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जप चर्चा, पंढरपुर धाम से, 22 नवम्बर 2021 हरे कृष्ण..! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल..! आज जप चर्चा में 836 भक्त उपस्थित हैं। मेरे खयाल से बीच में शनिवार, रविवार आ गया तो लोग दांडी (छुट्टी) मार गये,इसलिए भी आज संख्या थोड़ी कम हैं, वैसे हम लोग ब्रेक वगैरह नहीं लेते, आप सभी जानते हैं। "त्वयि मे़Sनन्यविषया मतिर्मधुपतेSसकृत्। रतिमुव्दहताध्दा गग्ङेवौघमुदन्वति।।" (श्रीमद्भागवत 1.8.42) अनुवाद: - हे मधुपति, जिस प्रकार गंगा नदी बिना किसी व्यवधान के सदैव समुद्र कि ओर बहती हैं, उसी प्रकार मेरा आकर्षण अन्य किसी और ना बँट कर आपकी और निरंतर बना रहें। 'गग्ङेवौघ..!' कुंती महारानी कह रही हैं कि तुम्हारी भक्ति कैसी हो? जैसे गंगा का ओघ 'गग्ङेवौघ', गंगा जैसे गोमुख से गंगासागर कि ओर सदैव बहती रहती हैं,अखंड! कभी विश्राम नहीं लेती,ना संडे, ना मंडे, ना लंच ब्रेक उसी तरह कुंती महारानी ने गंगा का स्मरण किया और कहा कि 'गग्ङेवौघ..!' "स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे । अहैतुक्यप्रतिहता ययात्मा सुप्रसीदति ॥" (श्रीमद्भागवत 1.2.6) अनुवाद:-सम्पूर्ण मानवता के लिए परम वृत्ति ( धर्म ) वही है जिसके द्वारा सारे मनुष्य दिव्य भगवान् की प्रेमा - भक्ति प्राप्त कर सकें । ऐसी भक्ति अकारण तथा अखण्ड होनी चाहिए जिससे आत्मा पूर्ण रूप से तुष्ट हो सके । 'अहैतुक्यप्रतिहता ययात्मा सुप्रसीदति।' ये भी भागवत के प्रथम स्कंध मे कहा गया हैं। मनुष्य को भक्ति करनी चाहिए। 'स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे।' कर्मयोगी,ज्ञानयोगी,अष्टांगयोगी नहीं बनना चाहिए, कभी हो सकता हैं कि जीवन कि किसी अवस्था में कर्मयोगी थे और अब विकास हो रहा हैं तो आगे बढ़ना चाहिए और ज्ञान योगी बनना चाहिए और आगे बढ़ना चाहिए और अष्टांग योग होना चाहिए। "योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना | श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ||" (श्रीमद्भगवद्गीता 6.47) अनुवाद:- और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण हैं,अपने अन्तःकरण में मेरे विषय में सोचता हैं और मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता हैं, वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में युक्त रहता हैं और सबों में सर्वोच्च हैं|यही मेरा मत हैं| भगवद्गीता के प्रारंभ में अलग-अलग योगियों का उल्लेख हैं और केवल छठे अध्याय में अध्याय के अंतिम श्लोक में भगवान ने कहा, सारांश में कह रहे हैं,यह सारे जो योगियों का मैंने जिक्र किया कर्मयोगी, ज्ञानयोगी,अष्टांगयोगी और इन सभी में श्रेष्ठ हैं भक्ति योगी। ऐसे योगी,भक्ति योगी बनो! यह स्वयं कृष्ण भगवान का आदेश हैं। "एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान स्वयम। इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे।।" (श्रीमद् भागवतम १.३.२८) अनुवाद:- उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश (कलाएं) हैं, लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरषोत्तम भगवान हैं। वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं। भगवान आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं। 'स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे।' भगवान का एक नाम हैं, अधोक्षज।अब मैं यह नहीं बताऊगा कि भगवान को अधोक्षज क्यों कहते हैं।खुद से यह पता लगाइए। मनुष्य का भक्ति करना धर्म हैं और फिर किसकी भक्ति करनी चाहिए? अधोक्षज। देवी देवताओं कि भक्ति नहीं,दुर्गा गणेश की भक्ति को भक्ति नहीं कहते,उसको भुक्ति कहते हैं।आपके जानकारी के लिए एक होती हैं- भक्ति और दूसरी होती है भुक्ति। "कृष्ण-भक्त- निष्काम, अतएव 'शान्त'। भुक्ति-मुक्ति-सिद्धि-कामी- सकलि 'अशान्त'।।" (श्री चैतन्य चरितामृत, मध्य19.149) अनुवाद: -"चूंकि भगवान् कृष्ण का भक्त निष्काम होता हैं, इसलिए वह शान्त होता हैं। सकाम कर्मी भौतिक भोग चाहते हैं, ज्ञानी मुक्ति चाहते हैं और योगी भौतिक ऐश्वर्य चाहते हैं; अत: वे सभी कामी हैं और शान्त नहीं हो सकते।" भक्ति सर्वोपरि हैं,मेरे कहने का तात्पर्य यह था कि फिर आगे इस वचन में कहां हैं कि भक्ति कैसी करनी चाहिए? अहैतुकी! उसमें कोई हेतु नहीं हो इस पर चैतन्य महाप्रभु ने कहा हैं- "न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि॥" (श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य 20.29,शिक्षाष्टक 4) अनुवाद:-न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। हे सर्वसमर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दरी स्त्री अथवा अलंकार कविता का ही इच्छुक हूँ। मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि जन्म-जन्मान्तर में आपकी अहैतुकी भक्ति बनी रहे। यहां पर चैतन्य महाप्रभु ने अहैतुकी कृपा का उल्लेख किया हैं।अहेतु की भक्ति मतलब ना धनं, ना जनं, मतलब अहैतुकी।ना भुक्ति चाहिए, ना मुक्ति भी चाहिए।भुक्ति-मुक्ति-सिद्धि-कामी इसलिए कह रहे हैं "मम जन्मनि जन्मनीश्वरे"।वह कह रहे हैं कि मैं तैयार हूं अगर फिर से जन्म लेना पड़े तो जन्म लेना यह अच्छा नहीं हैं।लेकिन आपके लिए अगर लेना पड़े तो मुझे अहैतुकी भक्ति प्राप्त हो। एक अहैतुकी और दूसरी अप्रत्ययता ।अप्रत्ययता मतलब अखंड!,अप्रतिहता! उसमें संडे मंडे नहीं हैं।अहैतुकी,अप्रतिहता, अहर्निश,24/7।हरि हरि! यह दामोदर मास के उपरांत नया मांस,नया महीना शुरू हुआ हैं। कौन सा महीना चल रहा हैं? याद हैं? मार्गशीर्ष महीना! ऋतु कौन सा चल रहा है? हेमंत! "श्रीशुक उवाच हेमन्ते प्रथमे मासि नन्दव्रजकमारिकाः । चेरुर्हविष्यं भुञ्जानाः कात्यायन्यर्चनव्रतम् ॥" (श्रीमद्भागवत10.22.1) अनुवाद:-शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हेमन्त ऋतु के पहले मास में गोकुल की अविवाहिता लड़कियों ने कात्यायनी देवी की पूजा,व्रत रखा।पूरे मास उन्होंने बिना मसाले की खिचड़ी खाई । भागवत में कहा हैं, हेमंत ऋतु का पहला महीना हैं, मार्गशीर्ष और दूसरा महीना हैं, पौष। मार्गशीर्ष-पौष इन दो महीने में से पहला महीना मार्गशीर्ष में "नंदगोपकमारिकाः" नंद महाराज का जो ब्रज हैं नन्दव्रजकमारिकाः,नंद महाराज के व्रज कुमारीयों ने कुछ किया? क्या किया उन्होंने? चीर घाट पर गई और उन्होंने कात्यायनी कि पूजा कि, आराधना कि और आराधना के साथ 'जपन्त्यस्ता' जप कर रही थी, मानो जप ही कर रही थी या बारंबार कह रही थी, क्या कह रही थी?क्या प्रार्थना कर रही थी? "कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि। नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नम:। इति मन्त्रं जपन्त्यस्ता: पूजां चक्रु: कमारिका:।।" (श्रीमद्भागवत 10.22.4) अनुवाद: - प्रत्येक विवाहिता लड़की ने निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुए उनकी पूजा की: "हे देवी कात्यायनी, हे महामाया, हे महायोगिनी, हे अधीश्वरि,आप महाराज नंद के पुत्र को मेरा पति बना दें। मैं आपको नमस्कार करती हूंँ।" नमस्कार भी कर रही हैं,प्रार्थना भी कर रही हैं,नमस्कार भी कर रही हैं, प्रार्थना भी कर रही हैं और दूसरा-तीसरा पति नहीं चाहिए हमें, हमारा पति नन्दगोपसुतं देवि महाराज का पुत्र हैं। कन्हैया लाल की जय..! नंदा महाराज का पुत्र और बस दूसरा कोई नहीं। "एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य। यारे यैछे नाचाय, से तैछे करे नृत्य ॥" (श्रीचैतन्य चरितामृत आदि 5.142) अनुवाद: -एकमात्र भगवान् कृष्ण ही परम नियन्ता हैं और अन्य सभी उनके सेवक हैं। वे जैसा चाहते हैं, वैसे उन्हें नचाते हैं। यही हैं, परमेश्वर तो कृष्ण हैं और सभी उनके दास हैं,सेवक हैं,अंश हैं या अंग हैं, अंशांश हैं, लेकिन हमें चाहिए "कृष्णस्थ भगवान स्वयं" और वे अब कृष्ण नंदनंदन या नंदसुत बने हैं और वे हमें प्राप्त हो। "नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नम:।" हम सभी को भी ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए। चैतन्य महाप्रभु ने कहा हैं ना, आप भक्ति कैसे करो? "आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृंदावनं रम्या काचीदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता । श्रीमद भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान् श्रीचैतन्य महाप्रभोर्मतामिदं तत्रादशे नः परः ।।" (चैतन्य मंज्जुषा) अनुवाद : भगवान व्रजेन्द्रन्दन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभव युक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु हैं। व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी , वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट हैं।श्रीमद् भागवत ग्रन्थ ही निर्मल शब्दप्रमाण हैं एवं प्रेम ही परम पुरुषार्थ हैं - यही श्री चैतन्य महाप्रभु का मत हैं । यह सिद्धान्त हम लोगों के लिए परम आदरणीय हैं। यह कई बार रिपीट होता हैं, पुनः पुनः हम कहते हैं।सभी शास्त्र और आचार्य भी कहते हैं।रम्या काचीदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता ।'व्रजवधूवर्ग' व्रज कि स्त्रिया; उनका वर्ग, उन्होंने जैसी भक्ति कि वैसे ही भक्ति करें,यह चैतन्य महाप्रभु ने कहा हैं,मैं जो यह प्रसंग बता रहा हूं यह श्रीमद्भागवत के दसवें स्कंध के 22वे अध्याय में हैं।ध्यान रखिएगा, आपको बाद में पढ़ना भी है,यह गृहपाठ हैं आपके लिए। यह नहीं कि केवल सुन लिया,आपको स्वयं को पढ़ना होगा, फिर नोट्स लिखने होंगे, चर्चा करनी होगी, जो समझ में आया वह औरों के साथ शेयर करो,समझ में नहीं आया तो प्रश्न पूछो प्रचार करो “मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||” (श्रीमद्भगवद्गीता 10.9) अनुवाद: -मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं | "बोधयन्तः परस्परम्" करो! और ऐसा जीवन जिओ! नही तो इसका भाव क्या हैं? उसका भाव क्या हैं?मिर्च का भाव बढ़ गया? बाजार भाव क्या?हो गया, इसी में सारा जीवन बीत रहा हैं। लेकिन ये भाव कुछ काम के नहीं हैं।अभाव तो भक्तिभाव का अभाव हैं। समझ में आता हैं ना आपको? अभाव किसका है, शॉर्टेज किसका है? भक्ति भाव का अभाव हैं। बहुत हो गया बाजार भाव क्योंकि "यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्। तं तमेवैति कौन्तेय सदा तभ्दावभावित:।।" (श्रीमद्भगवद्गीता 8.6) अनुवाद: -हे कुन्तीपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस-उस भाव को निश्चित रुप से प्राप्त होता है। 'यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।' इसको याद रखिए।भगवान कृपया हम पर कृपा करो और भगवद्गीता में कहां हैं कि यं यं वापि स्मरन्भावं जो जो भाग हमारा होगा कब? त्यजत्यन्ते कलेवरम्। कलेवरम् मतलब देह को त्यागते समय हमारा जैसा भाव हैं, तं तं, यं यं-तं तं जैसा जैसा भाव हैं, वैसा वैसा हमारा भविष्य होगा। हरि हरि! "श्रीभगवानुवाच कर्मणा दैवनेत्रेण जन्तुर्देहोपपत्तये । खियाः प्रविष्ट उदरं पुंसो रेतःकणाश्रयः ॥" (श्रीमद्भागवत 3.31.1) अनुवाद:-भगवान् ने कहा : परमेश्वर की अध्यक्षता में तथा अपने कर्मफल के अनुसार विशेष प्रकार का शरीर धारण करने के लिए जीव ( आत्मा ) को पुरुष के वीर्य कण के रूप में स्त्री के गर्भ में प्रवेश करना होता है । इसका ऐसा सिद्धांत हैं। एक विज्ञान से वैसे सब समझाया हैं, हमारे कर्मों के अनुसार हमारे कर्मो का फल मिलेगा और फल किस रूप में सत- असत जन्मयोनेशु पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् | कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु || २२ ||” (श्रीमद्भगवतगीता 13.22) अनुवाद: -इस प्रकार जीव प्रकृति के तीनों गुणों का भोग करता हुआ प्रकृति में ही जीवन बिताता हैं| यह उस प्रकृति के साथ उसकी संगति के कारण हैं| इस तरह उसे उत्तम तथा अधम योनियाँ मिलती रहती हैं | स्वर्ग में जन्म या नर्क में यातना मिलती रहती हैं।लेकिन हमें तो ना स्वर्ग चाहिए नरक तो चाहिए ही नहीं।हमको तो वैकुण्ठ या हमको तो गोलोक चाहिए। गोलोक धाम कि जय...! बोलो गोलोक चलो..! बैक टू गोलोक..! वैसे तैयारी भी करनी चाहिए, वैसे भाव भी चाहिए जैसे गोलोक में भक्तों के भाव होते हैं,वही हम सीख रहे हैं।यहां यह जो प्रसंग हैं, इस मौसम में,मार्गशीर्ष महीने में हेमंत ऋतु में,गोपिया जिस भाव के साथ, प्रार्थना के साथ अपनी भक्ति कर रही हैं, ये हमको सीखना होगा। उन्होंने ऐसी लीलाएँ कि, उन्होंने ऐसी प्रार्थना कि हैं,वह ऐसा नमस्कार करती थी, उन्होंने ऐसी तपस्या कि, शीत आतप, वात वरिषण, ए दिन यामिनी जागि’रे। विफले सेविनु कृपण दुर्जन, चपल सुख-लव लागि’रे॥2॥ (गोविंददास कविराज लिखित भज हुं रे मन) अनुवाद:-मैं दिन-रात जागकर सर्दी-गर्मी, आँधी-तूफान, वर्षा में पीड़ित होता रहा। क्षणभर के सुख हेतु मैंने वयर्थ ही दुष्ट तथा कृपण लोगों की सेवा की। वे जमुना में स्नान करती रही, यह सब क्यों लिखा हैं?, यह सब हम क्यों पढ़ते हैं? ताकि हम भी वैसा ही करेंगे। इन गोपियों के चरणों का अनुसरण नकल नहीं,अनुकरण नहीं, अनुसरण करते हुए हम वैसा ही कर सकते हैं। हरि हरि! क्योंकि हमें भी प्रभुपाद कहां करते थे,हमको भी एक दिन क्या करना है?याद रखो प्रभुपाद ने कहा- क्या कहा था? हमें राधा कृष्ण कि रास नृत्य ज्वाइन करनी हैं।यह हमारे जीवन का लक्ष्य हैं। प्रभुपाद ने यह एक समय कहां और कई बार भी कहां; हमें भाग लेना है, भगवान कि रासलीला में,नहीं तो जैसे होटलों में इधर उधर तो चलते ही रहता हैं, नंगा नाच, वह तो हॉलीवुड बॉलीवुड वाले करते रहते हैं।वह सब भुत हैं, वह जंगली पशु हैं,नर्तकी, नट और नटी। नर्तकी शब्द के उलट करे तो क्या होता हैं?यह मैंने कई बार कहा हैं आपसे,अभी समझ में आया कि नहीं? आप उत्तर दे सकते हो? थोड़ा दिमाग लगाओ।शुभांगी माताजी तैयार हैं। तो नर्तकी के उल्टा हैं कीर्तन। हम कीर्तन करेंगे! देवहुति माताजी समझते का? डोक चालते कि नाहीं?डोक्याची आवश्यकता आहे खोक्याच काम नाही ग डोक पाहीजे।प.पु.लोकनाथ महाराज देवहुति माताजी से मराठी में बात करते हैं)हरि हरि! हमको ये सीखना हैं, इस प्रसंग पर से हमें कुछ प्रेरणा लेनी है और हमें कुछ करना हैं।ये प्रार्थना हो रही हैं और जैसे हम एक-दो दिनों से कह रहे हैं मैं एक-दो दिनों से इस लीलाके बारे में कह रहा हूं, यह लीला हर रोज हो रही थी।या कहो यह गोपी लीला,राधा लीला या गोपी और राधा की आराधना चल रही हैं।गोपिया आराधना कर रही हैं ताकी कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि । नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नम: । इति मन्त्रं जपन्त्यस्ता: पूजां चक्रु: कुमारिका: ॥ ४ ॥ श्री मद् भागवतम् 10.22.4 ताकी नंदलाल उनको पति के रूप में प्राप्त हों,इस उद्देश से पूरे महीने के लिए मार्गेशीश मे उनकी साधना चल रही हैं।वह प्रतिदिन भक्ति कर रही हैं, तपस्या कर रही हैं,इसका परिणाम, इसका फल क्या हुआ? श्री कृष्ण अतिंम दिवस, पूर्णिमा के दिन प्रकट हुए और पति बन गए या उन्होंने पति बनना स्वीकार किया।उनकी तपस्या से भगवान प्रसन्न थे या फिर कात्यायनी प्रसन्न थी जो परम वैष्णवी हैं, आचार्यो ने अपने भाषण में लिखा हैं और कात्यायनी को पार्वती भी कहां हैं तो वह पार्वती की आराधना कह रही थी।वैसे गोपियों ने उनके लिए बहुत से संबोधन किए हैं,हम तो कात्यायनी कात्यायनी कह रहे हैं,परंतु गोपियों ने उन्हें महामाई - कात्यायनी कहा।आप लिख सकते हैं कि वह क्या-क्या संबोधन कर रही है।एक कात्यायनी ,फिर आगे कहती हैं महामाई,तीसरा हैं महायोगिनी चौथा हैं अधीश्वरी और पांचवा हैं देवी।देवी तो पांचवा संबोधन हैं।हरिबोल। नीलांबर बलदेव जीव जागो।यहां पर 22 वे स्कंध का चौथा श्लोक हैं, उसमें देवी देवी तो कह ही रही हैं, पर लेकिन साथ में उस देवी को उन्होंने क्या क्या कहा?कैसे-कैसे संबोधित किया।आप कात्यायनी हो,आप महामाया हो,आप अधीश्वरी हो, आप महायोगिनी हो। यह सारा कह के गोपियों का भाव यह हैं कि फिर आपके लिए कुछ असंभव नहीं हैं। आप बहुत कुछ कर सकती हो।आप सब कुछ कर सकती हो। हम जो मांग रहे हैं,नंद गोप सुतंम देवी, हे देवी! नंद गोप सुतं हम को पति रूप में प्राप्त हो,तो हमको वह कृष्णा पति रूप में प्रदान करने के लिए तुम समर्थ हो।क्यों?क्योंकि आप कात्यायनी हो,आप महामाया हो,आप महायोगिनी हो आप अधीश्वरी हो,आप देवी भी हो। फिर क्या समस्या हैं?आप दे सकती हो तो यह देवी कात्यायनी सभी गोपियों के लिए एक गुरु रूप में या फ्रेंड, फिलॉस्फर, गाइड बनी हैं। और फिर इनको प्रसन्न कर लिया तो भगवान प्रसन्न होने वाले हैं। यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो यस्याऽप्रसादन्न् न गति कुतोऽपि। गुरु को,मार्गदर्शक को,गाइड को प्रसन्न करो तो इन्होंने तो कात्यायनी का चयन किया हुआ हैं। उन्हीं को अपना मार्गदर्शक सहायक या गाइड रूप में माना हैं- "सो मे आई हेल्प यू ? यस, यस,!! कात्यायनी कहती हैं- श्योर।" तो गोपिया मदद मांग रही हैं और साथ में यह सब आराधना भी कर रही हैं, तो केवल जाके सीधे मांग नही कर रहीं हैं। देवी की आराधना भी चल रही हैं। हरि हरि ।। तो देवी प्रसन्न हैं ओर देवी प्रसन्न हैं तो फिर यस्यप्रसादाद् भगवदप्रसादो यस्याऽप्रसादन्न् न गति कुतोऽपि। भगवान प्रसन्न हुए हैं। चैतन्य महाप्रभु ने भी ऐसी लीला की हैं, जब नवद्वीप की युवतियां जा रही थी, शिव पार्वती के पास ताकी उनको पति मिल जाए,चैतन्य महाप्रभु बड़े नटखट या कम नॉटी नहीं थे। वे कृष्ण ही हैं।वृंदावन के नटखट कनहैया ही तो नवद्वीप मायापुर के नटखट गौरांग थे। जब बालक थे तो बड़े नटखट थे।तो कुछ युवतियां जा रहीं थी,अपनी थाली सजा के, पुष्प इत्यादि लेके जा रही थी कहा?पार्वती और शिव की अराधना के लिए,तो गौरांग महाप्रभु बोलते हैं,ऐ मेरी पूजा करो!शिव पार्वती तो मेरे पुजारी हैं। वे मेरी पूजा करते हैं। वे मेरे सेवक हैं। मेरी पुजा करो । तो युवतियां जब टालती और ऐसे आगे बढ़ती चैतन्य महाप्रभु की पूजा या आराधना नहीं करती तो फिर चैतन्य महाप्रभु बोलते - ऐ में तुम्हे श्राप दूंगा,क्या होगा? बुड्ढा मिलेगा तुम्हे। तुमको पति तो मिलेंगे लेकिन कैसे होंगे? बूढ़े होंगे पति तुम्हारे - मुझे बुड्ढा मिल गया। तो यह लीला भी वहा नवद्वीप में हुई। हरि हरि। लेकिन हम जानते हैं,वहा एक द्वीप हैं, पहला ही द्वीप हैं जहा जगन्नाथ मंदिर हैं, सीमंत द्वीप - मैं पिछले महीने वही था।तो वहा सिमंतनी का विग्रह हैं, महाप्रभु भी हैं और सीमंतिनी देवी भी हैं, मतलब पार्वती हैं।तो शिव और पार्वती ने इस सीमंत द्वीप में गौरांग महाप्रभु की खूब आराधना की और गौरांग महाप्रभु की नवद्वीप में आराधना कैसे होती हैं? श्रवण कीर्तन से होती हैं। तो इस द्वीप में उन्होंने खूब श्रवण किया,खूब कीर्तन किया।वैसे नवधा भक्ति में से पहली भक्ति श्रवण भक्ति हैं। तो यह सीमांत द्वीप श्रवण भक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं।तो इन दोनो ने खूब श्रवण,कीर्तन किया - गौरांगा गौरंगा ये भक्ति हैं,श्रवण कीर्तन या हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का कीर्तन और नृत्य।शिवजी ने यहाँ खूब नृत्य किया हैं। डमरू बजाते हुए। तांडव नृत्य और नटराज वह हैं ही। शिव-शुक नारद प्रेमे गद्गद्। भक्ति-विनोद देखे गौरार सम्पद जब गौरांग महाप्रभू की आरती होती है किब जय जय गोराचाँदेर आरतिक शोभा। जाह्नवी तट वने जगमन लोभा जाहनवी गंगा का नाम हैं, जहानवी।जहांव मुनि से जन्मी इसीलिए जहानवी नदी के तट पर जब आरती होती हैं। गौरांग महाप्रभु की आरती करें ब्रम्हा आदि देव गने, तो आरती कौन करता हैं, पुजारी कौन हैं?ब्रह्मा आरती कर रहे हैं और सभी देवता उस आरती में उपस्थित हैं और शिवजी आए हैं, शुकदेव गोस्वामी हैं नारद मुनि हैं और कीर्तन करते समय क्या हो रहा हैं? प्रेमे गद्गद्। उनका गला गद् गद् हो रहा हैं। वॉयस इस गेटिंग चोक्ड आउट । हमारी तो खांसी के कारण चोकिंग होती हैं। किंतु भाव से जब गला भर जाता हैं, जी भर जाता हैं भाव से और प्रेम का जब उग्द्रेव होता हैं,अधिक मात्रा में प्रेम जागता हैं, तो ऐसी स्थिति में कुछ गाना या बोलना कठिन होता हैं,तो शिवजी का भी ऐसा हाल हुआ करता था जब वे यहा सीमंत द्वीप में कीर्तन और नृत्य करते थें । यह बहुत समय पहले की बात हैं, यह सृष्टि के प्रारंभ की भी बात हो सकती हैं, लेकिन आप तो जानते ही हो कि नवद्वीप धाम का सृष्टि और प्रलय से कोई संबंध नहीं हैं, भोलेनाथ शिव शंकर तांडव नृत्य के साथ सारी सृष्टि का प्रलय तो करते हैं, लेकिन नवद्वीप मंडल का बिगाड़ नहीं होता, नवदीप मंडल बना रहता हैं, ब्रह्मा सृष्टि करते भी हैं तो उन्हें करने दो।जब ब्रह्मा ने सृष्टि की तो नवदीप की सृष्टि नहीं की। सृष्टि के प्रारंभ के पहले भी नवद्वीप था और शिव जी जब महा प्रलय करते हैं तो उसके उपरांत भी नवद्वीप बना रहता हैं, वृंदावन भी बना रहता हैं। यह सभी धाम शाश्वत हैं। हरि हरि। तो इन दोनों की ही आराधना करनी चाहिए। यहां तो गोपियां कात्यायनी देवी की आराधना कर रही हैं या पार्वती स्वयं ही भगवान की आराधना करती हैं। आपको पता ही हैं निम्नगानां यथा गङ्गा देवानामच्युतो यथा । वैष्णवानां यथा शम्भु: पुराणानामिदं तथा ॥ श्री मद् भागवतम् 12.13.16 सभी वैष्णवो में शिव श्रेष्ठ हैं या वह परम वैष्णव हैं,तो परम वैष्णवी कौन हैं? पार्वती परम वैष्णवी हैं और वह वैसे भी सदैव हरि कथा करते रहते हैं और बारी बारी से एक दूसरे को कथा सुनाते रहते हैं। यह नहीं है कि केवल शिवजी यह कथा करते हैं, पार्वती भी कथा करती हैं और शिव जी सुनते हैं और जब शिवजी कथा करते हैं तब पार्वती सुनती हैं, क्या आप लोगों के घरों में ऐसा होता हैं? क्या आप पति पत्नी एक दूसरे को हरि कथा सुनाते हो या ग्राम कथा सुनाते हैं? यह आदर्श परिवार हैं। शिव पार्वती का आदर्श परिवार हैं।हमारे वैष्णव की ऐसी समझ हैं शिव पार्वती की ओर हम इसी दृष्टि से देखते हैं और ग्रंथ राज श्रीमद्भागवत में भी शिव जी का ऐसा वर्णन हैं। शिवजी का वैष्णव रूप में वर्णन हैं और पार्वती का वैष्णवी के रूप में और उसके बाद वह गुणावतार हैं, तमोगुण के अधिष्ठाता हैं और महा प्रलय करते हैं।यह सब भी उनकी भूमिकाएं हैं,लेकिन हम वैष्णवो के लिए परम वैष्णव हैं और अपने भक्तों की इच्छा पूरी करते हैं यह शिवपार्वती इसलिए भी लोग उनके पास जाते हैं।लोगो के लिए शिवजी उनकी इच्छा की पूर्ति के लिए हैं,उनको धन देने वाले शिवजी हैं, पार्वती हैं, इसलिए अधिकतर संसार में शिव जी के भक्त पाए जाते हैं,क्योंकि वह जल्दी प्रसन्न होकर उनकी इच्छा पूरी करते हैं। काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता । क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥ भगवद्गीता 4.12 वह लोग उनको वैष्णव रूप में नहीं देखते हैं, वह तो उन्हें आशुतोष रूप में देखते हैं, मतलब इनको आसानी से प्रसन्न किया जा सकता हैं। फिर क्या होगा? सुख संपति घर आवे कष्ट मिटे तन का। यह सब चलता रहता हैं। हमको वह चाहिए, हमको यह चाहिए.. उनके पास पहुंच जाते हैं और जाने क्या-क्या तपस्या करते हैं, शिवजी को प्रसन्न करने के लिए। हरि हरि। तो यह शिव पार्वती वैष्णव वैष्णवी हैं और इसी भाव के साथ गोपियां पार्वती जी के पास पहुंची हैं या पार्वती की मूर्ति बनाई हैं और क्या मांग रही हैं? हमको कृष्ण दीजिए। कृष्ण सॆ’ तॊमार, कृष्ण दितॆ पारो, तॊमार शकति आछॆ आपके पास कृष्ण हैं, आप कृष्णभावनाभावित हो।आप हमें कृष्ण को दे सकती हो और फिर उन्होंने कृष्ण को दे ही दिया। कात्यायनी ने गोपियों को कृष्ण दे दिए। तो यह सब तपस्या आराधना नमस्कार जो 1 महीने से चल रहा था वह अंततः पूर्णिमा के दिन संपन्न हुआ। देवी प्रसन्न हुई हैं और गोपियों को पति रूप में कृष्ण प्राप्त हुए हैं। पतिम मे कुर्ते नमः और फिर आगे क्या हुआ? फिर आगे बताएंगे क्या हुआ। कल भी बताया था कि उसके बाद क्या हुआ। फिर उसके उपरांत द्वारका में क्या हुआ, यह भी बताना था और फिर द्वारका जाने से पहले वृंदावन में क्या हुआ, उस पूर्णिमा के दिन जब भगवान गोपियों से मिले तो उनको उन्होंने क्या कहा, उनको क्या वचन दिया था। वह भी आपको आने वाले दिनों में सुनाएंगे। ठीक हैं। निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। ग्रंथ राज श्रीमद भागवतम् की जय।

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