Hindi

जप चर्चा, 26 नवंबर 2021, पंढरपुर धाम. 890 स्थानों से भक्तों जब के लिए जुड़ गए हैं आप सब का स्वागत और धन्यवाद। राधा पंढरीनाथ की जय! राधा पंढरीनाथ का दर्शन करते हुए, आप दर्शन कर रहे थे। आपको आपके जप का फल निश्चित ही फल प्राप्त हुआ। भगवान ने आपको दर्शन दिए आज। उनका नाम ले रहे थे। उनको आपने देखा। हरि हरि, नयनपथगामी भवतुमें, जगन्नाथ स्वामी नयनपथगामी भवतुमें। हम विग्रह का दर्शन करते हैं। और जप करते हुए, कीर्तन करते हुए या दर्शन करते समय जरूर दर्शन होता है तो हम नमस्कार भी करते हैं। नमस्कार कर रहे थे कि नहीं, मन ही मन में। हरि हरि, और फिर निहार रहे थे भगवान को। निहारना मतलब समझते हो, देखना नहीं कुत्ते को देखा जाता है। कुत्ते को हम देखते हैं। भगवान को हम निहारते हैं। तो देखना और निहारना। प्रेम से देखना। प्रेम से अवलोकन करना और अवलोकन करते ही रहना, उसको निहारना कहते हैं। और हम देखते ही रहते हैं। सुन भी रहे हैं और देख भी रहे हैं तो मतलब हमें और और बातें हैं याद आती है कृष्ण की। देख रहे हैं रूप को और स्मरण हो रहा है उनके लीलाका और उनके परीकरो का। राधारानी भी खड़ी है। ललिता विशाखा हे भी और नहीं भी है तो याद आती है ललिता विशाखा की। स्मरण होता है ललिता विशाखा का। और कई सारी यादें आती है और स्मरण होता है। और सताना भी तो चाहिए लेकिन, हम इतने प्रगत नहीं हैं कि हमको यादें सता दे या सताए। हरि हरि, भक्ति के उच्च स्तर पर वह यादें सताती ही है। शुन्यायितम जगत सर्वम गोविंद विरहेन मे। हम विरहा महसूस करते हैं। गोविंद के बिना। गोविंद के दर्शन के बिना। गोविंद के सानिध्य के बिना। मन में विव्हलता, व्याकुलता प्रेम का कुछ जागृति उदय होते ही फिर हम अधिक अधिक याद करते हैं कृष्ण को राधा को। हरि हरि, तो यह समाधि भी है जब हम भगवान को देखते हैं और भगवान के संबंध में सोचते हैं। उनके रूप के संबंध में सोचते हैं। उनके गुणों के संबंध में सोचते हैं। वह कितने दयालु हैं। जैसे विष्णु सहस्तनाम है। विष्णु सहस्त्रनाम, विष्णु के भगवान के कितने नाम हैं, सहस्त्र नाम है। हम उनको कहते तो हैं सहस्त्रनाम है भी वह सहस्रनाम किंतु, एक-एक नाम भगवान के एक-एक गुण का उल्लेख करता है या स्मरण दिलाता है। यह भगवान के गुण का, भगवान के लीला का। गोवर्धनधारी नाम हुआ। क्या है नाम, गोवर्धनधारी इसी के साथ गोवर्धन का स्मरण। गोवर्धन धारण करने के लीला का स्मरण होता है। हर नाम के साथ या नाम इसलिए बनते हैं भगवान के, भगवान के सौंदर्य का उल्लेख होता है। त्रिभंगललितम यह नाम हो सकता है। रासविग्रह नाम हुआ, भगवान का नाम है। वैसे रासविग्रह यह स्मरण दिलाता है यह विग्रह दिख रहा मतलब रूप नाम है। रासविग्रह और हम उनके दास हैं वैसे हम रासविग्रह नहीं है। रासविग्रह कौन है, भगवान रासविग्रह है। यह नाम रासविग्रह नाम कहते ही रासलीला का स्मरण होता है। रासक्रीडा का स्मरण होता है। और वह विग्रह वह रूप रासक्रीडा खेलता है। ऐसी कई बातें ध्वनित होती है जब हम कोई ना भगवान का लेते हैं या सुनते हैं। हरि हरि, हर नाम सहस्त्रनाम, विष्णु सहस्त्रनाम है तो फिर गोपाल सहस्त्रनाम है। नरसिम्हा के सहस्त्रनाम है। राधा सहस्त्रनाम है। गौरांग सहस्त्रनाम है। विट्ठल सहस्त्रनाम है। जमुना सहस्त्रनाम है। केवल, बाप रे बाप हजार नाम हजारों नाम विष्णु के सहस्त्रनाम लेकिन फिर एक विष्णु सहस्त्रनाम नहीं है, इस सहस्त्रनामोके भी कई विविध प्रकार है। विविध प्रकार के सहस्त्रनाम है गोपाल सहस्त्रनाम या यह सहस्त्रनाम वह सहस्त्रनाम। भगवान के कुछ या तो हुआ, तो नाम लेकिन वह नाम कहता है कुछ। रामलीला नाम हुआ राम की लीला का स्मरण होता है। श्याम सुंदर नाम हुआ इससे क्या पता चलता है एक तो भगवान सुंदर है, लेकिन इस सौंदर्य का प्रकार कौन सा है, कैसा है। सौंदर्य घन एवं शाम। घन मतलब आकाश में जो बादल होते हैं उनका जो रंग होता है छटा होती है आभा होते हैं। बारिश के बादल प्रभुपाद कहते हैं। मान्सून के दिनों में जो बादल केरल की ओर प्रवेश करते हैं। उस समय की जो बादल घन श्याम और उसमें जो सौंदर्य है घन श्याम सुंदर। एक नाम बहुत कुछ कहता है कृष्ण के संबंध में। हरि हरि, तो इस प्रकार हम भगवान का दर्शन करते हैं। रूप का दर्शन करते हैं और साथ में नाम भी ले रहे हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। यह नाम है। रूप है। रूप ही नाम है और यह सब अचिंत्य है। अतः श्रीकृष्ण नामादि ना भवेत ग्रह्या इंन्द्रियीः यह भी कहां है, भगवान का नाम भगवान का रूप, गुण, लीला इसी के साथ श्रीकृष्ण नामादि ना ग्रह्या इंन्द्रियीः यह और कुछ कहना हम प्रारंभ कर रहे हैं, पता नहीं क्या कहलवाते हैं भगवान। इस सूत्र में या मंत्र में कहां है भगवान श्रीकृष्णानामादि नाम और बाकी नाम, रूप, गुण, लीला परिकर धाम आदि कह दिया खत्म। नामादि कहने से क्या क्या कहा जा रहा है। रूप, गुण, लीला, धाम श्रीकृष्ण नामादि ना भवेत ग्रह्या इंन्द्रियीः तो इनको भगवान के नाम को रूप को, गुण को, लीला को, धाम को हम अपने इंद्रियों से जान नहीं सकते। क्योंकि, हमारी तो इंद्रियां है उसमें से एक प्रकार है इंद्रियों का उसको ज्ञानेंद्रिय कहते हैं और दूसरा प्रकार है कर्मेंद्रिय। कर्मेंद्रिय पांच है और ज्ञानइंद्रियां पांच है। हम अपने इंद्रियों से भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला को नहीं समझ सकते हैं। या कौन सी इंद्रियों से नहीं समझ सकते हैं, ना भवेत ग्रह्या इंन्द्रियीः जो इंद्रियां कलुषित है, दूषित है ऐसे इंद्रियों के मदद से हमारी ज्ञानइंद्रियों के मदत से भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला को हम नहीं समझ सकते। यह सब अचिंत्य रहेगा। हमारे चिंतन के परे रहेगा। हम कहेंगे कुछ कुछ नाम लेंगे पढ़ेंगे सुनेंगे किंतु हमारी जो इंद्रियों की स्थिति हैं उसे ज्ञान नहीं होने वाला है। भगवान के नाम का, रूप का, गुण का, लीला का, धाम का परिकरो का। हरि हरि, क्योंकि हमारे पास वह साधन नहीं है। साध्य क्या है, भगवान के नाम को जानना है। भगवान के रूप को देखना है। और गुणों को समझना है। यथासंभव लीला का दर्शन करना है। उसके लिए साधन चाहिए। साधन हमारी जो अभी हमारे पास इंद्रिय हैं। हमारी इंद्रिय है वह बेकार की है। बेकार है या फिर और भूख और जिव्हा चाहिए। हरि हरि, सेवन्मुखेही जिव्हादौ स्वयं एव स्फूर्ति अदः हम शुरुआत करेंगे। जिव्हा से शुरुआत करेंगे। तो हमारी जो दूषित इंद्रिय है और अपवित्र अनियंत्रित इंद्रियों में उसके साथ मन भी है, जो स्वैराचार होता रहता है।स्वैराचार स्वैराचार हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। और इंद्रिय दूषित है शमः दमः तपः शौचम यह करना होता है शमः दमः तपः शौचम शांतिर्राजमेवच ज्ञानविज्ञान नमस्तीक्यम ब्रह्मकर्म स्वभावचम।। यह भी कहां है। ब्राहणों का ऐसा स्वभाव है। हमको भी ब्राह्मण बनना होगा। ब्राह्मणत्व को प्राप्त करना होगा। आगे वैष्णव भी बनना है। फिर कहां है, सेवन्मुखेही जिव्हादौ शुरुआत करो। कहां से शुरुआत करोगे, जिव्हा से शुरुआत करोगे। और जीवा के दो कार्य है एक खाने का और एक गाने का या बोलने का। तो यह दो कार्य भगवान के लिए करो। जिव्हा से शुरुआत करो। सेवन्मुखेही जिव्हादौ मतलब शुरुआत हमारी प्रसाद ग्रहण करने से शुरुआत करो। ऐसे कई बार होता है, कई लोग प्रसाद खा खाकर ही सुधर जाते हैं। सदाचारी बन जाते हैं। भगवान से आकृष्ट होते हैं। भक्ति का उदय होता है तार मधे जिव्हा अति। महाप्रसादे गोविंदे नाम ब्राह्मणे वैष्णवे। स्वल्प पुण्यवतमराजा विश्वासने वजायते। शरीराअविद्या जल जडेद्रीय ताहे काल। जीवे फेले विषय सागरे तार मध्ये जीवाआति। लोभो माया सुदुरमति। ताके जिता कठिन संसारे कृष्ण बड़ा दयो माय कोरीबारे जीवा जाय। स्वप्रसाद अन्नो दिलों भाय ।सेई अन्नामृत पाओ राधाकृष्ण गुणगांओ। ऐसा बहुत कुछ कहा है। अभी-अभी हमने यह कहां है 30 सेकंड में लेकिन, इसमें कई सारे सिद्धांत छिपे हुए हैं। अगर हम उसको समझ भी सकते हैं, हमको तो जल्दी में होता है। प्रसाद हाथ में लिए होते हैं और फिर महाप्रसादे गोविंदे कहना शुरु देते हैं। कब प्रार्थना पूरी होगी ताकि हम खाने के लिए शुरुआत करें। इसीलिए प्रार्थना की और या तो ध्यान नहीं देते हैं। ध्यान देते हैं तो समझते नहीं। ऐसे कुछ समझना चाहिए या फिर समझ के साथ प्रार्थना करनी चाहिए। हरि हरि, और फिर प्रसाद ग्रहण करना चाहिए। हमारे जिव्हा का बहुत बड़ा रोल है हमारे जीवन में। हमारे जीवन को बिगाड़ने में या सुधारने में जिव्हा की बहुत बड़ी भूमिका है। हरि हरि, क्योंकि जैसा अन्न वैसा मन ऐसा कहते हैं। प्रसाद ग्रहण कर कर के, करते-करते प्रसाद ग्रहण करेंगे तो जैसा अन्न वैसा मन बन जाएगा। अन्न में जो गुण है, प्रसाद भगवान है। अन्न परम ब्रह्म कहते हैं। अन्न परम ब्रह्म। अन्न होता है, जब भगवान ग्रहण करते हैं, भगवान ने ग्रहण किया हुआ भोजन अन्न अब महाप्रसाद के रूप में हम को प्राप्त हो रहा है। तो उसको परब्रह्म कहां अन्न परब्रह्म। जैसे अर्जुन ने कहा भगवान को, परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् | प्रेम भगवान खड़े हैं सामने। इसीलिए अर्जुन ने कहा आप परब्रह्म हो। और थाली में जो प्रसाद हैं परब्रह्म है। इसीलिए हम प्रसाद को क्या करते हैं? करना तो चाहिए पता नहीं आप करते हो कि नहीं, नमस्कार करना चाहिए। नमस्कार करके फिर ग्रहण करो। प्रसाद सेपरेट भरने के बाद दोबारा अपनी कृतज्ञता व्यक्त करो पुनः प्रणाम करके ऐसे धाग के साथ ऐसे समस्त के साथ हम प्रसाद को ग्रहण करेंगे तो हमारी जिव्हा नियंत्रण में आ जाएगी जीवा नियंत्रण में आ जाएगी उस से मन प्रभावित होगा जैसा अन्न वैसा मन फिर मन चंगा होगा तो कठौती में गंगा मन चंगा है सेवन्मुखेही जिव्हादौ उसी मंत्र में यह कहा है। एक तो प्रसाद ग्रहण करो और फिर क्या करो जिव्हा का दूसरा कार्य क्या है, बोलने का कार्य है। सेई अन्नामृत पाओ राधाकृष्णा गुण गाओ। फिर क्या? सो जाओ नहीं। सेई अन्नामृत पाओ राधाकृष्ण गुण गाओ। सो जाओ नहीं फिर तो हम नमक हराम बन जाएंगे। नमक हराम या खीर हराम। हमने भगवान की खीर भी खायी हैं। फिर आराम कर रहे हैं तो यह तो हराम हुआ। नमक हराम, खीर हराम, प्रसाद हराम। सेई अन्नामृत को प्राप्त करेंगे, ग्रहण करेंगे तो संतुष्ट होंगे। हम प्रसन्न होंगे। भगवान से प्रसन्न। अपनी प्रसन्नता हम व्यक्त कर सकते है। इसी के साथ सेई अन्नामृत पाओ राधाकृष्ण गुण गाओ। या फिर हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। गुण गाना आता भी नहीं है। ठीक है। हरे कृष्ण गाओ। उसी के साथ सब होगा भगवान के गुण आपने गाए। हरे कृष्ण हरे कृष्ण गाया आपने तो फिर सब गुण गाए आपने। क्योंकि भगवान का नाम कैसा है, नित्य है। शुद्ध है। पूर्ण है। नामचिंतामणि चैतन्यारसविग्रहः रस विग्रह या रासविग्रह हम कह रहे थे। रसविग्रह विग्रह मतलब मूर्ति। रस की मूर्ति है या भगवान का जो रूप है वह रस भरा है। रसौ वै सहः उपनिषदों में कहां है। भगवान कैसे हैं, रसौ वै सहः सहः मतलब वह, रस, रस तो है, कृष्ण कैसे हैं? रस है। वै मतलब निश्चित ही, रसः वै सहः सह रसः तो भगवान रस है। भगवान रस की मूर्ति है या फिर अखिल रसामृत सिंधु भगवान है अखिल रस के अमृत के सिंधु। और फिर उनकी मूर्ति या उनका जो रूप है, नाम चिंतामणि कृष्ण चैतन्य रसविग्रह चैतन्य भी है और नित्य है। भगवान का नाम नित्य हैं तो फिर भगवान ही नित्य है, शुद्ध है। भगवान का नाम शुद्ध है या फिर भगवान का प्रसाद शुद्ध है। नाम भगवान है भगवान का प्रसाद भी भगवान है। ऐसी कुछ चित्र विचित्र बातें तो है। तो इसको जब हम ग्रहण करते हैं प्रसाद ग्रहण किया और नाम ग्रहण किया। तो नित्य शुद्ध पूर्ण मुक्त भगवान का नाम कैसा है? नित्य है, शुद्ध है, पूर्ण है, मुक्त है। जो मुक्त है हमको भी मुक्त बना सकता है। भगवान का नाम मुक्त है तो हम हो गए मुक्त हो गए, मुक्त के संग से या मुक्त के प्रभाव से। यह हरिनाम मुक्त है, मुक्त है मतलब गुणातीत भी समझ सकते हैं। तीन गुना से परे हैं, सत्व रज तमोगुण का कोई प्रभाव नहीं है इस नाम के ऊपर, नाम मुक्त है। तो यह नाम लेंगे, भगवान का प्रसाद ग्रहण करेंगे यही तो भक्ति है। ” मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते | स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते || २६ ||” भगवान गीता में कहे हैं, वैसे भक्ति की परिभाषा भी वहां कह रहे हैं भगवान। स गुणान्समतीत्य मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते जो मेरी भक्ति करते हैं, अव्यभिचारेण मतलब शुद्ध भक्ति करते हैं उसके पीछे कुछ भुक्ति मुक्ति के विचार या वासना नहीं है ऐसा भक्ति करता है, ऐसा नाम लेता है, ऐसा प्रसाद ग्रहण करता है। वह बातें चल रही है सेवोन्मुखे हि जिव्हादो जीव्हा से प्रसाद ग्रहण करते हैं, जीव्हा से भगवान का नाम या गान करते हैं। ऐसा करेंगे तो कृष्ण कह रहे हैं गीता में स आगे पहले य कहा था अभी स कह रहे हैं। जो ऐसा भक्ति करेगा उसका क्या होगा? स गुणान्समतीत् ऐसे हर शब्द की ओर अगर हम ध्यान दे सकते हैं फिर अच्छी तरह समझ सकते हैं हम। भगवान को क्या कहना है? स वह व्यक्ति, गुणान मतलब तीन गुण है इसीलिए उसे बहुवचन में कहां है सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण। स गुणान समतीत्य इसको पार करते हुए समतीत्य या जो गुणातीत, स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते फिर उसमे भी भगवान के गुण आ जाएंगे। भगवान परब्रह्म है तो ऐसा भक्ति करने वाला व्यक्ति भी ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ् क्षति ब्रह्मभूत होगा, प्रसन्न होगा, कृष्णभावना भावित होगा। कृष्ण नहीं होगा लेकिन कृष्णभावना से प्रभावित होगा, कृष्ण से प्रभावित होगा. हरि हरि। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। तो प्रसाद ग्रहण करते रहिए और भगवान का नाम लेते रहिए। और भी बहुत कुछ करना है लेकिन सेवोन्मुखे हि जिव्हादो की बात चल रही है। तो इसमें आगे यह कहा है वह भी महत्वपूर्ण है। सेवोन्मुखे हि जिव्हादो स्वयंमेव स्फुरत्यदः फिर वह पूर्ण हो गया। वैसे तो ग्राह्यं इंद्रियों भी वर्तमान स्थिति में, काल में हमारे जो इंद्रियों की जो दशा है उससे तो हम भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला को जान नहीं पाएंगे। इसीलिए कहा शुरुआत करो जीव्हा से शुरुआत करो, जीव्हा से प्रसाद लो और नाम लो। ऐसा करोगे तो स्वयंमेव स्फुरत्यदः स्वयंमेव मतलब भगवान स्वयं, कृष्ण स तु भगवान स्वयं स्फुरति स्फुरित होंगे, प्रकट होंगे या कुछ साक्षात्कार होना प्रारंभ होगा। हरि हरि। कोई प्रश्न या टिप्पणी। प्रश्न 1 - बीड से कृष्णनाम प्रभु द्वारा प्रश्न इतने समय से हम प्रसाद तो ले रहे हैं, लेकिन फिर भी कुछ हो ही नहीं रहा है, यह अनर्थ तो जो कि तो बने ही है। गुरु महाराज द्वारा उत्तर - कुछ कम हुआ कि नहीं? प्रसाद लेने के पहले और अब उसमें तुलना करो। पहले कितने अनर्थ थे और अब कितने बचे हैं। तो यह काफी परिवर्तन हुआ है यह कैसे हुआ? प्रसाद ग्रहण करने से तो हुआ। अनर्थ कम तो हो रहे हैं फिर आपको विश्वास होना चाहिए इस प्रोसेस में। प्रसाद ग्रहण करने की जो विधि है तो लेते रहो कंटिन्यू। तो बचे हुए जो अनर्थ है निश्चित रूप से कम होंगे। बेशक उसके साथ नाम भी लेना है। आहार-विहार युक्तस्य युक्त आहार कहां है। हरि हरि। प्रसाद के नाम से भी कई बिगड़ जाते हैं या हो सकता है जैसे हमने कहा है, सेई अन्नामृत पाओ तो कह दिया। लेकिन उसके बाद जो करना होता है वह क्या है? राधा कृष्ण गुण गाओ वह नहीं किया तो आपने आधा ही काम किया। प्रसाद लेना तो आधा काम हो गया, उसी के साथ तो जुड़ा हुआ है सेई अन्नामृत पाओ राधा कृष्ण गुण गाओ राधा कृष्ण के गुण गाओ। हो सकता है हम लोग तो सो जाओ कह दिया इसीलिए भी जितनी मात्रा में और जितने गति से अनर्थो मुक्त होना है, ऐसा कुछ कम हो सकता है। तो आप कुछ सुधार कर सकते हो। हरि हरि। और प्रसाद ग्रहण करना होता है तो प्रसाद ग्रहण करते समय भी जो भाव है वह भी महत्वपूर्ण है। प्रसाद को कैसे ग्रहण करना चाहिए? कब ग्रहण करना चाहिए? कितना ग्रहण करना चाहिए? इत्यादि इत्यादि कई सारे विधि निषेध भी प्रसाद ग्रहण करने के साथ जुड़े हुए हैं। उनका भी थोड़ा पालन करें। बीमार भी हो सकते हैं प्रसाद खा के इतना प्रसाद खा लिया। कोई आयुर्वेदिक डॉक्टर कहते हैं हरे कृष्ण वाले भी उनके शरीर भी बीमार हो जाते हैं। उनको भी शुगर और कोलेस्ट्रॉल इश्यूज हो जाते हैं, एक डॉक्टर कह रहे थे हम जब मिले थे उनसे। इस्कॉन की भक्तों को कहते हैं कि मुंह खोलो तो डॉक्टर जब देखते हैं कि यह तो हलवा और शक्कर से भरा हुआ है। यह हलवा जिसमें बहुत सारा घी या हो सकता है तेल भी और बहुत सारा शक्कर। तो फिर शुगर ब्लड से संबंधित बीमारियां तो होनी है। तो कई सारी बातें हैं स्मरणीय या करनीय प्रसाद ग्रहण करना यह एक बात है। हरे कृष्ण जपना तो हम कहते रहते हैं लेकिन फिर उसके कई सारे नियम भी तो है। या फिर हम कहते रहते हैं नियम नहीं है लेकिन नियम तो है। नाम अपराध भी है और ध्यान पूर्वक जप करना है। शुरुआत में हम कहते हैं सिर्फ हरे कृष्ण जप करो, लेकिन यह नहीं कहते ध्यान पूर्वक जप करो, अपराध रहित जप करो। उसी प्रकार प्रसाद, यह प्रसाद लो, लेकिन फिर वैसे आपको बैठ के उसके ऊपर सेमिनार देना पड़ेगा प्रसाद ग्रहण करने के संबंध में। प्रसाद ग्रहण करने की कला और शास्त्र भी हैं। हरि हरि। ईट युवर फूड एंड ड्रिंक युवर वॉटर ऐसा भी एक नया टॉपिक है। तो ऐसी सलाह दी जाती है भोजन या अन्न को आप खाओ और जल को पिओ इसके ऊपर हम कोई टिप्पणी नहीं देंगे। लेकिन ऐसी भी एक सलाह है यु ईट युवर फुड एंड ड्रिंक युवर लिक्विड्स या वॉटर। क्योंकि हम चबाकर नहीं खाते, ठीक है इसके ऊपर एक पूरा सेमिनार हो सकता है। तो फिर रिव्यू करो, इतने साल से तो खा रहे हैं। लेकिन हमारा जो खाना है केवल शरीर के लिए नहीं है , शरीर का फायदा भी हो सकता है, नुकसान भी हो रहा है। तो मन का फायदा होना चाहिए, आत्मा का फायदा होना चाहिए। हो रहा है कि नहीं? वैसे प्रसाद यह आत्मा का खाद्य है। तो फिर प्रसाद शरीर के लिए है, प्रसाद मन के लिए है, प्रसाद आत्मा के लिए है इस पर विचार करो। आत्मा तक पहुंच रहा है कि नहीं प्रसाद आपका देखो या प्रसाद को समझो। जैसे हम कह रहे थे अन्न परब्रह्म अन्न है परब्रह्म या प्रसाद है भगवान। इस समझ के साथ ही ग्रहण करो। हरि हरि। और फिर कभी कभी उपवास भी करना चाहिए। प्रश्न 2 - प्रसाद लेते वक्त सही भाव कैसे बना कर रखें कि यह भगवान का प्रसाद है? गुरु महाराज द्वारा उत्तर - प्रसाद लेते वक्त तुम तो नहीं पढ़ पाओगे या और कोई पढ सकता है कृष्णा बुक या कोई टेप, कुछ प्रवचन कथा वह सुन सकते हो। ताकि थोड़ा कृष्ण भावना भावित मूड बन जाएगा। प्रसाद लेते वक्त कोई गंभीर बातें भी नहीं होनी चाहिए कृष्ण भावनाभावित बिजनेस के विषयों के ऊपर चर्चा भी नहीं होनी चाहिए या मैनेजमेंट डिस्कशन नहीं करनी चाहिए। संभव है तो कुछ हल्की सी चर्चा भी हो सकती हैं या कोई पढ सकता है। हमारे अच्छे पुराने दिनों में हम हमारे आश्रमों में हर प्रसाद के समय कोई भक्त कृष्ण बुक पढ़ा करते थे या रात्रि में दूध की बाल्टी बीच में लगते थे और आजू बाजू में सब बैठे हैं और एक भक्त कृष्णा बुक पढ़ रहा है और इसी के साथ हम दूध भ ग्रहण कर रहे हैं। तो यह हमको स्मरण दिलाता था कि यशोदा कैसे कृष्ण को सोने से पहले दूध पिलाया करती थी। और फिर कृष्ण कहते थे नहीं नहीं नहीं आप को मुझे कुछ कहानी सुनानी पड़ेगी। तो फिर यशोदा कृष्ण को कहानी सुनाती थी किसकी? कृष्ण की ही कहानी या फिर रामलीला की कहानी। इस प्रकार थोड़ा मूड बन जाता है। क्योंकि प्रसाद साधारण नहीं है, प्रसाद कृष्ण है। चैतन्य महाप्रभु ने भी एक समय कहां आओ आओ भक्तों शांतिपुर में। चैतन्य महाप्रभु प्रसाद ग्रहण कर रहे थे और उसको ग्रहण करना प्रारंभ करते ही इतना स्वादिष्ट था वह प्रसाद। महाप्रभु ने उन भक्तों को पास में बुलाया और कहां इसमें कृष्ण के मुख की जो लाल है यह मिश्रित है, इसीलिए यह भोजन इतना मीठा बन चुका है। एक दिन शांतिपुरे प्रभु अद्वैतेर घरे अद्वैत आचार्य के घर में शांतिपुर में चैतन्य महाप्रभु प्रसाद ग्रहण करते समय प्रसाद की महिमा का गान करने लगे। तो ऐसा सब करने से हम लोग मुड़ में आ जाते हैं, फोकस हो सकता है प्रसाद के ऊपर या प्रसाद भगवान है उसके ऊपर भी। इन विचारों को लाने के लिए कुछ सुने आप, कुछ सोचे आप या कुछ चर्चा करें प्रसाद लेते वक्त। लोग तो बोलते रहते हैं खाते वक्त। कृष्ण के विषय में बोलिए, कृष्ण कैसे अपने मित्रों के साथ बैठते हैं, भोजन करते रहते हैं। मेरा भी कभी नंबर लगेगा, मैं भी कभी ज्वाइन कर सकता हूं भगवान का जमुना के तट पर पुलिन पर भोजन हो रहा है। और मैं यहां नागपुर में कुछ अभक्ष भक्षण कर रहा हूं अभक्ष भक्षण। कैसा भक्षण? अभक्ष भक्षण जैसे सूअर और सिंह गीध जैसे खाते हैं। वैसा मैं भी कुछ मटनम चिकनम चल रहा है, हाय यह मेरा हाल है। ऐसा भक्त तो नहीं सोचेंगे क्योंकि वह पत्रं पुष्पं फलं तोयं को ही ग्रहण करते हैं। लेकिन हम अगर याद कर सकते हैं, भगवान कैसे भोजन करते हैं अपने मित्रों के साथ वन में वनभोजन या फिर नंद भवन में भोजन, कितनी सारी लीलाए हैं। ठीक है, मैं यहां रुकना चाहूंगा। हरे कृष्ण।

English

Russian