैं भक्तों के लक्षण हैं। पेड़ ये मागये, तारे देय आपन - धन, तरन्ति देव का उदाहरण है हरि हरि ! उन्होंने दे दिया अन्न भी दिया और यह भी दिया और जो कुछ बचा था उसे गृहण करने ही वाले थे उपवास के बाद, उपवास को तोड़ना था पारण का समय आ गया इतने में अलग अलग व्यक्ति आ गए उन्होंने मांगा मुझे भी दो, मुझे भी दो, मुझे भी दो, तरन्ति देव देते गए देते गए। मेरा क्या होगा यह विचार बाद में, पहले उनको चाहिए उनको जरूरत है उन्हें इसका अभाव है। तारे देय आपन - धन हरि हरि ! धर्म - वृष्टि सहे , आनेर करये रक्षण इसी प्रकार स्वयं तो सहन करेंगे, मूसलाधार वर्षा हो रही है औरों की रक्षा का पहले विचार होगा चिंता होगी धर्म - वृष्टि सहे , आनेर करये रक्षण, उत्तम वैष्णव बनके निर अभिमानी होना चाहिए। अभिमान निर अभिमान ,अहम यह तो सारा अहंकार का ही खेल है। एक अहम एक न अहम या अहम हैं मैं एक आत्मा हूं, भगवान का अंश दास हूं यह अहम है ठीक है। लेकिन ना अहम् मैं यह शरीर नहीं हूं और यह मम जो है अहम मम,यह मैं नहीं हूं यह मेरा नहीं है। ईशावास्यं इदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत। तेन त्यक्तेन भुञ्जिथाः मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ॥१॥ यह सारी संपदा भगवान की है उन्होंने मेरे लिए कुछ कोटा निश्चित किया हुआ है मेरी जितनी आवश्यकता है उसके अनुसार उतना ही मुझे रखना चाहिए तेन त्यक्तेन भुञ्जिथाः और जो अधिक धन है उसका संग्रह मैं नहीं करूंगा। अहिंसा सत्यमस्तेयं यावदर्थपरिग्रहः । बहाचर्य तपः शौचं स्वाध्यायः पुरुषार्थनम् ॥ (श्रीमदभागवतम ३.२८.४) अनुवाद- मनुष्य को चाहिए कि अहिंसा तथा सत्य का आचरण करे, चोरी से बचे और अपने निर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो उतना ही संग्रह करे । वह विषयी जीवन से बचे , तपस्या करे , स्वच्छ रहे , वेदों का अध्ययन करे और भगवान परमस्वरूप की पूजा करें। यह यम कहलाते हैं यम नियम,अहिंसा सत्य अस्तेय अस्तेय मतलब चोरी करना, ब्रह्मचर्य का पालन और असंग्रह संग्रह नहीं करना, (होल्डिंग एक्यूमिलेशन) इससे बढ़ता है अहंकार चैतन्य महाप्रभु फिर यहां कह रहे हैं। उत्तम हा वैष्णव हवे निरभिमान । जीवे सम्मान दिले जानि ' ' कृष्ण ' - अधिष्ठान ।। (चैतन्य चरितामृत अन्तय २०.२५) अनुवाद " यद्यपि वैष्णव अति उच्च व्यक्ति होता है , तो भी वह निरभिमानी होता है और हर एक को कृष्ण का रहने का स्थान समझकर उसका आदर करता है। निरभिमान बने जीवे सम्मान दिले जानि ' ' कृष्ण ' - अधिष्ठान और जीव औरों का सम्मान क्यों करें ? जीवे सम्मान दिवे और जीवों का सम्मान करना चाहिए क्यों ? जानि , जानकर क्या जानकर? कृष्ण अधिष्ठान, वह भी कृष्ण के हैं या उनमें भी कृष्ण हैं। सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च | वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् || (श्रीमद भगवद्गीता १५. १५) अनुवाद- मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ | उनमें भी कृष्ण हैं उनके साथ भी कृष्ण हैं वह कृष्ण के हैं इन बातों को जानकर जीव सम्मान दें या स्वयं भगवान कह रहे हैं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु। एइ - मत हञा येड़ कृष्ण - नाम लय ।श्री कृष्ण - चरणे तौर प्रेम उपजय ।। ।। (चैतन्य चरितामृत अन्तय २०. २६) अनुवाद - यदि कोई इस तरह से कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करता है , तो वह निश्चय ही कृष्ण के चरणकमलों के प्रति अपना सुप्त प्रेम जागृत कर लेगा । यह श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की कॉमेंट्री या भाष्य है तृणादपि सु - नीचेन अष्टक के ऊपर, वह भाष्य ही समझा कर चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं यही मत, इस प्रकार मन की स्थिति में , कोई भगवान का नाम लेता है कृष्ण चरणे तौर प्रेम उपजय, श्रीकृष्ण के चरणों में चरण कमलों में उसका प्रेम उत्पन्न होगा (जागृत होगा) वह भाग्यवान बनेगा। दुर्देव , मैं दुर्देव हूं ऐसा कह रहा था अब भाग्योदय हुआ ऐसे मन की स्थिति में , कहिते कहिते प्रभुर दैन्य बाडिला । 'शुद्ध - भक्ति ' कृष्ण - ठाजि मागिते लागिला ॥ (चैतन्य चरितामृत अन्तय २०. २७) अनुवाद- जब श्रीचैतन्य महाप्रभु इस तरह बोल रहे थे , तभी उनका दैन्य बढ़ गया और वे कृष्ण से शुद्ध भक्ति सम्पन्न कर पाने के लिए प्रार्थना करने लगे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु इस शिक्षाष्टक का जब वे रसास्वादन कर रहे हैं शिक्षाष्टक को कहें फिर भाषण सुना रहे हैं तो क्या हुआ ? दैन्य बाडिला, वे अधिक दैन्य को प्राप्त हुए दैन्य अर्थात अधिक दीन उनका ऐसा मन हुआ दीन हीन शुद्ध - भक्ति ' कृष्ण - ठाजि मागिते लागिला और इस प्रकार जब वे इस शिक्षाष्टक का रसास्वादन कर ही रहे थे और सिर्फ रसास्वादन करते करते नम्र हो गए या विनम्र हुए अधिक नम्र हुए विनयी हुए, विनय ददाति पात्रता, यह छोटा सिद्धांत है जो विनयी होता है वह पात्र बन जाता है (ही बिकम डिजर्विंग कैंडिडेट) विनयी नम्र व्यक्ति पात्र बनता है। चैतन्य महाप्रभु क्या करने लगे ? शुद्ध - भक्ति ' कृष्ण - ठाजि मागिते लागिला, कृष्ण भक्ति मांगने लगे, मुझे भी कृष्ण भक्ति दीजिए कृष्ण भक्ति दीजिए सेवा योग्यं कुरु, सेवा करने के लिए योग्य बनाइए, मुझे मुझे सेवा दीजिए ऐसी प्रार्थना श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु करने लगे। प्रेमेर स्वभाव याहाँ प्रेमेर सम्बन्ध । सेड़ माने , - ' कृष्णे मोर नाहि प्रेम - गन्ध ' ।। (चैतन्य चरितामृत अन्तय २०. २८) अनुवाद- जहाँ भी भगवत्प्रेम का सम्बन्ध होता है , इसका स्वाभाविक लक्षण यही है कि भक्त अपने आपको भक्त नहीं समझता । बल्कि वह सदैव यही सोचता है कि उसमें कृष्ण के प्रति रंच मात्र भी प्रेम नहीं है । अब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु यह भी कह रहे हैं की मुझ में तो कृष्ण के चरणों में जो प्रेम होना चाहिए, उसकी गंध भी नहीं हैं मुझे प्रेम दीजिए, प्रेम चाहिए प्रेममयी सेवा दीजिए। ठीक है अब मैं यहीं विराम करता हूं उसके बाद चौथा शिक्षाष्टक चैतन्य महाप्रभु कहेंगे । गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !

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