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*जप चर्चा,* *28 मई 2021,* *पंढरपुर धाम.* हरे कृष्ण, 837 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। *गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!* और अधिक जागो ऐसा नहीं कि सोए थे लेकिन और अधिक जागो। *भज गौरांग कहां गौरांग लह गौरांगेर नाम रे* *जेई जन गौरांग बोलिते सेई आमार प्राण रे।* क्या कहा इस गीत में पूरा गीत तो नहीं समझाने वाला हूं। *भज गौरांग कह गौरांग लह गौरांगेर नाम रे* यह तो समझते हो आप, भज गौरांग कह गौरांग लह गौरांगेर कहो ले लो गौरांग का नाम ले लो। गौरांग! गौरांग! गौरांग! वैसे हरे कृष्णा₹ हरे कृष्ण नाम कहेंगे तो वह भी लह गौरांंगेर नाम होगा, क्योंकि हरे कृष्ण मतलब राधा कृष्ण श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु मतलब राधाकृष्ण नाही अन्य कहां तो हरे कृष्ण मतलब हुआ गौरांग का नाम। लह गौरांंगेर नाम हुआ। भज गौरांग कह गौरांग लह गौरांगेर नाम रे बांग्ला भाषा है यहां। यह तो कोई कठिन काम नहीं है। हिंदी भाषो, मराठी भाषी, गुजराती पंजाबी यह सब जान सकते हैं क्योंकि सभी भाषा का तो उगम तो संस्कृत से ही है। संस्कृत भाषा से बांग्ला भाषा उत्पन्न हुई है। *भज गौरांग कह गौरांग लह गौरांगेर नाम रे* और फिर आगे का पार्ट बहुत अच्छा है। समझने लायक है। इसको संस्कृत में कहूंगा तो शिक्षाष्टकम तक मुडने वाले हैं। *जेई जन गौरांग भजे* इसमें भाषांतर की आवश्यकता है? जेई जन गौरांग भजे जेई जो जन लोग गौरांग भजे गौरांग को भजते है तो फिर वह लोग लोग नहीं कहलाते हैं। भक्त कहलाते हैं। गौर भक्त वृंद की जय! *सेई आमार प्राण रे* वही लोग जो गौरांग को भजते हैं, अआमार प्राण रे हमारे प्राण है। राधा कृष्ण प्राण मोर जुगल किशोर या गौरांग ही प्राण नहीं है। गौर भक्त वृंद जेई जन गौरांग भजे वह भक्त वृंद मेरे प्राण है। मुझे प्राण प्रिय है। यही शिक्षा है गौड़ीय संप्रदाय की। जब इस तक पहुंचते हैं हम फिर हम मध्यम अधिकारी फिर उत्तम अधिकारी बनते हैं। कनिष्ठ अधिकारी नहीं रहते। जो केवल गौरांग को भजता है, जिनके केवल राधा कृष्ण ही प्राण है। किंतु भक्त प्राण नहीं है। भक्तों की सेवा नहीं करता, भक्तों से प्रेम नहीं है, साधु संग जो नहीं करता या संतों की तो सेवा नहीं करता, उल्टे अपराध करता है। निंदा भी करता है ऐसा व्यक्ति या साधक यह कनिष्ठ श्रेणी का है। वह कनिष्ठ अधिकारी है। हमको कनिष्ठ अधिकारी नहीं रहना है। कम से कम शुरुआत करो मध्यम अधिकारी बनो। फिर वहां से आगे बढ़ो और भी जीव जागो करो। *उत्तिष्ठित जाग्रत* उठो जागो यह वेदवानी है। वराण विबोधकः यह मनुष्य जन्म जो वरदान है, प्राप्त हुआ है, विबोध इसको समझो। हरि हरि मैं यहीं पर रुकता हूं। अगला शिक्षाष्टक है छठवां शिक्षाष्टक। जानते हो, हां आपको याद है? (गुरुमहाराज कॉन्फ्रेंस में एक भक्तों को संबोधित करते हुए) अच्छा है और जो नहीं जानते वह भी जान लो। इस शिक्षाष्टक को याद करो ।कंठस्थ करो। हृदयंगम करो। *नयनं गलदश्रुधारया वदनं गदगदरुद्धया गिरा।* *पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे* *भविष्यति॥६॥* *अनुवाद: हे प्रभु ! आपका नाम कीर्तन करते हुए* *कब मेरे नेत्रों से अश्रुओं की धारा बहेगी,* *कब आपका नामोच्चारण मात्र से ही मेरा कंठ* *गद्गद होकर अवरुद्ध हो जायेगा और मेरा शरीर* *रोमांचित हो उठेगा ॥६॥* हरि हरि और भी ऊंची बात कही श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने। रामानंद और स्वरूप दामोदर को उनके विचारों का मंथन हो रहा है। चैतन्य महाप्रभु के विचारों का मंथन। अधिकाधिक उच्च विचार, सादा जीवन उच्च विचार व्यक्त कर रहे हैं श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु यह शिक्षाष्टक का जो विचार है, ऊंचा है। आनंदाम्बुध्दीवर्धनम कृष्णभावना तो विकसित होते होते या उसकी कोई सीमा ही नहीं। कृष्णभावना की गहराई सीमा नहीं है। ऊंचाई भी है और इसकी कोई सीमा नहीं है कृष्णभावना की। उसी में गोते लगाए जा रहे हैं। इस शिक्षाष्टकम आस्वादन श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु कर रहे हैं। एक बात तो गौर करने की यह है, अब तक शिक्षाष्टक हुए शिक्षाष्टक हुए वह साधना भक्ति के अंतर्गत हैं। साधना भक्ति का उल्लेख वहा हुआ है। और यहां छठवां और सातवां जो शिक्षाष्टक है इसमें भाव भक्ति है। और आठवां अष्टक प्रेम का प्रतीक है। समझ गए की भक्ति कैसे प्रेम से विकसित होती है। या साधक साधना करते हैं और फिर धीरे-धीरे साधन सिद्ध होने लगती हैं। साधना करते करते भाव उदित होने लगते हैं और उसको भाव भक्ति भी कहा है। और इस शिक्षाष्टक में भाव उदित हो रहा है। भाव अधिक गाढ और विकसित होता है तो, पहुंचाता है इस आठवें अष्टक तक। जो प्रेम का प्रतीक है। चैतन्य महाप्रभु *नयनं गलदश्रुधारया* वैसे इसमें प्रश्न भी है, *कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति* ऐसा कब होगा प्रभु आपका नाम नामस्मरण, यह जप, यह नाम संकीर्तन करते करते ऐसी स्थिति कब होगी? कैसी स्थिति जो इस शिक्षाष्टकम में उसका वर्णन हुआ है। नयनं गलदश्रुधारया मेरे आंखों से अश्रुधाराये कब बहने लगेगी। मैं नाम ले रहा हूं या नामस्मरण हो रहा है। *नयनं गलदश्रुधारया* आंखों से अश्रुधाराये कब बहेगी यह पहला विचार है या प्रश्न है यहां भगवान से प्रश्न पूछा जा रहा है। *वदनं गदगदरुद्धया गिरा* यहां वैसे भक्ति के लक्षण है। किसी व्यक्ति को भक्ति प्राप्त हुई है या उसके भक्ति किस स्तर पर है उसके अलग-अलग लक्षण है। कोई साधना कर रहे हैं साधना भक्ति उनके अलग लक्षण है। या भाव भक्ति उसके अलग लक्षण है। ऐसे अलग भक्तों के लक्षण है। यह लक्षण है भाव भक्ति वालों के। *वदनं गदगदरुद्धया गिरा* मेरा गला कब अवरुद्ध होगा, गदगद होगा? *शिवशुक नारद प्रेमे गदगद* हम लोग संध्या आरती के गीत में अंत में गाते हैं। *शिव-शुक नारद प्रेमे गद्‌गद्* शिव, शुक, नारद आरती में पहुंचे हैं। शिव पहुंचे हैं, नारद पहुंचे हैं, शुकदेव गोस्वामी पहुंचे हैं। वे भी आरती की शोभा देख रहे हैं। वह भी गा रहे हैं। लेकिन गाते समय क्या हो रहा है? *प्रेमे गदगद* उनका प्रेम के कारण गला गदगद हो उठा है, अवरुद्ध हो रहा है। तो ऐसे कब होगा? *पुलकैर्निचितं वपुः* मेरा शरीर कब पुलकित होगा या कंपन कब होगा? या जैसे *प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन* आंखों से आंसू कब बहेंगे? *रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो* यह भी हम गुर्वाष्टक में गाते हैं। गुरु का अष्टक। *संसार दावानल लीढ लोक* वह अष्टक उसको गुर्वाष्टक कहते हैं। तो कब होगा मेरे रोमांच या कंपन। *तव नाम-ग्रहणे भविष्यति* ऐसे लक्षण कब प्रकट होंगे, उदित होंगे, प्रदर्शित होंगे। मैंं इसका प्रदर्शन नहीं करना चाहूंगा। दुनिया को दिखाने के लिए ऐसेेे लक्षण मुझ में आए ऐसा तो है ही नहीं। फिर वह ढोंगी हुआ या पाखंडी हुआ। जो सच्चा हो झूूठा फेक नहीं हो। कल हम सुन रहेेेे थे माताजी से...। नकली प्रदर्शन नहीं होना चाहिए। ऐसे लक्षण कब मुझ में प्रकट होंगे या प्रदर्शित होंगे। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जब इस पर व्याख्या सुनाई गंभीरा में वे सुना रहेे हैं। चैतन्य महाप्रभु नेेे आगे कहा यह छठवां शिक्षाष्टक कहां, फिर कहां *प्रेम धन बीना व्यर्थ दारिद्र जीवन* , *दास करि वेतन मोरे देहो प्रेम धन*। हरि हरि। बड़ी़ अद्भुत बात महाप्रभु ने यहा कही है। क्योंकि वे अभी अभी वैसेे कह चुके थे पांचवे शिक्षाष्टक में *अयि नन्दतनुज किङ्करं* मैं आपका किङ्करं आपका दास हूं। इस दास को स्वीकार कीजिए, दास की सेवा को स्वीकार कीजिए। मैं आपकी निरंतर सेवा करना चाहता हूं, सेवा को स्वीकार कीजिए। तो यहां इस शिक्षाष्टक की भाषा में वे यहां कह रहे हैं *दास करि वेतन मोरे देहो प्रेम धन* मुझे आपका दास समझ कर, मैं आपका दास तो हूं ही मैं आपकी सेवा कर रहा हूं, तो फिर दास को या सर्वेंट को वेतन मिलना चाहिए ना? मराठी में पगार कहते हैं। तो सैलरी पर हक होता है ना महीने के अंत में, सप्ताह के अंत में, दिन के अंत में। वह बॉस दास को कुछ धनराशि या वेतन देता है। तो मुझे भी दीजिए मुझे भी वेतन दीजिए मिलना चाहिए वेतन। लेकिन चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं किस रूप में आप मुझे वेतन दीजिए प्रेमधन। *वेतन मोरे देहो प्रेम धन* मुझे प्रेम धन दीजिए। पैसा, रुपैया, डॉलर या कोई भी करंसी यह मुझे नहीं चाहिए। मुझे प्रेम के रूप में वेतन या धन दीजिए। प्रेम धन दीजिए यह मेरी अपेक्षा है, महत्वाकांक्षा है प्रेम धन दीजिए। *प्रेम धन बीना व्यर्थ दारिद्र जीवन* और हम समझ सकते हैं यह दरिद्र दरिद्र की बहुत चर्चा चलती रहती हैं। हां बिल्कुल दरिद्रता सर्वव्यापी है। कुछ लोग अमीर है, कुछ गरीब है। लेकिन दरिद्रता की व्याख्या कहो परिभाषा भिन्न प्रकार से चैतन्य महाप्रभु उसकी परिभाषा किए हैं या सुना रहे हैं। कौन है दरिद्र? जिसको प्रेम धन नहीं मिला है या जिसके पास प्रेम धन नहीं है वह दरिद्र है। उसकी चेतना या भावना की दरिद्रता। तो तथाकथित अमीर से अमीर, करोड़पति, अरबपति भी वैसे इस परिभाषा के अनुसार गरीब है. गरीब बिचारे टाटा या बिरला या अंबानी जो भी है गरीब है। तो गरीबी हटाओ। गरीबी हटानी है तो पहले गरीबी को समझो। जिसको भी प्रेम धन प्राप्त नहीं है वह गरीब है। तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं प्रेम धन के बिना मैं गरीब हूं, मैं दरिद्र हूं। और ऐसे दरिद्र का जीवन व्यर्थ है। खाली फोकट, व्यर्थ, अर्थहीन व्यर्थ है यह जीवन। अगर कृष्ण प्रेम प्राप्त नहीं हुआ, प्रेम धन की पूंजी नहीं है जिसके पास या प्रेम धन का फिक्स्ड डिपॉजिट नहीं है वह बेचारा गरीब है। और उसका जीवन व्यर्थ है। *दास कहें वेतन मोरे देह प्रेम धन* साधन भक्ति से या साधना भक्ति से प्रगति करते करते आप यहां भाव तक..। ऐसे भाव यहां उनके अंतर करण में उदित हो रहे हैं। *रसान्तरावेशे ह - इल वियोग - स्फुरण ।* *उद्वेग , विषाद , दैन्ये करे प्रलपन ।। 38 ।।* अनुवाद - कृष्ण के वियोग के कारण महाप्रभु में उद्वेग ,विषाद तथा दैन्य नामक विविध रसों का उदय हो आया । इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु उन्मत्त की तरह बोलने लगे । तो विलाप कर रहे हैं। आगे कमेंट है इस शिक्षाष्टक के ऊपर यह रसांतर या रस का आवेग हो रहा है। रस का आंदोलन हो रहा है, लहरें तरंगे उठ रही है एक दूसरे से टकरा रही है। *रसान्तरावेशे ह - इल वियोग - स्फुरण* योग वियोग, कृष्ण को याद कर रहे हैं तो वह वियोग हैं। योगायोग मिलन और फिर बिछड़ जाना इस प्रकार के विचार और उद्वेग यहा लिखा है। उद्वेग, कभी खेद उत्पन्न होता है फिर विषाद दैन्य निराशा उत्पन्न होती हैं। लेकिन यह सारे जो विचार है या भाव है, यह भाव भक्ति चल रही है। साधन भक्ति, भाव भक्ति, प्रेम भक्ति यह सब भाव है। और यह सब दिव्य भाव है, अलौकिक भाव है। इस संसार का बाजार भाव नहीं है और क्या भाव चल रहा हैं। यह भौतिकता तो यहां शुन्य हैं। यह केवल दिव्यता दिव्य उद्वेग है और वह भी दिव्य है। खेद है वह भी दिव्य है। विषाद या निराशा है वह भी दिव्य है। अलौकिक है। और फिर दैन्य करे फुलापन और फिर उसी के साथ उनकी दीनता दैन्यता, नम्रता, विनम्रता बढ़ रही है। और उन विचारों में कुछ प्रलाप हो रहा है। कुछ बोल रहे है उस दीनता की दशा में। नम्रता विनम्रता के भाव में बोल रहे हैं। जैसे शराबी शराब की नशा में बोलते रहता है। हरि हरि, इसी के साथ इसके आगे का अष्टक चैतन्य महाप्रभु सातवां अष्टक सुनाएंगे। कल सुनाएंगे। सुनते हैं। सुनाते हैं। तब तक के लिए मैं भी अपनी वाणी को विराम देता हूं। और फिर पद्मामाली है या और कोई बोल सकते हैं। धन्यवाद, हरे कृष्ण।

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