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*जपचर्चा*
*पंढरपुरधाम*
*27 मई 2021*
819 स्थानो से भक्त जप कर रहे हैं !
*हरि हरि !!*
*जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद ।*
*श्री अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद ॥*
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥*
आप सभी का स्वागत है और अभिनंदन भी है । प्रतिदिन रोज प्रातः काल मैं मिलकर और भक्तों के साथ अपनी साधना करते हो । "कली का धर्म हरि नाम संकीर्तन" । इसको निभाते हो । अपने जीवन में ,अपने हृदय प्रांगण में ,अपने भवन में ,अपने मोहल्ले में यह कार्य प्रातः काल आप आरंभ करते हो । हरि हरि !! इसके लिए भी अभिनंदन इतना ही कहता हूं ।
*श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की ( जय ) !!*
*श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु शिक्षाष्टक की ( जय ) !!*
चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाएं ,किनकी शिक्षाएं ? श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जो वास्तविक गुरु है, शिक्षक है । "कृष्णं वन्दे जगत गुरुं" उनकी शिक्षा यह 8 श्लोकों में वे लिखे हैं और सिखाए हैं । हम कुछ दिनों से यह शिक्षाएं पढ़ रहे थे । उन शिक्षाओं की रसास्वादन कर रहे थे । ( परम पूज्य लोकनाथ स्वामी महाराज कह रहे हैं ) मुझे भी बीच में थोड़ा रुकना पड़ा , शुभ दिन शुभ तिथियां भी आ गई । रुक्मणी का जन्म दिवस , नरसिंह चतुर्दशी महोत्सव की ( जय ) ! ऐसे सब उत्सव आचार्यों की आविर्भाव ,तिरोभाव मनाते मनाते फिर कुछ दिनों के लिए हम यह शिक्षाष्टक अध्ययन ,श्रवण ,आस्वादन एक दृष्टि से खंडित हुआ; हरि हरि !! किंतु जो भी आस्वादन हुआ वही रसास्वादन था । वह भी उतना ही मधुर था , कुछ कम मधुर नहीं था ! तो फिर कुछ खंड हुआ ही नहीं ऐसा भी कह सकते हैं ।
*स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे ।*
*अहैतुक्यप्रतिहता ययात्मा सुप्रसीदति ॥ ६ ॥*
( श्रीमद् भागवतम् 1.2.6 )
*अनुवाद:-* सम्पूर्ण मानवता के लिए परम वृत्ति ( धर्म ) वही है जिसके द्वारा सारे मनुष्य दिव्य भगवान् की प्रेमा - भक्ति प्राप्त कर सकें । ऐसी भक्ति अकारण तथा अखण्ड होनी चाहिए जिससे आत्मा पूर्ण रूप से तट हो सके ।
यह तो चल रहा है; यह प्रवाह । अमृत प्रवाह , इसके प्रकार थोड़े अलग है या कुछ भिन्नता है । हां ! होना भी चाहिए । जैसे विभिन्न प्रकार के मसाले होते हैं, अलग-अलग हम स्वाद पसंद करते हैं । लेकिन हेतो ..
*वयं तु न वितृप्याम उत्तमश्लोकविक्रमे ।*
*यच्छृण्वतां रसज्ञानां स्वादु स्वादु पदे पदे ॥ १९ ॥*
( श्रीमद् भागवतम् 1.1.19 )
*अनुवाद:-* हम उन भगवान् की दिव्य लीलाओं को सुनते थकते नहीं , जिनका यशोगान स्तोत्रों तथा स्तुतियों से किया जाता है । उनके साथ दिव्य सम्बन्ध के लिए जिन्होंने अभिरुचि विकसित कर ली है , वे प्रतिक्षण उनकी लीलाओं के श्रवण का आस्वादन करते हैं ।
हे तो आस्वादन ही या तो ...
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
यह भी आस्वादन है ही ,प्रधान या रसास्वादन का यह स्त्रोत है । हरि हरि !!
यह है 5वा शिक्षाष्टक वह कौन सा है ? आप जानते हो 5वा शिक्षाष्टक ? हां ? कौन सा है ? हॉट खिलाओगे तो पता चलेगा सही कह रहे हो या नहीं ! अ से शुरू होता है । कंठ से स्वर निकलना चाहिए ।
*अयि नन्दतनुज किंकरं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ ।*
*कृपया तव पादपंकज-स्थितधूलिसदृशं विचिन्तय ॥*
( चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.32 )
*अनुवाद:-* हे नन्दतनुज ! मैं आपका नित्य दास हूँ किन्तु किसी कारणवश मैं जन्म-मृत्यु रूपी इस सागर में गिर पड़ा हूँ । कृपया मुझे अपने चरणकमलों की धूलि बनाकर मुझे इस विषम मृत्युसागर से मुक्त करिये ।
यहां है 5वा शिक्षाष्टक । शिक्षाष्टक सुन तो लिया और समझे भी होंगे । कोई अधिक समझे कुछ कम समझे लेकिन पूरा तो कोई नहीं समझता । या फिर हर वक्त हर समय जब हम उसको उसका उच्चारण करते हैं, चिंतन करते हैं उच्च संबंध के कुछ व्याख्या सुनते हैं विश्लेषण श्रवण करते हैं तो फिर और अधिक समझ में आता है । साक्षात्कार और अधिक साक्षात्कार होता है उन वचनों का । यही हम करने का प्रयास करेंगे । "अयि नन्दतनुज किंकरं" तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही बोल रहे हैं । या श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु...
*पञ्च - तत्त्वात्मकं कृष्णं भक्त रूप - स्वरूपकम् ।*
*भक्तावतार भक्ताख्य नमामि भक्त - शक्तिकम् ॥६॥*
( चैतन्य चरितामृत आदि-लीला 7.6 )
*अनुवाद:-* मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार करता हूँ जो भक्त , भक्त के विस्तार , भक्त के अवतार , शुद्ध भक्त और भक्त - शक्ति - इन पाँच रूपों में प्रकट हुए हैं ।
वह स्वयं बने हैं भक्त । भक्तों की भूमिका निभा रहे हैं । फिर वही भाषा बोल रहे हैं भक्त की भाषा । तो क्या कह रहे हैं ? "अयि नन्दतनुज" अहो अहो ! भगवान के ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर रहे हैं "अयि नन्दतनुज किंकरं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ" यह संसार में जो स्थिति है जिस परिस्थिति में वे है या फंसे हैं, वध है । "भवाम्बुधौ" मैं गिरा हूं और डूब रहा हूं ,बल्कि मैं मर रहा हूं । यह आपातकालीन स्थिति है । और फिर मरते रहता हूं यह पहली बार नहीं है मरने जा रहा हूं लेकिन यह सब चल ही रहा है ।
*पुनरपि जननं पुनरपि मरणं*
*पुनरपि जननं पुनरपि मरणं* *पुनरपि जननीजठरे शयनम् ।*
*इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥ २१ ॥*
( शंकराचार्यजी द्वारा रचित भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-21 )
*अनुवाद:-* हे परम पूज्य परमात्मा! मुझे अपनी शरण में ले लो। मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ। मुझे इस संसार रूपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो ईश्वर।
यह जो संसार है भवसागर "भवाम्बुधौ" किंतु अब मुझे समझ में आ रहा है , अब मैं स्वीकार कर रहा हूं "अयि नन्दतनुज किंकरं" मैं पतीत हूं । मेरा पतन हो चुका है आपके धाम से ,वह मेरा भी धाम था एक समय । जहां से में यहां गिर चुका हूं । लेकिन मैं आपका ही तो हूं । और मैं आपका क्या लगता हूं ? "अयि नन्दतनुज किंकरं" एक तो आप किन के क्या लगते हो ? आप नंद महाराज के "तनुज" नन्द महाराज की आप पुत्र हो । ऐसे में नंद तनुज के मे किंकरं हूं , मैं आपका दास हूं । किंकरोमी- किंकरोमी कम से कम अब मेरा मती सही हो गया है और मैं पूछ रहा हूं आपसे किंकरोमी- किंकरोमी मैं क्या कर सकता हूं ? मुझे सेवा दीजिए "सेवा योग्यम् कुरु" । जब मैं हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहता हूं यही तो कहता हूं । की मैं आपका हूं ,मैं आपका दास हूं । और मुझे सेवा दीजिए । हरि हरि !!
*अयि नन्दतनुज किंकरं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ ।*
*कृपया तव पादपंकज-स्थितधूलिसदृशं विचिन्तय ॥*
मुझे उठाइए इस भवसागर से मेरा उद्धार कीजिए , मुक्त कीजिए । और आपके चरणों की धूल बनाइए। आपके चरणों के दास मुझे बनाइए । भृत्यसे-भृत्य ,मुझे आपके दास के दास बनाइए । कृपया-कृपया ऐसी कृपा कीजिए "तव पादपंकज-स्थितधूलिसदृशं विचिन्तय" मुझे आपके गले का हार या सिर के ऊपर जो मुकुट है उसे बनाने की आवश्यकता नहीं है । आपके चरणों की धूल,आपके चरणों के स्पस् ,आपके चरणों की सेवा दीजिए । ऐसी प्रार्थना है इस शिक्षाष्टक में ।
*तोमार नित्य - दास मुइ , तोमा पासरिया ।*
*पड़ियाछों भवार्णवे माया - बद्ध हञा ॥ ३३ ॥*
( चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.33 )
*अनुवाद:-* “ मैं आपका नित्यदास हूँ , किन्तु मैंने आपको भुला दिया है । अब मैं अज्ञान के सागर में पतति हुआ हूँ और बहिरंगा शक्ति द्वारा बद्ध हुआ हूँ ।
"तोमार नित्य - दास मुइ" यह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का भाष्य हे इस शिक्षाष्टक के ऊपर का । मैं आपका नित्य दास हूं किंतु में भूल चुका हूं या भूला भटका मैं जीव या गिरा हूं "भवार्न" में "माया-बद्ध हञा" माया ने ऐसे जकड़ लिया है ना तो हिल-डुल सकता हूं । "माया-बद्ध " या तीन गुणों के , गुड मतलब की डोरी होता है 3 गुण सोइए सत्तो, रज्जो ,तम्मो गुणों की डोरियों ने मुझे बांध लिया है । मुझे कैदी बनाया है यह हथकड़ी-वेडीयां इन गुणों के रूप में । हरि हरि !!
*कृपा करि ' कर मोरे पद - धूलि - सम ।*
*तोमार सेवक करों तोमार सेवन " ॥ ३४ ॥*
( चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.34 )
*अनुवाद:-* "आप अपने चरणकमलों की धूल के कणों में मुझे स्थान देकर मुड़ा पर अहेतुकी कृपा करें , जिससे मैं आपके सनातन सेवक के रूप में आपकी सेवा में लग सकूँ । "
तो ऐसे दास पर कृपा कीजिए । यहां चैतन्य महाप्रभु पुन्हा-पुन्हा कह रहे हैं कृपा कीजिए और अपने चरणों की सेवा दीजिए , चरणों की धूल बनाइए।
*कृष्ण त्वदीय पद पङ्कज पञ्जरान्तं अद्यैव मे विशतु मानस राज हंसः ।*
*प्राण प्रयाण समये कफ वात पित्तैः कण्ठ अवरोधन विधौ स्मरणं कुतः ते ॥ ३३ ॥*
( मुकुंद - माला - स्तोत्र 33 )
*अनुवाद:-* हे भगवान कृष्ण, इस समय मेरे मन के राजहंस को आपके चरणकमलों के उलझे हुए तनों में प्रवेश करने दो। मृत्यु के समय आपका स्मरण करना मेरे लिए कैसे संभव होगा, जब मेरा गला बलगम, पित्त और वायु से घुट जाएगा ?
ऐसे राजाकुल शेखर ने भी कहे । मेरा मन एक हंस के रूप में राजहंस को आपके चरण कमल का आश्रय मैं प्रवेश हो । "अद्यैव मे विशतु" आज ही हो, अब हो "कृष्ण त्वदीय पद पङ्कज पञ्जरान्तं" आपके चरण कमल 'कमल' सदृश है । या मेरे मन को बनने दो हंस या राजहंस । और इस कमल में प्रवेश करने दो , इस कमल के इर्द-गिर्द इसको विचरण करने दो । ऐसा आश्रय दो ।
*पुनः अति - उत्कण्ठा , दैन्य ह - इल उद्गम् ।*
*कृष्ण - ठाञि मागे प्रेम - नाम - सङ्कीर्तन ॥ ३५ ॥*
( चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.35 )
*अनुवाद:-* तब श्री चैतन्य महाप्रभु में सहज दीनता तथा उत्कण्ठा का उदय हुआ । उन्होंने कृष्ण से प्रार्थना की कि प्रेमावेश में महामन्त्र का कीर्तन करने के लिए वे उन्हें सामर्थ्य दें ।
कृष्ण दास कविराज गोस्वामी जो चैतन्य चरितामृत के रचयिता है वही लिख रहे हैं इस प्रकार यह जो हरि हरि !! यस शिक्षाष्टक और फिर इस शिक्षाष्टक की भाष्य कहकर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अति उत्कंठित हुए हैं और उसी के साथ "दैन्य ह-इल उद्गम्" उनकी दिनता और बढ़ गई । विनम्रता या ...
*तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।*
*अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥*
( चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 20.21 )
*अनुवाद:-* स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष के समान सहनशील होकर, मिथ्या मान की कामना न करके दुसरो को सदैव मान देकर हमें सदा ही श्री हरिनाम कीर्तन विनम्र भाव से करना चाहिए ।
यह जो भाव है "अमानिना मानदेन" यह अधिक प्रकट हो रहा है दैन्य चैतन्य महाप्रभु में ।
*विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।*
*पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥*
*अनुवाद:-* विद्या यानि ज्ञान हमें विनम्रता प्रादान करता है , विनम्रता से योग्यता आती है और योग्यता से हमें धन प्राप्त होता है जिससे हम धर्म के कार्य करते हैं और हमे सुख मिलता है ।
व्यक्ति जब विनयि होता है तभी वह उचित पात्र बनता है । तो अधिक विनई - अधिक - नम्रता - अधिक पात्रता । तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु एक शिक्षाष्टक से दूसरी शिक्षाष्टक की और जा रहे हैं । इसका उच्चारण कर रहे हैं-स्मरण कर रहे हैं फिर अधिक उत्कंठीत और दैन्य भाव प्रकट हो रहा है । तो फिर वह और दिन भाव में "कृष्ण - ठाञि मागे प्रेम - नाम - सङ्कीर्तन" कृष्ण प्रेम मांग रहे हैं । कृष्ण नाम संकीर्तन मांग रहे हैं । ताकि क्या हो जाए ? "कीर्तनीय सदा हरी" हो जाए । नाम संकीर्तन हमारा जप तप खंडित नहीं हो जाए और अधिक हम उत्कंठीत होके हम अधिक ध्यान पूर्वक जप करें । मुझे यह भी याद आया कि यह जो दैन्य भाव या दास्य भाव चैतन्य महाप्रभु ने प्रकट किया है उसकी अभिव्यक्ति हुई है । इसी को दैवी संपदा भी कहा है ! भगवत् गीता में 16वे अध्याय का सिरसा की है दैवी संपदा तथा आसुरी संपदा । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जो इस शिक्षाष्टक के रूप में जो ऊंचा अभिव्यक्ति प्रकट किए हैं यह है दैवी संपदा । किंतु इसके विपरीत होते हैं आसुरी संपदा । जिसको श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कहे "भावांबुधौ" या "माया - बद्ध हञा" , "भवार्णवे पड़ियाछों" भवार्णवे मैं पड़ा हूं पतित हूं बद्ध हूं । या कुछ आसुरी संपदा "संपदा" मतलब संपत्ति, आसूरो की संपत्ति , आसुरों के विचार, असुरों के भाव । सुन तो लो ऐसी शिक्षा भी भगवान भगवत् गीता में दे रहे हैं ।
*इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् ।*
*इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥ १३ ॥*
( भगवत् गीता 16.13 )
*अनुवाद:-* आसुरी व्यक्ति सोचता है, आज मेरे पास इतना धन है और अपनी योजनाओं से मैं और अधिक धन कमाऊँगा । इस समय मेरे पास इतना है किन्तु भविष्य में यह बढ़कर और अधिक हो जायेगा ।
यह भी मैंने प्राप्त किया है, और वह भी प्राप्त करूंगा मेरे सारे योजनाएं हैं । मेरे कए सारे प्रकल्प है उसी के साथ "प्राप्स्ये मनोरथम्" इतना धन मेरे पास है और भी "भविष्यति पुनर्धनम्" और भी धन को कमाऊंगा , धन को बढ़ाऊंगा । यह डिपाजिट फिक्स डिपाजिट होंगे । कंपाउंड इंटरेस्ट आता जाएगा मेरा धन और भी बढ़ेगा । हरि हरि बोल !! ऐसे विचार वाले लोग को आप जानते हो ? हां ? आप नहीं जानते हो वैसा लोग तो है नहीं सोलापुर में या नागपुर में ? जा होंगे तो हमारे बारे में क्या है ? आपके ऐसे विचार तो नहीं है ? यह सोचने के लिए बाध्य करता है । यह कृष्णा का भगवत् गीता का वचन हरि हरि !! और आगे भी है । ...
*असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।*
*इश्र्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥ १४ ॥*
( भगवत् गीता 16.14 )
*अनुवाद:-* वह मेरा शत्रु है और मैंने उसे मार दिया है और मेरे अन्य शत्रु भी मार दिये जाएंगे । मैं सभी वस्तुओं का स्वामी हूँ । मैं भोक्ता हूँ । मैं सिद्ध, शक्तिमान् तथा सुखी हूँ ।
और वो मेरा जो शत्रु पक्ष उसको तो मैंने भगाया है मार दिया है या मरवा दिया है । और जो भी है मेरे प्रहार सूची में काफी लोक है कुछ घर वाले भी है शत्रु ,कुछ पड़ोसी है पहले तो मित्र थे अब वन के शत्रु । या जो व्यापारिक भागीदार ( बिजनेस पार्टनर ) या वह सरकार या वह देश यह वह "र्हनिष्ये चापरानपि" मेरे पास सारी डिफेंस मेकैनिज्म (रक्षात्मक प्रतिक्रिया ) है । मेरे पास वकील है ,मेरे पास धन है ,मेरे पास हथियार है ,मेरे पास कुत्ता भी है ; कुत्तों से सावधान ।
*आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।*
*धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥*
( हितो ऊपदेश )
*अनुवाद:-* आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये मनुष्य और पशु में समान हैं। इन्सान में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के व्यक्ति पशुतुल्य है।
यह भय 'भय' से मुक्त के लिए मेरे सारे व्यवस्था है और एक-एक करके में शत्रुओं को मिटाने वाला हूं । देखिए आपको समझ में आ रहा है तो ! यह विचार मायावि विचार है । यह विचार आसुरी संपदा है । इन विचारों ने तो हम को बद्ध बना दिया है । स्वतंत्र कहां है ? स्वतंत्र नहीं है महाशय । यह विचार आसुरी संपदा का पूरा प्रभाव है । और आगे .."इश्र्वरोऽहमहं" तो तुलनात्मक दृष्टि से यह सोचना इसीलिए यह विपरीत है जो गीता में आसुरी संपदा एकाग्र मन से सुन रहे हैं यह बिल्कुल उसके विपरीत है इस शिक्षाष्टक के विपरीत भाव है ।
"आयि नन्द-तनुज किंकरं पतितं मां विषमे भावांबुधौ"
"इश्र्वरोऽहमहं" वहां दासोस्मी की बात चल रही है । मैं आपका दास हूं प्रभु । दासोस्मी । तो आसुरी संपदा के भावों के अंतर्गत यह जो सारा संसार चलायमान है इसको भौतिकवाद कहते हैं । उसके अंतर्गत "ईश्वरोऽमहं" फिर क्या अहम भोगी, मैं भोगी हूं ( आई एम द इंजॉयर ) । मैं योगी हूं । उस शिक्षाष्टक में तो में योगी हूं । या में भक्ति योगी हूं , भक्ति करना चाहता हूं । और आपके साथ मेरा संबंध सपना करना चाहता हूं । "आयि नन्द-तनुज किंकरं" आप नंद तनुज हो । अब मैं आपका किंकरं का किकरं हूं । और वैसे आप परमेश्वर हो । और यहां क्या विचार है ? "इश्र्वरोऽहमहं" मैं भगवान हूं ! मैं ईश्वर हूं । अहं भोगी । तो भगवान को भोग नहीं लगाना ! मैं भोगी हूं । सारा संसार मेरे भोग विलास के लिए है । या मनुष्य के भोग विलास के लिए ही है यह अमेरिका लोगों के लिए या चाइनीस भोग विलास की सामग्री है अब तक तो टूरिज्म तो चल रहा था आप सब टूरिस्ट बनकर जा सकते हो यहां वहां शिमला या महाबलेश्वर ,हवाई लेकिन अब तो स्पेस में जान सकते हो टूरिस्ट बंद कर स्पेस (अंतरिक्ष ) में जाकर वहां पर आनंद उठा सकते हो ऐसे पर हेड क्या (प्रति व्यक्ति) पीछे क्या खर्चा होगा ? सिर्फ 2 मिलियन डॉलर । 2000 में काम नहीं होगा ! 2 मिलीयन और फिर डॉलर । दिन आप जाकर अंतरिक्ष में आनंद उठा सकते हो , स्पेस टूरिज्म । वही आसुरी संपदा है । वही भोग विलास का विचार है । पृथ्वी का सत्यानाश किया परिवेश का परिवर्तन चल रहा है उसके बाद ग्लोबल वार्मिंग कर दिया । पृथ्वी का तापमान बढ़ा दिया बुखार चढ़ाया पृथ्वी को । अब हम और स्थानों पर जाएंगे और अंतरिक्ष में जाएंगे वहां भोग विलास होगा । अहं भोगी । तो इस भोग विलास की कोई सीमा ही नहीं है । पूरी प्रकृति का शोषण यहां वहां अब तो युद्ध तारों में होंगे (स्टार वॉर्स ) । युद्ध सिर्फ पृथ्वी पर ही नहीं होंगे, भविष्य में युद्ध कहां होंगे तारों पर ( स्टार वॉर्स ) । हरि हरि !! और क्या है ? "इश्र्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं" मैं बढ़िया हूं। और मैं बलवान हूं, कुछ कसरत करूंगा यह करूंगा वह करूंगा, भगवान बनूंगा और वैसे सुखी हूं मैं । हरि हरि !! और ऐसे सब । मैं धनवान हूं या धनी लोगों से घिरा हूं, मेरे से घराने का हूं , मेरे ऐसे उच्च पदस्थ संपर्किय है । हरि हरि !!
*आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया ।*
*यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानमोहिताः ॥ १५ ॥*
( भगवत गीता 16.15 )
*अनुवाद:-* मैं सबसे धनी व्यक्ति हूं और मेरे आस-पास मेरे कॉलिंग संबंधी है । कोई अन्य मेरे समान शक्तिमान तथा सुखी नहीं है । मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और इस तरह आनन्द मनाऊँगा । इस प्रकार ऐसे व्यक्ति अज्ञानवश मोहग्रस्त होते रहते हैं ।
आसुरी संपदा वाला व्यक्ति क्या सोचता है ? वैसे भगवान ने ऐसी सोच दी है या व्यवस्था की है ऐसी सोच हे माया का ही ! या भगवान की माया है !
*दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।*
*मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ १४ ॥*
( भगवत् गीता 7.14 )
*अनुवाद:-* प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है । किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं ।
यानी मेरी माया,भगवान की माया और उस माया का ऐसा प्रभाव है मम "माया दुरत्यया" तो उस माया के या मायावी विचारों से प्रभावित हुआ व्यक्ति फिर सोचता है "कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया" और कौन है मेरा जैसा कौन है ? हरि हरि !! मेरा जैसा कौन सुंदर है ? मेरे जैसा कौन है लिखा पढ़ा ? मेरे जैसा घराना और कोई घराना ? इत्यादि इत्यादि .. । कुंती महारानी ने कहा है । तो यह कुछ उदाहरण थे । आसुरी संपदा वाले जो जन है, जनता होते हैं इनकी संख्या बहुत बड़ी है इसलिए कहा है ...
*मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्र्चिद्यतति सिद्धये ।*
*यततामपि सिद्धानां कश्र्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥ ३ ॥*
( भगवत् गीता 7.3 )
*अनुवाद:-* कई हजार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करने वालों में से विरला ही कोई मुझे वास्तव में जान पाता है ।
हजारों लाखों में से कोई एक ही भगवान की ओर मुड़ता है और दैवी संप्रदा से प्रभावित होता है और भगवान की शरण आता है और फिर उसको कहने चाहिए ..
*आयि नन्द-तनुज किंकरं पतितं मां विषमे भावांबुधौ* ।
*कृपया तव पाद-पंकज-स्थित-धूली-सदृशं विचिंतय ॥*
*श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय !!*
*श्रील प्रभुपाद की जय !!*
*॥ गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ॥*