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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक ०७ अप्रैल २०२१ हरे कृष्ण! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में ८५२ स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। गौर प्रेमानंदे, हरि हरि बोल! अकिंचन भक्त, तुम्हारा भी स्वागत है। आज यह संख्या थोड़ा अधिक होने का कारण एकादशी भी हो सकती है लेकिन आज सभी के लिए एकादशी नहीं है। पंढरपुर में आज हमारे लिए एकादशी नहीं है। हम कल एकादशी मनाएंगे। कीर्तन मिनिस्ट्री की ओर से भी हम कल ही एकादशी मनाएंगे। एकादशी के दिन हम श्रवण, कीर्तन उत्सव मनाते हैं। इसलिए कल प्रातः कालीन सत्र के अंतर्गत मैं भी कीर्तन करूंगा। जप तो होगा ही, साथ में कीर्तन और कथा भी होगी लेकिन कल कथा अंग्रेजी में होगी। (आप थोड़ा अंग्रेजी भी सीख सकते हो) मैं सोच रहा था कि क्या संख्या में वृद्धि होने का कारण कोरोना वायरस तो नहीं है क्योंकि कोरोनावायरस भी बढ़ रहा है। दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय। जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय। अर्थ:- दुःख में हर इंसान ईश्वर को याद करता है लेकिन सुख में सब ईश्वर को भूल जाते हैं, अगर सुख में भी ईश्वर को याद करो तो दुःख कभी आएगा ही नहीं। यह भी समस्या है। करोना का रोना पूरी दुनिया व भारत वासियों को परेशान कर रहा है। महाराष्ट्र तो टॉप में चल रहा है, ऐसे में परेशान जनता को भगवान ही याद आते हैं। यह भी हो सकता है कि आप में से भी कुछ भक्त जो इस जपा कॉन्फ्रेंस में सम्मिलित हुए हो, वे दुखी हों अथवा दुख देख रहे हों। हरि! हरि! 'यह मेरे साथ भी हो सकता है' (वैसे कभी ऐसा सोचना भी चाहिए), नहीं तो लोग मर रहे हैं और मरने दो। हमें कोई परवाह नहीं है। उस मरण से हमारा कोई लेना देना नहीं है, अधिकतर ऐसा ही हमारा स्टैंड होता है। युधिष्ठिर महाराज ने भी ऐसा ही कहा था- अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्। शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्र्चर्यमतः परम्।। ( महाभारत वनपर्व ३१३.१२६) अनुवाद:- इस संसार में प्रतिदिन अंसख्य जीव यमराज के लोक में जाते हैं; फिर भी जो बचे रहते हैं, वे यहाँ पर ही स्थायी पद की आकांक्षा करते हैं। भला इससे बढ़कर आश्चर्य की बात और क्या हो सकती है? अहनि अर्थात दिन। आप "अहर्निशं सेवामहे' जानते हो ना ? 'अहर्निशं सेवामेह' आपने यह भी कहीं पढ़ा होगा। शायद भारत डाक व तार विभाग का यही लोगो (ध्येय वाक्य है।अहर्निशं सेवामेह' अर्थात हम आपकी दिन रात सेवा करेंगे।अह का बहुवचन अहनि हुआ अर्थात हर दिन। रात के बाद दिन के बाद दिन अर्थात अहनि। ( मैं आपको सारा शब्दार्थ बता रहा हूँ। लेकिन ऐसे भी समझना चाहिए) लोग मर रहे हैं अथवा मारे जा रहे हैं लेकिन जो गए नहीं हैं अथवा बचे हुए हैं, कल रात कई सारों ने प्रस्थान किया था। आज प्रातः काल भी कुछ आईसीयू में हैं और कुछ कहां-कहां हैं। यह मृत्युलोक ही है, आज जब हमनें यह प्रातः कालीन जपा सत्र प्रारंभ किया था,तब उस समय थोड़ा लाइट इफेक्ट के लिए स्पेशल लाइट्स जलाई गई। लाइट जलाते ही उस समय लाखों कीड़े वहां पहुंच गए।( वे परेशान कर रहे थे इसीलिए हमने मास्क भी लगाया था। हम आपको मास्क लगाने का रहस्य बता रहे हैं) लेकिन हमारे एक माला का जप करते-करते एक लाख कीड़ों की मृत्यु हमारी आंखों के सामने हो गयी। हम आशा कर रहे थे कि जब हम जप कर रहे हैं तब शायद उन कीड़ों का कल्याण हुआ होगा। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। का कीर्तन सुनते सुनते वे बेचारे प्रस्थान कर गए। पांच मिनट के अंदर लगभग एक लाख अर्थात जितने लोग कल भारत में कोरोना वायरस से पॉजिटिव पाए गए थे, उतने ही जीव मेरे समक्ष पांच मिनट में समाप्त हो गए। तब मैं सोच रहा था कि हमारी अर्थात मनुष्य की दृष्टि में लाखों कीड़े- मकोड़े कुछ मिनटों में मर जाते हैं, और हम देखते भी हैं। वैसे ही जो देवता है जोकि अजर अमर होते हैं। (आप अमर तो समझते हो? लेकिन क्या कभी अजर के अर्थ को समझने का प्रयास किया। अजर जो जरा से संबंधित है। जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि। अजर अर्थात जो कभी बूढ़े नहीं होते।) वे अजर अमर रहते हैं। वे बूढ़े नहीं होते व बीमार भी नहीं होते। वे अमर रहते हैं। जब वे हम मनुष्यों को मरते हुए देखते हैं, तब उन देवताओं के यहां, 5 मिनटों में लाखों-करोड़ों मनुष्य ऐसे ही जान गंवाते दिखाई देते होंगे, जैसे हमारे समक्ष यह लाखों-करोड़ों कीड़े ऐसे ही मर जाते हैं। इसीलिए भी इस लोक अथवा पृथ्वी लोक अथवा इस त्रिभुवन का एक नाम मृत्यु लोक भी है। इस लोक का नाम ही मृत्यु लोक है क्योंकि हमें अधिकतर मरना ही होता है। कितने लोग मरते हैं? जितने लोग जन्म लेते हैं, उतने लोग ही मरते हैं। तब डेथ रेट कितना है? यह डेथ रेट सौ प्रतिशत है। ऐसा नहीं है कि सौ लोगों ने जन्म लिया तो 50 लोग नहीं मर रहे हैं। ऐसा नहीं है।( तब नियम क्या है? ) भगवान ने नियम बनाया है। भगवान की सृष्टि में ऐसा नियम है। जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।। ( श्रीमद् भगवतगीता २.२७) अनुवाद:- जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है | अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए। जिसका जन्म है, उसकी मृत्यु निश्चित है। यह मृत्यु होती ही रहती है। हरि हरि! इस जगत को मृत्यु लोक भी कहते हैं । किसी की मृत्यु हुई तो यह कोई अचरज वाली बात नहीं है। (हम मरने वाले हैं या नहीं?आप ने जन्म लिया है?) आपने जन्म लिया है इसीलिए तो यहां बैठे हो अर्थात जन्म लेकर बैठे हो लेकिन नियम क्या है? 'जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु' -जन्म लिया है, तब मरना ही होगा। हमारा मरण निश्चित है। हरि! हरि! लेकिन हम मरने की तैयारी नहीं करते। हम यह जो जप अथवा भक्ति करते हैं, यह मरने की तैयारी ही है। हरि! हरि! जैसे आर्ट ऑफ लिविंग (जीने की कला) होती है, वैसे ही आर्ट ऑफ डाईंग ( मरने की कला) भी होती है। साधु, शास्त्र, आचार्य हमें कौन सी कला अथवा शास्त्र सिखाते हैं? हम कह सकते हैं कि वे हमें यह मरने की कला अथवा विज्ञान सिखाते हैं। यह मरने की कला अथवा विज्ञान है। हरि! हरि! स्वीडन में एक किताब प्रकाशित हुई थी जिसका टाइटल था- आर्ट ऑफ कॉमेटिंग सुसाइड (आत्महत्या करने की कला)। उस देश में लोग आत्महत्या करना चाहते थे।इसलिए किसी ने कई तरीके सोचे औऱ लिखकर उसको प्रकाशित किया।'आपको दिमाग लड़ाने की आवश्यकता नहीं है।आप आत्महत्या करना चाहते हो तो यह पुस्तक लो। यह किताब तुम्हारे लिए मैन्युअल है। उसको पढ़ो और कोई एक तरीका अपनाओ।'यह मरने का दूसरा तरीका है लेकिन जब राजा परीक्षित का मरना निश्चित ही हो गया था। तब तिथि भी निश्चित हो गई थी कि आप सात दिन में मरने वाले हो। तब उस समय सभी महात्मा, राजर्षि देवऋषि एकत्रित हुए। सभी सोच रहे थे कि राजा परीक्षित को तैयार करना है। राजा परीक्षित को अब तैयारी करनी होगी। एतावान् साङ्ख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया। जन्मलाभः परः पुंसामन्ते नारायण स्मृतिः।। ( श्रीमद् भागवतम् २.१.६) अनुवाद्:- पदार्थ तथा आत्मा के पूर्ण ज्ञान से, योगशक्ति के अभ्यास से या स्वधर्म का भलीभांति पालन करने से मानव जीवन की जो सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त की जा सकती है, वह है जीवन के अन्त में भगवान् का स्मरण करना। अद्वैत आचार्य? हरिबोल! स्लीपिंग इज आल्सो डाईंग( सोना भी मृत्यु ही है) स्लीपिंग इज ऑलमोस्ट लाइक डाईंग।( सोना भी मृत्यु के समान है) सोना लगभग मरण ही है। जब हम मरने की कला की चर्चा कर रहे हैं, तब इस चर्चा के बीच कुछ मर रहे हैं अर्थात सो रहे हैं मतलब मर ही रहे हैं। ऐसे में इस कला को कैसे सीखोगे? कैसे तैयारी करोगे? तैयारी किए बिना मरना, पशु जैसा मरना है। कैट्स एंड डॉग्स भी बिना तैयारी किए मरते हैं लेकिन हमें मनुष्य जीवन में तैयारी करनी चाहिए। हम उस क्षण के लिए तैयार रहना चाहिए। शुकदेव गोस्वामी भी वहीं पहुँच गए। अगले सात दिन में जो कथा हुई, उसका उद्देश्य अन्ते नारायण स्मृतिः अर्थात अन्त काल में नारायण की स्मृति अथवा कृष्ण की स्मृति हो। अन्त में नारायण की स्मृति हुई ।अंग्रेजी में कहते हैं कि आल इज वैल, दैट एंड्स वेल अंत ठीक है तो सब कुछ ठीक है। यदि अंत ठीक नहीं हुआ तब आपके सारे प्रयास बेकार गए। आप असफल हुए। हरि! हरि! (सुन रही हो ना? बीच में झपकी लग रही है। मैं एक दो लोगों के सैम्पल देख रहा हूँ। ९०० लोगों में से एक स्क्रीन पर एक सो रहा है मतलब कई सारे सोते होंगे।) जो सोएगा, वो खोएगा। जानते तो हो, लेकिन हम जानते हुए भी नहीं समझते। देहापत्यकलत्रादिष्वात्मसैन्येष्वसत्स्वपि। तेषां प्रमतो निधनं पश्यन्नपि न पश्यति।। ( श्रीमद् भागवतम् २.१.४) अनुवाद:- आत्मतत्व से विहीन व्यक्ति जीवन की समस्याओं के विषय में जिज्ञासा नहीं करते, क्योंकि वे शरीर, बच्चे तथा पत्नी रूपी विनाशोन्मुख सैनिकों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं। पर्याप्त अनुभवी होने के बावजूद भी वे अपने अवश्यम्भावी अवश्यभावी विनाश (मृत्यु) को नहीं देख पाते। पश्यन्नपि न पश्यति अर्थात हम देखते हुए भी देखते या समझते नहीं हैं। ( संस्कृत का श्लोक आ गया) हमनें सुना तो होता है, जो सोएगा वो खोएगा लेकिन फिर भी हम सोते रहते ही हैं। पश्यन्नपि न पश्यति का कारण क्या है? 'तेषां प्रमतो निधनं' अर्थात हम इससे या उससे इतने अधिक आसक्त होते हैं। इसलिए मराठी में कहावत है कडते पर वर्त नहि। ऐसे ही 'पश्यन्नपि न पश्यति'हरि! हरि! शुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित की मदद की जिससे वे मृत्यु के लिए तैयार हो जाए। राजा परीक्षित यह भी कह रहे थे कि मेरे पास तो बहुत कम समय है,केवल सात ही दिन बचे है। तब उनको बताया गया कि सात दिन तो बहुत होते हैं। शुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित को खटवांग मुनि के विषय में बताया( जिसका वर्णन श्रीमद् भागवतम् में भी आता है) खटवांग मुनि के पास कितना समय था? खटवांग मुनि के पास कुछ ही क्षण थे। कुछ ही क्षणों में वे ऐसे गंभीर बन गए, शायद उनके पास एक प्रहर की अवधि थी जोकि कुछ मिनटों अथवा आधे घंटे का होती है। इतने कम समय में उन्होंने कृष्णभावना का अभ्यास क्या किया होगा? उन्होंने उसकी फ्रिकवेंसी( आवृत्ति) इंटेंसिटी(तीव्रता) को बढ़ा दिया। (इस पर विचार करो) उन्होंने ऐसी तीव्रता के साथ अपनी साधना श्रवण, कीर्तन, स्मरण को अपना लिया अथवा बढ़ा दिया। जैसा कि भगवान् कृष्ण ने भी कहा है अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरषं परम्।। ( श्रीमद् भागवतम २.३.१०) अनुवाद:- जिस व्यक्ति की बुद्धि व्यापक है, वह चाहे समस्त भौतिक इच्छाओं से युक्त हो या निष्काम हो अथवा मुक्ति का इच्छुक हो, उसे चाहिए कि वह सभी प्रकार से परम् पूर्ण भगवान् की पूजा करे। भगवान् की भक्ति में तीव्रता होनी चाहिए।तीव्रेण भक्तियोगेन। ढीला ढाला काम नहीं,तीव्रेण अर्थात तीव्रता होनी चाहिए। जैसे पुलिस या आर्मी के लोग इंटरवल अथवा लंच ब्रेक या स्पेस आउट होने पर, फालतू समय गंवा रहे होते हैं, तब उनका कमांडर उनको कहता है कि सावधान! तब उस आर्मी का ध्यान जोकि इधर उधर था, वे फिर केंद्रित हो जाता है और अपना बेल्ट आदि टाइट कर आदेश की प्रतीक्षा करते हैं कि आपका क्या आदेश है? वे आदेश की प्रतीक्षा करेंगे अर्थात वे ध्यान केंद्रित हो जाएंगे। ऐसे ही 'तीव्रेण भक्तियोगेन' तीव्रता और फ्रीक्वेंसी( आवृत्ति) के साथ भगवान् की सेवा करनी होती है स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे। अहैतुक्यप्रतिहता ययात्मा सुप्रसीदति। ( श्रीमद्भागवतगम १.२.६) अनुवाद:- सम्पूर्ण मानवता के लिए परम् वृत्ति ( धर्म) वही है, जिसके द्वारा सारे मनुष्य दिव्य भगवान् की प्रेमा- भक्ति प्राप्त कर सकें। ऐसी भक्ति अकारण तथा अखंड होनी चाहिए जिससे आत्मा पूर्ण रूप से तुष्ट हो सके। भागवत कहता है 'भक्तिरधोक्षजे' भगवान का एक नाम अधोक्षज है। उनकी भक्ति करना। कैसी भक्ति करना? अहैतुकि अर्थात जिसमें कोई भौतिक कामना ना हो। न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥ ( श्री श्रीशिक्षाष्टकम श्लोक संख्या ४) अनुवाद: हे सर्व समर्थ जगदीश ! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दर स्त्री अथवा प्रशंनीय काव्यों का इक्छुक नहीं हूँ । मेरी तो एकमात्र यही कामना है कि जन्म-जन्मान्तर मैं आपकी अहैतुकी भक्ति कर सकूँ। अहैतुकि मतलब जिसमें धन, सुंदरी आदि की कोई कामना ना हो। अप्रतिहता मतलब अखंड। कुंती महारानी ने गंगोहम शब्द का प्रयोग किया है। हरि! हरि! राजा परीक्षित वैसी ही तैयारी कर रहे थे। जब वे ऐसा अभ्यास करते हैं, तब क्या होता है? यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् । तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥६॥ ( श्रीमद् भगवत गीता ८.६) अनुवाद:- हे कुन्तीपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है। भगवत गीता में बड़े ही महत्वपूर्ण शब्द हैं। कृष्ण कह रहे हैं- यं यं वापि स्मरन्भावं अर्थात यं यं मतलब जो जो। वैसे तं तं भी होता है तं तं का अर्थ वह। स्मरन्भावं- हमारा जैसा भाव होगा अथवा हम जिस भाव में स्मरण करेंगे अर्थात जब इस कलेवरं अथवा अंत का समय आता है, उस समय हमारे जो भाव होते हैं, तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः अर्थात उसी के अनुसार हमारा भविष्य निश्चित होता है। अगला जन्म निश्चित ही है । जन्म है तो मृत्यु है, मृत्यु है तो फिर जन्म है। यदि जन्म नहीं लेना चाहते हो तो ऐसी तैयारी करनी होगी जैसा कि कृष्ण ने कहा है- जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता ४.९) अनुवाद:- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है। ऐसी व्यवस्था है अथवा मृत्यु के समय हमारे जो भाव रहेंगे भगवान कहते हैं वह तुम्हारा अगला जन्म निर्धारित करेंगे। ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता १४.१८) अनुवाद:- सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं, रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं यदि तुम्हारे सात्विक भाव और विचार होंगे तो स्वर्ग जाओगें अन्यथा रुक जाओ, पुनः मृत्यु लोक में पहुंचोगें। मृत्यु के समय के भाव व विचार बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। एक परिवार, शंभू नाथ का पुजारी था। उस परिवार में पिताश्री की जान जा रही थी, उनकी एक-दो सांस ही बची थी। सभी परिवार के सदस्य इकट्ठे हो जाते हैं। उनके पांच पुत्र थे और वे सब भी वहां पहुंच गए और पिताजी से प्रार्थना कर रहे हैं कि पिताजी, पिताजी, भोला! भोला! कहिए, शिव भोला कहिए। डैडी!! डैडी! भोला! भोला! कहो, भोला तो कहिए लेकिन पिताजी ने भोला कहने की बजाय कोका कोला कहा। तत्पश्चात वह कहां गए होंगे? वह कोका कोला लोक गए होंगे। कोका कोला लोक कौन सा है? अमेरिका, कोका कोला लोक है। यह समस्या है। हमें तैयारी करनी है जिससे अंतिम क्षणों में .. इसीलिए वह गीत भी है। इतना तो करना स्वामी, जब प्राण तन से निकले, गोविंद नाम लेकर तब प्राण तन से निकले। वैसी तैयारी करनी होगी। हमारे जपा रिट्रीट करने वाले अर्थात जब हमारी जपा रिट्रीट होती है तब कभी-कभी जपा रिट्रीट को प्रस्तुत करने वाले प्रस्तुतकर्ता यह भी कहते हैं कि हे जप कर्ता भक्तों, आप कल्पना कीजिए कि आप मृत्यु का सामना कर रहे हो' कल्पना कीजिए कि मृत्यु आपकी ओर दौड़कर आ ही रही है और कभी भी पहुंच सकती है। वैसे ऐसा संभव ही है। उस स्थिति में आप क्या करोगे? कल्पना कीजिए और फिर तैयार भी रहो। अजामिल ने मृत्यु को देखा को था। उसने मृत्यु को देखा मतलब यमदूतों को देखा था। तब उस बेचारे ने नारायण! नारायण! कहा। भगवान् ने उसको क्रेडिट दे दिया जबकि वह अपने पुत्र नारायण को पुकार रहा था। वह सोच रहा था कि मैं अपने पुत्र नारायण को नारायण नारायण पुकार रहा हूँ लेकिन नारायण किसका नाम है? बताइए? नारायण किसका नाम है? बहुत ही सरल प्रश्न है। शायद प्रश्न थोड़ा कठिन हो सकता है लेकिन उत्तर बड़ा ही आसान है। नारायण किसका नाम है? महालक्ष्मी! बताओ, नारायण किसका नाम है? नारायण का नाम नारायण हैं। केवल नारायण ही नारायण है। कृष्ण, किसका नाम है, केवल कृष्ण का नाम कृष्ण है। बाकी सब कृष्ण दास या नारायण दास है। भगवान ने उसको क्रेडिट दे दिया और उसने नामाभास में भगवान को पुकारा। तब बेचारा कम से कम मुक्त तो हुआ। भक्त तो नहीं हुआ और न ही उसे वैकुण्ठ ले कर गए थे। लेकिन वह मुक्त हुआ, वह जीवन भर नारायण आ जाओ, नारायण बैठो, नारायण भोजन करो, नारायण तुम्हारे लिए खिलौने हैं... नारायण, नारायण ऐसा कहता रहा। यह भी फायदे हैं। अपने परिवार के सदस्यों को नारायण या गिरिधारी या पांडुरंग ऐसे कुछ नाम देने चाहिए लेकिन आजकल चिंकू पिंकू ऐसे नाम चलते रहते हैं। किसी से पूछो बेटे का नाम क्या है? चिंकू! इस प्रकार चिंकू पिंकू यह सब बेकार के नाम हैं। इसका कोई फायदा नहीं है हमारी संस्कृति में ऐसी व्यवस्था तो है जिसका कोई फायदा उठाएगा। वह अपने बेटे और बेटियों के नाम भगवान के नाम पर ही रखेगा। हरि! हरि! जपा रिट्रीट में जप करने वाले को कभी-कभी ऐसा होमवर्क दिया जाता है और कहा जाता है कि आप कल्पना करो कि आप मृत्यु को सामना कर रहे हो, आप उस स्थिति का सामना कैसे करोगे अथवा आप कैसी तैयारी करोगे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहने की बजाय आप डॉक्टर डॉक्टर कहोगे या बचाओ बचाओ कहोगे। जैसे प्रभुपाद के समय से यह चर्चा हो रही है- किसी ने कहा कि चैंट चैंट चैंट( जप करो, जप करो, जप करो) कहो। तब दूसरे व्यक्ति ने कहा कैंट,कैंट, कैंट( नहीं, नहीं, नहीं) एक निवेदन कर रहा है चैंट चैंट चैंट( जप करो, जप करो, जप करो) लेकिन दूसरा व्यक्ति कह रहा है कैंट,कैंट, कैंट( नहीं, नहीं, नहीं), कैंट(नहीं, नहीं, नहीं) अरे बाबा तुमने कैंट कहने में इतना शक्ति, सामर्थ्य और समय भी व्यतीत कर दिया, उतने समय में तुम चैंट चैंट चैंट( जप , जप , जप) कह सकते थे या हरे कृष्ण हरे कृष्ण कह सकते थे। हरि! हरि! सभी अभ्यास करो। यह अभ्यास तो वही है। मनो मध्ये स्थितो मंत्रौ मन्त्र मध्ये स्थितं मनः मनो मन्त्र समा युक्तम एतेहि जपा लक्षणम। (आपको मनो मध्ये याद है? कल आपको गृह कार्य दिया था। आपअभी नोटबुक खोल रहे हो? प्रेम मंजरी कल का मंत्र क्या था? क्या तुम बिना अपने नोट्स देखे बता सकती हो? ओके, आधे तक पुंहच गयी) ऐसे ही हनुमान ने कहा था कि हम लंका तो जा सकते हैं लेकिन हम आधा रास्ता तय कर सकते हैं, कोई कह सकता है कि मैं रास्ते का 70% जा सकता हूं। मनो मध्ये स्थितो मंत्रौ अर्थात मन में मंत्र को स्थिर करो। इसे थोड़ा उल्टा करके भी कहना है वह मनो मध्ये था, मन्त्र मध्ये स्थितं मनः अर्थात मन को मंत्र में स्थिर करो या फिर मंत्र को मन में स्थिर करो। मनो मन्त्र समा युक्तम, दोनों का एक दूसरे के साथ मिलन या मिश्रण करो या एक में दूसरे को, दूसरे में एक को या एतेहि जपा लक्षणम। यही जप का लक्षण है। जप के समय यही करना होता है। बड़ा ही संक्षिप्त व सूत्र रूप में जप का लक्षण बताया है। जप के समय ऐसा अभ्यास करो। यह तैयारी है, यह कला भी है। यह शास्त्र भी है। आर्ट एंड साइंस ऑफ डाइंग। हरि! हरि! ठीक है यहां रुक जाते हैं। हरे कृष्ण!

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