Hindi

मैं अंग्रेजी भाषा में बोलूंगा क्योंकि इस अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रेंस में यह अंतर्राष्ट्रीय भाषा हैं। हमारी भाषा हरे कृष्ण हरे कृष्ण हैं ,जो आत्मा की भाषा हैं जिसे प्रत्येक व्यक्ति समझता हैं। हमरे साथ पुनः जप करने के लिए आपका अंत्यंत आभार। अतः हमारे पास चर्चा करने के लिए कई विषय हैं।
खाइते सोइते यथा तथा नाम लय (चैतन्त चरितामृत २०.१८)
खाते समय , सोते समय हर कहीं हरी नाम लीजिए ' खाइते सोइते यथा तथा नाम लय। ' आप जिस किसी भी स्थिति में हैं हरिनाम लेना चाहिए। आप में से कुछ भक्त ऐसा कर भी रहे हैं। खाते समय नहीं परन्तु सोते समय , ' खाइते सोइते यथा तथा नाम लय। ' यह एक प्रकार से प्रोत्साहन देने वाला वाक्य हैं परन्तु हमें इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि यह ' यथा तथा ' न हो। हमें सर्वोत्त्तम सम्भव तरीके से जप करना चाहिए। आपको पुरे ध्यानपूर्वक सीधे बैठकर जप करना चाहिए, जिसके विषय में हमने कल चर्चा की थी । सीधे बैठना अत्यंत आवश्यक हैं जिसे हमें करना चाहिए। भक्ति के अन्य कई अंगों में से यह भी अत्यंत आवश्यक हैं जिसे हमें गम्भीरता से लेना चाहिए जिससे हम ध्यानपूर्वक जप कर सकें जिसका परिणाम भगवान का स्मरण होता हैं।
श्रवणम कीर्तनम विष्णु-स्मरणम
यह हमारा लक्ष्य हैं - भगवान का स्मरण। निस्संदेह आपको यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आप प्रत्येक दिन जप कर रहे हैं। आज का दिन मायापुर में अत्यंत व्यस्तता का दिन हैं परन्तु फिर भी सबसे महत्वपूर्ण कार्य हैं - जप करना। जिसे हम बिना रुके करते हैं। हमारे आप पास बहुत सारे कार्यकलाप चलते रहते हैं परन्तु हमें जप करने के लिए , जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं ,प्रत्येक दिन अलग से समय निकालना चाहिए। `
आप में से कुछ भक्तों ने यह प्रतिज्ञा ली हैं कि हम प्रत्येक दिन १६ माला का जप करेंगे तथा आपको कुछ आध्यात्मिक नाम भी प्रदान किया गया हैं। अन्यथा भगवान कृष्ण अदृश्य रहते हैं तथा हम उन्हें देखने में समर्थ नहीं हो सकते। श्री कृष्ण नामादी न भवेत ग्रह्यं इन्द्रिये (चैतन्य चरितामृत , मध्य लीला १७.१३६) । हमारी इन्द्रियाँ भी बिना धार वाले चाकू या उस्तरे के समान बन चुकी हैं। यदि इसकी धार तेज़ नहीं हैं तो हम चाकू से सब्ज़ियाँ या फल नहीं काट सकते हैं, परन्तु इसके विपरित यदि इसकी धार तेज़ हैं तो हम मक्खन के समान फलों तथा सब्ज़ियों को काट सकते हैं। हम भी इसी प्रकार अशुद्ध , आवृत्त , तथा भोंथरी इन्द्रियों से बने हुए हैं। वास्तव में हम कौन हैं ? हम आत्मा हैं परन्तु यह आत्मा अभी ढ़ँकी हुई हैं। अतः हमें प्रेरित करने के लिए एक श्लोक हैं - सेवोन्मुखे ही जिव्हादौ स्वयंमेव स्फुरत्यद (चैतन्य चरितामृत , मध्य लीला १७.१३६)। आप आध्यात्मिक सेवा जिव्हा से प्रारम्भ करते हैं। इस प्रकार जब आप अपनी आध्यात्मिक सेवा जिव्हा से प्रारम्भ करते हैं तो उसका अंतिम परिणाम स्वयंमेव स्फुरत्यद होता हैं। भगवान स्वयं को आपके समक्ष प्रकट करते हैं। प्रभुपाद कहते हैं , " जप करते समय जिव्हा अवश्य ही उपयोग में आनी चाहिए, जिव्हा द्वारा कम्पन्न होना अत्यन्त आवश्यक हैं। "
मुकुन्द माधव यादव हरी बलेन बोलो वदन भरी।
आपका जप या कीर्तन बलपूर्वक (बलेन) होना चाहिए। जैसा कि मैं कल बता रहा था - गहरी सांस लेकर जप कीजिए। तब आप इस प्रकार प्रयत्न करते हैं जो अत्यन्त आवश्यक हैं। बलेन बोलो वदन भरी , इस प्रकार जब हम इसका अनुशरण करते हैं तो जिव्हा कम्पन्न करती हैं तथा इसके साथ ही साथ अन्य भी कई बातें होने लगती हैं। हम जब भी जप करते हैं या ध्यानपूर्वक जप करने का प्रयास करते हैं तो इस बात का अवश्य ही ध्यान रखना चाहिए कि हम श्रवण करें। यह सर्वाधिक कठिन कार्य हैं। जप करने का अर्थ यह नहीं हैं कि हम श्रवण भी कर रहे हैं। हम जप करते हैं परन्तु उसका श्रवण नहीं करते हैं। हम कीर्तनम तो करते हैं परन्तु उसमें श्रवणम नहीं होता हैं। इस प्रकार का जप हमें स्मरणम तक नहीं लेकर जाता हैं। जब हम श्रवण करने का प्रयास करते हैं तो अन्य कई कार्यों के साथ ' चेतो दर्पण मार्जनम ' भी होता हैं। चैतन्य महाप्रभु ने इसका वर्णन किया हैं। इससे हमारी चेतना की शुद्धि होती हैं तथा इस प्रकार हम अपने आत्मा की चेतना के विषय में जागरूक होते हैं। हमें आत्मा के प्रति जागरूक होना चाहिए।
यहाँ परमात्मा भी हैं अतः इस जप के माध्यम से हम आत्मा को परमात्मा से जोड़ते हैं। यही भक्ति - योग हैं। जब चेतो दर्पण मार्जनम होता हैं तब हमारी बिना धार वाली इन्द्रियों की धार तीव्र होती हैं।
आत्मेन्द्रिय प्रीति वांछा तार बोले काम , कृष्णेन्द्रिय प्रीति वांछा धरे प्रेम नाम (चैतन्य चरितामृत , आदि लीला ४.१६५)
जब हमारी इन्द्रियाँ स्वयं की सन्तुष्टि में लगती हैं तो उसे काम कहा जाता हैं , भुक्ति काम , मुक्ति काम इस प्रकार काम या इच्छाओं के कई रूप हैं, परन्तु कृष्णेन्द्रिय प्रीति वांछा धरे प्रेम नाम। इस प्रकार जब हमारी इन्द्रियाँ भगवान कृष्ण की सेवा में लगती हैं तो उसे प्रेम कहा जाता हैं। कृष्ण के लिए प्रेम। हम कृष्ण से प्रेम करते हैं तथा कृष्ण हमसे प्रेम करते हैं। इस प्रकार आत्मा तथा परमात्मा के मध्य आदान - प्रदान होता हैं। " हृषिकेन हृषिकेश सेवनम भक्तिर उच्यते " अर्थात भक्ति का अर्थ हैं हमारी इन्द्रियों द्वारा परम भगवान की सेवा करना, जो सभी इन्द्रियों के स्वामी हैं। जब एक जीवात्मा भगवान की सेवा में लगती हैं तो इसके दो परिणाम होते हैं। पहला सभी प्रकार की भौतिक उपाधियों से मुक्ति तथा दूसरा मात्र परम भगवान की सेवा में लगने से हमारी इन्द्रियों की शुद्धि होती हैं। यही भक्ति हैं। जब हमारी इन्द्रियां भगवान की सेवा में लगती हैं तब हमें वास्तविक तथा चिरस्थायी आनन्द की प्राप्ती होती हैं। इस प्रकार हम शुद्ध इन्द्रियों से संतुष्ट होते हैं जिससे हम आनन्दित होते हैं। 'आनन्दम बुद्धि वर्धनम प्रति पदम् पूर्णामृत स्वादनम सर्वात्व स्नपनं ' होता हैं। आपकी आत्मा हरिनाम में स्नान करती हैं तथा इस अमृत के सागर में गोते लगाती हैं, या हम ऐसा कह सकते हैं कि इससे आत्मा का अभिषेक होता हैं। अभिषेक के लिए भी वे शहद तथा अमृतमयी रसदार फलों का रस उपयोग में लेते हैं। यही इसका वास्तविक अर्थ हैं।
सर्वात्व स्नपनं परम विजयते श्री कृष्ण संकीर्तनम (शिक्षाष्टकम श्लोक १)
इस हरिनाम के जप और कीर्तन द्वारा हमारी आत्मा इस अमृत रुपी सागर में गोते लगाती हैं।
मैं कुछ दिन पहले श्रील प्रभुपाद का एक प्रवचन सुन रहा था। उन्होंने उसमे ऐसा कुछ कहा जो अत्यन्त आसानी से समझा जा सकता हैं। उन्होंने कहा कि आपके पास हाथ तथा इन्द्रियां हैं जिससे आप स्पर्श कर सकते हैं। यह अनुभूति हमारे सम्पूर्ण शरीर में होती हैं। यह अनुभूति मुलायम या सख्त हो सकती हैं, किन्तु यह होती सभी के शरीर में हैं। परन्तु यदि आप हाथ के दस्ताने पहनकर , जिस प्रकार रसोइये करते हैं , किसी गर्म वस्तु को भी स्पर्श करे तो आपको उस स्पर्श का आभास नहीं होता हैं, क्योंकि आपके हाथ दास्तानों से ढंके हुए हैं। इस स्थिति में वे यह अनुभव नहीं कर सकते हैं। उस समय आपको स्पर्श का आभास भी नहीं होता हैं। उसी प्रकार हमारी सभी इन्द्रियाँ माया के आवरण द्वारा ढँकी हुई हैं अतः हम कृष्ण के दर्शन नहीं कर सकते हैं। हम उस आध्यात्मिक स्पर्श , आध्यात्मिक सुंगन्ध का आभास भी नहीं कर सकते हैं। भगवान का शरीर सुंगन्ध से बना हुआ हैं परन्तु हम उसे सूंघ नहीं सकते हैं।
हम वास्तव में भगवान के अर्चा -विग्रह के दर्शन भी नहीं कर पाते हैं। हम उन्हें धातु या पत्त्थर से बनी हुई मूर्ति ही समझते हैं। हम भगवान को जैसे हैं उस रूप में नहीं देख सकते हैं इसी प्रकार हमारी इन्द्रियाँ भी उन्हें नहीं समझ सकती हैं। हम उन्हें सुन भी सकते , क्योंकि हमारी श्रवणेन्द्रियाँ भी ढ़ँकी हुई हैं। अतः हमारी सारी क्रियायें भौतिक जगत के धरातल पर ही संपन्न होती हैं।
सेवोन्मुखे ही जिव्हादौ - आदौ अर्थात प्रारम्भ। जिव्हा से सेवा का प्रारम्भ होता हैं, जब हम जप करते हैं :
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
तब हमारी वास्तविक आध्यात्मिक इन्द्रियाँ आविष्कृत तथा चेतन होती हैं। आत्मा एक व्यक्तित्व हैं , इसकी आँखें तथा कान भी होते हैं, इसके साथ ही साथ आत्मा के हाथ तथा पाँव भी होते हैं। हमारी सभी आध्यात्मिक इन्द्रियाँ चेतन होती हैं :
जीव जागो जीव जागो गौराचाँद बोले।
कोता निद्रा जाओ माया पिशाचिर कोले।।(भक्तिविनोद ठाकुर द्वारा लिखा हुआ एक भजन )
यह एक उत्तम भजन हैं। जब आप उठते हैं। यह आप कौन हैं ? आपकी आत्मा जागती हैं। इस भजन में शरीर के उठने की बात नहीं हुई हैं। शरीर तब भी अन्धकार में सोया रहता हैं। इसीलिए कहा जाता हैं - तमसो मा ज्योतिर्गमय (बृहद आरण्यक उपनिषद )। आप जगे हुए होते हैं देख नहीं पाते हैं। हम उस अन्धे व्यक्ति समान हैं जिसे कुछ दिखाई नहीं देता हैं। अतः हमें रौशनी में जाने की आवश्यकता हैं , वह रोशनी जो भगवान श्री कृष्ण से आती हैं। अतः यह वास्तविक जीवन हैं , वास्तविक जीवन शैली। योगः कर्मषु कौशलम (भगवद गीता २.५०) , यही वास्तव में जीवन की कला हैं। इस समय जब हम जीवित हैं तब भी हम मृत व्यक्ति के समान ही हैं। हमें जागने या जीवित होने के लिए जिस प्रक्रिया की आवश्यकता हैं वह हैं - श्रवणम , कीर्तनम , विष्णु - स्मरणम। महामन्त्र का जप करना ही हमारा वास्तविक जीवन हैं, जो सनातन जीवन हैं तथा हम सभी की प्रतीक्षा कर रहा हैं। भगवान कृष्ण तथा चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त दया करके हमारे हित के लिए प्रकट हुए।
गोलोकं च परित्यज्यं, लोकानाम त्राण कारणात। कलौ गौरांग रूपेण , लीला लावण्य विग्रह: ।।
कलियुग में मैं गोलोक का परित्याग करके , इस जगत के जीवों के कल्याण हेतु अत्यन्त सुन्दर तथा चंचल भगवान गौरांग के रूप में अवतरित होऊंगा। (मार्कण्डेय पुराण ) वे भगवान यहाँ मायापुर में प्रकट हुए। आप शारीरक रूप से मायापुर में नहीं हैं परन्तु इस कांफ्रेंस के माध्यम से आप भी मायापुर से जुड़े हुए हैं। आप मुझे देख रहे हैं तथा मैं अभी मायापुर में हूँ , यही से आपको कॉल कर रहा हूँ तथा मायापुर से ही बात कर रहा हूँ। चैतन्य महाप्रभु आपको बुला रहे हैं। चैतन्य महाप्रभु आप सभी का स्मरण कर रहे हैं। वे आप सभी को याद कर रहे हैं।
कृपया यहाँ अपने घर आने की योजना बनाइये। हम इस चर्चा को यहीं समाप्त करेंगे , क्योंकि महा -अभिषेक कुछ ही समय में शुरू होने वाला हैं। और अधिक दर्शन के लिए हमारे साथ बने रहिये।
हरे कृष्ण ........

English

I will speak in English, which is the international language for this international conference. Our language is Hare Krishna Hare Krishna! That is the language of the soul which everyone understands. Thank you for chanting with us again and again. So many things to talk about.
khaite suite yatha tatha nama laya ( CC Antya 20.18)
While eating , while sleeping yatha-tatha nama laya. In whatever way make sure you are chanting. Some of you are also doing it. Not khaite , but suite - khāite śuite yathā tathā nāma laya. That's an encouraging statement somehow, but we should be making sure that it is not yatha tatha. We should try to chant in the best possible manner. Chant with full attention, sitting straight as we had been talking yesterday. Sitting properly is one of the things that we need to do right. It is one of the things out of the many that we need to do right so that chanting becomes attentive which will lead to remembering the Lord.
sravanam kirtanam visnu smaranam
That's the goal - to remember the Lord. Of course make sure you are chanting everyday. Today is quite a busy day here in Mayapur, but the most important business is chanting, That we do not stop. So many things are going on all around, but we have to take time off, spare time for chanting and make sure you are chanting every single day.
Some of you have taken a vow to chant 16 rounds daily and have been given some spiritual name. Otherwise Krsna is not visible and difficult to see. sri krsna namadi na bhavet grayham indriye. ( CC Madhya 17.136) Our senses have become blunt , like a knife or razor. If it's blunt, then it cannot be used for cutting vegetables. But if it's sharp then you can cut it like soft butter. We are equipped with such impure, covered , blunt senses. Who are we? Souls. So the soul is covered. So the encouraging statement is sevonmukhe hi jivadau swayameva sphuratyda. You begin your devotional service with the tongue. Then as you keep practicing devotional service which begins with tongue, then the end result is - swayameva sphuratyda. Lord will reveal unto you. Prabhupad used to say, “ Tongue must be used in chanting and it must vibrate.”
mukund madhav hari balen bolo vadan bhari
Your singing or chanting should be balen (strong). As I was saying yesterday, - ‘ Take a deep breath and chant. Then you are making efforts also prayatna ( effort) is very, very important. Balen bolo vadan bhari. So as we do that, the tongue must vibrate and so many other things must happen. As we chant or make endeavor to chant with attention, make sure we are hearing. It's a very difficult thing to do. Chanting doesn't mean we are hearing. We chant, but don't hear. We do kirtanam, but no sravanam. That kind of chanting will not lead to remembrance. When we make efforts to hear, then that chanting will first do - ceto darpana marjanam ( Siksastakam Verse 1) , out of many other things it does. Caitanya Mahaprabhu explained this. It's the cleansing of the consciousness and with that we will also become conscious of our soul. We should be conscious of the soul. There is a Supreme Soul and the process of chanting is connecting the soul with the Supreme Soul. That is Bhakti-yoga. When ceto darpana marjanam takes place, then our blunt material senses become sharper and sharper.
atmendriya-priti-vascha — tare bali ‘kama’ krsnendriya-priti-iccha dhare ‘prema’ nama ( C.C. Adi 4.165)
The desire to gratify one’s own senses is kama [lust], but the desire to please the senses of Lord Krsna is prema [love].
When our senses are involved for our own satisfaction then that is Kama. Bhukti-kama, Mukti-kama and so many kamas , desires, but krsnendriya priti vanchha dhare prem-nama. So when our senses are engaged in service of Krsna then that is Prema. Prema for Krsna. We love Krsna and Krsna loves us . There is a reciprocation between the soul and the Supreme Soul. Our senses are engaged in the service of the master of the senses:
sarvopadhi-vinirmuktam tat-paratvena nirmalam hrsikena hrsikesa- sevanam bhaktir ucyate (CC Madhya 19.170)
 ‘Bhakti, or devotional service, means engaging all our senses in the service of the Lord, the Supreme Personality of Godhead, the master of all the senses. When the spirit soul renders service unto the Supreme, there are two side effects. One is freed from all material designations, and one’s senses are purified simply by being employed in the service of the Lord.’
That is also of Bhakti. When our senses are engaged in the service of the Lord, then we enjoy real and everlasting happiness. We are gratifying the purified senses and then we enjoy.
anandambudhi-vardanam purnamrtasvadanam
sarvatma-snapanam param vijyate sri-krsna-sankirtanam (Siksastakam 1)
is going on. Your soul is bathing in the holy name , swimming in the nectar. Or there is Abhishek of the soul. For Abhishek also they use honey and nectarine juices.That is the literal meaning.
By sankirtana or chanting of the holy name of the Lord, the soul is swimming in the nectar.
I was listening to lecture by Srila Prabhupada few days ago. He said something which is quite easy to understand. He said that you have a hand and skin and there is touch sensation. That perception is all over the body. This is soft or rough or whatever. But if you put a hand-glove on and then you try to touch even hot things as cooks do, you don't feel it hot, as the gloves are there. They can't perceive. There is no touch sensation. Likewise, our all the senses are covered by matter or Maya, hence we can't perceive Krsna. We cannot experience the spiritual touch, spiritual smells. The Lord's body is fragrant, but we do not smell. We don't really see arcavigraha as the Lord. Oh! This is just metal or stone. We don't see the Lord as he is and likewise for other senses also. We don't hear. Sense of hearing is also covered. So all our activities are at the conditioned or mundane plane.
sevonmukhe hi jivadau. (CC Madhya 17. 136). Adu means the beginning. Beginning with the tongue. We chant
Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare
Then our original spiritual senses will be discovered, and activated. The soul is a person. It has eyes, a nose. The soul has hands, feet, like that. All those spiritual senses will wake up.
jiv jago, jiv jago, gauracanda bole kota nidra jao maya-pisacira kole ( Bhajan by Srila Bhakti Vinod Thakur)
This is a nice song. When are you going to wake up. You! You! Who is this you? Your soul wakes up. Not talked of the body waking up. The body is still sleeping in the darkness. That is why it is said - tamaso ma jyotirgamaya. ( Brhad Aranyaka Upanisad) You are up, but you still don't see. You have become blind. Go to the light. That light is coming from Krsna. So that's a real life, Lifestyle. yogaha karmasu kaushalam . ( BG. 2.50) Art of living. When we are alive, at present we are practically dead now. In order to wake up or become lively, the process is sravanam kirtanam visnuhu smaranam. Chanting of the mahamantra is real life, real eternal life of enjoyment which is awaiting all of us. Krsna has, Caitanya Mahaprabhu has kindly appeared for our sake.
Golokam ca parityajya lokanam trana-karanat kalau gauranga-rupena lila-lavanya-vigrahah
In the Kali-yuga, I will leave Goloka and to save the people of the world, I will become the handsome and playful Lord Gauranga. (Markandeya Purana)
He appeared here is Mayapur. You are not here, but through this conference you are linked with Mayapur. You are seeing me , I am in Mayapur, speaking from Mayapur, calling you from Mayapur. Caitanya Mahaprabhu is calling you. Caitanya Mahaprabhu is remembering you and missing you.
Please plan, make plans to return home. We will stop now. Maha-Abhishek is going to start.
Stay tuned to watch.
Hare Krishna!

Russian

Джапа сессия 01.03.2019 Воспевание раскрывает духовные чувства. Я буду говорить по-английски, который является международным языком для этой международной конференции. Наш язык - Харе Кришна Харе Кришна! Это язык души, который все понимают. Спасибо, что повторяете с нами снова и снова. Есть так много вещей, о которых можно поговорить. khaite suite yatha tatha nama laya kala-desa-niyama nahi, sarva siddhi haya (ЧЧ Антья 20.18) "Независимо от времени и места, тот, кто повторяет святое имя, даже во время еды или сна, достигает всех совершенств". Во время еды, во время сна yatha-tatha nama laya . В любых ситуациях, убедитесь, что вы воспеваете. Некоторые из вас тоже это делают. Не khaite, но suite - khaite suite yatha tatha nama laya. Это обнадеживающее утверждение, но мы должны убедиться, что это не yatha tatha. Мы должны стараться воспевать как можно лучше. Воспевать с полным вниманием, сидя прямо, как мы говорили вчера. Сидеть правильно - это одна из вещей, которую мы должны делать правильно. Это одна из многих вещей, которые нам нужно делать правильно, чтобы воспевание стало внимательным, что приведет к помятованию о Господе. sravanam kirtanam visnu smaranam Это цель - помнить Господа. Важно быть уверенным , что вы повторяете каждый день. Сегодня в Маяпуре довольно напряженный день, но самая важная обязанность – воспевать. Мы не должны останавливаться. Так много всего происходит вокруг, но мы должны сделать перерыв, найти время для воспевания и быть уверенными, что вы повторяете каждый день. Некоторые из вас дали обет, ежедневно повторять 16 кругов, и получили какое-то духовное имя. В противном случае Кришну не видно и трудно увидеть. sri krsna namadi na bhavet grayham indriye (ЧЧ Мадхья 17.136) Наши чувства стали тупыми, как лезвие ножа. Если нож тупой, его нельзя использовать для нарезки овощей. Но если он острый, когда вы режете им, все кажется мягким как масло. Мы оснащены нечистыми, скрытыми, тупыми чувствами. Кто мы? Души. Значит душа покрыта. Таким образом, обнадеживающим утверждением является севонмукхе хи джихвадау свайам эва спхуратй адах. Вы начинаете свое преданное служение с языка. Затем, когда вы продолжаете практиковать преданное служение, которое начинается с языка, конечный результат - свайам эва спхуратй адах. Господь откроется вам. Прабхупада говорил: «Язык должен использоваться для пения, и он должен вибрировать». mukund madhav hari balen bolo vadan bhari Ваше пение или повторение должны быть balen (сильным). Как я уже говорил вчера: "Сделайте глубокий вдох и повторяйте" . Тогда вы прилагаете усилия, и прайатна (усилие) очень, очень важно. Balen bolo vadan bhari. Поэтому, когда мы так повторяем, язык должен вибрировать, и многие другие вещи должны происходить. Когда мы повторяем или стараемся повторять внимательно, нужно убедиться, что мы слышим. Это очень сложно сделать. Воспевание не означает, что мы слышим. Мы воспеваем, но не слышим. Это киртанам, но не шраванам. Такое повторение не приведет к памятованию. Когда мы прилагаем усилия, чтобы слушать , тогда это повторение будет первым--ceto darpana marjanam (стих 1 Шикшаштака) из многих других вещей, которые оно делает. Чайтанья Махапрабху объяснил это. Происходит очищение сознания, благодаря которому, мы также станем осознавать нашу душу. Мы должны осознавать душу. Существует Высшая Душа, и процесс воспевания соединяет душу с Высшей Душой. Это бхакти-йога. Когда происходит ceto darpana marjanam, тогда наши тупые материальные чувства становятся все острее и острее. атмендрийа-прити-ванчха — таре бали ‘кама’ кршнендрийа-прӣти-иччха дхаре ‘према’ нама (ЧЧ. Adi 4.165) Желание удовлетворять собственные чувства именуется камой, вожделением, а желание услаждать чувства Господа Кришны называют премой, или чистой любовью. Когда наши чувства задействованы для нашего собственного удовлетворения, тогда это Кама. бхукти-кама, мукти-кама и многие другие камы, желания, но кршнендрийа-прӣти-иччха дхаре ‘према’ нама. Итак, когда наши чувства заняты служением Кришне, тогда это према. Према для Кришны. Мы любим Кришну, а Кришна любит нас. Существует взаимность между душой и Высшей Душой. Наши чувства заняты служением хозяину чувств: сарвопадхи-винирмуктам тат-паратвена нирмалам хршӣкена хршикеша севанам бхактир учйате (ЧЧ Мадхья 19.170) ‘Бхакти, или преданное служение, означает задействовать все наши чувства в служении Господу, Верховной Личности Бога, повелителю всех чувств. Когда духовная душа оказывает услугу Всевышнему, возникает два побочных эффекта. Человек освобождается ото всех материальных обусловленностей, его чувства очищаются просто благодаря служению Господу ». Это также Бхакти. Когда наши чувства заняты служением Господу, мы наслаждаемся настоящим и вечным счастьем. Мы удовлетворяем очищенные чувства и затем наслаждаемся. anandambudhi-vardanam purnamrtasvadanam sarvatma-snapanam param vijyate sri-krsna-sankirtanam (Шикшаштака 1) продолжается. Ваша душа купается в Святом Имени, плавает в нектаре. Это Абхишека для души. Для Абхишеки также используют медовый и нектариновый соки. Это буквальное значение. Благодаря санкиртане или воспеванию святого имени Господа душа плавает в нектаре. Я слушал лекцию Шрилы Прабхупады несколько дней назад. Он сказал что-то, что довольно легко понять. Он сказал что у тебя есть рука и кожа и есть ощущение прикосновения. Все тело ощущает прикосновение чего-то мягкого или жесткого, неважно. Но если вы надеваете перчатку и затем пытаетесь прикоснуться даже к горячим предметам, как это делают повара, вы не чувствуете что они горячие, потому что есть перчатка. Нет восприятия, нет ощущения прикосновения. Точно так же все наши чувства покрыты материей или майей, поэтому мы не можем постичь Кришну. Мы не можем испытывать духовное прикосновение, духовные запахи. Тело Господа благоухает, но мы не чувствуем запаха. На самом деле мы не видим archavigraha как Господа. Ох! Это просто металл или камень. Мы не видим Господа таким, какой Он есть, и остальными чувствами тоже не ощущаем. Мы не слышим. Чувство слуха также покрыто. Все наши действия находятся на обусловленном или материальном уровне. sevonmukhe hi jivadau. (ЧЧ Мадхья, 17, 136). Аду означает начало. Начинаем с языка. Мы поем Харе Кришна Харе Кришна Кришна Кришна Харе Харе Харе Рама Харе Рама Рама Рама Харе Харе Тогда наши изначальные духовные чувства будут открываться и активироваться. Душа это личность. У неё есть глаза, нос. У души есть руки, ноги, такие как эти. Все эти духовные чувства проснутся. jiv jago, jiv jago, gauracanda bole kota nidra jao maya-pisacira kole (бхаджан Шрилы Бхакти Винода Тхакура) Это хорошая песня. Когда вы собираетесь проснуться. Вы! Вы! Кто это вы? Ваша душа просыпается. Мы не говорим о пробуждении тела. Тело все еще спит в темноте. Вот почему сказано -tamaso ma jyotirgama (Брихад Араньяка Упанишад) Вы встали, но все еще не видите. Вы стали слепым. Идите на свет. Этот свет исходит от Кришны. Вот это настоящая жизнь, Стиль жизни yogaha karmasu kaushalam (BG2.50) Искусство жизни, когда мы живем, сейчас мы практически мертвы. Чтобы проснуться или стать живым, необходимо совершать процесс sravanam kirtanam visnuhu smaranam. Пение махамантры - это настоящая жизнь, настоящая вечная жизнь, полная наслаждения, которая ждет всех нас. Кришна как Чайтанья Махапрабху любезно явился ради нас. Golokam ca parityajya lokanam trana-karanat kalau gauranga-rupena lila-lavanya-vigrahah «В Кали-югу, Я покину Голоку и для того, чтобы спасти людей этого мира, стану прекрасным играющим Господом Гаурангой» (Маркандея Пурана) Он появился здесь, в Майяпуре. Вы не здесь, но благодаря этой конференции вы связаны с Маяпуром. Вы видите меня, я в Маяпуре, говорю из Маяпура, звоню вам из Маяпура. Чайтанья Махапрабху зовет вас. Чайтанья Махапрабху помнит вас и скучает по вам. Пожалуйста планируйте, планируйте вернуться домой. Мы остановимся сейчас. Сейчас должна начаться Маха-Абхишека. Оставайтесь с нами, чтобы посмотреть. Харе Кришна!