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*जप चर्चा* *पंढरपुर धाम से* *दिनांक 27 नवम्बर 2021* हरे कृष्ण!!! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 855 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। हरि! हरि! आप प्रसन्न हो? चेंट हरे कृष्ण एंड बी हैप्पी (जप करो और प्रसन्न रहो) कहते ही हैं... तपोदिव्यम, तुम भी प्रसन्न हो। आप सभी के चेहरे पर हास्य झलक रहा है। हरि! हरि! इस हास्य और आनंद के कारण भगवान ही हैं। भगवान कृष्ण का एक नाम आनंद हैं। नंद के घर आनंद भयो अर्थात नंद के घर में आनंद हुआ। आनंद हुआ मतलब आनंद देने वाले नंदनंदन कृष्ण हुए। नंदभवन में आनंद या कृष्ण हुए, यह एक ही बात है क्योंकि आनंद ही कृष्ण है। कृष्ण से आनंद अलग नहीं किया जा सकता। जहां जहां जो कोई आनंद का अनुभव करता है, वह कृष्ण के कारण ही होता है। हम यहां पर सुख की बात नहीं कर रहे हैं, सुख अधिकतर भौतिक होता है। जिसने सुख भोगा, उसे दुख भोगना ही पड़ता है लेकिन आनंद भोगने से आनंद और बढ़ता है। आनंद घटता या मिटता नहीं, यह अंतर है। यह संसार सुख दुख का मेला है। कभी सुख तो कभी दुख लेकिन आनंद, सुख और दुख के परे है। गुणातीत है। हरि! हरि! 'चेंट हरे कृष्ण एंड बी हैप्पी' अर्थात जप करो और खुश रहो, हम सुनते तो हैं लेकिन आप स्वयं इसका अनुभव कर सकते हो, तो यह अच्छा है,मधुर/ मीठा है। जैसे शहद मीठा होता है। शहद मीठा है, यह हम सुनते तो जाएंगे किंतु जब हम शहद का आस्वादन कर लेंगे, तभी पता चलेगा, यह मीठा है। जैसे कोई शहद की बोतल है, यदि उसका ढक्कन खोल कर हम चम्मच से खाएंगे तब ही कहेंगे- हां, यह सच है। 'हमने सुना तो था और इस लेबल पर भी लिखा तो है कि यह शहद/ मधु बहुत बहुत मीठा है लेकिन केवल वह पढ़ना तो एक प्रकार की जानकारी हो गयी। लेकिन उसका (अनुभव) एक्सपीरियंस तभी हो सकता है जब हम सचमुच उस मधु को ग्रहण करेंगे। श्रील प्रभुपाद ने तो कहा ही है और कहते गए- 'चेंट हरे कृष्ण एंड बी हैप्पी' *चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥1॥* (श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.१२) अनुवाद:- श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है। जप , कीर्तन, भक्ति करने से आनंद वर्धित होता है। अच्छा होगा कि हम अगर स्वयं इस बात को अनुभव करें। आप कहोगे या नही कि जप (चैटिंग) से आनंद प्राप्त होता है? यह पढ़ने-सुनने की बात नहीं रही। कृष्ण भगवतगीता में कहते हैं- *राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् |प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ||* ( श्रीमद भगवतगीता ९.२) अनुवाद:- यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा है, जो समस्त रहस्यों में सर्वाधिक गोपनीय है | यह परम शुद्ध है और चूँकि यह आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति कराने वाला है, अतः यह धर्म का सिद्धान्त है | यह अविनाशी है और अत्यन्त सुखपूर्वक सम्पन्न किया जाता है | यह अनुभव का विषय है। इसी को अनुभव या साक्षात्कार अथवा रिलाइजेशन कहते हैं। जो बातें कही गयी है या हरि नाम के संबंध में भी,बैटर टू बी रिलाइज अर्थात हम स्वयं ही इस बात को समझें। हरि! हरि! आनंद हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। आनंद ही आनंद है। यह जीवन केवल आनंदमय है। *परम करुणा, पहुँ दुइजन, निताई गौरचन्द्र। सब अवतार, सार-शिरोमणि, केवल आनन्द-कन्द॥1॥* *भज भज भाई, चैतन्य-निताई, सुदृढ़ विश्वास करि’। विषय छाड़िया, से रसे मजिया, मुखे बोलो हरि-हरि॥2॥* *देख ओरे भाई, त्रिभुवने नाइ, एमन दयाल दाता। पशु पक्षी झुरे, पाषाण विदरे, शुनि’ यार गुणगाथा॥3॥* *संसारे मजिया, रहिले पड़िया, से पदे नहिल आश। आपन करम, भुञ्जाय शमन, कहये लोचनदास॥4॥* अर्थ (1) श्री गौरचंद्र तथा श्री नित्यानंद प्रभु दोनों ही परम दयालु हैं। ये समस्त अवतारों के शिरोमणि एवं आनंद के भंडार हैं। (2) तुम श्री चैतन्य महाप्रभु और नित्यानंद प्रभु का दृढ़ विश्वासपूर्वक भजन करो। विषयों को त्यागकर इन दोनों के प्रेमरस में डूबकर मुख से हरि-हरि बोलते रहो। (3) देखो भाई! इस त्रिभुवन में इतना दयालु अन्य कोई नहीं है। इनका गुणगान सुनकर पशु-पक्षियों का हृदय भी द्रवित हो जाता हे तथा पाषाण भी विदीर्ण हो जाता है। (4) मैं तो संसारिक विषयों में ही रमा पड़ा रहा और श्रीगौरनित्यानंद के चरणकमलों के प्रति मेरी रूचि नहीं जागी। लोचनदास कहते है कि अपने दुष्कर्मों के कारण ही यम के दूत मुझे इस दुःख का भोग करा रहे हैं। लोचन दास ठाकुर कहते हैं- देखो रे भाई त्रिभुवने नाइ, देखो, देखो भाइयों बहनों! भक्तों! सारे त्रिभुवन में एमन दयाल दाता। गौरांग जैसा ऐसा दयालु दाता नहीं है। ढूंढ के भी नहीं मिलेगा। जब है ही नहीं कैसे मिलेगा। एमन दयाल दाता हरि! हरि! यह केवल आनंदकंद है।गौरांग, आनंद से ही बने हुए हैं। उनको सच्चिदानंद कहते भी हैं। सच्चिदानंद विग्रह! हरि! हरि! पशु पक्षी झुरे, पाषाण विदरे, शुनि’ यार गुणगाथा॥ ऐसा भी कहा है-पशु पाखी झुरे, पाखी मतलब पक्षी। यह बंगला भाषा में है। जिनके पंख होते हैं, उनको पक्षी कहते हैं। पशु पाखी झुरे अर्थात पशु पक्षी, शुनि’ यार गुणगाथा झुरने लगते हैं, तल्लीन हो जाते हैं। महाप्रभु की गुण गाथा से पशु पाखी झूरते हैं और पाषाण भी पिघल जाता है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी के पास अलारनाथ में दंडवत प्रणाम कर रहे थे। जगन्नाथ का दर्शन बन्द है। (आप जानते हो। आपको कई बार बताया गया है, जब स्नान यात्रा होती है तब मंदिर बन्द रहता है।तब चैतन्य महाप्रभु अलारनाथ जाते थे।ऐसी विधि है, केवल चैतन्य महाप्रभु ही नहीं, जो भी जगन्नाथ का दर्शन करना चाहते थे। वे अलारनाथ जाते थे। )अब जगन्नाथ, अलारनाथ में दर्शन दे रहे हैं। जब चैतन्य महाप्रभु साक्षात दण्डवत प्रणाम कर रहे थे, तब वहां जो शिला अथवा पत्थर था, उस शिला का स्पर्श श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के अंग सङ्ग से अर्थात सचिदानन्द विग्रह से हुआ और वह शिला पिघल गयी। पत्थर पिघल गया, आप कहोगे क्या कोई उदाहरण है? पशु पाखी झूरे, पाषाण विदरे.. पाषाण पिघलता है तो .. चैतन्य महाप्रभु ने अलारनाथ में जब साक्षात दण्डवत प्रणाम कर रहे थे तब उन्हें एक पाषाण के ऊपर यह लीला करके दिखाई। जब वे प्रणाम करके उठे तत्पश्चात उनके स्पर्श से वहां चिन्ह बन गया अर्थात वह शिला चिन्हांकित हुई। वह शिला आज भी है। हरि! हरि! *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* गौर प्रेमानंदे, हरि हरि बोल!प्रेमानंदे अर्थात प्रेम का आनन्द। प्रेम पूर्वक बोलो, क्या बोलो? हरि हरि बोलो। हाय हेलो छोड़ो, हरे कृष्ण बोलो। हाय- बाय, यह सब छोड़ो, बस हरे कृष्ण बोलो। (वास्तव में समय तो बीत रहा है। मुझे और ही कुछ कहना था लेकिन कह दिया जो अभी आपने सुना) हरि! हरि! हेमंत ए प्रथम मासि.. मार्घशीर्ष महीना है, हम लोग कृष्ण की लीलाएं स्मरण कर रहे थे। भगवान इस महीने में चीर घाट पर लीला खेल रहे थे व पूरे महीने भर के लिए खेलते रहे। तत्पश्चात अंतिम दिन अर्थात पूर्णिमा के दिन उन्होंने (यह सब आपको बता चुके हैं) वस्त्र हरण किया और बाद में वस्त्र लौटा भी दिए। उसके पश्चात श्रीकृष्ण ने गोपियों को अपने-अपने घर लौटने के लिए कहा और यह भी कहा था कि हम भविष्य में आने वाली किसी रात्रि को मिलेंगे। *याताबला व्रजं सिद्धा मयेमा रंस्यथा क्षपाः। यदद्धिश्य व्रतमिदं चेरुरार्यार्चनं सतीः।।* ( श्रीमद भागवतम १०.२२.२७) अनुवाद:- हे बालाओं, जाओ, अब व्रज लौट जाओ। तुम्हारी इच्छा पूरी हो गयी है क्योंकि तुम आने वाली रातें मेरे साथ बिता सकोगी। हे शुद्ध ह्रदय वाली गोपियों, देवी कात्यायनी की पूजा करने के पीछे तुम्हारे व्रत का यही तो उद्देश्य था! हम आने वाली किसी रात्रि को रमेंगे। ततपश्चात गोपियों ने वहां से प्रस्थान किया। हमनें इसका स्मरण किया था लेकिन पुनः स्मरण किया जा सकता है। गोपियों के लिए प्रस्थान करना कठिन हो रहा था। श्रीशुक उवाच *इत्यादिष्टा भगवता लब्धकामाः कुमारिकाः।ध्यायन्तयस्तत्पदाम्भोजम्कृच्छ्रान्निर्विविशुर्व्रजम्।।* ( श्रीमद भागवतम १०.२२.२८) अनुवाद:- शुकदेव गोस्वामी ने कहा:- भगवान द्वारा आदेश दिए जाकर अपनी मनोवांछा पूरी करके वे बालाएं उनके चरणकमलों का ध्यान करती हुई बड़ी ही मुश्किल से व्रज ग्राम वापिस आयी। श्रीकृष्ण के चरण कमलों का स्मरण गोपियाँ सदैव करती रहती हैं। हरि!हरि! अब उन चरण कमलों से उनको दूर जाना पड़ रहा है। वे कृष्ण से दूर जान में थोड़ी कठिनाई महसूस कर रही हैं। जब वे जा रही थी, तब उन्होंने यह भी अनुभव किया था कि वहां चीर घाट पर कृष्ण ने वस्त्र हरण किया था। कृष्ण ने लौटा तो दिए लेकिन कृष्ण चित चोर भी तो हैं। कृष्ण ने हमारे चित की भी चोरी की है, इसलिए हमारा मन उस चोर की ओर दौड़ रहा है जिसने हमारे चित/ मन की चोरी की है। हरि! हरि! हम भी प्रार्थना कर सकते हैं। हमनें कहा तो है कि हमें भक्ति करनी चाहिए *आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृन्दावनं रम्या काचिदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता। श्रीमद् भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान् श्री चैतन्य महाप्रभोर्मतमिदं तत्रादरो नः परः।।* ( चैतन्य मञ्जूषा) अर्थ:- भगवान् व्रजेन्द्रनंदन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभवयुक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु है। व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी, वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है। श्रीमद् भागवत ग्रंथ ही निर्मल शब्द प्रमाण है एवं प्रेम ही परम् पुरषार्थ है- यही श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का मत है। यह सिद्धांत हम लोगों के लिए परम् आदरणीय है। कृष्ण चितचोर हैं, कृष्ण का एक नाम चितचोर हैं। माखन चोर तो है ही। माखन चोर कृष्ण कन्हैया लाल की जय! चोर की कभी जय होती है क्या? आपके घर से कोई चोर चोरी करके जाए तब क्या आप उसकी जय कहते हो? लेकिन यह ऐसा चोर हैं... चोर क्या है.. चोर तो हम हैं। वह चोर नहीं हैं। हरि! हरि! माखन चोर और चितचोर! हरि! हरि! भगवान्, हमारे चित्त की चोरी कब करेंगे? ना जाने माया ने हमारे चित्त/ हमारे मन/ हमारे ध्यान को चोरी किया हुआ है। कृष्ण ने भगवतगीता में कहा हैं- *न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः | माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ||* (श्रीमद् भागवत गीता ७. १५) अर्थ:- जो निपट मुर्ख है, जो मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते | हमारा भाव आसुरी भाव है। माया हमारे आसुरी भाव वाले चित्त की चोरी कर लेती है। 'आई लॉस्ट माय हार्ट इन सिनेमा हॉल' ऐसा हो सकता है 'आई लॉस्ट माय हार्ट इन बॉलीवुड बॉम्बे', आई लॉस्ट माय हार्ट इन ... शराब की दुकान में, शराब में। हरि! हरि! इस संसार की सुंदर स्त्रियां, सुंदर पुरुष या तथाकथित बलवान पुरुष यह सब हमारी चित्त की चोरी करते रहते हैं। हमारे चिंतन के यह सारे विषय होते हैं क्योंकि उन्होंने हमारे चित्त की चोरी की हुई है। किसी स्त्री ने हमारे चित्त की चोरी की हुई है। धन ने हमारे चित्त की चोरी की है। *न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि॥4॥* अर्थ:- हे सर्वसमर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दरी स्त्री अथवा सालंकार कविता का ही इच्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि जन्म-जन्मान्तर में आपकी अहैतुकी भक्ति बनी रहे। हरि! हरि! कहां से कहां तक यह चोरियां हमारी हो ही रही है। हमारी चित्त की चोरी माया कर रही है। माया के कई विविध रूप हैं, माया के कई विविध खेल हैं। माया के कई सारे पक्ष हैं, पार्टीज हैं। हरि! हरि! कार्यकलाप है। जब हम लीला का स्मरण करते हैं, देखो, गोपियों का मन कहां है? गोपियां क्या सोच रही हैं? वह शिकायत कर रही है, चितचोर ने पहले तो वस्त्रों की चोरी की, अब चित्त की चोरी की। इसलिए हमारा शरीर तो घर की ओर जा रहा है लेकिन मन तो कृष्ण की ओर दौड़ रहा है। *मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||* ( श्रीमद् भगवतगीता १०.९) अर्थ:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं। हम यह कह ही चुके हैं। गोपियां जब जा ही रही थी अर्थात वे बेचारी अपने अपने घर लौट रही थी तब कृष्ण गायों और अपने मित्रों के साथ आगे बढ़ते हैं। श्रीमद्भागवतम में वर्णन आता है- *तस्या उपवने कामं चारयन्तः पशुन्नृप।कृष्णरामावुपागम्य क्षुधार्ता इदमब्रवन्।।* ( श्रीमद् भागवतम १०.२२.३८) अनुवाद:- तत्पश्चात हे राजन, सारे ग्वालबाल यमुना के तट पर एक छोटे से जंगल में पशुओं को उन्मुक्त ढंग से चराने लगे। किन्तु शीघ्र ही भूख से त्रस्त होकर वे कृष्ण तथा बलराम के निकट जाकर इस प्रकार बोले। शुकदेव गोस्वामी कथा सुना रहे हैं। वे गंगा के तट पर बैठे हुए हैं और कृष्ण की वृंदावन लीला का वर्णन कर रहे हैं। मानो लीलाओं को अवलोकन अथवा देख रहे थे अर्थात मानो वह लीला जैसे शुकदेव गोस्वामी के समक्ष घटित हो रही हो रनिंग कमेंट्री चल रही है। शुकदेव गोस्वामी सुना रहे हैं। इसलिए वे संबोधित कर रहे हैं, हे नृप! हे राजा! तस्या उपवने, कृष्ण एक उपवन में पहुंचे। वह चीर घाट पर यमुना के तट पर थे। वहां से कृष्ण ने प्रस्थान किया। अब वे, गाय और अपने मित्रों के साथ में एक उपवन में पहुंचे हैं। उस उपवन का नाम वैसे अशोक वन है, यह अशोक वन अक्रूर घाट के पास है। आप अक्रूर घाट से परिचित होंगे? यस और नो? इसलिए ब्रजमंडल परिक्रमा नामक ग्रंथ को भी आप पढ़ा करो या कभी स्वयं आकर ब्रजधाम या वृन्दावन की परिक्रमा भी किया करो। इससे यह सारा खुलासा हो जाएगा कि कौन सी लीला कहां हुई, कौन सा वन कहां है इत्यादि इत्यादि। कृष्ण अक्रूर घाट के पास अशोक वन में पहुंचे हैं। अक्रूर घाट जिसे हम वर्तमानकालीन वृंदावन कहते हैं। पंचकोशीय वृंदावन और मथुरा के बीच में अक्रूर घाट है। वे वहां पर पहुंच गए। कोई कह सकता है- बाप रे बाप ।वहां चीर घाट पर थे, वहां से अक्रूर घाट / अशोक वन पहुंच गए। आप में से कइयों को पता है कि यह कई दिनों की यात्रा है। हम पूरा दिन भर चलते रहेंगे तब हम, आप जैसे व्यक्ति कई दिनों के उपरांत चीर घाट से अक्रूर घाट पहुंच सकते हैं लेकिन कृष्ण तो अभी अभी चीर घाट पर ही थे और अब अक्रूर घाट या अशोक वन पहुंच गए जिसे यहां उपवन कहा गया है। कृष्ण कैसे पहुंच जाते हैं? इसी को अचिंत्य कहा गया है। यह सब अचिंत्य बातें हैं। हम अपने दिमाग अर्थात मटेरियल कैलकुलेशन से इसको जान समझ नहीं सकते कि कैसे कृष्ण ने इतनी लंबे सफर की दूरी को कुछ क्षणों में तय कर लिया और यहां पहुंचे गए। यह कृष्ण हैं। इसे कहते हैं कृष्ण रिलाइजेशन। मैं कृष्ण को जानता हूं , मैं कृष्ण को जानता हूँ। यह कहने वाले कई होते हैं लेकिन ये बातें समझना.. मुश्किल है। इसीलिए हमनें कल का जो श्लोक हैं हमने उसकी व्याख्या की। *अतः श्रीकृष्ण- नामादि न भवेद्ग्राह्यामिन्दियैः। सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला१७.१३६) अनुवाद:- इसलिए भौतिक इन्द्रियाँ कृष्ण के नाम, रूप, गुण तथा लीलाओं को समझ नहीं पातीं। जब बद्धजीवों में कृष्णभावना जाग्रत होती है और वह अपनी जीभ से भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करता है तथा भगवान् के शेष बचे भोजन का आस्वादन करता है, तब उसकी जीभ शुद्ध हो जाती है और वह क्रमशः समझने लगता है कि कृष्ण कौन हैं। आपको याद है? कल इसी पर चर्चा हो रही थी। हम हमारी ज्ञान इंद्रियों से भगवान् के नाम, गुण, लीला, धाम को जान नहीं सकते। ग्राह्यामिन्दियैः कलूषित, दूषित, अपूर्ण, त्रुटिपूर्ण इंद्रियों के मदद से हम भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम को नहीं समझ सकते हैं। यही बात है। हरि! हरि। सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः कहीं से शुरुआत करो। सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ से शुरुआत करो। प्रभुपाद कहा करते थे- नाचो, गाओ, खाओ। कृष्णभावनामृत का जीवन कोई कठिन नहीं है। दो चार बातें करनी है। नाचो, गाओ या गाते हुए नाचो, नाचते हुए गाओ। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* यह जप, यह नाम स्मरण करो। नाचो गाओ। फिर थोड़ा बैठ जाओ, थोड़ा श्रवण कीर्तन करो, नित्यम भागवत सेवया करो। गीता भागवत पढ़ो और प्रसादम लो। जैसे हमारा मॉर्निंग प्रोग्राम होता है, प्रभुपाद ने हमें प्रातः कालीन साधना दी। हम मंगला आरती करते हैं उसके लिए जल्दी उठते हैं। जल्दी उठना होगा। मंगल आरती तत्पश्चात बैठ जाओ और हरे कृष्णा का जप करो तत्पश्चात हम पुनः श्रृंगार दर्शन करते हैं। आचार्य उपासना / गुरु पूजा करते हैं और फिर ओम नमो भगवते वासुदेवायाय, ओम नमो भगवते वासुदेवाय के कहते ही सो जाओ। फिर एक घंटे के उपरांत महाप्रसाद ए गोविंदे कहते ही हम जग जाते हैं। भागवत की कथा में हम बैकबेंचर्स पीछे बैठते हैं। भागवत कथा में तो हम कहीं पीछे छिप कर बैठते हैं। जब प्रसादम का समय होता है तब अहम पूर्वम, अहम पूर्वम पहले मैं, पहले में, सबसे आगे हो जाते हैं.. हरि! हरि! नाचो, गाओ, खाओ। अच्छा प्रोग्राम है। बीच में यह श्रवण कीर्तन भी है। *नित्य- सिद्ध कृष्ण प्रेम 'साध्य' कभु नय। श्रवणादि- शुद्ध- चिते करये उदय।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला श्लोक २२.१०७) अनुवाद:- कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के ह्रदयों में नित्य स्थापित रहता है। यह ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी अन्य स्त्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा कीर्तन से ह्रदय शुद्ध हो जाता है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है। हम चित्त की बात कर रहे थे जिससे हमारा चित्त मच्चित्तः हो जाए। हमारा चित्त भगवान के चरणों में लगा रहे। मच्चित्तः । श्रवणादि- शुद्ध- चिते करये उदय। *एक हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे*।। यह श्रवण कीर्तन है और साथ ही साथ गीता भागवत का श्रवण करना है। नित्यम भागवतसेव्या करेंगे और प्रसाद भी लेंगे इसलिए यह कार्यक्रम थोड़ा मीठा है। आत्मा को प्रसन्न करने वाला है। आत्मा का पोषण करने वाला है। दुनिया करती है शोषण और कृष्णभावनामृत करती है पोषण। आप इन दोनों शब्दों को समझते हो, शोषण और पोषण। हरि! हरि! वी आर एक्सप्लोइटेड एंड एग्जास्टेड भी कहते हैं। इस माया और मायावी लोगों के साथ लेनदेन करते करते, सारे व्यवहार व्यापार करते-करते यह सारा संसार यह मायावी जगत हमारा खून पीता है या दिमाग खाता है, परेशान करता है। कोई सहायता करने वाला नहीं है। लोग अकेलापन (लोनली) फील करते हैं क्योंकि जिसके पास भी गए उसने शोषण ही किया। हमारा कुछ फायदा ही उठाया। धीरे धीरे व्यक्ति सोचता है कि नहीं, नहीं मेरा किसी से कुछ लेना देना नहीं है। मैं अकेला ही रहूंगा। आई डोंट केयर, आई डोंट नीड। किसी की जरूरत नहीं। मैं अकेला रहूंगा। लोनली, लोनली यह अकेलापन इन दिनों में बहुत बड़ी समस्या है। यह अकेले लोग तो धीरे धीरे आत्महत्या की भी बातें करते हैं। मैं अभी सुन रहा था, कुछ देशों जैसे इंग्लैंड या कुछ अन्य देशों में एक नए मंत्रालय( मिनिस्ट्री) की स्थापना की है। लोनली मिनिस्ट्री। जो लोग अर्थात उस देश के नागरिक अकेलापन फील करते हैं, उनकी सहायता करने के लिए एक मिनिस्ट्री की स्थापना हो रही है जिसे लोनली मिनिस्ट्री (मंत्रालय) कहते हैं। मैं नहीं जानता है कि वास्तव में क्या नाम है? यह लोनलीनेस, यह संसार यह माया जो हमारा शोषण करती है, इसी के कारण हम अकेलापन अनुभव करते हैं या अकेले रहना पसंद करते हैं। हरि !हरि! कृष्ण भावना क्या करती है? हमारा पोषण करती है, हमें पुष्ट करती है। हमें आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए प्रेरणा देती है। जिससे हष्ट पुष्ट हो सकें। जिससे हम महात्मा हो। महात्मा बन के हम क्या करेंगे? *महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः | भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ||* ( श्रीमद् भगवतगीता ९.१३) अनुवाद:- हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं | वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्योंकि वे मुझे आदि तथा अविनाशी भगवान् के रूप में जानते हैं | संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं। एक दुरात्मा होते हैं दूसरे महात्मा होते हैं। सारे मायावी आसुरी प्रकृति के लोग दुरात्मा कहलाते हैं लेकिन मनुष्यों को महात्मा बनना चाहिए। स्त्रियां भी महात्मा बन सकती हैं। आत्मा की बात चल रही है। अंतर्राष्ट्रीय श्री कृष्णभावनामृत संघ की जो भी गतिविधियां हैं, जो विधि विधान है। यह सब संसार के लोगों को महात्मा बनाने के लिए है। ऐसे महात्माओं का थोड़ा अभाव है, शॉर्टेज है। इसलिए हम ज़्यादा से ज़्यादा महात्मा बनाने का प्रयास कर रहे हैं। अमेरिकन महात्मा, यूरोपियन महात्मा हर आत्मा महात्मा बने। वह किसी भी देश का वासी हो सकता है। किसी भी उम्र का हो सकता है किसी भी लिंग स्त्रीलिंग या पुल्लिंग हो सकता है। ऐसी कई सारी उपाधियां है। *सर्वोपाधि विनिर्मुक्तं त्तत्परत्वेन निर्मलम्। हृषीकेण हृषीकेश सेवनं भक्तिरुच्यते।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१७०) अनुवाद:- भक्ति का अर्थ है समस्त इन्द्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरूषोतम भगवान् की सेवा में अपनी सारी इन्द्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान् की सेवा करता है, तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान् की सेवा में लगे रहने मात्र से उसकी इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं। अधिकतर यह आत्मा से संबंधित है। पर हम आपके शरीर की भी परवाह करते हैं। हम ऑलसो ग्रोथ देखना चाहते हैं। भगवान् देखना चाहते है। बॉडी, माइंड, सोल यह सब आ जाता है लेकिन लक्ष्य तो आत्मा ही है। माइंड व शरीर को इसलिए करते हैं जिससे हमारी बॉडी, हमारा माइंड आत्मा के लिए अनुकूल हो। आत्मा के पोषण के लिए अनुकूल हो। इसी उद्देश्य से हम से शरीर और मन की भी देखभाल करते हैं। ठीक है। लीला तो वहीं रह गई। कृष्ण गायों और मित्रों के साथ उसी दिन, उसी क्षण या कुछ क्षणों के उपरांत अक्रूर घाट अर्थात जहां अशोक वन है वहां पहुंचे । तदउपरांत वहां और कौन सी घटनाएं घटी, इसका स्मरण पुनः करेंगे या देखते हैं। कल करेंगे। तब तक के लिए हम अपनी वाणी को यहीं विराम देते हैं। हरे कृष्ण!!!

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