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जप चर्चा नोएडा से 11 नवंबर 2021 665 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं, तो कुंती महारानी की प्रार्थनाओं में से एक प्रार्थना या स्मरण करेंगे । इस प्रार्थना का भगवान के दामोदर लीला के साथ संबंध है । कुंती महारानी प्रार्थना तो कर रही थी कृष्ण से वह प्रत्यक्ष रूप में उपस्थित थे परोक्ष में नहीं प्रत्यक्ष । रथ में विराजमान थे द्वारका का प्रस्थान हो रहा था । इतने में कुंती महारानी आई और कुछ विशेष निवेदन प्रार्थना करने लगी और कुंती महारानी तो हस्तिनापुर धाम की निवासी हैं तो वैसे ही भाव है हस्तिनापुर के भक्तों के जो भाव होते हैं या द्वारका के भक्तों के जैसे भाव होते हैं । ऐसे भाव वाली ये कुंती महारानी प्रार्थना कर रही थी । उसको स्मरण आया इस दामोदर लीला का जो लीला श्री कृष्ण गोकुल में खेले थे जब वे बालक थे । अभी तो बड़े हुए हैं द्वारकाधीश बने हैं । तब ऐसी एक बात ये दामोदर लीला की बात जो कुंती महारानी को मोहित कर रही थी । उसको ये लीला समझने में कठिनाई आ रही थी तो जो प्रार्थना पढ़ने जा रहे हैं श्रीमद्भागवत का प्रथम स्कंध आठवां अध्याय श्लोक संख्या 31 है । गोप्याददे त्वयि कृतागसि दाम तावद् या ते दशाश्रुकलिलाञ्जनसम्भ्रमाक्षम् । वक्त्रं निनीय भयभावनया स्थितस्य सा मां विमोहयति भीरपि यद्विभेति ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 1.8.31 ) अनुवाद:- हे कृष्ण , जब आपने कोई अपराध किया था , तब यशोदा ने जैसे ही आपको बाँधने के लिए रस्सी उठाई , तो आपकी व्याकुल आँखें अश्रुओं से डबडबा आईं , जिससे आपकी आँखों का काजल धुल गया । यद्यपि आपसे साक्षात् काल भी भयभीत रहता है , फिर भी आप भयभीत हुए । यह दृश्य मुझे मोहग्रस्त करनेवाला है । छंद और तात्पर्य भी है या तात्पर्य इसीलिए लिखे जाते हैं कि समझने में मदद हो । इस रहस्य का उद्घाटन हो, तो प्रभुपाद इसको बढ़िया से समझा रहे हैं इस श्लोक को तू पहले तो अनुवाद । कुंती महारानी कहा; हे कृष्ण ! आप सुन रहे हो । हां ! ध्यान पूर्वक श्रद्धा पूर्वक सुनना होगा नहीं तो पल्ले नहीं पड़ेगा ये । हे कृष्ण , जब आपने कोई अपराध किया था , तब यशोदा ने जैसे ही आपको बाँधने के लिए रस्सी उठाई , तो आपकी व्याकुल आँखें अश्रुओं से डबडबा आईं , जिससे आपकी आँखों का काजल धुल गया । यद्यपि आपसे साक्षात् काल भी भयभीत रहता है , फिर भी आप भयभीत हुए । यह दृश्य मुझे मोहग्रस्त करनेवाला है । तो कुंती महारानी जो दामोदर अष्टक का द्वितीय अष्टक है, रुदन्तं मुहुर्नेत्रयुग्मं मृजन्तं कराम्भोज - युग्मेन सातंकनेत्रम् । मुहुःश्वास कम्प- त्रिरेखामकण्ठ स्थित ग्रैव - दामोदरं भक्तिबद्धम् ॥ ( श्री दामोदराष्टक 2 ) अनुवाद:- अपनी माता के हाथ में छड़ी देखकर वे रोते हैं और बारम्बार अपने हस्तकमलों से नेत्रों को मसलते हैं । उनकी आँखें दहशत से भरी हैं और तेजी से साँस लेने के कारण तीन रेखाओं से अंकित उनके गले में पड़ी मोतियों की माला हिल रही है । उन परम भगवान् दामोदर को , जिनका उदर अपनी माता के शुद्ध प्रेम से बँधा है , मैं प्रणाम करता हूँ । इस अष्टक के संबंध में दामोदराष्टक । कुंती महारानी अपनी प्रार्थना में बात कही । "रुदन्तं मुहुर्नेत्रयुग्मं मृजन्तं" तो आपकी आंखें डबडबा आईं । "या ते दशाश्रुकलिलाञ्जन" अंजन जो आंखों में अंजन लगाया जाता है काजल । "सम्भ्रमाक्षम्" "वक्त्रं निनीय" और आप झुक गए । यशोदा की आंखों में आंख नहीं मिला पाए आप । नीचे देख रहे थे आप । "भयभावनया स्थितस्य" और भयभीत हुए आप । "सा मां विमो" आपने लीला का प्रदर्शन किया । आपके मन की स्थिति जो हुई । आप जो डरे थे आप, आंसू बहा रहे थे । "विमोहयति" इस बात से मैं सम भ्रमित होती हूं । "भीरपि यद्विभेति" ऐसा आप के कारण या कई सारे डरते हैं आपसे । लेकिन यहां पर आप यशोदा के कारण डरे थे । यहां पर श्रील प्रभुपाद तात्पर्य में लिखते हैं परमेश्वर के लीला से उत्पन्न मोह का एक दूसरा वर्णन दिया जा रहा है । भगवान तो सभी परिस्थितियों मंं सर्वोपरि है । जिससे कि इसकी व्याख्या की जा चुकी है तो प्रभुपाद आगे समझा रहे हैं । यहां पर भगवान सर्वोपरि होने का एक विशिष्ट उदाहरण है और साथ ही साथ वे अपने शुद्ध भक्तों के साथ उनके अधीन रहकर क्रीडा भी कर रहे हैं । "भक्तैर्जितत्वं" दामोदराष्टक में लिखा है "भक्तैर्जितत्वं" भक्त आपको जीत लेते हैं वैसे आप हो अजीत । लेकिन भक्त आपको जीत लेते हैं । भक्त अपना अधिकार जमाते हैं आपके ऊपर । आप भक्तों के अधीन हो जाते हो । भगवान का शुद्ध भक्त अनन्य प्रेम के कारण ही भगवान की सेवा करता है और ऐसी भक्ति में सेवा करते हुए वो परमेश्वर की पद स्थिति को भूल जाता है, तो श्रील प्रभुपाद लिख रहे हैं । वृंदावन के भक्त प्रेममई सेवा करते हैं भगवान की । ये नहीं की द्वारिका के भक्त प्रेममई सेवा नहीं करते तो वैकुंठ के भक्त भगवान की प्रेममई सेवा नहीं करते । लेकिन प्रेम की जो तीव्रता है, प्रेम की जो मात्रा है उस प्रेम की जो तीव्र वृंदावन में है और कहीं पर नहीं है यह कहने का तात्पर्य है, तो सेवा करते हुए वे परमेश्वर की परिस्थिति को भूल जाता है । भगवान सर्वज्ञ है, शक्तिमान है यह हो जो भगवान सबका मालिक ऊपर वाला है ये जो भगवान का वैभव इसको प्रेममई सेवा करने वाले वृंदावन के भक्त भूल जाते हैं ऐसा श्रील प्रभुपाद लिखते हैं । भगवान की भगवता भगवान का वैभव भगवान का स्वामित्व ... भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् । सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ ( भगवद् गीता 5.29 ) अनुवाद:- मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परं भोक्ता , समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से श लाभ करता है । ये जो बात कृष्ण कहते हैं ... मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् । हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥ ( भगवद् गीता 9.10 ) अनुवाद:- हे कुन्तीपुत्र ! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है , जिससे सारे चार तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं । इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है । इन बातों को वृंदावन के भक्त भूल जाते हैं । भगवान भक्तों की प्रेम मई सेवा स्वीकार अधिक चाओ से करते हैं तो और भक्तों की अपेक्षा जो प्रेममई सेवा करते हैं उसको भगवान बड़े उत्कंठा पूर्वक स्वीकार करते हैं या पहले स्वीकार करते हैं । सामान्य रूप से भगवान अपने भक्तों द्वारा आदर की दृष्टि से पूजे जाते हैं, तो भगवान का आदर सत्कार सम्मान होता है । भगवान के संबंध में सोचते हैं । लेकिन भगवान भक्त से तब विशेष प्रसन्न होते हैं, सुनिए ! प्रभुपाद क्या लिख रहे हैं । लेकिन भगवान भक्त से विशेष प्रसन्न होते हैं जब वो शुद्ध प्रेम तथा स्नेह बस भगवान को अपने कम महत्वपूर्ण समझता है । जब भक्त समझता है कि मुझसे ये छोटा है कम उम्र वाला है, ये बल हीन है, ज्यादा भी बुद्धि का विकास नहीं हुआ है इस बालक में, तो ऐसे भगवान के भक्त जो सोचते हैं । भगवान को अपने से कम महत्वपूर्ण समझता है । भक्त जब ऐसा समझता है तो भगवान उस बात से प्रसन्न होते हैं भगवान का कोई पालक बनते हैं । पालक समझते हो ? अभिभावक या देखभाल करने वाला भगवान का कोई देखभाल करने वाला बनता है । मैं इसका लालन-पालन में करती हूं, मैं खिलाती हूं, रोटी कपड़ा मकान यह सब मुझे करना पड़ता है तो यह जो भाग है यह जो सोच है उससे भगवान अधिक प्रसन्न होते हैं । उससे नहीं सुख संपति घर आवे कष्ट मिटे तन का । ऐसे जो मांग करने वाले हैं, उनको तो उससे भगवान प्रसन्न नहीं होते । भगवान के मूल धाम गोलक वृंदावन में भगवान की सारी लीलाओं का आदान प्रदान इसी मनोभाव से होता है तो वृंदावन की खासियत है कहो । वृंदावन में विश्रम्भ सख्य, विश्रम्भ वात्सल्य, विश्रम्भ माधुर्य का प्रदर्शन होता है । विश्रम्भ मतलब; हम एक समकक्ष है । सखा शुद्ध सख्ये करे , स्कन्धे आरोहण । तुमि कोन्बड़ लोक , तुमि आमि सम ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत आदिलीला 4.25 ) अनुवाद:- मेरे मित्र शुद्ध मैत्री के कारण मेरे कन्धों पर यह कहते हुए चढ़ जाते हैं कि , तुम किस तरह के बड़े व्यक्ति हो ? तुम और हम समान हैं । समझे ! ऐसा डांटते हैं भगवान के मित्र । ऐ ! ऐसे ही यशोदा भी वात्सल्य भाव में डांट ती या पीटने के लिए तैयार है । भगवान को पीटेगी, कान पकड़े की छड़ी लेके आई है और उर्दूखुला में, उखल से भगवान "द्धावमानं" दौड़ पड़े हैं नीचे उतरे हैं और दौड़ने लगे । "यशोदाभियो" यशोदा से डरी थे तो दूर भाग रहे हैं । भगवान के माता पिता या शुद्ध भक्त होते हैं । उन्हें केवल भगवान को केवल बालक मानते हैं । भगवान है बालक और हम हैं पालक । जैसा आप भी हो पालक । उसमें से कई पालक हो । ब्रह्मचारी तो पालक नहीं है । लेकिन जो गृहस्थ है आप पालक हो और आपके जो आपत्य है, पुत्र पुत्रियां हैं वो पाल्य है । पाल्य,पालक आपके बच्चे पाल्य और आप हो पालक, तो यशोदा और फिर वृंदावन में केवल यशोदा ही नहीं सारी वयस्क गोपी जो है बुजुर्ग गोपियां सभी का ऐसा ही समझ ऐसा ही भाव है कृष्ण के प्रति । पालक भाव । भगवान अपने माता-पिता की प्रताड़नाओं को वैदिक स्तोत्र द्वारा की गई बढ़कर आनंदमई मानता है । आप समझे ! प्रभुपाद यहां लिख रहे हैं एक और यशोदा डांट रही है डांटते समय कुछ वचन कह रही है तो और दूसरी और वेद पुराण है उसमें कई सारे स्तोत्र, स्तुति है इन दोनों में यशोदा का जो डांटना या फिर पीटना या कुछ क्रोध का बचन कहना यह अधिक प्रिय भगवान को है । स्तुतियों से वेदों में पुराणों में या .. सूत उवाच यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै । वैदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 12.13.1 ) अनुवाद:- सूत गोस्वामी ने कहा ब्रह्मा , वरुण , इन्द्र , रुद्र तथा मरुतगण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों , पद - क्रमों तथा उपनिषदों समेत बाँच कर जिनकी स्तुति करते हैं , सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं । देवता भी स्तुति गान करते हैं तो उन स्तुतियों से यशोदा का जो डांटना है इससे भगवान अधिक प्रसन्न होते हैं । इसी प्रकार अपने प्रेमिकाओं के उलाहनों को वैदिक स्तोत्रों की अपेक्षा अधिक रुचि से सुनते हैं । मतलब गोपियां राधा रानी वो भी कभी रूठ जाती हैं और रूठी हुई राधा रानी जो कुछ कह बैठती है । लंपट हो तुम ऐसे हो तुम वैसे हो । हे ! तुम जाओ मैं तुम्हारा चेहरा नहीं देखना चाहती हूं । तुम जाओ चंद्रावली के पास जाओ तू ये जो बचन है, मानीनी राधा रानी जब मानीनी बन जाती है । वैसे मान भी प्रेम का प्रकार ही है या प्रेम से ऊपर जिसको हम प्रेम प्रेम कहते हैं उससे ऊपर है स्नेह और उससे ऊपर है ये राधा रानी का रूठ जाना । मान करके बैठना । राधा कृष्ण प्रणय - विकृतिर्ह्रादिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह - भेदं गतौ तौ । चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं राधा भाव द्युति सुवलितं नौमि कृष्ण - स्वरूपम् ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत आदिलीला 1.5 ) अनुवाद:- श्री राधा तथा कृष्ण की माधुर्य लीलाएँ भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि राधा तथा कृष्ण अभिन्न हैं , किन्तु उन्होंने अपने आपको अनादि काल से पृथक् कर रखा है । अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में मिलकर एक हो गये हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ , जो साक्षात् कृष्ण होते हुए भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति के साथ प्रकट हुए हैं । प्रणय भी प्रेम का एक प्रकार है । मान भी प्रेम का एक प्रकार है तो ये राधा रानी जो मान करके जो बैठती है और उस समय जो कहती है यह रूठी हुई राधा कुछ क्रोध के वचन तो वे बच्चन कृष्ण को अधिक पसंद है । जब भगवान श्री कृष्ण का धरा धाम में मूल गोलक वृंदावन के दिव्य जगत की लीलाओं को जनसामान्य के आकर्षण के लिए प्रकट करने के निमित्त उपस्थित थे तो वे अपनी पालक माता यशोदा के समक्ष विलक्ष विनीत भाव प्रकट करते रहे तो कृष्ण विनीत ... तृणादपि सु - नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान - देन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्यलीला 20.21 ) अनुवाद:- जो अपने आपको घास से भी तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है , वह सदैव भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यन्त सुगमता से कर सकता है । तो कृष्ण की नम्रता कृष्ण नम्र बन जाते हैं । विनीत भाव प्रकट करते हैं यशोदा के समक्ष । हाथ जोड़ते हैं उनके पैर छूते हैं और ऐसा कान पकड़ के नहीं नहीं ! दोबारा ऐसा नहीं होगा । माफ कर दो छोड़ दो मैया ऐसा दोबारा नहीं करूंगा मैं प्रतिज्ञा करता हूं और फिर कृष्ण नम्र बन जाते हैं तो फिर, उतना कोई नम्र बन सकता है जब कृष्ण ही नम्र बनेंगे । फिर उस नम्रता की तुलना कोई सीमा ही नहीं या भगवान जब मित्र बनते हैं तो वो मैत्री है या भगवान पति बन जाते हैं द्वारका में । तो इस तरह से कृष्ण सबसे आदर्श पति कहो या मित्र कहो या प्रेमी प्रियकर कहो प्रेयोंसी के लिए । इस प्रकार जब भगवान फिर क्रोध करते हैं तो फिर नरसिंह भगवान के रूप में ऐसा क्रोध और कोई नहीं कर सकता । यह जो भाव है अलग-अलग तो विनय का जो भाव है नम्रता है तो भगवान जब नम्र बनके दिखाते हैं लीला खेलते हैं तो उतना नम्र कोई नहीं बन सकता जितना श्रीकृष्ण यशोदा के समक्ष नम्र बनते हैं या फिर नंद बाबा कहते हैं; ऐ ! जूता लेके आओ तो कृष्ण कोई प्रश्न नहीं करते । तो कृष्ण, क्या ! मुझे जूता लाने के लिए कह रहे हो । जानते नहीं हो मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हूं । ऐसा नहीं कहते वो सचमुच, ये तो बात है तो भगवान आदर्श बच्चे तो फिर नटखट भी हो जाते हैं तो, है कोई संसार में ऐसा । नटखट बालक कृष्ण के जैसे । आप भी तो नटखट होगी ही या थे ही । मैं भी नटखट था या हर बालक में नटखट पन आती ही है । लेकिन इसका स्रोत क्या है ? कृष्ण नटखट है या फिर चोर है तो कृष्ण चोर बन जाते हैं । चोरों में अग्रगण्य बन जाते हैं । कोई चोर कृष्ण के साथ बराबरी नहीं कर सकता और हर क्षेत्र में कृष्ण अग्रगण्य है, चूड़ामणि है, शिरोमणि है वे सबसे श्रेष्ठ हैं या नम्रता की विलक्षण विनीत भाव प्रकट करते हैं । वे अपने बालोचित क्रीडाओं से यशोदा माता द्वारा एकत्र करके रखे गए माखन की मटकी तोड़ कर उसका सारा माखन बर्बाद कर देते थे और उससे मित्रों और संगीओं में यहां तक कि वृंदावन के प्रसिद्ध बंदरों में भी बांट दिया करते थे और वे सब भगवान की इस दान सिलता का लाभ उठाते थे तो फिर भगवान दानी बन रहे हैं । माखन तो अपना ही नहीं, चोरी का माल है । खुद बांट रहे हैं और वह फिर बंदरों को बांट रहे हैं । हो गए फ्री प्रसिद्ध दानवीर हो गए भगवान और उनकी जो दान सिलता का बंदर भी लाभ उठा रहे हैं प्रभुपाद लिखे हैं । जब यशोदा ये देखती है तो वह शुद्ध प्रेम बस यह दिव्य वालक को अपने दंड का दिखावा दंड का दिखावा करती है । यशोदा का जो दंड दिखाना है ये भी तो प्रेम ही है । प्रेम का प्रदर्शन ही है शुद्ध प्रेम वस ये सब दिखावा है ये लीला है । वे रस्सी लेकर धमकाती की वे उन्हें बांध देगी । इस प्रकार ये सामान्य घरों में किया जाता है । सामान्य घरों में आपके सभी घरों में कभी-कभी आप बच्चों को बांध देते हो या कोई कमरे में बंद कर देते हो । यह सब कभी बांध देते हाथ । ऐसा होता है कि नहीं ? हर घर में होता है । घरोघर मातीच्या चुली इसे कहते थे मराठी में कहावत । घर में होता है चुला । अब तो चुला नहीं रहा ग्यास आ गया । लेकिन ये कहावत हुआ करती थी हर घर-घर में चुला होता ही है तो ये जो यशोदा के घर में जो घटनाएं घटती थी और अपने बालक कृष्ण को जैसे डांटती है, पटती है, डराती है कभी बांध देती है दामोदर रस्सी से बांध देती है ये सब, सब घरों में चलता रहता है । हां या नहीं ? ये सब कैसे फैल गया हर घर घर कैसे फैल गए ? कृष्ण के कारण । कृष्ण है सर्वो कारण कारणं । माता यशोदा के हाथ में रस्सी देखकर भगवान अपना सिर नीचे करके सामान्य बालक की भांति रो पड़ते और उनके अश्रुओं से उनके सुंदर आंखों में लगा काजल धुलकर कपूलो पर धुला पड़ता । ये सब दामोदर अष्टक में कहा है, लिखा है । इसको आप सब गा रहे हो । उसी को यहां कुंती महारानी के इस प्रार्थना के संबंध में श्रील प्रभुपाद तात्पर्य में वही बातें लिख रहे हैं । कुंती देवी ने भगवान के इस रूप की पूजा की, तो कुंती की जो प्रार्थना है कुंती महारानी की प्रार्थना श्रीमद् भागवत के प्रथम स्कंध के आठवें अध्याय में तो कई प्रार्थना है विस्तृत प्रार्थना है । मायाजवनिकाच्छन्नमज्ञाधोक्षजमव्ययम् । न न लक्ष्यसे मूढदृशा नटो नाट्यधरो यथा ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 1.8.19 ) अनुवाद:- सीमित इन्द्रिय ज्ञान से परे होने के कारण आप मोहिनी शक्ति ( माया ) के पर्दे से ढके रहने वाले शाश्वत अव्यय - तत्त्व हैं । आप अल्पज्ञानी दर्शक के लिए ठीक उसी प्रकार अदृश्य रहते हैं , जिस प्रकार अभिनेता के वेश में कलाकार पहचान में नहीं आता । ऐसा भी कई प्रार्थना के अंतर्गत । ये बालक क्या करता है कृष्ण ? ऐसा आप भी करते होगे कुंती महारानी के सामने ही तो कृष्ण है । इतना कुछ परोक्ष में नहीं है । कृष्ण और कहीं है या होंगे सर्वत्र होते ही हैं इसलिए प्रार्थना कर रही है । ऐसी बात नहीं है । कृष्ण समक्ष थे उनको देखती हुई प्रार्थना कर रही है । कृष्ण रथ में बैठे हैं और इतने में सामने से आ गई कुंती महारानी । ये हस्तिनापुर का दृश्य है और प्रार्थना करने लगी । उस प्रार्थना के अंतर्गत उन्होंने यह भाग कहा कि "नटो नाट्यधरो यथा" आप वैसे नट अलग अलग नाटकों में नाटक अलग अलग है लेकिन नट तो एक ही है । एक ही कलाकार अलग-अलग भूमिका निभाता है अलग-अलग नाटकों में । ड्रामा में चलचित्र में तो आप भी तो वही हो । "केशब धृत राम शरीर जय जगदीश हरे" केशब धृत नरहरि रूप" इसी तरह से 10 अवतार के संबंध में कहा ही है और सारे अवतार तो कृष्ण है अवतारी और सारे अवतार । अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूप पुराणपुरुष माद्यं नवयौवनञ्च ।दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ वेदेषु गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ( श्री ब्रह्म संहिता 5.33 ) अनुवाद:- जो अद्वैत , अच्युत , अनादि , अनन्तरूप , आद्य , पुराण - पुरुष होकर भी सदैव नवयौवन सम्पन्न सुन्दर पुरुष हैं , जो वेदोंके भी अगम्य हैं , परन्तु शुद्धप्रेमरूप आत्म - भक्तिके द्वारा सुलभ हैं , ऐसे आदिपुरुष गोविन्दका मैं भजन करता हूँ । तो अनंत रूपों में आप अलग-अलग भूमिका ये निभाते हो । "नटो नाट्यधरो यथा" जैसे कलाकार एक ही कलाकार अलग अलग भूमिका निभाता है । उसकी वेशभूषा अलग होती है नाम अलग होता है सारी परिस्थितियां अलग होती है तो श्रील प्रभुपाद आगे लिखते हैं जिन से साक्षात भय भी भयभीत रहता है । जिन से मतलब कृष्ण से भय भी भयभीत रहता है । मद्भयाद्वाति वातोऽयं सूर्यस्तपति मद्भयात् । वर्षतीन्द्रो दहत्यग्निर्मृत्युश्चरति मद्भयात् ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 3.25.42 ) अनुवाद:- यह मेरी श्रेष्ठता है कि मेरे ही भय से हवा बहती है , मेरे ही भय से सूर्य चमकता है । और मेघों का राजा इन्द्र मेरे ही भय से वर्षा करता है । मेरे ही भय से अग्नि जलती है और मेरे ही भय से मृत्यु इतनी जानें लेती है । भगवान कहे हैं मेरे भय से "वाताः, वाति" न्यू देवता है हवा का चलायमान हवा को मुझसे डर के करता है । अरे देवता सारे देवता भयभीत है भय के कारण नहीं तो नौकरी से हाथ धो सकते हैं । को निकाला जाएगा या उनको तनखा नहीं मिलेगा । ऐसा भय होता है । इसलिए सारे देवता भगवान की सेवा करते रहते हैं । राक्षस तो डरे होते ही हैं लेकिन देवताओं में भी थोड़ी भय होता हैं । भगवान महान है हम तो लहान छोटे हैं तो बड़ों से भयभीत होते हैं तो साक्षात भय भी भयभीत रहता है । वे भगवान अपनी माता से भयभीत हैं । जिनसे सारी दुनिया डरती है उसी को यशोदा डराती है, देख लो कमाल हो गई । क्योंकि माता उन्हें सामान्य तरीके से दंडित करना चाह रही थी । कुंती को भगवान की श्रेष्ठ स्थिति पता था । "कुंती को भगवान की श्रेष्ठ स्थिति" भगवान महान है, भगवान सर्वज्ञ है, अभीज्ञ है, स्वराट है, स्वतंत्र है । कैसी पहचान थी या ऐसे भगवान को जानती थी कि भगवान श्रेष्ठ है महान है । यशोदा को भगवान उनके शिशु रूप में प्राप्त हुए थे और भगवान ने उन्हें भुलवा दिया था कि उनका बालक साक्षात भगवान है यशोदा को बुलवा दिए भगवान या भगवान की जय योगमाया शक्ति है वो भुला देती है । भगवान की जो भगवता है भगवता को भुला देती है और भगवान को साधारण बालक या साधारण मित्र या साधारण प्रियकर वृंदावन के भक्त मानते हैं । माता यशोदा को भगवान उनके शिशु रूप में प्राप्त हुए थे और भगवान ने उन्हें बुलवा दिया कि उनका बालक साक्षात भगवान है जो भगवान जब शिशु रूप में प्राप्त हुए हैं अपने पुत्र के रूप में तो जोगमाया ने भुला दिया यशोदा को यह कोई भगवान है अवतारी है । यदि यशोदा को भगवान की दिव्य स्थिति का पता होता तो वे भगवान को अवश्य दंडित करते हुए हिचकती । सोचती बार-बार शायद सोचती एक बार तो सोच ही लेती इसको में अब बांधने जा रही हूं पीटने जा रही हूं और ये भगवान हे तो, लेकिन ऐसी समझ ही नहीं ये कोई भगवान है । लेकिन उन्हें ये स्थिति बुलवा दी गई । लेकिन भगवान ममतामई यशोदा के समक्ष पूर्ण वाल्यचापल्य का भाव प्रदर्शित करना चाहते थे, तो जब तक भगवान कि भगवता को यशोदा भूले ही नहीं तब तक यशोदा वाल्यचापल्य का प्रदर्शन नहीं कर पाते कृष्ण । कृष्ण ने पहले भुला दिया यशोदा को और फिर ये चल रहा है नटखट कन्हैया के नटखट लीलाएं । माता तथा पुत्र के बीच प्रेम का यह आदान-प्रदान सहज रूप में संपन्न हुआ और कुंती इस दृश्य को यथा स्मरण करके मोहित थी । क्योंकि बाल लीला जब यह संपन्न हुई तब वे सोच ही रही थी । तब से वो समभ्रमित थी कि ये कैसे हुआ ? यहां यशोदा डांट रही है, डोरी से बांध रही है और कृष्णा रो रहे हैं अश्रु बहा रहे हैं तो ये गुह्य बात या थोड़ी चुगने वाली बात अब बोल के सुना रही है कृष्ण को कह रही है । आपकी वो जो लीला गोकुल में आप खेले थे वो कुछ समझने में नहीं आती । मैं मोहित हूं समभ्रमित होती । सारा संसार आप से डरता है और ऐसे आप डर जाते हो यशोदा से यह कुछ समझ में नहीं आती, कृपया समझाएं । क्योंकि वे दिव्य पुत्र प्रेम की सराहना के अतिरिक्त कर ही क्या सकती थी । तात्पर्य के अंत में श्रील प्रभुपाद अब लिखते हैं परोक्ष रूप में यशोदा की प्रशंसा उनके प्रेम की दिव्य स्थिति के लिए की जा रही है । यशोदा की प्रशंसा तो हम लोग यशोदा का भी यशोगान गाते हैं । यशोदा मैया की जय ! क्योंकि उन्होंने अपने प्रेम का प्रदर्शन किया प्रेम की दिव्य स्थिति । यशोदा के प्रेम की दिव्य स्थिति को जानकर हम यशोदा का यशोगान गाते हैं । क्योंकि वे सर्वशक्ति भगवान को भी अपने प्रिय पुत्र के रूप में बस कर सकती थी, तो भगवान को भी अपने बस में करके रखा था । तावात्मासनमारोप्य बाहुभ्यां परिरभ्य च । यशोदा च महाभागा सुतौ विजहतु: शुच: ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 10.82.35 ) अनुवाद:- अपने दोनों पुत्रों को अपनी गोद में उठाकर और अपनी बाहुओं में भर कर , नन्द तथा सन्त स्वभाव वाली माता यशोदा अपना शोक भूल गये । इसीलिए यशोदा बड़ी भाग्यवान है, ये विशेष है । इसीलिए जसोदा मैया की जय ! और हम तो दोनों का भी कृष्ण कन्हैया और उनकी मैया यशोदा दोनों का हम स्मरण करते हैं । दोनों का गौरव गाथा गाते हैं, तो दामोदर लीला में या दामोदर की कीर्ति है और विशेष कीर्ति का उल्लेख यशोदा का है । हम जब दीपदान करते हैं तो केवल दामोदर का नहीं, यशोदा का भी । यशोदा दामोदर का दीपदान होता है । दोनों का गौरव गाथा का हम स्मरण करते हैं और फिर कीर्तन भी करते हैं । यह सब ये कुंती महारानी के प्रार्थना में भी यशोदा की कीर्ति का गान हुआ है और सुना रही है कृष्ण को सुना रही है यशोदा का भी कीर्ति का गान और बाल लीला के कीर्ति का गान । जय यशोदा दामोदर की जय ! कुंती महारानी की जय ! कृष्ण कन्हैया लाल की जय ! गोकुल धाम की जय ! दामोदर मास की जय ! श्रील प्रभुपाद की जय ! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल ! ॥ हरे कृष्ण ॥

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