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जप चर्चा पंढरपुर धाम से 5 जनवरी 2021 जय श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद । श्री अद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्त वृंद ।। 825 स्थानों से आज जप हो रहा है। हरि हरि। आपका स्वागत है। न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः | यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम || (भगवद्गीता 15.6) अनुवाद : वह मेरा परम धाम न तो सूर्य या चन्द्र के द्वारा प्रकाशित होता है और न अग्नि या बिजली से । जो लोग वहाँ पहुँच जाते हैं, वे इस भौतिक जगत् में फिर से लौट कर नहीं आते । श्री गोपी तुम सुन रही हो कि तुम महामंत्र को सुन रही हो ? श्वेत मंजिरी तुम सुन रही हो ? सुनो । मैंने कहा , वैसे मैंने जो कहा वह भगवान ने कहा है क्योंकि यह भगवत गीता ऐज इट इज , यथारुप है । जो भगवान ने कहा है वही मैं कहता हूं । या आप भी कहते हो । भगवान ने जो कहा है उसिको आप कहते हो , भगवत गीता यथारूप है । भगवत गीता का मूल रूप है , भगवत गीता जशी आहे तशी हो जाएंगी । भगवान ने कहा , "जो मेरे धाम में लौटते हैं , यद्गत्वा न निवर्तन्ते फिर वह ऐसे लोग , ऐसे जिव मेरे धाम लौटते है तो फिर लौटते ही है । न निवर्तन्ते लौटते हैं मैंने कहा अच्छा किया मैंने , अच्छा कहा , लौटना मतलब वहा पहले कभी थे , ऐसा अर्थ निकलता है । लौट गया मतलब पहले यहा था और अब पुनः लौट गया , लौट आया आप समझ रहे हो ना ? यह तो मुझे नहीं कहना था लेकिन अभी लौटने की बात कहते ही मुझे यह मेरे मन में पुनीत हुआ । भगवत धाम जब हम लौटते हैं , मतलब वहां हम पहले कभी थे अब पुनः लौट आए हैं या जिसको हम अंग्रेजी में कहते हैं , गोइंग बैक टू होम , ही हास कम बॅक , मतलब वह व्यक्ती अगर पहले पंढरपुर में नहीं था तो फिर हम ऐसा नहीं कहेंगे कि वह लौट चुका है । पहले यहां नहीं था तो फिर हम कहेंगे कि वह आ चुका है । वह लौट चुका है ऐसा नहीं कहेंगे । आपको समझ में आ रहा है क्या ? मैं जो कह रहा हू , मुझे तो समझ मे आ रहा है । बैक टू होम , यह बात है , घर वापसी (हसते हुये) उत्तर प्रदेश में जब घर वापसी हुई । पहले हिंदू थे फिर धर्मांतर हुआ वह मुस्लिम बन गए , फिर उनको पुनः जब हिंदू बनाया उत्तर प्रदेश में उसको कहते हैं घर वापसी , मतलब घर वापस आ गए । पहले हिंदू थे पुनः अब हिंदू बन गए हैं उनको धर्म वापसी कहते हैं । यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम लौट आया और भगवान ने कहा कि वह यहासे वापस नहीं जाएगा , अब यही रहेगा । न निवर्तन्ते इसकी तुलना वैसे भगवान के एक दूसरे वचन के साथ करनी थी और वह यह है कि भगवान ने कहा है , ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति | एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते || (भगवद्गीता 9.21) अनुवाद : इस प्रकार जब वे (उपासक) विस्तृत स्वर्गिक इन्द्रियसुख को भोग लेते हैं और उनके पुण्यकर्मों के फल क्षीण हो जाते हैं तो वे मृत्युलोक में पुनः लौट आते हैं | इस प्रकार जो तीनों वेदों के सिद्धान्तों में दृढ रहकर इन्द्रियसुख की गवेषणा करते हैं, उन्हें जन्म-मृत्यु का चक्र ही मिल पाता है | क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति कुछ जीव , कुछ धार्मिक लोग क्या करते हैं ? ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः | जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः || (भगवद्गीता 14.18) अनुवाद: सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं,रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं ।‌ जो सत्व गुनी होते हैं , ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था वैसे एक एक शब्द को एक एक अक्षर की ओर ध्यान देना होगा । सत्त्वस्था संस्कृत भाषा भी ऐसी है , बहुत बढ़िया है और इसके ऐसे अर्थ भी बहुत गुड अर्थ है भावार्थ इसमें छिपे है । सत्त्वस्था मतलब जो सत्व में स्थित है वह क्या करते हैं ? ऊर्ध्वं गच्छन्ति मतलब ऊपर जाते हैं , स्वर्ग में जाते हैं । स्वर्ग पहुंचते हैं तो स्वर्ग की प्राप्ति होती है । स्वर्ग की प्राप्ति तो होनी है , भगवान कहते हैं कि आप वहां सदा के लिए नहीं रह सकते । क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति जब पुण्य क्षीण होगा , आपने कुछ पुण्य कमाया , दान धर्म किया , दान धर्म सात्विक , सत्व के स्तर पर , आप स्वर्ग गये लेकिन आप सदा के लिए वहां नहीं रहे सकते । मर्त्यलोकं विशन्ति आपको पुनः मृत्यु लोक में वापस आना होगा , यह एक भेद है । सत्वगुणी बनो । हरि हरि । अब फिर कुछ कहना होगा या कुछ बोलना होगा देवता की पूजा करो । सत्वगुण मे वैसे देवता की पूजा होती है । देवता की पूजा सात्विक मानी जाती है , इसको हम कर्मकांड कहते हैं । कृष्ण-भक्त- निष्काम, अतएव 'शान्त'। भुक्ति-मुक्ति-सिद्धि-कामी- सकलि 'अशान्त' ।। (चैतन्य चरितामृत मध्य , 19.149) अनुवाद: चूंकि भगवान् कृष्ण का भक्त निष्काम होता है, इसलिए वह शान्त होता है। सकाम कर्मी भौतिक भोग चाहते हैं, ज्ञानी मुक्ति चाहते हैं और योगी भौतिक ऐश्वर्य चाहते हैं; अत: वे सभी कामी हैं और शान्त नहीं हो सकते। देवताओं की पूजारियोकी कामना तो होती है , देवताओं की पूजा कर रहे हैं लेकिन कामना के साथ होती है । कृष्ण की पूजा कामना के साथ नहीं होनी चाहिए , एक समय उसको निष्काम बनना ही होगा । कुछ थोड़ी सी कामना है तो कृष्ण सेवा करने से , कृष्ण आराधना करने से , कृष्ण के नाम का जप करने से वह 1 दिन उस कामवासना से मुक्त हो जाएगा। कृष्ण ने कहा ही है , यह जो देवता का पुजारी है , काङ्न्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः | क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा || (भगवद्गीता 4.12) अनुवाद : इस संसार में मनुष्य सकाम कर्मों में सिद्धि चाहते हैं, फलस्वरूप वे देवताओं की पूजा करते हैं | निस्सन्देह इस संसार में मनुष्यों को सकाम कर्म का फल शीघ्र प्राप्त होता है | यह भगवत गीता की बातें चल रही है , देवता की पूजा क्यों करते हैं ? काङ्न्तः जिनकी कोई महत्वाकांक्षा होती है , धनं देही या जन्म देही या कुछ देहि , देहि , देहि ,यह दीजिए , वह दीजिए , सुख संपति घर आवे , ऐसा कुछ है , ऐसा कुछ संकल्प होता है और उसकी पूर्ति के लिए देवता के पास पहुंचते हैं । काङ्न्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः लोग देवता के पूजारी क्यों बनते हैं ? हम नहीं जानते लेकिन भगवान जानते हैं , भगवान बता रहे हैं आपकी कोई आशा आकांक्षा है , महत्वाकांक्षा है , कुछ कामना है , भुक्ति कामी है , मुक्ति कामी है सिद्दी कामी , यह सभी कामी मंडल है । कामीयो का मंडल है , भुक्ती कामी , मुक्ति कामी , सिद्धि कामी , कृष्ण-भक्त- निष्काम, अतएव 'शान्त'। किंतु कृष्ण भक्त निष्काम होता है वह शांत , धीर होता है । हरि हरि । तीन गुणों से प्रभावित होकर व्यक्ति अलग-अलग पद्धति की अर्चना कहो या आराधना कहो , स्वीकार करते हैं या अलग अलग व्यक्तित्व उनके इष्ट देव बनते हैं । ऐसा कृष्ण ने कहा , “यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः| भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् || (भगवद्गीता 9.25) अनुवाद: जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं के बीच जन्म लेंगे, जो पितरों को पूजते हैं, वे पितरों के पास जाते हैं, जो भूत-प्रेतों की उपासना करते हैं, वे उन्हीं के बीच जन्म लेते हैं और जो मेरी पूजा करते हैं वे मेरे साथ निवास करते हैं | यहां पर समझाया है , देवता की पूजा करो देव लोग जाओ और यह सत्व गुण मे होता है । न्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः पितरों की पूजा करो पितृलोक जाओ यह रजोगुण में होता है । भूतानि यान्ति भूतेज्या भूत पिताच की आराधना , मंत्र तंत्र , तांत्रिक यह तमोगुण में होता है । यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् मेरी जो आराधना करते हैं वह मुझे प्राप्त करते है , मेरे धाम लौटतेे हैं । 3 गुनो के प्रभाव से यह सत्व, रज, तम अलग अलग आराधना , वासना अलग-अलग आराध्य देव आप समझते हो वही हमारे आराध्य देव है । आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधनं परम्। तस्मात्परतरं देवि तदीयानां समर्चनम् ॥ ( चैतन्य चरितामृत मध्य 11.31) अनुवाद: ( शिवजी ने दुर्गा देवी से कहा :)हे देवी, यद्यपि वेदों में देवताओं की पूजा की संस्तुति की गई है, लेकिन भगवान् विष्णु की पूजा सर्वोपरि है। किन्तु भगवान् विष्णु की सेवा से भी बढ़कर है उन वैष्णबों की सेवा, जो भगवान् विष्णु से सम्बन्धित हैं।" आराधना तो विष्णु की , कृष्ण की , विष्णु तत्व की होनी चाहिए , यह तो कहा है लेकिन लोग अलग अलग गुणों के प्रभाव से विष्णु को छोड़कर , विष्णु की आराधना छोड़कर , देवी देवताओं की या पितरों की भूतों की पूजा आराधना , उपासना करते रहते हैं । इन तीन गुणों का इस अध्याय में वर्णन है , 14 वा अध्याय भगवद गीता का , उस अध्याय के अंत में श्री कृष्ण कहते हैं , मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते | स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते || (भगवद्गीता 14.26) अनुवाद : जो समस्त परिस्थितियों में अविचलित भाव से पूर्ण भक्ति में प्रवृत्त होता है, वह तुरन्त ही प्रकृति के गुणों को लाँघ जाता है और इस प्रकार ब्रह्म के स्तर तक पहुँच जाता है | यह तीन गुणों की चर्चा वाला अध्याय है । चौदावे अध्याय के अंत मे भगवान भक्ति की स्थापना कर रहे है या भक्तों की स्थापना कर रहे है , अपनी खुद की भी स्थापना कर रहे है , महिमा का गान कर रहे हैं । मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते | किंतु जो मां मेरी सेवा करता है , मेरी आराधना करता हैं । कैसे ? भक्तियोगेन भक्ति योग से , भक्ति योग से जो मेरी भक्ति योग पूर्ण आराधना करता है ,सेवा करता है वह व्यक्ति , स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते यह तीन गुणों के परे पहुंचता है । इन तीन गुणों को लांग कर जाते है । तीन गुणो का प्रभाव अभी नहीं रहा क्योकी वह मेरी भक्ति कर रहा है या फिर दोनों भी हो सकता है , उसने इन तीनों को लांग लिया है और फिर मेरी भक्ति कर रहा है या मेरी भक्ति कर रहा है तो उसे भी यह तीन गुणों को लांग ने में मदद हो रही है , यह तीन गुणों के समतीत्य , उसके ऊपर ,परे पहुंचने में यह मेरी भक्ति मदद कर रही है । मेरी भक्ति , मेरी भक्ति , भक्ति मतलब भगवान की भक्ति , देवता की भक्ति नहीं कहा जा सकता वह भुक्ति है , देवता की तथाकथित भक्ति , भक्ति नहीं है वह भुक्ति है । हरि हरि। आत्मेन्द्रिय-प्रीति-वाब्छा- तारे बलिकाम' । कृष्णेन्द्रिय-प्रीति-इच्छा धरे प्रेम" नाम ।। (चैतन्य चरितामृत आदी 4.165) अनुवाद: अपनी खुद की इन्द्रियों की तृप्ति करने की इच्छा काम है, किन्तु कृष्ण की इन्द्रियों को तुष्ट करने की इच्छा 'प्रेम' है। आत्मेन्द्रिय-प्रीति और कृष्णेन्द्रिय-प्रीति , देवता की भक्ति आत्म इंद्रिय की प्रीति के लिए होती है , काङ्न्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः आपने सुना , जो हमने सुना है भगवान से ही सुना है । भक्ति मतलब प्रेम पूर्वक किया हुआ कृत्य , कार्य वह भक्ति कहलाती है । भक्ति में क्या होता है ? कृष्णेन्द्रिय-प्रीति और उसका नाम है प्रेम , और जो आत्मेन्द्रिय-प्रीति है उसका नाम है काम , यह जो काम है , और देवता की आराधना यह कामना है । देवताओ की आराधना कामना पूर्वक होती है और भगवान की आराधना प्रेम पूर्वक होती है । एक काम वश और एक प्रेम वश । हरि हरि । वैसे मैं यह कहने जा रहा था कि , भगवान की भक्ति ही भक्ति कही जा सकती है , देवता की आराधना , पूजा , वासना है उसे भक्ति नहीं कहा जा सकता वह भक्ति नहीं वह भुक्ति है इसलिए कहा भुक्ति मुक्ति सिद्धि कामी , ऐसा नाम भी दिया । भुक्ति मुक्ति सिद्धि कामी , और यह तीनों के परे है भक्ति , भगवान की भक्ति और वैसे भक्ति , श्रीप्रह्लाद उवाच श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥ (श्रीमद भागवत 7.5.23 , 24) अनुवाद: प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप , साज - सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना , उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना , भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना , भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा , कर्मणा उनकी सेवा करना ) -शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है । यह नवविधा भक्ती हैं । हम जब उसे करना प्रारंभ करते हैं , प्रल्हाद महाराज ने यह वचन कहे है । बेटा क्या सीखे हो ? मैंने तुम्हें गुरुकुल भेजा , षण्ड , अमर्क शुक्राचार्य के पुत्र है वह तुम्हारे शिक्षक मैंने नियुक्त किए है , तो क्या-क्या सीखे हो बताओ तो सही ? प्रह्लाद को गोद में लिए हैं और पूछ रहे हैं , क्या सीखे हो ? तब प्रह्लाद महाराज ने कहा , श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् यह सीखा । यह सिखा तुमने ? यह सीखने के लिए भेजा था तुमको ? वैसे प्रल्हाद महाराज ने यह मैंने सीखा हूं यह तो कहा , यह नवविधा भक्ती मैंने सिखी है यह कहा लेकिन उन्होंने यह नहीं कहा कि यह वह कहां से सीखे हैं । प्रल्हाद महाराज जब अपने मित्रों को संबोधित कर रहे थे तब वहांपर इस रहस्य का उद्घाटन किया है । क्योंकि उनके मित्र भी समझ रहे थे , यह तो हमारे शिक्षक षण्ड , अमर्क ने नहीं सिखाया है तुम तो कुछ और ही सिख के आए हो , ना जाने कहां सीखे हो ? लेकिन उम्र तो अभी , हमारी उम्र इतने तुम हो । कौमार आचरेत्पाज्ञो धर्मान्भागवतानिह । दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यश्रुवमर्थदम् ॥ (श्रीमद भगवद 7.6.1) अनुवाद: प्रह्माद महाराज ने कहा : पर्याप्त बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह जीवन के प्रारम्भ से ही अर्थात् बाल्यकाल से ही अन्य सारे कार्यों को छोड़कर भक्ति कार्यों के अभ्यास में इस मानव शरीर का उपयोग करे। यह मनुष्य-शरीर अत्यन्त दुर्लभ है और अन्य शरीरों की भाँति नाशवान् होते हुए भी अर्थपूर्ण है, क्योंकि मनुष्य जीवन में भक्ति सम्पन्न की जा सकती है। यदि निष्ठापूर्वक किंचित भी भक्ति की जाये तो पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो सकती है। तुम जो कह रहे हो , हे प्रल्हाद , कौमार अवस्था मे हमे धार्मिक बनना चाहीये , कृष्णा भावना को अपनाना चाहिए और हरे कृष्ण हरे कृष्ण करना चाहिए इस कलयुग में , कलयुग का धर्म है हरी नाम , प्रह्लाद और उनके मित्र कुमार थे । वह कहते है , कहां से सीखे यह सारी बातें ? तब प्रल्हाद महाराज ने कहा , यह बाते मैने गुरुकुल में नहीं सीखी है , गर्भ मे सिखी है और यह सिखाने वाले षण्ड अमर्क नहीं थे , यह सिखाने वाले नारद मुनि थे । परंपरा के आचार्य नारद मुनि थे । ब्रह्म नारद मध्व गौडीय संप्रदाय! तो नारद मुनि ने यह बात सिखाई थी। प्रल्हाद महाराज से पूछा कि क्या सीखे हो? उन्होंने उत्तर में बताया मैं भक्ति सीखा हूं, यह है नवधा भक्ति। तो श्री कृष्ण यहां गीता में कह रहे है कि, जो मेरी भक्ति करता है जो भगवत गीता का सार है, यह सिखा रहे हैं भगवान। कर्मयोग नहीं, अष्टांग योग नहीं, भक्ति करो! मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु | मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे || (भगवद्गीता 18.65) अनुवाद: सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो | मन्मना भव मद्भक्तो मेरे भक्त बनो! योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना | श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः || (भगवद्गीता 6.47) अनुवाद: और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, अपने अन्तःकरण में मेरे विषय में सोचता है और मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में युक्त रहता है और सबों में सर्वोच्च है | यही मेरा मत है | यह कर्मयोग, ध्यानयोग इत्यादि इसका परिचय देते हुए इस को समझाएं लेकिन बाद में बताएं कि, भक्ति ही सर्वोपरि है, भक्तियोग सर्वोपरि है। तो और योगों में या पद्धति और उपासना में कुछ अभाव है। और तीन गुणों का प्रभाव होता है। लेकिन भक्ति मतलब यह गुण का प्रभाव नहीं है। इसीलिए यहां पर कृष्ण कहे, यह तीन गुणों को लांग कर व्यक्ति भक्ति करता है या भक्ति करते करते ही इन तीन गुणों को लांग देता है, या गुनातीत हो जाता है। गुन अतीत गुणों के परे हो जाता है। और फिर कृष्णभावनाभावित हो जाता है।तो इसके साथ बहुत सारी बातें सीखने को मिलती है या आप को ध्यान में रखनी चाहिए। कृष्ण की पूजा और अन्य देवी देवताओं की पूजा, इसमें कौन सी पूजा श्रेष्ठ है? या फिर स्वर्ग पहुंचना और वैकुंठ पहुंचना और इसी के साथ यह भी समझ में आना चाहिए कि, देवताओं का निवास है वह है स्वर्ग लोक लेकिन भगवान तो स्वर्ग में नहीं रहते। भगवान तो वैकुंठा में रहते है, गोलोक में रहते है। बहुईश्वरवाद! आप तो कई देवताओं की पूजा करते हो यह सही नहीं है ऐसा नहीं करना चाहिए। क्रिश्चियन या मुस्लिम इनका एक वशिष्ट है कि उनके एक ही भगवान है, एक ही भगवान की आराधना वह करते है। एक ईश्वर, एक परमेश्वर है। लेकिन आप हिंदुओं के तो कई सारे है,हजारों है,लाखों है,करोड़ों है। हर किसी को पकड़कर उनकी आराधना करते हो जैसे म्हसोबा या खंडोबा इत्यादि। तो यह बात सही नहीं है, बहुईश्वरवाद गीता नहीं सिखाती है अनेक ईश्वर उनकी आराधना भगवद्गीता नहीं सिखाती है। और भगवत गीता यहां नहीं सिखाती इसीलिए भगवान ने कहा है कि, सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज | तो हम भी कुछ कम नहीं है, हमारे मुस्लिम, क्रिश्चियन यह धर्म है। वैसे यह एक ही परिवार के है। पहले थे जूस फिर बने क्रिश्चियन और फिर बने मुस्लिम। या फिर पहले थे मोझेज, फिर मोहम्मद तो यह एक ही परिवार के है। फिर भी आपस में लड़ते है। तो हम भी एकम की बात है, सर्वधर्मान् मतलब धर्म की बात है या आराधना की बात है। इतना ही नहीं भूत पिशाच यह भी हमारे धर्म में है, कुछ लोग उसे भी अपनाते है। लेकिन कृष्ण कहे है कि, सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं या फिर चैतन्य चरितामृत कहता है, एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य। यारे यैछे नाचाय, से तैछे करे नृत्य।। (चैतन्य चरित्रामृत आदि 5.142) अनुवाद: एकमात्र भगवान् कृष्ण ही परम नियन्ता हैं और अन्य सभी उनके सेवक हैं। वे जैसा चाहते हैं, वैसे उन्हें नचाते हैं। एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य अकेले एक ईश्वर कृष्ण है, बाकी सब तो सेवक है। यह देवी देवता सेवक है। यह देवता ईश्वर है परमेश्वर नहीं है। हरि हरि। तो यह भी बातें सीखनी है समझ नहीं है जब हम भगवत गीता पढ़ते है। भगवद्गीता यानी श्री कृष्ण यह सब सिखाएं है अर्जुन को, अर्जुन को तो सिखाएं अर्जुन सब सीख गए लेकिन हम दुनिया वाले नहीं सीख रहे है। हमें गीता का उपदेश सिखाने वाले स्वयं ही कर्मकांडी होते है, ज्ञानकांडी होते है, या सिद्धि और मुक्ति का मी होते है। और यह भगवद्गीता पर भाष्य सुनाते है। वह स्वयं अद्वैतवाद ही होते हैं और वह क्या गीता पर भाष्य सुनाएंगे? ज्योत में ज्योत मिलाने की वह बात करेंगे। इसीलिए भगवान ने गीता भक्तों को ही सुनाई थी और भक्तों से ही हमें भगवद्गीता सुननी चाहिए। देवताओं की भक्ति, भक्ति नहीं है वह भूक्ति है। देवताओं का भक्त कृष्ण का या भगवान का भक्त नहीं है। क्योंकि वह भुक्त है मुक्त नहीं है वह भोगी है! वह भोग भोगना चाहता है। जैसे प्रभुपाद कहते थे कर्म करने वाला कर्मकांडी, जो अपने कर्मों का फल स्वयं भोगना चाहता है उसे कर्मी कहते है। लेकिन भगवान का भक्त तो, यत्करोषि यदश्र्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् | यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् || (भगवद्गीता 9.27) अनुवाद : हे कुन्तीपुत्र! तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे अर्पित करते हुए करो | यत्करोषि यदश्र्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् | भगवान ही केवल भोक्ता है। भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्र्वरम् | सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति || (भगवद्गीता 5.29 ) अनुवाद: मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्र्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है | भगवान भोक्ता है। लेकिन जियो भगवान के साथ प्रतियोगिता करता है, और स्वयं भोक्ता बनना चाहता है या भोगी बनना चाहता है। और उसीसे रोगी बन जाता है। हरि हरि। तो में यह पर रुक जाता हूं। ठीक है। तो अब आप क्या करोगे? गीता का वितरण तो हो रहा है ना? गीता का वितरण भी करो और यह बातें अपने परिवार में या समारोह में सब को समझाओ। या फिर जो आप श्रवण करते हो उसका कीर्तन करो। जो सुनते हो उसको सुनाओ! आप ऑनलाइन भी सुना सकते हो। ताकि सत्य की स्थापना हो! बहुत कुछ झूठ मूठ कहा गया है उसका कोई विरोध नहीं करता, प्रभुपाद हमेशा कहा करते थे कि, इस भारत में मैं ही केवल अकेला हूं जो देवी देवताओं की पूजा को विरोध कर रहा है। प्रभुपाद कौन होते हैं विरोध करने वाले वैसे भगवान ने ही विरोध किया है। भगवान ने ही दोनों में जो भेद है वह समझाया है। कृष्ण की आराधना और देवी देवताओं की आराधना इसमें जो भेद है वह भगवान ने ही समझाया है। भगवत गीता यथारूप का प्रचार होने से फिर भगवान के विचार, भगवान का जो उद्देश्य था वह सफल होगा। आप अभी उसमें योगदान दो। प्रभुपाद ने जिस संगठन की स्थापना की है जिसमें आप भी जुड़े हुए हो, तो इसमें संगठित होकर हम प्रचार कर सकते है,सत्य का प्रचार कर सकते है। तो सब तैयार हो जाओ और मैदान में उतरो! संसार के लोगों को मदद की आवश्यकता है, बहुत झूठ मूठ का प्रचार चल रहा है, काफी ठगाई हो रही है, धर्म के क्षेत्र में जितनी ठगाई होती है शायद ही किसी और क्षेत्र में होती हो। धर्म के क्षेत्र में जितना मनोधर्म चलता है, मनोधर्म मतलब मेरा खयाल या मेरा विचार! तो अपने खयालों को कचरे के डिब्बे में डाल दो। हर बदमाश कुछ ना कुछ बकता ही रहता है। हमें अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार है, तो ऐसे अधिकार लोगों को प्राप्त है तो फिर गांधीवाद, तिलकवाद मोदिवाद सुरु होता है। कितने लोग हैं इस संसार में और हरेक का अपना अपना विचार है, भगवान के विचार में मिलावट करते हुए फिर वे कहते है। कहता स्वयं है, लेकिन कहता है कि भगवान ने ऐसा कहा है। भगवान के पीछे छुपता है। भगवतगीता लेकर बैठ जाता है लेकिन भगवान को बोलने नहीं देता! उसका मन बोलता है या उसके अपने खुद के विचार! कितनी सारी बातें! प्रभुपाद तीन गुणों को समझाते हुए कहते है कि, मूल रूप से कलर केवल ३ ही है। हम भी जब स्कूल में थे तो, जब चित्रकला का क्लास होता था तब, तीन रंगों को लेकर जाते थे। पता है कौन-कौन सी? लाल, नीली और पीली। यह तीन कलर एक दूसरे में मिलाओ तो तिनके फिर नो हो जाते है, ९ के ८१ हो सकते है। मूल रूप से तो 3 ही थे लेकिन उनके असंख्य कलर बन सकते है। वैसे ही मूल गुण तो तीन ही है लेकिन इन तीन से ही कितने सारे विचार या भाव बन जाते है। भगवान गीता में कहे है, प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः | अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते || ( भगवद्गीता 3.27 ) अनुवाद: जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं | प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः | हम जो कुछ भी कार्य करते है, यह हमसे 3 गुण करवाते है। केवल सत्वगुण नहीं करवाता, उसके साथ कुछ रजोगुण और तमोगुण भी आ जाता है। और इसके एकत्रीकरण से फिर कितने सारे अलग-अलग प्रकार के विचार बन सकते है, इसीलिए हर व्यक्ति का विचार अलग होता है। जैसे मैं कह रहा था कि गांधीवादी, साम्यवाद, इत्यादि ऐसा ही है। जैसे अर्जुन और कृष्ण के मध्य में जो संवाद हो रहा था , लेकिन संसार में क्या होता है? वाद विवाद होता रहता है। और यही कलयुग का लक्षण है और पहचान भी है। यह युग कलयुग है जिसमें क्या होता है? वाद विवाद होते रहते है। एक होता है पाखंड और दूसरा होता है एक दूसरे में लड़ाई! कोई पूछता है कि कलयुग का क्या लक्षण है? तो शास्त्रों में कहा गया है कि बड़े-बड़े 2 लक्षण है। एक तो है घमंड , पाखंड या ढोंग और दूसरा है लड़ाई! हमारे जो वचन है वह बाण के जैसा कार्य करते है। हरि हरि। क्योंकि अलग अलग मतोंकी की भिन्नता है। जत मत तत पत है , हर एक को अपने विचार रखने का अधिकार है। हरि हरि। तो यह बड़ी भ्रामक स्थिति है। मराठी में जिसे गोंधल कहा जाता है। तो इसे बचाने के लिए अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ का कार्य है। जिसकी श्रील प्रभुपाद स्थापना की है। श्रील प्रभुपाद की जय! हमारे इस्कॉन के भक्त एक ही भाषा बोलते है, भगवान की भाषा बोलते है! ठीक है। हरे कृष्ण!

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5 January 2021 Devotees live in Krsna’s heart Hare Krsna. Welcome to this Japa session. 860 participants are chanting with us. I said, what the Lord has said. If we repeat what the Lord has said then it is Bhagavad Gita As It Is. Bhagavan said, na tad bhāsayate sūryo na śaśāṅko na pāvakaḥ yad gatvā na nivartante tad dhāma paramaṁ mama Translation That abode of Mine is not illumined by the sun or moon, nor by electricity. One who reaches it never returns to this material world (B.G.15.6) Such Jivas (souls) don't come back. Once they have returned to the Dhama , they don’t go back. This means that he was there sometime in the past and has returned. If a person was in Pandharpur then we will say, he has come we won't say he has come back. In English we say, Back home. Earlier the person was Hindu, later he changed his religion to Islam, but later became a Hindu again. This happens in states like Uttar Pradesh. He came back, back home, once he is reconverted to Hinduism. Originally, I wanted to discuss urdhvam gacchanti sattva-stha, we need to focus on each word. This is the glory of Sanskrit. The meanings are hidden in the words. sattva-stha, one who is stable in sattva guna, those in the mode of goodness go to heaven, but they can't remain there for long, they cannot stay there for ever. They have collected some pious credits so that they could enter heaven, but they will have to come back to Mrityu Lok as soon as their pious credits are depleted. After exhausting the pious credits they have to come back. This is the secret. te taṁ bhuktvā svarga-lokaṁ viśālaṁ kṣīṇe puṇye martya-lokaṁ viśanti evaṁ trayī-dharmam anuprapannā gatāgataṁ kāma-kāmā labhante Translation When they have thus enjoyed vast heavenly sense pleasure and the results of their pious activities are exhausted, they return to this mortal planet again. Thus those who seek sense enjoyment by adhering to the principles of the three Vedas achieve only repeated birth and death. (BG 9.21) We worship demigods in the mode of goodness. They worship demigods, but there are desires for material gain. We don't worship Krsna with material desires in the heart. kṛṣṇa-bhakta—niṣkāma, ataeva ‘śānta’ bhukti-mukti-siddhi-kāmī—sakali ‘aśānta’ Translation Because a devotee of Lord Kṛṣṇa is desireless, he is peaceful. Fruitive workers desire material enjoyment, jñānīs desire liberation, and yogīs desire material opulence; therefore they are all lusty and cannot be peaceful. (CC. Madhya 19.149) bhoktāraṁ yajña-tapasāṁ sarva-loka-maheśvaram suhṛdaṁ sarva-bhūtānāṁ jñātvā māṁ śāntim ṛcchati Translation The sages, knowing Me as the ultimate purpose of all sacrifices and austerities, the Supreme Lord of all planets and demigods and the benefactor and well-wisher of all living entities, attain peace from the pangs of material miseries (BG 5.29) Even if we have material desires then by worshipping or chanting Krsna's names the material desires get purified. Worship of Krsna should be without any desire. We should do devotional service to Krsna. While the demigod worshippers goes to the demigods to get the material desires fulfilled, worshippers of Krsna, become free from desires. They may not know, but Krsna knows. We worship according to the mode of material nature by which we fulfil our desires. Because of desires people become devotees of demigods. People may not know explicitly, but Krsna states in the Bhagavad Gita that some want mukti, others want sidhi. This is a gathering of those who have desires. Some people worship ghosts. They are in the mode of ignorance. But those who worship Me come back to Me, My abode. ārādhanānāṁ sarveṣāṁ viṣṇor ārādhanaṁ param tasmāt parataraṁ devi tadīyānāṁ samarcanam Translation Lord Śiva told the goddess Durga, 'My dear Devi , although the Vedas recommend worship of demigods, the worship of Lord Visnu is topmost. However, above the worship of Lord Visnu is the rendering of service to Vaiṣṇavas, who are related to Lord Visnu. (CC Madhya 11.31) kṛṣṇa-bhakta—niṣkāma, ataeva ‘śānta’ - The devotees of Krsna do not worship to fulfil any material desire. Influenced by the three modes, people do different kinds of worship and find different types of demigods to fulfil their desires. kṛṣṇa-bhakta--niṣkāma, ataeva 'śānta' bhukti-mukti-siddhi-kāmī--sakali 'aśānta' It is explained that you worship demigods and go to the abode of the demigods. If you pray to your ancestors, you go the planet of your ancestors. yānti deva-vratā devān pitṝn yānti pitṛ-vratāḥ bhūtāni yānti bhūtejyā yānti mad-yājino ‘pi mām Translation Those who worship the demigods will take birth among the demigods; those who worship ghosts and spirits will take birth among such beings; those who worship ancestors go to the ancestors; and those who worship Me will live with Me. (BG 9.25) The fruits of worshiping in different modes satva, rajas, tama are different. We act as worshippers according to our modes but ideally, we should be the worshippers of Visnu, Krsna. Still by the effects of the modes of material nature they worship the demigods, the ghosts etc. This is because of the influence of these three modes. At the end of 14 chapter of Bhagavad Gita which describes the modes of material nature, Krsna says. māṁ ca yo ‘vyabhicāreṇa bhakti-yogena sevate sa guṇān samatītyaitān brahma-bhūyāya kalpate Translation One who engages in full devotional service, who does not fall down in any circumstance, at once transcends the modes of material nature and thus comes to the level of Brahman. (BG 14.26) In the end of this chapter Krsna is establishing Bhakti, establishing His devotees, His worship and Himself. He says one who worships Me with devotional services supersedes the three modes of material nature. He crosses the three modes and then performs devotional services. yoginām api sarveṣāṁ mad-gatenāntar-ātmanā śraddhāvān bhajate yo māṁ sa me yuktatamo mataḥ Translation And of all yogīs, he who always abides in Me with great faith, worshiping Me in transcendental loving service, is most intimately united with Me in yoga and is the highest of all (BG 5.47) Bhakti means devotional service of the Lord. Bhakti of the demigods is not possible, it is Bhukti (desire for something). Devotional services are performed for the pleasure of Krsna out of love and devotion, but we worship demigods for personal sense gratification which is lust - bhukti-mukti-siddhi-kāmī. Beyond this is devotional service. Remembrance of Visnu is bhakti beyond the three modes. ātmendriya-prīti-vāñchā--tāre bali 'kāma' kṛṣṇendriya-prīti-icchā dhare 'prema' nāma Translation The desire to gratify one's own senses is kama [lust], but the desire to please the senses of Lord Krsna is prema [love]. (CC Ādi 4.165) Prahlada Maharaja father asked him, "What have you learnt?" Prahlada Maharaja was in his lap and Prahlada Maharaja replied, “Sravanam, kirtanam, Visnu smarnam (all nava-vidha bhakti process) and his father was furious, saying that he did not send him to Gurukul to learn this. Sanda and Amarka were assigned as his teachers. Prahlada Maharaja explained the process to his father, but he has not told how to practice this nava-vidha bhakti. This secret he has revealed to his classmates. He explained to them how to practice nava-vidha bhakti. The classmates were amazed and wanted to know who had taught him this as they had never learnt this in the Gurukula. śrī-prahrāda uvāca śravaṇaṁ kīrtanaṁ viṣṇoḥ smaraṇaṁ pāda-sevanam arcanaṁ vandanaṁ dāsyaṁ sakhyam ātma-nivedanam iti puṁsārpitā viṣṇau bhaktiś cen nava-lakṣaṇā kriyeta bhagavaty addhā tan manye ’dhītam uttamam Translation Prahlāda Mahārāja said: Hearing and chanting about the transcendental holy name, form, qualities, paraphernalia and pastimes of Lord Viṣṇu, remembering them, serving the lotus feet of the Lord, offering the Lord respectful worship with sixteen types of paraphernalia, offering prayers to the Lord, becoming His servant, considering the Lord one’s best friend, and surrendering everything unto Him (in other words, serving Him with the body, mind and words) — these nine processes are accepted as pure devotional service. One who has dedicated his life to the service of Kṛṣṇa through these nine methods should be understood to be the most learned person, for he has acquired complete knowledge. (SB 7.5.23) Then Prahlada Maharaja said that he had learnt this from Narada when he was in his Mother's womb. The teacher was non other than Narada Muni, who had received the same knowledge in parampara from Brahmaji. Bhakti is the topmost. It's free from the effects of all the three modes of material nature. Krsna has explained in Bhagavad Gita that (which is the gist of the t Gita also) beyond dhyana yoga, karma yoga, asthang yoga the best is Bhakti Yoga. In the others there is impact of the three modes, but not in Bhakti. The person is able to cross over the three modes by doing Bhakti. A person becomes gunatet - going beyond the three modes of material nature by doing devotional services. We need to learn a lot. We should understand that the place where demigods reside is known as Swarga-loka, but Krsna doesn't reside there. He resides in Vaikuntha, in Goloka. That is the reason why so many faiths - Jews, Christians say you follow mono-theisim, polytheism. Worshipping so many Gods is not right. But Bhagavad Gita doesn't teach this. Krsna says, “Just worship Me.” Actually, we belong to one family. Jewish, Christians and Muslims they belong to the same family. They have one God, but Hindus have many Gods - thousands, millions. Poly means many and mono means one. Bhagvat Gita does not teach to worship many Gods. sarva-dharmān parityajya mām ekaṁ śaraṇaṁ vraja ahaṁ tvāṁ sarva-pāpebhyo mokṣayiṣyāmi mā śucaḥ Translation Abandon all varieties of religion and just surrender unto Me. I shall deliver you from all sinful reaction. Do not fear. (BG 18.66) First their were Jews, then Christians and then Muslims, they believe in one God, but they fight . ekale īśvara kṛṣṇa, āra saba bhṛty yāre yaiche nācāya, se taiche kare nṛtya Translation Lord Kṛṣṇa alone is the supreme controller, and all others are His servants. They dance as He makes them do so. (CC Ādi 5.142) But there was some time conversion, isvara kevala krsna. God is only one and that is Krsna and the others are His servants. Krsna is teaching this to Arjuna. He has understood, but we are not understanding because our teachers are bhukti mukhti sidhi kami, advaitavadi and impersonalists. They don't have any clue about Bhagavad Gita then how can they teach Bhagavad Gita. We need to hear Bhagavad Gita from a devotee and only he can explain. These other people are fruitive workers. Only Krsna is bhokta. The ones who are explaining Bhagavad Gita are Karma kandi, Mukti kandi, Sidhi Kandi. They are not explaining the way Krsna has spoken about bhakti and these people talk about Bhagavad Gita. Like God told Gita to His devotee, we should hear and learn the Bhagavad Gita from one who is a devotee of Krsna only. We must not listen to one who desires fruitive results, but one who gives his results to Krsna. Jiva wants himself to be the bhogi. yat karoṣi yad aśnāsi yaj juhoṣi dadāsi yat yat tapasyasi kaunteya tat kuruṣva mad-arpaṇam Translation Whatever you do, whatever you eat, whatever you offer or give away, and whatever austerities you perform – do that, O son of Kuntī, as an offering to Me. (BG 9.27) Are you distributing books? Please distribute Bhagavad Gita and discuss these concepts amongst your friends, family and relatives. You can call, you can give online classes. So many false concepts are there, please spread the truth. Establish the truth. Srila Prabhupada said, “I am the only one who is opposing this demigod worship.” So please contribute and spread this truth. Are you ready? Everyone needs you. The amount of mano-dharma we have in the area of dharma there is hardly any other place where people wrongly preach. They say they want freedom of speech and then they start to speak rubbish. They say Krsna said this, but they present their own views. He sits with Bhagavad Gita, says that Krsna said this, but he never lets Krsna speak. His words are effected by modes of nature. By combining basic colours so many different colours can be formed. Such is the case with these three modes. It's not that a person is in the mode of goodness. No, he will have some proportion of goodness, some of passion and some of ignorance and this is how so many conceptions come into origin. Gandhi-vad, Mata-vad, Vishal Gupta vad and so many others. This is how hypocrisy comes and quarrel takes place. These are the two symptoms of Kali Yuga - hypocrisy and quarrel. Jato math tatho path. I can choose my way according to my will. Srila Prabhupada has established this institution to spread the real truth. All ISKCON devotees speak the same language. Is there anything else. If you have any question then you can ask. Hare Krishna. Gaura premanande Hari Haribol

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