Hindi

"आत्मवत सर्व भूतेषु ...... " भक्त सम्पूर्ण विश्व से जप कर रहे हैं। यहाँ भारत में अभी सुबह का समय हैं , ऑस्ट्रेलिया में दोपहर का समय हैं तथा न्यू जर्सी में पिछले दिन की शाम का समय हैं। अतः भक्त चाहे सुबह , दोपहर , शाम या रात हो , समय के सभी प्रतिबन्धों को तोड़कर हमारे साथ जप कर रहे हैं। इसका अर्थ हैं कि जब यहाँ भारत में मंगल आरती होती हैं और हम जब संसार दावानल गाते हैं तब न्यूयॉर्क में भक्त संध्या आरती कर रहे होते हैं और ' कीबो जय जय गौरचांदेर आरती की शोभा ' गाते हैं। अतः किसी स्थान पर मंगल आरती होती हैं तो किसी स्थान पर संध्या आरती होती हैं। मध्य पूर्व में कुछ समय पश्चात मंगल आरती होगी। इसके पश्चात यूरोप में तत्पश्चात इंग्लैंड , न्यूयॉर्क , में इसके बाद हवाई में तथा जापान में , उसके पश्चात ऑस्ट्रेलिया में , फिर न्यूयोर्क तथा बाद में बर्मा में मँगल आरती होगी। इस प्रकार लगभग २४ घंटे संसार में किसी न किसी स्थान पर मंगल आरती तथा संध्या आरती होती हैं। एक बार श्रील प्रभुपाद सम्पूर्ण विश्व में फैले इस्कॉन साम्राज्य की बात कर रहे थे। उन्होंने कहा , " इस्कॉन के साम्राज्य में कभी भी सूर्य अस्त नहीं होता हैं। " जिस भी समय जहाँ कहीं भी सूर्य होता हैं वहां इस्कॉन हैं तथा वहां भक्त जप कर रहे होते हैं या श्रील प्रभुपाद की पुस्तकों का वितरण कर रहे होते हैं। कल बीबीटी के ट्रस्टी प्रत्येक वर्ष की भांति जीबीसी के सदस्यों को प्रस्तुति दे रहे थे। उन्होंने उसमे बताया कि सम्पूर्ण विश्व में प्रत्येक सैकंड श्रील प्रभुपाद की पुस्तकों का वितरण हो रहा हैं। ब्रिटिश यह दावा करते हैं कि उन्होंने अपने साम्राज्य का बहुत अधिक रूप में विस्तार किया हैं। इंग्लैंड बहुत छोटा सा देश हैं, परन्तु वे अपने साम्राज्य का विस्तार करके अत्यंत शक्तिशाली बन गए थे। वे यह दावा करते थे कि ब्रिटिश साम्राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता हैं। एक समय श्रील प्रभुपाद ने इस पर टिप्पणी की , " यद्यपि ब्रिटिश साम्राज्य में सूर्य कभी अस्त नहीं होता परन्तु वही सूर्य इंग्लैंड में कभी उदय नहीं होता हैं। " क्योंकि वहां सदैव बादल छाए रहते हैं। वहां सूर्योदय होना बहुत विशेष हैं - सूर्योदय तथा सूर्य दर्शन वहां अत्यंत दुर्लभ हैं। एक साधक ने टिप्पणी की हैं , " इस कांफ्रेंस में मैं आपको देख रहा हूँ तथा आप मुझे देख रहे हैं। " इसमें मेरा मत हैं कि इस कांफ्रेंस का उद्देश्य केवल यही नहीं हैं। हमें कृष्ण को देखना हैं। सांसारिक जगत में यही अंत होता हैं - आप मुझे देखें और मैं आपको देखूँ , हम हाथ मिलाएं , गले मिलें तथा अनर्गल वार्तालाप करें , इससे आगे इसमें कुछ नहीं हैं। परन्तु हम साधक यद्यपि इस कांफ्रेंस में एक दूसरे को देखते हैं परन्तु हमारा अंतिम उद्देश्य तो परम भगवान श्री कृष्ण को देखना हैं। अंततः एक दूसरे की उपस्थिति के मध्य भी हमें श्री कृष्ण स्पष्ट रूप से दर्शन कर सकते हैं। प्रेमांजन छुरित भक्ति विलोचनेन, सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति। यम श्याम सुन्दर अचिन्त्य गुण स्वरूपम , गोविन्दम आदि पुरुषम तम अहम् भजामी।। (ब्रह्मसंहिता श्लोक ११) मैं उन गोविन्द का भजन करता हूँ जो श्याम सुन्दर हैं तथा अचिन्त्य हैं , जिनका उनके शुद्ध भक्त अपने नेत्रों में प्रेम रुपी काजल लगाकर सदैव ह्रदय में दर्शन करते हैं। अतः विलोकयन्ति अर्थात वे अपने हृदयेषु - ह्रदय में भगवान के दर्शन करते हैं। वे किनके दर्शन करते हैं ? यम श्याम सुन्दर अचिन्त्य गुण स्वरूपम। जब मैं इनके विषय में चिंतन कर रहा था तो मुझे श्रीमद भागवतम के एक वचन का स्मरण हुआ। यह भगवान द्वारा रुक्मिणी के हरण के समय की बात हैं। शुकदेव गोस्वामी बताते हैं कि जब शिशुपाल से विवाह से पहले रुक्मिणी अम्बिका मंदिर जा रही थी तो उनके पाँव अम्बिका के चरणों की ओर चल रहे थे। यहाँ पावों की दो जोड़ियों के विषय में बताया गया हैं। रुक्मिणी चलने के लिए अपने पाँवों का उपयोग कर रही थी तथा चलते समय वह भगवान के चरण कमलों के विषय में भी सोच रही थी। इस प्रकार यहाँ दो नहीं अपितु तीन व्यक्तियों के चरणों की बात आती हैं। रुक्मिणी को स्वयं के अथवा अंबिका के चरणों के विषय में भान नहीं था परन्तु वह तो निरन्तर भगवान के चरणों के विषय में चिंतन कर रही थी। वे ही मुख्य सहभागी हैं। जिस प्रकार शादी में सहभागी होते हैं इस प्रकार कृष्ण भी विवाह के सहभागी हैं। इस प्रकार यह केवल पति पत्नी के मध्य का ही प्रसंग नहीं हैं। गृहस्थ जीवन केवल पति , पत्नी के द्वारा ही संपन्न नहीं होता हैं जब तक उनके मध्य में कृष्ण नहीं हैं। इस प्रकार कृष्ण प्रथम तथा मुख्य सहभागी हैं। जब आप जप करते हैं तो आपके दृष्टिकोण में परिवर्तन आना चाहिए। आपके विचारों में बदलाव आना चाहिए। यह सत्य तथा सकारात्मक होना चाहिए। जप करते समय मैं इस बात का अनुभव कर रहा था कि अमिन अपनी साधना के मध्य में हूँ। यज्ञे संकीर्तनः प्राये: यजन्ति ही सुमेधसा (श्रीमद भागवतम ११.५. ३२) इस प्रकार यज्ञ करते समय हम आराधना करते हैं तथा हम हरीनाम की आराधना करते हैं। कौन आराधना करता हैं ?आत्मा आराधना करती हैं। हम शरीर को सामग्री के रूप में उपयोग लेते हैं। हम धुप , दीप , पुष्प और नैवेद्य का प्रयोग करते हैं। हम उन्हें अपने हाथों के माध्यम से उपयोग में लेते हैं परन्तु वास्तव में तो आत्मा ही आराधना करती हैं। हम परम भगवान श्री कृष्ण की , नाम प्रभु के रूप में सेवा करते हैं। यदि शरीर में आत्मा न हो तो क्या हम आराधना कर सकते हैं ? शरीर तो उपस्थित रहता ही हैं, केवल उसमे से आत्मा चली जाती हैं। पत्रं , पुष्पं , फलं , तोयं , दीपं , धूपं , नैवेद्यं , सभी वहां उपस्थित रहते हैं तथा शरीर भी वहीं रहता हैं , परन्तु क्या आप उनसे सेवा कर सकते हैं यदि शरीर में आत्मा न हो ? इस प्रकार शरीर के वहां होते हुए भी आप वहां नहीं होते हैं। हो सकता हैं कि कोई और यह करे परन्तु आप तो नहीं कर सकेंगे यह निश्चित हैं, क्योंकि आप तो वास्तव में वहां हैं ही नहीं। अतः वास्तव में सेवक आत्मा ही हैं , जो हमारा वास्तविक अस्तित्व हैं। हम हरिनाम की आराधना करते हैं आराध्य का अर्थ हैं - हम किसकी आराधना कर रहे हैं। सेवा करने वाला आराधक या आराधिका हैं। जो आराधना करता हैं वह आराधक हैं तथा जिनकी आराधना की जाती हैं वह आराध्य हैं। आराध्य भगवान ब्रजेश तनयः ... (चैतन्य - मत - मंजूषा , श्रीमद भागवतम पर श्रीनाथ चक्रवर्ती ठाकुर की टीका ) हम जिस प्रकार सेवा करते हैं उसे आराधना कहते हैं। इस प्रकार आराधक , आराध्य को प्रसन्न करने के लिए आराधना करता हैं। आराधना में हमारी भक्ति के भाव तथा अनुभूति सम्मिलित होती हैं। कृष्ण भी यही कहते हैं : पत्रं पुष्पं फलं तोयं , यो में भक्त्या प्रयच्छति। तद अहम् भक्त्युपहृतं , अस्नामी प्रयतात्मनः।। (भगवद्गीता ९.२६) यदि कोई भक्ति भाव से मुझे पत्र , पुष्प , फल अथवा जप समर्पित करता हैं तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ। आप पत्र , पुष्प, फल आपकी आराधना के रूप में काम लेते हैं , परन्तु यह भक्ति पूर्वक होना चाहिए। यह एक उपकरण के समान हैं। अतः भक्त्या अर्थात तृतीय विभक्ति। उसी प्रकार एक दूसरे श्लोक में - अभ्यासेन तु कौन्तेय , यहाँ अभ्यासेन भी तृतीय हैं। अभ्यासेन वैराग्येण , इस प्रकर कई प्रकार के शब्द हमरे उपकरण बनते हैं। अतः ऐसा नहीं हैं कि हम केवल जिव्हा तथा होठों से ही हरे कृष्ण का उच्चारण करते रहें , अंततः इसमें मन भी सम्मिलित होना चाहिए। अतः भक्तियुक्त मन में भक्तियुक्त विचार ही आएँगे। मन का क्या कार्य हैं ? विचार करना , अनुभव करना तथा इच्छा करना - ये सभी कृष्णमय होने चाहिए। अतः हमारे में भक्तिमय विचार , भक्तिमय अनुभव तथा भक्तिमय सेवा करने की तीव्र इच्छा होनी चाहिए। अकाम: सर्व कामो वा , मोक्ष कामा उदार धीः। त्रिवरेरणा भक्ति योगेन ,यजेत पुरुषं परम।।(श्रीमद भागवतम २.३.२०) वह व्यक्ति जिसकी बुद्धि विशाल हो , उसे चाहे भौतिक सुखों के लिए , चाहे मुक्ति के लिए किसी भी कारण से सदैव परम भगवान की सेवा करनी चाहिए। त्रिवरेरणा का अर्थ हैं - बहुत तीव्र। भक्ति का अर्थ हैं अनुभव तथा आध्यात्मिक भावना। अतः यह आराधना का हिस्सा हैं। हम आराधक हैं तथा हरिनाम प्रभु आराध्य हैं। तब हम बैठकर आराधना अथवा उपासना करते हैं। यजन्ति: सुमेधसा। अतः हम सर्वश्रेष्ठ कार्य करने के लिए एक स्थान पर बैठते हैं , जो आराधना हैं। यदि आप खड़े हैं तो हो सकता हैं कि आप इसे सही प्रकार से संपन्न नहीं कर पाएं। जप करते समय बैठकर जप कीजिए। बैठकर जप करने का अर्थ हैं कि आप गंभीर साधक हैं। ऐसा नहीं हैं कि यदि आप घूमकर जप कर रहे हैं गम्भीर साधक नहीं हैं। ऐसा भी नहीं हैं कि आप घूमते समय जप नहीं कर सकते हैं परन्तु हमारी निर्धारित १६ माला एक आसान पर बैठकर पूरी की जाए तो वह सर्वश्रेष्ठ हैं। मैं इसके विषय में चिंतन कर रहा था , जो हम प्रत्येक समय करते रहते हैं। पण्डिताः समदर्शिना ...... पंडित का अर्थ हैं ज्ञानवान व्यक्ति। जो पाण्डित्य और विदवत्ता से पूर्ण हो वही पण्डित हैं। जो पंडित हैं केवल वही समदर्शिना हो सकता हैं। विनय सम्पन्ने ब्राह्मण गावी हस्तिनी शुनि चैव श्वपके च पण्डितः समदर्शिना (भगवद्गीता ५.१८) वे शरीर को नहीं अपितु आत्मा को देखते हैं , जो वास्तव में हमारा मुख्य लक्ष्य हैं। आध्यात्मिक जगत में शरीर नहीं होते हैं। वहां आत्मा ही शरीर हैं , जो अपने वास्तविक स्वरुप में रहती हैं। वहां ऐसा नहीं हैं कि यह शरीर हैं और यह आत्मा हैं। आत्मा शीर्ष से पाँव तव अपने स्वरुप में होती हैं। अतः इस पर मेरा मत था कि हरे कृष्ण हरे कृष्ण , हरिनाम प्रभु हैं। वह आत्मा ही हैं जो अभी हमारे साथ हैं, यद्यपि हम गन्दगी से भरे हुए हैं। बाइबल कहती हैं , " धूल के लिए आप हैं और धूल हटाने के लिए आपको पुनः लौटना होगा। " (जेनेसिस ३.१९) अतः मैं सोच रहा था कि मेरे आसपास कितनी अधिक मात्रा में शरीर हैं। वे सभी एक के बाद एक धूल की ढ़ेरी मात्र हैं। इनका समाधान कीजिये और अंत में जो बचता हैं वह हैं आत्मा जो सदैव शाश्वत तथा अक्षय रहती हैं। न हन्यते न हन्यमाने शरीरे (भगवद्गीता २.२०) अतः यदि ऐसा होता हैं तो उस धुल का पुनः एक आवरण बढ़ जाएगा। जब यह धूल पूर्णरूपेण हट जाएगी तो केवल हरिनाम प्रभु तथा शुद्ध आध्यात्मिक आत्मा ही बच जाएंगे। हरिबोल ! मेरे कहने का तात्पर्य हैं कि अन्ततः यही होता हैं। हम ऐसा नहीं सोचना चाहते कि ऐसा इस कमरे में होगा। हम सभी शरीर नहीं हैं वरन जो कुछ भी होता हैं वह मात्र यहाँ वहाँ धूल की ढेरी मात्र हैं। अंत में जो बच जाता हैं वही आत्मा हैं। इसलिए जप करते समय भी इस बात का आभास रहना चाहिए कि अन्य व्यक्ति भी शाश्वत आत्मा हैं। मैं भी एक आत्मा हूँ और अन्य भी आत्माएं हैं , तथा हम सभी के मध्य में हरिनाम प्रभु हैं। जब हम जप करते हैं हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। जब हम इसका जप करते हैं तो हमारे परिपेक्ष्य तथा दृष्टिकोण में परिवर्तन आता हैं। हमें हमारी तीव्र कृष्णभावनामृत बुद्धि के माध्यम से इस बात को सोचना तथा समझना चाहिए कि शरीर एवम आत्मा में भेद हैं। न केवल आप स्वयं के शरीर को आत्मा से भिन्न समझें परन्तु ज्ञान रूपी तलवार के माध्यम से आपको अन्यों के भी शरीर और आत्माओं में भेद समझना चाहिए। भौतिक रूप पर नहीं परन्तु चिंतन के रूप में हम आत्मा को शरीर से पृथक करके देखते हैं। हम अन्यों को भी आत्मा के रूप में देखते हैं। हम सभी को " आत्मवत सर्वभूतेषु " के रूप में देखते हैं अर्थात सभी जीवित जीव हमारे समान हैं। मातृवत पारदरेषु परा द्रव्येषु लोस्त्रवत। आत्मवत सर्व भूतेषु यः पश्यन्ति सः पण्डित:।। (चाणक्य श्लोक १०) " जो अन्यों की पत्नी को मातृवत देखे , अन्यों के धन को विष्ठा के समान समझे ,तथा सभी जीवित प्राणियों को आत्मवत देखे , वही वास्तव में पंडित हैं। जो इस प्रकार देखता हैं वह पंडित हैं। इसलिए वह क्या देखता हैं ?इन सभी तीनों में जो सभी को आत्मवत देखता हैं : आत्मवत सर्व भूतेषु अर्थात सभी जीव मेरे समान हैं , वे मेरे हैं और मैं कृष्ण का हूँ अतः वे भी कृष्ण के हैं। अतः वे सभी मेरे भाई - बहन हैं , जो ऐसा समझता हैं वही वास्तव में पंडित हैं। उनका दृष्टिकोण यह होता हैं कि ये सभी मेरे कृष्ण के हैं। हम इसे यहीं विराम देते हैं। हरे कृष्ण ……

English

“ATMAVAT SARVA BHUTESU…..” Devotees are chanting all over the planet. We have morning time here in India, noon time in Australia, evening time of the day before ours in New Jersey. So the devotees are chanting whether it is morning, noon, evening or night transcending all barriers. That means when there is mangala arati in India and we sing samsar davana, in New York they sing kibo jayo jayo gaurachande . So in some place mangala arati and some place Sandhya-arati. After some time there will be mangala arati in the Middle East. After that it will be in Europe, England, then New York mangala arati, then Hawaii, then Japan, Australia mangala arati then Malaysia, Burma mangala arati. Like that 24 hours a day in some place there is mangala arati and Sandhya-aarti also going on. One time Prabhupada was talking about the ISKCON empire, the world of Hare Krishna as it is spread globally. He said, ‘The sun never sets in the ISKCON empire.’ Wherever there is Sun, there is ISKCON. All the parts - Eastern part , Western part, Middle East, South East , Far East. Wherever there is sun at any given point there is ISKCON, there are devotees chanting or distributing Prabhupada books. Yesterday the BBT trusties were making a presentation to the GBC's as they do every year. In that they informed that every second somewhere in the world Srila Prabhupada's books are being distributed. The British used to make the claim that they had spread their empire far and wide. England is very small, a tiny little country. They had become very powerful by spreading their kingdom. They used to make the claim that, ‘ The sun never sets in the British empire.’ One time Prabhupada had commented , ‘ The sun never sets in the British empire, but the sun never rises in England.’ It is always cloudy. Getting sun there is a very rare occasion. Surya- darsana is difficult. One of the chanters has remarked that , ‘ I am seeing you and you are seeing me in this conference‘. My thought was that's not all we want to achieve. We want to see Krsna. In the mundane world, this is where it ends - I see you, you see me , we shake hands and embrace and do this and that, but there is nothing beyond that. But for us chanters, we are seeing each other on this conference, but our aim is to see Krsna. Each other's presence should act like a catalyst in seeing Krsna ultimately. premanjana-cchurita-bhakti- vilochanena santah sadaiva hridayeshu vilokayanti yam shyama-sundaram achintya-guna-svarupam govindam adi-purusham tam aham bhajami ( BS. Verse 11) 11) I worship Govinda, the primeval Lord, who is Syamasundara, Krishna Himself with inconceivable innumerable attributes, whom the pure devotees see in their heart of hearts with the eye of devotion tinged with the salve of love. So vilokayanti - they see hridayeshu - in their hearts . What do they see? yam shyama-sundaram achintya-guna-svarupam. I was thinking of that and was reminded of a statement in Bhagavatam. It comes at the time of the pastime of kidnapping of Rukmini. Sukadev Goswami describes that when Rukmini was going to the Ambika temple just before her marriage with Sisupal, Rukmini’s feet were walking towards the feet of Ambika. Two sets of feet are there. Rukmini is using her feet for walking and she was remembering the Lotus Feet of Krsna. So that is the third set of Feet. She didn't care about her feet or Ambika's feet. But was only remembering the Lotus Feet of Krsna. That is the main party. Like a marriage partner. Krsna is the marriage partner. It's not just an affair between wife and husband. Partnership doesn't become complete with just wife and husband in Grihasta ashram till Krsna comes there. He is the third or first or the main partner. So as you chant Hare Krishna your perspective is expected to change. Your viewpoint changes. It becomes positive, truthful. While chanting I was reminding myself that first of all I am in the middle of worship. yagnai sankirtnaih hi prayai yajantihi hi sumedhasa. (SB. 11.5.32) So by performing yajantihi -sacrifice, while doing worship , I am worshipping the holy name. Who is worshipping? The soul is worshipping. We are using the body as paraphernalia. We use dhoop or deep, flowers or naivaidya . We use them with our hands, but worshipper is the soul. We are worshipping the Supreme Soul, worshipping the holy name - Krsna. We are worshipping Nama Prabhu. If the soul is not in the body, is worship possible? Body is there. Patram pushpam, phalam toyam, deepam, dhupam , naivedyam everything is there and the body is also there. But if soul is not there, is worship possible? At least you are not there. Maybe someone else will end up doing it, but not you! Because you are no there. So the worshipper is the soul, i.e. our real self. We are worshipping the holy name. Aradhya means the object of our worship. The worshipper is aradhak or aradhika. One who worships is aradhak and one who is being worshipped is aaradhya. aradhya bhagwan brajesh tanaya …. (Caitanya-matta-manjusa commentary on Srimad-Bhagavatam by Srinath Chakravarti.) The way we worship is aradhana. So aradhak(we) do aradhana( process) to please aradhya( His deity or Istadev). Aradhana includes mood and feelings , our devotion. That is what also Krsna said - patraṁ puṣpaṁ phalaṁ toyaṁ yo me bhaktyā prayacchati tad ahaṁ bhakty-upahṛtam aśnāmi prayatātmanaḥ ( BG. 9.26) If one offers Me with love and devotion a leaf, a flower, a fruit or water, I will accept it. You are using patram, puspam, phalam as part of your aradhana process, but it has to be accompanied with 'bhakty’ or devotion. It becomes like an 'upakaran’ or instrument. So bhaktya is in tritiya vibhakti. Similarly as in the verse - abhyasen tu kaunteya, here abhyasen is also tritiya. Abhyasen , vairagyen. So many words like that became instrument. So not just that we are saying Hare Krishna, but we are using our lips and tongue which must vibrate . While all this is happening the mind has to be into it. So devotional mind will have devotional thoughts. What is the function of mind? Thinking, feeling and willing - all these functions have to be Krishnised . There has to be devotional thinking, devotional feelings and a strong devotional will means a strong will. - aka mah sarva-kamo va moksha-kama udara-dhih trivrena bhakti-yogena yajeta purusam param (SB 2.3.10) A person who has broader intelligence, whether he be full of all material desire, without any material desire, or desiring liberation, must by all means worship the supreme whole, the Personality of Godhead. Trivrena means very intense , bhakti means full of feelings, emotions and devotion. So that's the aradhana part. We are aradhaks and the holy name - Harinama Prabhu is aradhya. Then we sit down and do aradhana or Upasana or worship. Yajantihi sumedhasa. So we are sitting down for the most important business or activity or aradhana. If you stand up, then you may not be doing it. At the place of chanting, sit down and chant. That means you are a serious chanter. Not that if you started walking means you are not chanting! Not that you should not chant while walking, but your 16 rounds , chant as much as possible sitting down, which is proper asana. I was thinking as I keep doing all the time that. Panditaha samdarshinaha… Pandit means learned. One is full of ‘panditya’ is Pandit, Vidvatta. Pandit only can do samadarshina. Or Vidya vinaya sampanne brahmana gavi hastini shuni chaiva shwapake Cha panditaha samdarshinaha. ( BG. 5.18) He is seeing the soul and not the body - ultimately that's the goal. In the spiritual sky there are no bodies. The soul is a body, a form. Not that this is body and this is the soul. The soul is from top to bottom a form. So my thought was that Hare Krishna Hare Krishna is Harinama Prabhu. The soul is what is within us. We are dirt, dust. The Bible says, ‘For dust you are and to dust you shall return’(Genesis 3:19). So I was thinking there are so many bodies around me. They are just one pile of dirt, another pile of dirt. Settle them down and what remains is a soul which is eternal and indestructible. na hanyate na hanyamane sharire. ( BG. 2.20) So if that happens, then another inch of floor would rise with dirt. Then only Harinam Prabhu and the soul will remain Haribol! Spirit soul! I mean that is what happens ultimately. Don't want to think that might happen in this room . We are all not bodies in this room, but wherever that happens there will be dirt here, dirt there. What would remain is a soul. So while chanting also realise and understand others as a soul. I am also soul and others are also soul and in the midst of all of us is Harinama Prabhu. As we chant HARE KRISHNA HARE KRISHNA KRISHNA KRISHNA HARE HARE HARE RAMA HARE RAMA RAMA RAMA HARE HARE As we Chant, our perspective, our viewpoint should change. What are we thinking, the way we are evaluating, judging, using the power of discrimination, the power of our sharp Krishna conscious intelligence, which separates the soul from the body. Not just your soul from the body, but separates others’ souls also from their bodies with the sword of knowledge. Not literally, but intellectually we cut or separate the souls from the body. We try to treat others as a soul. We try to treat others as atmavat sarva bhutesu All other living entities think like yourself. (Buddha) matrvat para-dareṣu para-dravyesu lostravat atmavat sarva-bhutesu yah pasyati sa panditah (Canakya-sloka 10) “One who considers another’s wife as his mother, another’s possessions as a lump of dirt and treats all other living beings as he would himself, is considered to be learned.” One who sees like this is a Pandit. So what does he see? Among those three, one who sees atmavat sarva bhutesu all other living entities are like me , they are mine, they are Krsna's. So they are my brothers and sisters, is a Pandit . His vision is that they belong to my Krsna. So we will stop here. Hare Krishna!

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