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*हरे कृष्ण* *जप चर्चा* *पंढरपुर धाम से* *दिनांक 18 मई 2021* हरे कृष्ण । 850 स्थानों से आज जप हो रहा है। गौरांग । गौरांग । आप क्या कहोगे ? नित्यानंद ! गौरांग नित्यानंद! गौरांग नित्यानंद! आप थक गए। हरि हरि। ठीक है। *जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद।* *जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद।।* शिक्षाष्टक , चैतन्य चरित्रामृत मध्य लीला अध्याय 20 श्लोक संख्या 16 । स्वयं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही रसास्वादन कर रहे हैं । अपने ही अष्टक का , शिक्षाष्टक का स्वयं ही महाप्रभु रसास्वादन कर रहे हैं । मनन कर रहे हैं ऐसा भी कह सकते हैं । श्रवनम कीर्तनम के उपरांत मनन करना होता है , मननशील फिर वह मुनि भी होते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वैसे भी आदर्श हमारे समक्ष रख रहे हैं , शिक्षाष्टक लिखा भी है फिर कह कर उस पर चिंतन कर रहे हैं, रसास्वादन कर रहे हैं ।द्वितीय शिक्षाष्टक जो चैतन्य महाप्रभु ने कहा और आप जानते हो कहापर कहा , उन्होंने कहा पर कहा ? जगन्नाथ पुरी ही है । जगन्नाथ पुरी धाम की जय। और गंभीरा है और साथ में राय रामानंद और स्वरूप दामोदर है उनसे कहा और उनको किसलिए कहा यह भी हमने एक दिन कहा था ताकी हम साधक उनको एक दिन सुनेंगे । चैतन्य महाप्रभु ने एक समय जो कहा , चैतन्य महाप्रभु चाहते थे एक दिन हम उसको सुने । हमारे भाग्य का उदय हो चुका है इसलिए आज हम उसको सुन रहे हैं । *नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।* *एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि* *दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥16॥* (चैतन्य चरितामृत अंत लीला 20.16) *अनुवाद:- हे भगवान्‌! आपका अकेला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई नियम भी नहीं है। प्रभो! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यन्त ही सरलता से भगवत्‌-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है।* ऐसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपने मुखारविंद से कहा । जैसे गीता के संबंध में कहा है की गीता वह वचन है जो , *गीता सुगीताकर्तव्या किमन्यौ: शास्त्रविस्तरैः ।* *या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता ॥* (गीता महात्म 4) *अनुवाद : चूँकि भगवद्गीता भगवान् के मुख से निकली है, अतएव किसी अन्य वैदिक साहित्य को पढ़ने की आवश्कता नहीं रहती । केवल भगवद्गीता का ही ध्यानपूर्वक तथा मनोयोग से श्रवण तथा पठन करना चाहिए । केवल एक पुस्तक, भगवद्गीता, ही पर्याप्त है क्योंकि यह समस्त वैदिक ग्रंथो का सार है और इसका प्रवचन भगवान् ने किया है।* भगवद गीता भगवान के मुखारविंद से निकले हुए वचन है और यहां यह श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का शिक्षा अष्टक है । उन्होंने कहा *नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-स्तत्रार्पिता* थोड़ा शब्दआदि , भाषांतर संक्षिप्त में समझते हैं और फिर चैतन्य महाप्रभु के भाष्य को भी समझते हैं । *नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-स्तत्रार्पिता* श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा , मैंने मेरे नाम में सर्वशक्ति , सारी शक्तियां भर दी है । नाम वैसे नामी भी है । नाम नामी भी है इस नाम में जो नामी भी है , मतलब कृष्ण ही है , भगवान ही है , भगवान का नाम भगवान ही है । शक्ति और शक्तिमान या नामि और कृष्ण में भेद नहीं है , या कृष्ण को उनके शक्ति से अलग नहीं किया जा सकता । मायावादी यह करने का प्रयास करते हैं या फिर वह मानते हैं की उनकी शक्तियां नहीं है । ठीक है , यह अलग विषय है । भगवान ने अपने सारी शक्तियां इस नाम में भरी । नाम शक्तिमान है । *स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न काल* और क्या छूट है ? यह शक्तिमान नाम के उच्चारण के लिए कोई , *नियमितः स्मरणे न कालः* काल वगैरह का कोई बंधन नहीं है, कोई नियम नहीं है । नियम क्या है? जप करो । नियम क्या है ? कीर्तन करो , यही नियम है । हरि हरि । ध्यान पूर्वक जप करो यह नियम है । कोई नियम नहीं है , कोई *स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न काल* नामस्मरण के लिए कोई नियम नहीं है , कोई बंधन नहीं है ऐसा कहा है तो क्या नियम नहीं है क्या ? कोई भी नियम नहीं है ? ऐसा सोचना भी नहीं चाहिए , जब चैतन्य महाप्रभु ने कहा कोई नियम नहीं है । समाप्त हुआ , चुप । यह किंतु की बातें थोड़ी आ ही जाती है और फिर कहना पड़ता है कि हां! नियम क्या है ? ध्यान पूर्वक जप करना यह नियम है । हरि हरि । फिर इस नियम को समझना पड़ता है । ध्यान पूर्वक जप करो तो वह ध्यान पूर्वक जप कैसे करना होता है या क्या-क्या करने से ध्यान पूर्वक जप नहीं होता है ? नाम अपराध करने से ध्यान पूर्वक जप नहीं होगा इसीलिए ध्यान पूर्वक जप करना है तो अपराध नहीं करने चाहिए । *अपराध-शून्य ह’ये लह कृष्ण-नाम कृष्ण माता,कृष्ण पिता, कृष्ण धन-प्राण॥3॥* *अनुवाद:- पवित्र नाम के प्रति अपराध किए बिना, कृष्ण के पवित्र नाम का जप कीजिए। कृष्ण ही आपकी माता है, कृष्ण ही आपके पिता हैं, और कृष्ण ही आपके प्राण-आधार हैं। ”* भक्तिविनोद ठाकुर कहते है , अपराध से शून्य होकर जब करो यह नियम है । भक्ति विनोद ठाकुर ने एक ग्रंथ की रचना की है , वह हरीनाम चिंतामणि है । यह हरिनाम चिंतामणि ग्रंथ श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और नामचार्य श्रील हरिदास ठाकुर के मध्य का संवाद है और इस संवाद के अंतर्गत यह 10 नाम अपराध कैसे टालने होते हैं या उस 10 नामापराध को समझाया है । *साधु निंदाम , सताम निंदाम महद अपराध* साधु निंदा यह एक महान अपराध है । यहा से शुरुआत होती है वैसे यह 10 नाम अपराध की बातें पद्मपुराण में भी कही है और फिर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और हरिदास ठाकुर ने इस पर चर्चा की है उनके मध्य का संवाद है । हरिनाम का महिमा और अपराधो से कैसे बचे यह सब बाते हरिनाम चिंतामणि में समझाई है । फिर कहना होगा कि कोई नियम नहीं है , कोई नियम नही है , नियम है ! हरिनाम चिंतामणि पढ़ो । सब समय भगवान का स्मरण करना इतना ही गोपिया जानती थी । *सततम् स्मरतः विष्णो* *विस्मरतो न जायतो चित* अब थोडी विस्तार से चर्चा शुरू हो गई लेकिन मैं ज्यादा नहीं कहूंगा । गोपियों का क्या वैशिष्ठ है ? वह स्मरण करती है बस इतना ही करने से पर्याप्त है लेकिन वह भगवान को कभी भूलती नहीं थी । वही बात कही है सब समय भगवान का गोपियां स्मरण करती थी , इसीको दूसरे शब्दों में कैसे कहा जाता है ? *विस्मरतो न जायतो चित* वह भगवान को कभी नहीं भूलती थी । यहां नियम नहीं है लेकिन नियम है , क्या नियम है? ध्यान पूर्वक जप करो । ध्यान पूर्वक जप करो यह नियम है । यह जब कहा तो यह कहना पड़ता है , *अपराध-शून्य ह’ये लह कृष्ण-नाम कृष्ण माता,कृष्ण पिता, कृष्ण धन-प्राण॥3॥* *अनुवाद:- पवित्र नाम के प्रति अपराध किए बिना, कृष्ण के पवित्र नाम का जप कीजिए। कृष्ण ही आपकी माता है, कृष्ण ही आपके पिता हैं, और कृष्ण ही आपके प्राण-आधार हैं। ”* अपराधो से बचकर भगवान का नाम स्मरण करो , ध्यान करो । *एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि* चैतन्य महाप्रभु आगे इस द्वितीय शिक्षाष्टक में क्या कहा ? *एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि* इस प्रकार आपने कितनी सारी कृपा मुझ पर की है , इतनी सारी कहां है , है ना ? मैं अपना नाम दे रहा हूं , नाम लो । भगवान ने हमको नाम दिया है या परंपरा में हमारे आचार्य को दिया उन्होंने हमको नाम दिया , नाम में सर्वशक्ति है। यह मंत्र शक्तिमान है । *एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि* यह कृपा ही है ना? मुझे आपने नाम दिया , कैसा नाम दिया ? पूर्ण शक्ति के साथ या शक्तिमान नाम दिया , इतना ही नहीं , जप करने का कोई नियम भी नहीं है यह भी आपको छूट है , कोई नियम नहीं है। *पात्रापात्र - विचार नाहि.नाहि* *स्थानास्थान येइ याँहा पाय , ताँहा करे प्रेम - दान ।।23 ।।* (चैतन्य चरितामृत आदि 7.23) *अनुवाद भगवत्प्रेम का वितरण करते समय श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके संगियों ने कभी यह विचार नहीं किया कि कौन सुपात्र है और कौन नहीं है , इसका वितरण कहाँ किया जाये और कहाँ नहीं । उन्होंने कोई शर्त नहीं रखी । जहाँ कहीं भी अवसर मिला , पंचतत्त्व के सदस्यों ने भगवत्प्रेम का वितरण किया ।* इसीलिए चैतन्य महाप्रभु अष्टक में कहते हैं , *एतादृशी* इस प्रकार आपने मुझ पर विशेष कृपा तो की है । *भगवन्ममापि* यहां किंतु या तथापि है ऐसा किया आपने , कृपा तो की है , किंतु समस्या क्या है ? मेरी समस्या है? *दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः* किंतु इस नाम में *नअनुराग* अनुराग होना चाहिए , अनुराग मतलब आसक्ति। अनुराग होना चाहिए लेकिन वह नही है इसलिए न अनुराग और यह मेरा दूरदैव है । इस महामंत्र में अ जनी मतलब उत्पन्न नहीं हुआ क्या उत्पन्न नहीं हुआ अनुराग: अनुराग उत्पन्न नहीं हुआ दुर्दैवम इदशम इस महामंत्र मे अ जनी उत्पन्न नहीं हुआ अनुराग ऐसी हल्की सी समझ है इस शिक्षाष्टक का भाषांतर है कहो ऐसा भावार्थ हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु इस पर भाषा लिखते हुए कहते है। *चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.17* *अनेक - लोकेर वाञ्छा - अनेक - प्रकार । कृपाते करिल अनेक - नामेर प्रचार ।।17 ।।* *अनुवाद " चूंकि लोगों की इच्छाओं में विविधता है , इसीलिए आपने कृपा करके विविध नामों का वितरण किया है।* लोग अनेक है तब उनकी वाणी भी इच्छा भी अनेक प्रकार की है। इसीलिए अनेक नाम भी है या फिर अनेक नामों का प्रचार करते हैं। हरि हरि या कर्मकांड भी है ध्यान कांड भी है क्योंकि अलग-अलग वांछा है। अनेक - लोकेर वाञ्छा अनेक प्रकार *एको बहूनांम यो विदाधती कामां* *कथा उपनिषद 2.2.1* ऐसा भी कहा है। वह एक भगवान क्या करते हैं एको बहू नाम बहुतों की अनेकों की वांछा कामना को पूर्ति करती है। एको बहूनाम विधदाती कामां ये इच्छाओं की पूर्ति करते हैं। हरि हरि *चैतन्य चरितामृत अन्त्य 20.18* *खाइते शुइते यथा तथा नाम लय । काल - देश - नियम नाहि सर्व सिद्धि हय ॥18 ||* *अनुवाद " देश या काल से निरपेक्ष जो व्यक्ति खाते तथा सोते समय भी पवित्र नाम का उच्चारण करता है , वह सर्व सिद्धि प्राप्त करता है ।* कोई अनुराग उत्पन्न नहीं हो रहा है, इसलिए कहे है एक तो लोगों की अनेक प्रकार की वांछा है तो उस वांछा का विचार करना होगा यदि वांछा, इच्छा ही इस प्रकार की है तो किस प्रकार अनुराग उत्पन्न होगा और दूसरी बात खाइते शुइते यथा तथा नाम लय सब समय नाम लो खाइते शुईते खाते समय सोते समय सपने में भी नाम लेना चाहिए और फिर आगे *चैतन्य भागवत* *पृथिवीते आछे यत नगरादि - ग्राम सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम* *पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं , उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा ।* *( चैतन्य भागवत अन्त्य - खण्ड ४.१.२६ )* स्थान-अस्थान नाही विचार पात्र-अपात्र नाही विचार श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब कीर्तन करते कीर्तन का प्रचार करते तो कहां पर कीर्तन करते थे। *चैतन्य चरितामृत आदि लीला 7.23* *पात्रापात्र - विचार नाहि.नाहि स्थानास्थान येइ याँहा पाय , ताँहा करे प्रेम - दान ।।23 ।।* *अनुवाद:- भगवत्प्रेम का वितरण करते समय श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके संगियों ने कभी यह विचार नहीं किया कि कौन सुपात्र है और कौन नहीं है , इसका वितरण कहाँ किया जाये और कहाँ नहीं । उन्होंने कोई शर्त नहीं रखी । जहाँ कहीं भी अवसर मिला , पंचतत्त्व के सदस्यों ने भगवत्प्रेम का वितरण किया ।* स्थान-अस्थान का विचार नहीं करते और पात्र अपात्र का भी विचार नहीं करते सर्वत्र और सभी को महामंत्र देते हैं। उनके समक्ष श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करते हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा कीर्तन करो सब समय कीर्तन करो कोई नियम नहीं है। खाइते शुईते यथा तथा नाम लय काल देश नियम नाहि सर्वसिद्धि होय कोई नियम नही है तुम सिद्ध हो जाओगे। हरि हरि कीर्तन करना जप करना छोड़ना नहीं चाहिए अपराध भी हो रहे हैं तब भी नही छोड़ना चाहिए। किसी ने कहा महाराज मैं जप को रोकना चाहता हू,मैं जप करना नहीं चाहता हूं जब पूछा गया फिर उन्होंने कहा मुझसे अपराध हो रहे हैं। मुझसे अपराध हो रहे हैं हरिनाम के सम्बंध में मुझसे अपराध हो रहे हैं। मुझे जप नहीं करना, मुझसे नाम अपराध हो रही है इसलिए अच्छा है कि मैं नाम ही नहीं लु या कीर्तन ही नहीं करू, यह मुर्खता होगी फिर ये महा अपराध होगा जप कर रहे और अपराध कर रहे हैं या तो अपराध है ही किंतु जब भी छोड़ देंगे यह सोच कर कि हम से अपराध होते हैं तो वह महा अपराध या महामूर्खता होगी क्योंकि हरिनाम में शक्ति है सामर्थ्य है फिर अगर स्पर्धा होगी ऐसा मैं कह रहा हूं एक अपराध कर रहा है,अपराध कर रहा है अपराध कर रहा है और जप भी कर रहा हैं जप भी कर रहा है जप भी कर रहा है कीर्तन को नहीं छोड़ रहा है। तो जीत किसकी होगी अपराधों की जीत होगी कि हरिनाम की जीत होगी सोचो तो सही वैसे शास्त्रों में ऐसा एकवचन भी है मुझे अभी याद नहीं आ रहा है। तो हम इतना भी अपराध नहीं कर सकते जो हरिनाम उसको ठुकरा के या परास्त नहीं कर सकता ऐसा तो संभव ही नहीं है क्योंकि कृष्ण ने कहा है क्या करो *भगवद्गीता 18.66* *“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः || ६६ ||”* *अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।* मामेकं शरणं व्रज मेरी शरण में आओ अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः बस मेरी शरण में आओ *जीवन अनित्य जानह सार ताहे नाना-विध विपद-भार। नामाश्रय करि’ यतने तुमि, थाकह आपन काजे॥6॥* *निश्चित रूप से इतना जान लो कि एक तो यह जीवन अनित्य है तथा उस पर भी इस मानव जीवन में नाना प्रकार की विपदाएँ हैं। अतः तुम यत्नपूर्वक भगवान्‌ के पवित्र नाम का आश्रय ग्रहण करो तथा केवल जीवन निर्वाह के निमित अपना नियत कर्म या सांसारिक वयवहार करो।* तो हरि नाम का आश्रय ही हरि की शरण है तो हरी नाम की हमने शरण ली या हरीनाम की हमनें शरण ली अहं त्वां सर्वपापेभ्यो हमसे जो भी पाप या अपराध होगे उसके परिणामों से उसके फल से हम मुक्त होंगे वह आश्रय को बनाए रखेंगे खाइते शुईते नाम लय नाम लेते रहेंगे नाम का आश्रय लेते रहेंगे परम विजयते श्री कृष्ण संकीर्तन संकीर्तन आंदोलन की जय हो और संकीर्तन आंदोलन के भक्तों की जय होगी विजय असो नाम के बल पर पाप करना भी एक नाम अपराध है हंसते हुए इसको टालना चाहिए। हरि हरि काल देश नियम नाहि सर्वसिद्धि हय। *चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.19* *" सर्व - शक्ति नामे दिला करिया विभाग । आमार दुर्दैव , -नामे नाहि अनुराग !! " ॥19 ॥* *अनुवाद :-" आपने अपने हर नाम में अपनी पूरी शक्ति भर दी है , किन्तु मैं इतना अभागा हूँ कि मुझमें आपके पवित्र नाम के कीर्तन के प्रति कोई अनुराग नहीं है । "* श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने द्वितीय शिक्षाष्टक का ही था अब स्वयं भाषा कह रहे हैं। उन्होंने कहा की मेरा दुर्दैव हैं कि मेरा अनुराग उत्पन्न नही हो रहा हैं।यह जब हम सुनते हैं तो हमको सोचना होगा कि ऐसा विचार श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हमारे दिमाग में डालना चाहते हैं या हमारे मन में ऐसे विचार स्थापित करना चाहते हैं। चैतन्य महाप्रभु और उनका हरिनाम में अनुराग नहीं होने का कोई संभावना ही नहीं है। लेकिन यह जो यहां पर कह रहे हैं। आमार दुर्दैव यह चैतन्य महाप्रभु का दुर्दैव नहीं है या है ऐसा कुछ कह रहे हैं। उनकी यह नम्रता है लेकिन ऐसा हमें हमारी ही हालत ऐसी है हमारा दुर्दैव है महाप्रभु का तो दुर्दैव नहीं है। क्या दुर्दैव नामे नाही अनुराग नाम में अनुराग नहीं है। आप क्या कहोगे बात सही है या हैं तो पूरा नहीं है उतना नहीं है या नहीं कि बिल्कुल ही नहीं है लेकिन जितना होना चाहिए उतना नहीं है,पूरा नही हैं। सही है या गलत क्या कहोगे अनुराग नहीं है ऐसा कहोगे कि नहीं *होनेस्टी इस द बेस्ट पॉलिसी* या हाथ ऊपर करो अगर आप को कहना है कि मेरा अनुराग नहीं है मुझे अनुराग नहीं है नाम में तो हाथ ऊपर करो यहां अधिकतर है नही पुरे ही भक्तों ने हाथ ऊपर किये हैं ठीक है। पूरे सौ प्रतिशत सोच रहे हैं यह विचार चैतन्य महाप्रभु ने व्यक्त किया है यह हमारे लिए है आमार दुर्दैव नामे नाहि अनुराग ठीक है हाथ नीचे कर लो और फिर चैतन्य महाप्रभु ने कहा। *चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.20* *ये - रूपे लइले नाम प्रेम उपजय । ताहार लक्षण शुन , स्वरूप - राम - राय ॥* *अनुवाद :- श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा , " हे स्वरूप दामोदर गोस्वामी तथा रामानन्द राय , मुझसे तुम उन लक्षणों को सुनो , जिस प्रकार मनुष्य को अपने सुप्त कृष्ण - प्रेम को सुगमता से जागृत करने के लिए हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करना चाहिए ।* चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं मेरा अनुराग नहीं है मेरा अनुराग नहीं है हरिनाम में तुम्हारा भी तुम सुन रहे हो तुम्हारा भी अनूराग नही है तो सुनो क्या सुनो *ये - रूपे लइले नाम प्रेम उपजय* हम कैसा नाम ले कैसे नाम का जप करें कीर्तन करें प्रेम उपजाय जहां से प्रेम जागृत होगा प्रेम उदित होगा कैसे जप करने से कैसे क्या करने से क्या करना होगा अनुराग तो नहीं है तो फिर चैतन्य महाप्रभु कहते हैं मैं बताता हूं तुम्हें तुम्हारा अनुराग नहीं है तो तुम अनुरागी कैसे बन सकते हो और कृष्ण प्रेम को कैसे जागृत कर सकते हो उदित कर सकते हो उसका अनुभव कर सकते हो इस बात को मैं कहूंगा सुनो राय रामानंद और स्वरूप दामोदर ऐसा कहकर फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने आगे का तृतीय अष्टक कहा उस तृतीय अष्टक में इस रहस्य का वर्णन हैं या कैसा जप करें ताकि कृष्ण प्रेम उत्पन्न हो अनुराग उत्पन्न हो तो इस रहस्य का उद्घाटन अब कल हि होगा। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु से हम सुनेंगे कल की कक्षा में कहो तब तक आज जो जो चैतन्य महाप्रभु ने कहा इस द्वितीय के अष्टक के संबंध में उसी पर और विचार करो चिंतन करो मनन करो अध्ययन करो ठीक है गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।

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