Hindi

जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक 26 मई 2021 हरे कृष्ण!!! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 814 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। क्या आप सब तैयार हो? यस? नो? नहीं नहीं, हां हां। हरि! हरि! नरसिंह चतुर्दशी महोत्सव की जय! संभावना है कि आप अब तक भी नरसिंह चतुर्दशी के मूड़( मनोदशा) में होंगे या हैं। भगवान् कुछ समय पहले ही तो संध्याकाल में प्रकट हुए थे और तत्पश्चात अपनी झलक दिखलाकर अंतर्ध्यान हो गए। उनकी लीला राम जैसी नहीं है जो 11000 वर्षों तक रहे थे अर्थात राम के जन्म की लीला, तत्पश्चात बाल लीला फिर किशोरावस्था की किशोर लीला तत्पश्चात अतंत अंतर्ध्यान हुए थे। भगवान श्रीकृष्ण 125 वर्ष तक रहे थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु 48 वर्ष रहे। भगवान की लीलाएं कुछ ऐसी भी रही हैं जैसे कोई इमरजेंसी अथवा आपातकालीन स्थिति है अर्थ कोई असुर, किसी भक्त को परेशान कर रहा है। जैसे कि भगवान् कहते हैं यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ ( श्रीमद् भगवत गीता ४.७) अनुवाद:- हे भारतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ । जब धर्म की ग्लानि होती है, तब भगवान प्रकट होते हैं। जिस प्रकार नरसिंह भगवान् प्रकट हुए थे। जो भी समस्याएं थी, उनको निपटा दिया। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ( श्रीमद् भगवत गीता ४.८) अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ। तत्पश्चात लीला समाप्त। उन्होंने प्रह्लाद महाराज से अपना वात्सल्य प्रकट किया अर्थात प्रह्लाद से प्रेम किया। प्रह्लाद ने भी प्रेम् के वचन कहे। देवी देवताओं को दर्शन दिया, उनकी संस्तुति को भी सुना और कार्य समाप्त। क्विक इन और आउट( शीघ्र ही अंदर और बाहर)। इस प्रकार कई सारे अवतारों की लीलाएं प्रकट और अप्रकट होती रहती है। भगवान कोई विशेष कार्य अथवा कोई आपातकालीन स्थिति हेतु प्रकट अथवा अंतर्धान होते हैं तत्पश्चात आगे बढ़ते हैं या अपने धाम वापिस लौट जाते हैं। हम वैष्णवों या गौड़ीय वैष्णवों के लिए तो प्रतिदिन उत्सव है। जैसे हमारे कानों के लिए प्रतिदिन श्रवण उत्सव तो है ही। भगवान् के इतने सारे अवतार हैं। रामादिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन् नानावतारमकरोद् भुवनेषु किन्तु। कृष्णः स्वयं समभवत्परमः पुमान् यो गोविंदमादिपुरुषं तमहं भजामि।। ( ब्रह्म- संहिता ५.३९) अनुवाद:- जिन्होंने श्री राम, नरसिंह, वामन इत्यादि विग्रहों में नियत संख्या की कला रूप से स्थित रहकर जगत् में विभिन्न अवतार लिए, परंतु जो भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में स्वयं प्रकट हुए, उन आदि पुरष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ। या परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ( श्रीमद् भगवत गीता ४.८) कल यह अवतार हुआ तो आज यह अवतार हुआ, फिर यह अवतार हुआ। तत्पश्चात हम उस अवतार की कथा या लीला का श्रवण करते हैं व उत्सव मनाते हैं। केवल विष्णु और कृष्ण या अवतारों के लिए ही उत्सव नहीं होते। अपितु कई सारे वैष्णव भी प्रकट होते हैं या विष्णुतत्व प्रकट होते हैं। पता नहीं किसकी संख्या अधिक है। वैसे वैष्णवों की संख्या अधिक होनी चाहिए। अद्वैतमच्युतमनादिमनंतरूपम् आद्यं पुराणपुरषं नवयौवनं च। वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ गोविंदमादिपुरूषं तमहं भजामि।। ( ब्रह्म- संहिता ५.३३) अनुवाद:- जो वेदों के लिए दुर्लभ हैं किंतु आत्मा की विशुद्ध भक्ति द्वारा सुलभ हैं, जो अद्वैत हैं, अच्युत हैं, अनादि हैं, जिनका रूप अनंत है, जो सबके आदि हैं तथा प्राचीनतम पुरुष होते हुए भी नित्य नवयुवक हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ। भगवान के अनंत रूप हैं। भक्तों के कितने रूप हैं? कितने वैष्णव हैं, सारा बैकुंठ जगत या सारा गोलोक, साकेत, अयोध्या, वैष्णवों से भरा पड़ा है। वहां की सारी जनसंख्या 100% वैष्णव है। वहां कोई और है ही नहीं। नास्तिक तो है ही नहीं। सारे आस्तिक ही हैं। आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधनं परम्। तस्मात्परतरं देवि तदीयानां समर्चनम्।। ( पद्म पुराण श्लोक संख्या 31) अनुवाद:- ( शिवजी ने दुर्गा देवी से कहा:) हे देवी, यद्यपि वेदों में देवताओं की पूजा की संस्तुति की गई है, लेकिन भगवान् विष्णु की पूजा सर्वोपरि है। किंतु भगवान् विष्णु की सेवा से भी बढ़कर है, उन वैष्णवों की सेवा, जो (वैष्णव) भगवान् विष्णु के सम्बंध में हैं। विष्णु की आराधना या भगवान के असंख्य अलग अलग अवतारों की आराधना करने वाले वैष्णव कहलाते हैं। सारा वैकुंठ जगत अथवा वैकुंठ लोक वैष्णवों से भरा पड़ा है। गोलोक में वैष्णव ही वैष्णव है। (मुझे तो और कुछ भी कहना है लेकिन...) भगवान् भी प्रकट होते हैं। इस दिन यह भगवान्, उस दिन वह भगवान् , ये अवतार, वह अवतार इत्यादि प्रकट होते हैं और हम उत्सव मनाते हैं। भगवान के भक्त भी अवतरित होते हैं अथवा प्रकट होते हैं। हम उनके जन्म दिवस को भी मनाते हैं। इस तरह से प्राय: या प्रतिदिन कोई न कोई उत्सव अथवा विष्णु का अवतार या किसी वैष्णव का प्राकट्य दिन अथवा जन्मदिन होता ही है। इसी के साथ हमें मजा आता है। हम आनंद लूटते हैं, उत्सव मनाते हैं। वैष्णव कोई उपाधि नहीं है। सर्वोपाधि-विनिर्मुक्तं तत्परत्वेन निर्मलम्। हृषीकेण हृषिकेश सेवनं भक्तिरुच्यते।। ( भक्तिरसामृतसिंधु १.१.२) अनुवाद:- भक्ति का अर्थ है समस्त इंद्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरषोत्तम भगवान् की सेवा में अपनी सारी इंद्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान की सेवा करता है, तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान की सेवा में लगे रहने मात्र से उसकी इंद्रियां शुद्ध हो जाती हैं। संसार में कई सारी उपाधियां हैं। मैं अमेरिकन हूं, मैं भारतीय हूं, मैं यह, वह.. मैं काला, गौरा , स्त्री, पुरुष .. हिन्दू, मुसलमान इत्यादि हूँ, उसका कोई अंत ही नहीं है। हम संसारी लोगों के लिए इस संसार में कितनी सारी उपाधियां / पद होते हैं किंतु वैष्णव कोई उपाधि नहीं है। यदि है तो, यह शाश्वत उपाधि है। आत्मा वैष्णव है। इस उपाधि से मुक्त नहीं होना है। सर्वोपाधि-विनिर्मुक्तं। गर्व से कहो कि हम हिंदू है। हिंदू उपाधि हो गई। हमें इस उपाधि से मुक्त होना है। अतः ऐसी कई सारी उपाधियां हैं जिनसे हमें मुक्त होना है किन्तु वैष्णव होना, यह उपाधि शाश्वत है। जीव की यह शाश्वत पहचान है। जीव कौन है, कैसा है? जीव वैष्णव है। जीव विष्णु की आराधना करता है। वह भगवान की आराधना करता है। मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता १८.६४) अनुवाद:- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो। मुझे नमस्कार करो। मुझे विष्णु , राम, नरसिंह को नमस्कार करो। आराधना करो । हम वैष्णव तिथियां मनाते हैं, आज वैष्णव तिथि है, पर हम इस संबंध में कितना कह पाते हैं, यह बात दूसरी है। पहले भगवान् के विषय में कहेंगे। आज भगवान राधा रमन देव जी का प्राकट्य दिवस हैं। आज माधवेंद्र पुरी का जन्म दिवस है । आज श्रीनिवास आचार्य का आविर्भाव दिवस है। परमेश्वरी दास ठाकुर का तिरोभाव दिवस दिवस हैं। श्रीकृष्ण की जलविहार की लीलाएं भी आज ही सम्पन्न हुई थी, उसका भी आज ही सलिल उत्सव मनाया जाता है। यह बंगाल में अत्याधिक प्रसिद्ध है। सलिल विहार! हरि! हरि! अभी पहले हम राधा रमण देव जी का संस्मरण करते हैं। गोविन्द जय-जय गोपाल जय-जय।राधा-रमण हरि, गोविन्द जय-जय॥१॥ श्री राधा रमण, वृंदावन के राधा रमण हैं। वे और कहीं के हो भी नहीं सकते। राधा के साथ रमण भगवान कृष्ण का वृंदावन में ही होता है। इसलिए राधारमण वृंदावन के होते हैं। यहां भगवान् राधारमण के प्राकट्य की बात है। आज के दिन राधारमण प्रकट हुए अर्थात आज के दिन वृंदावन के राधा रमण के विग्रह प्रकट हुए थे या भगवान राधारमण के रूप में प्रकट हुए थे। यह कुछ 500 वर्ष पूर्व की बात है। राधारमण, गोपाल भट्ट गोस्वामी की प्रसन्नता के लिए प्रकट हुए या भगवान् ने गोपाल भट्ट गोस्वामी को राधा रमण के रूप में दर्शन दिए। पूर्व में वह शिला थे, एक बार गोपाल भट्ट गोस्वामी, हिमालय में गंडकी नदी पर गए थे। वह नदी काफी पवित्र नदी है। उस नदी में शिलाएं प्राप्त होती हैं। विश्व भर में या भारतवर्ष में जहां-तहां अधिकतर शिलाएं फैल रही हैं अर्थात यह शिला, वह शिला जिनकी आराधना होती है। उन शिलाओं की प्राप्ति गंडकी नदी से होती है। गोपाल भट्ट गोस्वामी जब वहां गए। वे उस नदी में प्रवेश करके स्नान कर रहे थे तब कुछ शिलाएं उनके हाथ में अनायास बिना प्रयास के आ रही थी। वे उठा नहीं रहे थे लेकिन शिलाएं जंप (कूद कर) करके उनके हाथ में पहुंच जाती। वे उनको पुनः नदी के जल में रखने का प्रयास करते, तब वे शिलाएं पुनः उनके हाथ में आ जाती। तब वे समझ गए कि शिलाएं उनको चाहती हैं अर्थात शिलाएं चाहती हैं कि गोपाल भट्ट गोस्वामी उनकी आराधना करें। इसलिए वे उन्हें वृन्दावन में लेकर आए। श्रीविग्रहाराधन-नित्य-नाना। श्रृंगार-तन्‌-मन्दिर-मार्जनादौ। युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥ (श्री श्री गुर्वाष्टक श्लोक संख्या 3) अर्थ:- श्रीगुरुदेव मन्दिर में श्रीश्रीराधा-कृष्ण के अर्चाविग्रहों के पूजन में रत रहते हैं तथा वे अपने शिष्यों को भी ऐसी पूजा में संलग्न करते हैं। वे सुन्दर सुन्दर वस्त्र तथा आभूषणों से श्रीविग्रहों का श्रृंगार करते हैं, उनके मन्दिर का मार्जन करते हैं तथा इसी प्रकार श्रीकृष्ण की अन्य अर्चनाएँ भी करते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। गोपाल भट्ट गोस्वामी विधि पूर्वक उनकी आराधना कर रहे थे। गोपाल भट्ट गोस्वामी ने हरि भक्ति विलास नामक ग्रंथ लिखा है। यह बड़ा ही महत्वपूर्ण ग्रंथ है। उस ग्रंथ में अर्चना पद्धति और भी कई सारी तकनीकी विधि-विधानों का उल्लेख हुआ है। उसमें गोपाल भट्ट गोस्वामी ने कई सारी शिक्षाएं लिखी है। वे भी उस अर्चना पद्धति के अनुसार अपनी शिलाओं की आराधना कर रहे थे। नानाशास्त्र-विचारणैक-निपुणौ सद्धर्म-संस्थापकौ लोकानां हितकारिणौ त्रिभुवने मान्यौ-शरण्याकरौ राधाकृष्ण-पदारविन्द-भजनानन्देन मत्तालिकौ वन्दे-रूप सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥ अर्थ:- मैं श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ, जो अनेक शास्त्रों के गूढ़ तात्पर्य विचार करने में परमनिपुण थे, भक्तिरूप-परमधर्म के संस्थापक थे, जनमात्र के परमहितैषी थे, तीनों लोकों में माननीय थे, शरणागतवत्सल थे एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविन्द के भजनरूप आनन्द से मत्तमधुप के समान थे। गोपाल भट्ट गोस्वामी अकेले तो नहीं थे।अन्य भी 5 षड् गोस्वामीवृंद थे। वैसे लोकनाथ गोस्वामी, कृष्ण दास कविराज गोस्वामी, भूगर्भ गोस्वामी भी थे। अन्य गोस्वामी भी विग्रह की आराधना कर रहे थे। रूप गोस्वामी 'राधा गोविंद' की आराधना कर रहे थे। जीव गोस्वामी 'राधा दामोदर' की आराधना कर रहे थे। इसी प्रकार अन्य गोस्वामियों के विग्रह सम्पूर्ण, पूर्ण रूप वाले सर्वांग सुंदर हैं लेकिन गोपाल भट्ट गोस्वामी के पास केवल शिला ही थी। भगवान के रूप के सारे अवयव, अंग पूर्ण विकसित या प्रकट हैं, लेकिन उसके दर्शन नहीं थे। गोपाल भट्ट गोस्वामी के मन में भी ऐसी इच्छा प्रकट हो रही थी कि मेरे विग्रह क्यों नहीं हैं? मेरी तो शिला ही है। मैं इनको मुरली अर्पित करना चाहता हूं, मैं इनको मुकुट अर्पित करना चाहता हूं, मैं इनके चरणों की सेवा करना चाहता हूं, मैं उनको जूते पहनने के लिए देना चाहता हूं या कटी प्रदेश अर्थात कमर में कुछ अलंकार, वस्त्र, धोती पहनाना चाहता हूं। उनको कुर्ता पहनाना चाहता हूं इत्यादि इत्यादि। वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात् पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात् पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात् कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने।। अर्थ:- जिनके करकमल वंशी से विभूषित हैं, जिनकी नवीन मेघ की-सी आभा है, जिनके पीत वस्त्र हैं, अरुण बिम्बफल के समान अधरोष्ठ हैं, पूर्ण चन्द्र के सदृश सुन्दर मुख और कमल के से नयन हैं, ऐसे भगवान श्रीकृष्ण को छोड़कर अन्य किसी भी तत्त्व को मैं नहीं जानता। इस तरह से वंशीविभूषितकरान्न है अर्थात यदि इनके कर कमल, हाथ है तो बंसी बजाएंगे। इस प्रकार गोपाल भट्ट गोस्वामी की इच्छा तीव्र होती जा रही थी। ऐसे में किसी दानदाता ने गोपाल भट्ट गोस्वामी को सारे श्रृंगार का सम्मान (अलंकार, विग्रह वस्त्र) दान में दे दिया जबकि अभी तो उनके राधा रमण शिला ही थे। यह एक संकेत था कि अब कुछ होने वाला है। वस्त्र, अलंकार, मुरली, करध्वनि बाजूबंद आदि पहुंचे गए थे। तत्पश्चात आज के दिन भगवान ने राधा रमण का रूप धारण किया अथवा वे राधारमण बने। श्री श्री राधा रमण की जय! (संभावना है, कि हम आपको आज दर्शन कराएंगे) पंचकोसी वृंदावन में गौड़ीय वैष्णवों अथवा गौड़ीय आचार्यों के जो सात विशेष मंदिर हैं, उसमें से एक वृंदावन के राधा रमन अथवा गोपाल भट्ट गोस्वामी के राधा रमण का मंदिर बहुत प्रसिद्ध मंदिर है। हम जब पहली बार वृंदावन में गए थे, उन दिनों में श्री विश्वम्भर गोस्वामी जो कि गोपाल भट्ट गोस्वामी की परंपरा में आने वाले आचार्य हैं, वे उनकी आराधना करते थे। श्रील प्रभुपाद के साथ उनकी बड़ी मित्रता थी। वे राधा दामोदर में उनसे मिलने के लिए आते थे। हम ब्रज मंडल परिक्रमा में भी उनको बुलाया करते थे। वे कभी-कभी आकर सब भक्तों को कथा भी सुनाया करते थे। हरि! हरि! आज राधा रमण का प्राकट्य दिन है। आज बड़े हर्ष उल्लास का दिन है। किसी तरह आज उनके दर्शन जरूर करना। शायद आज हमारी टीम भी आपको दर्शन कराएगी। वैसे उनके ऑनलाइन दर्शन प्रतिदिन उपलब्ध होते हैं। राधा रमण के दर्शन जरूर कीजिएगा। आज माधवेंद्र पुरी का आविर्भाव अथवा जन्म दिवस है। माधवेंद्र पुरी का क्या कहना। यदि माधवेंद्र पुरी नहीं होते तो हम लोग गौड़ीय वैष्णव नहीं होते। यह गौड़ीय वैष्णवता हमें या सारे संसार और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को भी माधवेंद्र पुरी के कारण ही प्राप्त हुई है। माधवेंद्र पुरी के शिष्य ईश्वर पुरी बने व ईश्वर पुरी के शिष्य श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु बने। तत्पश्चात महाप्रभु के शिष्य षड् गोस्वामीवृंद बने। यह गौड़ीय वैष्णवता है। अनर्पित-चरीं चिरात्करुणयावतीर्णः कलौ समर्पयितुमुन्नतोज्जवल-रसां स्व भक्ति श्रियम्। हरिः पुरट-सुन्दर-द्युति कदम्ब सन्दीपितः सदा हृदय - कन्दरे स्फुरतु वः शची नन्दनः।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला १.४) अर्थ:-श्रीमती शची देवी के पुत्र के नाम से विख्यात वे महाप्रभु आपके ह्रदय की गहराई में दिव्य रूप से विराजमान हों। पिघले सोने की आभा से दीप्त, वे कलियुग में अपने अहैतु की कृपा से अपनी सेवा के अत्यंत आकृष्ट तथा दीप्त आध्यात्मिक रस के ज्ञान को, जिसे इसके पूर्व अन्य किसी अवतार ने प्रदान नहीं किया था, प्रदान करने के लिए अवतीर्ण हुए हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के प्रकट होने का एक मुख्य उद्देश्य समर्पयितुमुन्नतोज्जवल-रसां अर्थात माधुर्य रस से सारे संसार को आप्लावित करना भी था अर्थात सारे संसार को माधुर्य रस, परकीय भाव अथवा गोपी भाव या राधा भाव का दान करना है। राधा भक्ति देती है, यदि सारे संसार को गोपी जैसी भक्ति सिखानी है, इसलिए इस उद्देश्य से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए। 'समर्पयितुमुन्नतोज्जवल-रसां' श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने आकर इस उन्नत उज्जवल रस, भक्ति रस अथवा माधुर्य रस का आस्वादन भी किया और प्रचार और प्रसार भी किया एवं हरे कृष्ण महामंत्र भी दिया। यह माधुर्य रस ही है, माधुर्य भक्ति ही है। इस माधुर्य के रस को प्रकाशित करने वाले माधवेंद्र पुरी थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने माधवेंद्र पुरी को निमित्त बनाया था। तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् । मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥ ( श्रीमद भगवत् गीता ११.३३) अर्थ:- अतःउठो! लड़ने के लिए तैयार होओ और यश अर्जित करो | अपने शत्रुओं को जीत कर सम्पन्न राज्य का भोग करो। ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं और हे सव्यसाची! तुम तो युद्ध में केवल निमित्तमात्र हो सकते हो। निमित्तमात्रं माधवेंद्र पुरी हमारे गौड़ीय वैष्णव परंपरा के आदि व प्रथम आचार्य हैं। वैसे वे लक्ष्मीपति तीर्थ के शिष्य थे। माधवेंद्र पुरी ने मध्व सम्प्रदाय में लक्ष्मीपति तीर्थ से दीक्षा ली थी लेकिन मध्व संप्रदाय से और अधिक, कुछ अलग बातें अथवा दिव्य ज्ञान उनके हृदय प्रांगण में प्रकाशित हुआ। चक्षुदान दिलो येई, जन्मे जन्मे प्रभु सेइ, दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित। प्रेम-भक्ति याँहा हइते, अविद्या विनाश जाते, वेदे गाय याँहार चरित॥3॥ ( गुरु वंदना) अर्थ:- वे मेरी बन्द आँखों को खोलते हैं तथा मेरे हृदय में दिव्य ज्ञान भरते हैं। जन्म-जन्मातरों से वे मेरे प्रभु हैं। वे प्रेमाभक्ति प्रदान करते हैं और अविद्या का नाश करते हैं। वैदिक शास्त्र उनके चरित्र का गान करते हैं। इसे ज्ञान, भक्ति, वैराग्य कहा जाए पर यह भगवान की व्यवस्था है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की व्यवस्था से माधवेन्द्र पुरी ऐसे बने। इस प्रकार ऐसे माधवेंद्र पुरी के हाव भाव भक्ति माधुर्य भक्ति यह सब उनके जीवन में प्रकाशित हुई और उसका प्रचार प्रसार भी किया। उनके कई सारे शिष्य थे उसमें से एक ईश्वर पुरी , जैसा आपको कहा उनके शिष्य बनते हैं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और फिर उस परंपरा में हम तक यह माधवेंद्र पुरी की शिक्षाएं, उनका अनुभव, उनका साक्षात्कार पहुंचा। एक समय माधवेंद्र पुरी उड़ीसा में थे और वे वृंदावन पहुंचते हैं फिर वहां उनके जीवन में उनके हृदय प्रांगण में माधुर्य भक्ति प्रकाशित होती है या प्रकट होती है। आज श्रीनिवास का भी आविर्भाव दिवस है उनका चरित्र अद्भुत है, वे बृज वास और गोवर्धन की परिक्रमा किया करते थे। परिक्रमा के मार्ग में जतिपुर आता है आपको याद है ? गोविंद कुंड से जाओ लौठा बाबा तक, वहां से फिर हम मुड़ते हैं और फिर थोड़ी ही दूरी पर एक या दो किलोमीटर पर एक जतिपुर नाम का ग्राम या स्थान आता है। यह जती, यति या माधवेंद्र पुरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जब माधवेन्द्रपुरी परिक्रमा करते हुए राधा कुंड , श्याम कुंड के तट पर पहुंचते हैं, श्याम कुंड के तट पर एक बैठक भी है "माधवेंद्र पुरी बैठक" श्याम कुंड के पूर्वी दिशा में जहां वे बैठा करते थे और सब समय राधाकृष्ण-पदारविन्द-भजनानन्देन मत्तालिकौ नानाशास्त्र-विचारणैक-निपुणौ सद्धर्म-संस्थापकौ लोकानां हितकारिणौ त्रिभुवने मान्यौ-शरण्याकरौ राधाकृष्ण-पदारविन्द-भजनानन्देन मत्तालिकौ वन्दे-रूप सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥2॥ अनुवाद: मैं श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ, जो अनेक शास्त्रों के गूढ़ तात्पर्य विचार करने में परमनिपुण थे, भक्तिरूप-परमधर्म के संस्थापक थे, जनमात्र के परमहितैषी थे, तीनों लोकों में माननीय थे, शरणागतवत्सल थे एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविन्द के भजनरूप आनन्द से मत्तमधुप के समान थे। राधा कृष्ण के भजन में मस्त रहा करते थे वहां बैठकर वहां भक्ति में या राधा कृष्ण के स्मरण में मग्न रहा करते थे और फिर गोविंद कुंड के तट पर उनके नाम से प्रसिद्ध स्थान है वहीं पर भगवान ने दर्शन भी दिया। वहां बैठे बैठे जप कर रहे थे हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। वे थोड़े थके थे परिक्रमा करते करते बैठे तो कुछ झपकी आ गई और भगवान प्रकट हुए। तुम्हारे लिए दूध है। माधवेन्द्रपुरी वे प्रसिद्ध थे अयाचक वृत्ति लिए ,कभी किसी से याचना नहीं करते भिक्षाम देही या दुग्धं देही, प्रसादम देही, देही देही नो, बहुत समय से उन्होंने कुछ खाया पिया नहीं था। भूख प्यास थी लेकिन अयाचक वृत्ति, किसी से मांगते नहीं थे कोई आकर दे देता तो ले लेते थे। किंतु उस दिन गोपाल आ गए और दूध का प्याला दे दिया। यहां भगवान के साथ उनका एक सुंदर संवाद भी है दर्शन संवाद , माधवेंद्र पुरी तुम दूध पी लो फिर मैं वापस आ जाऊंगा यह लोटा ले जाने के लिए और माधवेंद्र पुरी ने दूध पी लिया। बालक नहीं आ रहा था लोटा लेने के लिए लेकिन फिर आ गया, पुनः उन्होंने स्वप्न में देखा और स्वप्न आदेश हुआ यहीं पास में मेरे विग्रह हैं। गोपाल के विग्रह, यहां के पुरोहित पुजारी बहुत समय से मुसलमान या यवनों के भय से मुझे गड्ढे में डालकर, मुझे ढक कर गए हैं। मैं यहां काफी परेशान हूं गर्माहट से , मुझे बाहर निकालो ऐसा स्वप्न आदेश हुआ। अगली सुबह जब वे जगे तब पास के गांव वालों को अपने साथ ले लिया और कुछ हथियार भी लिए फिर जहां बताया था वहां पहुंचकर खुदाई हुई और सचमुच वहां भगवान के विग्रह,जो कि भगवान ही होते हैं। मैं ही वहां हूं ऐसा वह बालक कह कर गया था मुझे वहां से निकालो मैं ही हूं। हरि हरि ! फिर उसकी स्थापना माधवेंद्र पुरी ने गोवर्धन के शिखर पर की और आराधना करते रहे धीरे-धीरे मंदिर निर्माण हुआ। माधवेंद्र पुरी वहां के अन्य बृजवासी , उनके भी आचार्य बने। वो उनके आदेशों का उपदेशों का पालन करने लगे, सहायता सेवा करने लगे, गाय दान देते रहे ,बड़ी गौशाला हुई ताकि गोपाल के लिए भोग नैवेद्य पकवान बनाए जा सके या अन्य मिष्ठान बनाए जा सकते हैं उस मंदिर का विकास होता रहा और अच्छा प्रचार-प्रसार हो रहा है। एक समय या प्रारंभ में उसकी स्थापना के उपरांत, अन्नकूट महोत्सव मनाया माधवेन्द्र पुरी ने। अन्नकूट मतलब अन्न का पहाड़ और अन्न के पहाड़ में कितने सारे पकवान छप्पन भोग, 56 हजार,या छप्पन लाख भोग भी हो सकते हैं। बहुत बड़ी मात्रा मैं उसके ढेर या पहाड़ से अन्नकूट महोत्सव माधवेंद्र पुरी ने संपन्न किया और उसकी तुलना 5000 वर्ष पूर्व नंद महाराज ने जो पहली गोवर्धन पूजा संपन्न की थी उस समय जैसे पकवान खिलाए थे और गिरिराज गोवर्धन कह रहे थे अन्योर अन्योर और ले आओ और ले आओ, उस समय जैसे ही अन्न के पहाड़ या खीर के तालाब भरे थे और केवल कृष्ण बलराम की उपस्थिति में नन्द महाराज और बृज वासियों ने जब पहला अन्नकूट या गोवर्धन परिक्रमा महोत्सव संपन्न किया था। इसी तरह ही माधवेंद्र पुरी के अन्नकूट महोत्सव की तुलना , उसके साथ की जाती है। माधवेंद्र पुरी की महिमा का व्याख्यान या बखान इस प्रकार और कौन कर सकता है? माधवेंद्र पुरी जैसे माधवेंद्र पुरी ही थे। अद्वितीय, यूनिक ,मैचलेस ,और फिर संस्थापक आचार्य गौड़िय वैष्णव संप्रदाय के फाउंडर आचार्य, प्रथम आदि संस्थापक आचार्य हैं माधवेन्द्रपुरी। श्रीनिवास आचार्य का भी आज आविर्भाव दिवस है, यह गोपाल भट्ट गोस्वामी के शिष्य थे और यह श्री षडगोस्वामीअष्टक जो है कृष्णोत्कीर्तन-गान-नर्तन-परौ प्रेमामृताम्भोनिधी श्रीराऽधीरजन-प्रियौ प्रियकरौ निर्मत्सरौ पूजितौ। श्रीचैतन्यकृपाभरौ भुवि भुवो भारावहन्तारकौ वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥1॥ अनुवाद - मैं, श्रीरूप, सनातन, रघुनाथभट्ट, नघुनाथदास, श्रीजीव एवं गोपालभट्ट नामक इन छः गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ कि, जो श्रीकृष्ण के नाम-रूप’गुण-लीलाओं के कीर्तन, गायन एवं नृत्यपरायण थे, प्रेमामृत के समुद्रस्वरूप थे, विद्वान एवं सर्वसाधारण जनमात्र के प्रिय थे तथा सभी के प्रियकार्यों को करने वाले थे, मात्सर्यरहित एवं सर्वलोक पूजित थे, श्रीचैतन्यदेव की अतिशय कृपा से युक्त थे और भूतल पर भक्ति का विस्तार करके भूमि का भार उतारनेवाले थे। नानाशास्त्र-विचारणैक-निपुणौ सद्धर्म-संस्थापकौ लोकांना हितकारिणौ त्रिभुवने मान्यौ शरण्याकरौ।राधाकृष्ण-पदारविन्द-भजनान्देन मत्तालिकौ वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ।।२।। अनुवाद - मैं. श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ कि, जो अनेक शास्त्रों के गुढतात्पर्य विचार करने में परमनिपुण थे, भक्तिरूप-परमधर्म के संस्थापक थे, जनमात्र के परमहितैषी थे, तीनों लोकों में माननीय थे, शरणागतवत्सल थे, एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविन्द के भजनरूप आनन्द से मत्तमधुप के समान थे। श्रीगौराङ्ग-गुणानुवर्णन-विधौ श्रद्धा-समृद्धयान्वितौ पापोत्ताप-निकृन्तनौ तनुभृतां गोविन्द-गानामृतैः आनन्दाम्बुधि-वर्धनैक-निपुणौ कैवल्य-निस्तारको वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ।।३।। अनुवाद - मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छ: गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ कि, जो श्रीगौरांगदेव के गुणानुवाद की विधि में श्रद्धारूप-सम्पत्ति से युक्त थे, श्रीकृष्ण के गुणगानरूप-अमृत की वृष्टि के द्वारा प्राणीमात्र के पाप-ताप को दूर करनेवाले थे, तथा आनन्दरूप-समुद्र को बढाने में परमकुशल थे, भक्ति का रहस्य समझा कर, मुक्ति की भी मुक्ति करनेवाले थे। त्यक्त्वा-तूर्णमशेष-मण्डलपति-श्रेणी सदा तुच्छवत् भूत्वा दीन-गणेशकौ करुणया कौपीन-कन्थाश्रितौ गोपीभाव-रसामृताब्धि-लहरी-कल्लोल-मग्नौ मुहु वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ।।४।। अनुवाद - मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छ: गोस्वामियों की बारंबार वन्दना करता हूँ कि, जो समस्त मण्डलों के आधिपत्य की श्रेणी को, लोकोत्तर वैराग्य से शीघ्र ही तुच्छ की तरह सदा के लिये छोडकर, कृपापूर्वक अतिशय दीन होकर, कौपीन एवं कंथा (गदडी) को धारण करनेवाले थे, तथा गोपीभावरूप रसामृतसागर की तरंगों में आनन्दपूर्वक निमग्न रहते थे। कूजत्-कोकिल-हंस-सारस-गणाकीर्णे मयूराकुले नानारत्न-निबद्ध-मूल-विटप-श्रीयुक्त-वृन्दावने । राधाकृष्णमहर्निशं प्रभजतौ जीवार्थदौ यो मुदा वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ।।५।। अनुवाद - मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छ: गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ कि, जो कलरव करनेवाले कोकिल-हंस-सारस आदि पक्षिओं की श्रेणी से व्याप्त, एवं मयूरों के केकारव से आकुल, तथा अनेक प्रकार के रत्नों से निबद्ध मूलवाले वृक्षों के द्वारा शोभायमान श्रीवृन्दावन में रातदिन श्रीराधाकृष्ण का भजन करते रहते थे, तथा जीवमात्र के लिये हर्षपूर्वक परमपुरुषार्थ देनेवाले थे। संख्यापूर्वक-नामगाननतिभिः कालावसानीकृतौ निद्राहार-विहारकादि-विजितौ चात्यन्त-दीनौ च यौ राधाकृष्ण-गुणस्मृतेर्मधुरिमानन्देन सम्मोहितौ वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालको ।।६।। अनुवाद - मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामीयों की वन्दना करता हूँ कि, जो अपने समय को संख्यापूर्वक नाम-जप, नाम संकीर्तन, एवं संख्यापूर्वक प्रणाम आदि के द्वारा व्यतीत करते थे; जिन्होंने निद्रा-आहार-विहार आदिपर विजय पा ली थी, एवं जो अपने को अत्यन्त दीन मानते थे, तथा श्रीराधाकृष्ण के गुणों की स्मृति से प्राप्त माधुर्यमय आनन्द के द्वारा विमुग्ध रहते थे। राधाकुण्ड-तटे कलिन्द-तनया-तीरे च वंशीवटे प्रेमोन्माद-वशादशेष-दशया ग्रस्तौ प्रमत्तौ सदा। गायन्तौ च कदा हरेर्गुणवरं भावाभिभूतौ मुदा वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ।।७।। अनुवाद - मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छ: गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ कि जो प्रेमोन्माद के वशीभूत होकर, विरह की समस्त दशाओं के द्वारा ग्रस्त होकर प्रमादी की भाँति, कभी राधाकुण्ड के तटपर, एवं कभी वंशीवटपर सदैव घूमते रहते थे. और कभी-कभी श्रीहरि के गुणश्रेष्ठों को हर्षपूर्वक गाते हुए भावविभोर रहते थे। हे राधे ! व्रजदेविके ! च ललिते ! हे नन्दसूनो, ! कुत: श्रीगोवर्धन-कल्पपादप-तले कालिन्दिवन्ये कुतः । घोषन्ताविति सर्वतो व्रजपुरे खेदैर्महाविह्वलौ वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ।।८।। अनुवाद - मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छ: गोस्वामियों की वन्दना करता हूँ कि, जो 'हे व्रजकी पूजनीय देवी ! राधिके ! आप कहाँ हो? हे ललिते ! आप कहा हो? हे व्रजराजकुमार ! आप कहाँ हो ? श्रीगोवर्धन के कल्पवृक्षों के नीचे बैठे हो, अथवा कालिन्दी के कमनीय कूलपर विराजमान वनसमूह में भ्रमण कर रहे हो क्या ?' इस प्रकार पुकारते हुए विरहजनित पीडाओं से महान विह्वल होकर, व्रजमण्डल में चारों ओर भ्रमण करते रहते थे।। यह रचना श्रीनिवास आचार्य की है। चैतन्य महाप्रभु की पहली टीम तो षड गोस्वामी गण ही थे और फिर जो अगली पीढ़ी रही यह सेकंड जनरेशन आचार्य षड गोस्वामी वह ६ थे, बाद में तीन और हो जाते हैं उनको आचार्य "त्रय" कहते हैं तीन आचार्य "श्यामानंद ,नरोत्तम और श्रीनिवास" वैसे यह सभी एक समय ,एक साथ ब्रज में ही थे. वे तीनों ही पूर्व भारत से थे। वे बंगाल, मणिपुर, उड़ीसा क्षेत्र के थे किंतु एक समय यह "त्रय" आचार्य वृंदावन में थे और यह तीनों ही तीन अन्य गोस्वामी से शिक्षित, दीक्षित थे। जैसे श्रीनिवासाचार्य गोपाल भट्ट गोस्वामी के शिष्य थे और नरोत्तम लोकनाथ गोस्वामी के शिष्य थे श्यामानंद ह्रदय चैतन्य के शिष्य थे। जीव गोस्वामी ने इनको यह पदवी दी है कि तुम हो गए श्यामानंद ,पंडित! और नरोत्तम दास, ठाकुर! इस तरह एक को पंडित की पदवी दी दूसरे को ठाकुर की पदवी दी और श्रीनिवास आचार्य तुम होगे आचार्य! उनको यह आचार्य पदवी दी। पदवी देने वाले जीव गोस्वामी थे और फिर इन तीनों को बंगाल में प्रचार करने के लिए भेजा ।प्रचार कैसे करेंगे ? बुक्स आर द बेसिस ग्रंथ ही आधार हैं। उस समय गौड़िय ग्रंथों की लिपि या पांडुलिपि बहुत बड़ा भंडार था। इनको दो कार्टस में भर दिया और इन तीनों ने , श्यामानंद पंडित नरोत्तम दास ठाकुर और श्रीनिवासाचार्य बंगाल की ओर प्रस्थान किया और रास्ते में बिहार बंगाल में, विष्णुपुर नाम का स्थान जब आया , तब रात्रि के समय वहां पर पड़ाव हुआ। उसी रात्रि को बड़ी दुर्देव की घटना घटी , क्या हुआ ? सारे ग्रंथों की चोरी हुई। जो ग्रंथ इन तीनों के लिए या सभी गौड़ीय वैष्णव के लिए प्राणों से प्रिय थे उन शास्त्रों के ग्रंथों के रूप में वांग्मय मूर्ति भगवान ही थे। ऐसी संपत्ति की चोरी हुई। फिर क्या कहना, अगले दिन जब चोरी का पता चला वह सभी अत्यंत व्याकुल हुए और खोज प्रारंभ हुई, लेकिन श्रीनिवास आचार्य ने कहा कि मैं इन ग्रंथों को जरूर ढूंढ निकलूंगा। नरोत्तम दास और श्यामानंद तुम आगे बढ़ो , और फिर श्यामानंद उड़ीसा गए और नरोत्तम दास बंगाल । अब श्रीनिवासाचार्य ग्रंथो को खोज रहे थे, खोजते खोजते पता चला कि वहां का राजा ही डाकू की तरह था या चोर था। उसे स्वयं चोरी करने की आवश्यकता नहीं थी। वह अपने दलों को भेजता था चोरी करने या डाका डालने के लिए वीरहमवीर उस राजा का नाम था। श्रीनिवासाचार्य खोजते खोजते पता लगाते लगाते राज महल में राजा के पास पहुंचे और श्रीनिवासाचार्य के सानिध्य में, इस राजा ने स्वीकार किया कि हां मैं ही चोर हूं मैंने ही चोरी करवाई मुझे माफ कीजिए क्षमा कीजिए उनके चरण पकड़ रहा था. आप ने चोरी की ? कहां है ग्रन्थ दिखाओ तो सही, और राजा ने व्यवस्था की , ग्रंथों को लेकर आओ। फिर जैसे ही ग्रंथों को वहां लाया गया श्रीनिवासाचार्य साष्टांग दंडवत प्रणाम कर रहे हैं। ग्रंथों को छू रहे हैं और व्याकुल हो रहे हैं क्रंदन कर रहे हैं उन ग्रंथों के दर्शन और स्पर्श से और श्रीनिवास आचार्य के हाथ , ग्रंथों का स्पर्श कर रहे हैं। तो राजा वीरहमवीर ने श्रीनिवास आचार्य के चरणों को पकड़ा वो क्षमा याचना मांग रहे हैं। आप देख रहे हो ग्रंथों का खजाना है यह , यह भगवान की संपत्ति है, भगवान ही है। ग्रंथों की आराधना होती है, श्रीनिवास आचार्य ग्रंथ लेकर बंगाल पहुंचते हैं। श्रीनिवासाचार्य से कई सारे वैष्णव आके मिलते हैं। जहां-तहां इस तरह उनके चरित्र का वर्णन आता है कि वह कैसे कहां कहां गए। शांतिपुर गए ,श्रीखंड गए, या सर्वत्र जाते हैं, जगन्नाथपुरी जाते हैं वहां और भक्तों से भी मिलते हैं। कुछ विशेष मुलाकातें भक्तों के साथ, उसका भी वर्णन हम देखते हैं । हरि हरि ! परमेश्वरी ठाकुर आज उनका भी तिरोभाव तिथि महोत्सव है। गौण गणोदेश दीपिका के अनुसार वह एक ग्वाल बाल मित्र थे अर्जुन नाम के , कृष्ण लीला में वे अर्जुन थे। अब परमेश्वरी ठाकुर के रूप में श्रीचैतन्य महाप्रभु की लीला में , उन्होंने योगदान दिया और वैसे यह परमेश्वरी दास ठाकुर नित्यानंद प्रभु के परिकर हैं। ठीक है अब मै यहीं विराम देता हूँ। हरे कृष्ण , गौर प्रेमानंदे , हरि बोल !

English

Russian