Hindi

जप चर्चा, पंढरपुर धाम से, 6 दिसंबर 2021 आज जप चर्चा में कम से कम 1000 भक्त उपस्थित हैं। हरि हरि! आप में से कई सारो कि प्रात:काल से पुरी टीम चल ही रही हैं,46, 79, 900 या उसके बदले में मेरा भी आशीर्वाद स्वीकार कीजिए। एक सन्यासी का आशीर्वाद, हरि हरि!आपको नहीं कहूंगा,अच्छा नहीं लगेगा (प पू लोकनाथ महाराज जी ने हंसते हुए कहा) आशिर्वाद क्या? आप भी एक दिन सन्यासी बने यही आशीर्वाद,यह भी एक आशीर्वाद हैं। श्रीभगवानुवाच | काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदु: | सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः || २ || (श्रीमद्भगवतगीता 18.2) अनुवाद:-भगवान् ने कहा-भौतिक इच्छा पर आधारित कर्मों के परित्याग को विद्वान लोग संन्यास कहते हैं और समस्त कर्मों के फल-त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग कहते हैं । गीता जयंती का महीना आया हैं,गीता वितरण का माहौल है ही, गीता का यह जो 18वां अध्याय हैं इसको अंग्रेजी में प्रभुपाद ने टाइटल दिया हैं -द परफेक्शन आफ रिनूअनसेशन- वैराग्य कि पूर्णता अर्जुन उवाच | सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् | त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन || १ || . (श्रीमद्भगवतगीता 18.1) अनुवाद:-अर्जुन ने कहा - हे महाबाहु! मैं त्याग का उद्देश्य जानने का इच्छुक हूँ और हे केशिनिषूदन, हे हृषिकेश! मैं त्यागमय जीवन (संन्यास आश्रम) का भी उद्देश्य जानना चाहता हूँ । 18वे अध्याय, पहले श्लोक मैं अर्जुन कह रहे हैं "वेदितुम् मिच्छामि" मै जानना चाहता हूँ। "सन्न्यासस्य तत्त्व" संन्यास का तत्व मुझे समझाइए। संन्यास क्या होता है? तो उत्तर में भगवान बताएगे कि संन्यास क्या होता है?"त्यागस्य च", संन्यास और त्याग कि बात, दो बातें जानना चाहते हैं। सन्यास का तत्व समझाइए। "वेदितुम् मिच्छामि"। वैसे अर्जुन कि ऐसी जिज्ञासा हैं, तो हम सभी कि ऐसी जिज्ञासा होनी चाहिए।आप ऐसा कभी प्रश्न पूछते हो? पूछना चाहिए? कब आएगा आपके जीवन में वह समय जब आप उत्कंठीत होंगे। आप संन्यास का तत्व जानना चाहोगे! तो उत्तर में... काम्यानां कर्मणां न्यासं इति संन्यासं | काम के कर्म को त्यागना, जिस काम के साथ कामवासना जुड़ी हैं। संन्यास ले कर फिर क्या करेंगे आप? क्या लाभ हैं? प्रेम प्राप्ति के लिए संन्यास हैं। सारा संसार काम प्राप्ति में व्यस्त हैं और सन्यास लिया जाता हैं प्रेम प्राप्ति के लिए। "काम्यानां कर्मणां न्यासं" मुझे स्मरण हो रहा है एक बात का और फिर हरि हरि! वृंदावन पहुंचने के पहले मुंबई में क्या हुआ! श्रील प्रभुपाद से कैसे मैंने प्रस्ताव रखा? मुझे यह संन्यास का तत्व क्या हैं, यह सुनाइए ऐसी अर्जुन की जिज्ञासा हैं। "सन्न्यासस्य तत्त्व मिच्छामि" वैसे मैंने पूछा नही,सीधे संन्यास दीजिए ऐसा ही प्रस्ताव, ऐसा ही निवेदन रखा श्रील प्रभुपाद के समक्ष और फिर श्रील प्रभुपाद ने क्या कहा? और फिर एक साल के उपरांत क्या हुआ? तुम पहले से ही संन्यासी हो ऐसे प्रभुपाद जी ने कहा और मुझे समझा बुझा रहे थें 'फॉर्मेलिटी कि कोई जरुरत नही हैं', उस पर मैंने कहा ' मैं फॉर्मेलिटी चाहता हूंँ' 'ठीक है, जाओ, वृंदावन जाओ! श्रीधर के साथ'।मैने एक मिनट में आपको कह दिया जो बातें एक-दो सालों में होती रही, उसको मैंने एक मिनट में आपको सुनाया। हम वृंदावन पहुंचे। आज के दिन श्रील प्रभुपाद कुरुक्षेत्र गए थें। इस्कॉन के लिए जमीन लेनी थीं। इस्कॉन कुरुक्षेत्र के लिए। अमरीश जानते हो?प्रभुपाद के शिष्य, उनको साथ में ले गए थे और और भी भक्त थे,वहाँ से प्रभुपाद कुरुक्षेत्र से वृंदावन आए। “धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः | मामकाः पाण्डवाश्र्चैव किमकुर्वत सञ्जय || १ ||” (श्रीमद्भगवतगीता 1.1) अनुवाद: -धृतराष्ट्र ने कहा — हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ? हां इसी महीने में जिस महीने में भगवान श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश,संदेश सुनाया अर्जुन को और युद्ध भी शुरू होने वाला था।उसी महीने में प्रभुपाद कुरुक्षेत्र गए थे और वृंदावन लौट आए और हम मुंबई से वृंदावन पहुंचे। मैं ,श्रीधर और पृथूपुत्र हम तीनों का संन्यास था ।संन्यास हम तीनो को मिलने वाला था। पृथूपुत्र फ्रांस के थे, श्रीधर कनाडा के और लोकनाथ स्वामी भारत के, इंडिया जानबूझकर मैंने नहीं कहा, मुझे इंडिया कहना पसंद नहीं हैं ,भारत कहना ही अच्छा हैं। मैं भारतीय हूंँ,यह कहना अच्छा हैं कि मैं इंडियन हूँ, कहना अच्छा है? लेकिन आज के दिन जो मैं चाहता था,क्या चाहता था? मैं संन्यास लेना चाहता था। मैं सन्यासी होना चाहता था। फिर कैसे हम कृष्ण बलराम के आंगन में प्रात:कालीन कार्यक्रम के दौरान आंगन में पहुंचे और हमने कैसे संन्यास वस्त्र पहने, कहां पहने यह भी हमें याद हैं, और पुनः आंगन में लौट आए और श्रील प्रभुपाद ने मुझे दंड दिया। प्रभुपाद ने जो मुझे दंड दिया था यह वह दंड नहीं हैं, वैसे वह दंड मैंने नोएडा में रखा हुआ हैं। यह मेरा प्रवासीय दंड हैं।यह थोड़ा हल्का हैं, वह पहले वाला भारी था।सफर करते वक्त भारी था और सुरक्षा की भी प्रॉब्लम है (दुविधा है), प्रभुपाद ने दंड दिया और फिर अक्षयनंद स्वामी महाराज से उन्होने कहा था कि इनसे संन्यास मंत्र बुलवाओ,तो अक्षयनंद स्वामी महाराज प्रभुपाद कि ओर से संन्यास मंत्र कहने लगे और हमने दोहराया। हमने अपना स्थान ग्रहण किया और फिर इस समय दंड के साथ बैठे थें। वहा यज्ञशाला,यज्ञ कुंड बना हुआ था। श्रील प्रभुपाद ने वचन सुनाएं, उसकी रिकॉर्डिंग हैं, आप सुन सकते हो!उसमे से कुछ महत्वपूर्ण भाग हैं, जो मै आपको थोडासा सुनाऊंगा।"देयर इज नो अदर बिजनेस" आप समझ गए ना "यथा हि पुरुषस्येह विष्णो: पादोपसर्पणम्। यदेष सर्वभूतानां प्रिय आत्मेश्र्वर: सुहृत्।।" (श्रीमद्भागवत 7.6.2) यह मनुष्य जीवन भगवत धाम जाने का अवसर प्रदान करता हैं अतएव प्रत्येक जीव को,विशेष रूप से उसे, जिसे मनुष्य जीवन मिला हैं, भगवान विष्णु के चरण कमलों कि भक्ति में प्रवृत्त होना चाहिए। यह भक्ति स्वाभाविक हैं, क्योंकि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु सर्वाधिक प्रिय, आत्मा के स्वामी तथा अन्य सभी जीवों के शुभचिंतक हैं। "विष्णो: पादोपसर्पणम्।" यही बिजनेस हैं। "विष्णो: पादोपसर्पणम्।" सारी विधि इसलिए हैं कि कैसे हम विष्णु-कृष्ण के चरण कमल प्राप्ति करे,इसके लिए जो भी विधि विधान हैं, यही बिजनेस हैं। नो अदर बिजनेस।भगवान के चरण कमलो तक कैसे पहुंचना हैं। प्रभुपाद सुना रहे हैं, हमें यह सब करने के लिए। हमें फिर क्या करना होगा? काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदु: |हरि हरि! यह याद हैं? कृष्ण ने कहा था। संन्यास एक अंतिम या सर्वोपरि अनुष्ठान हैं। यह दीक्षा, वो शिक्षा यह सब पहले होते रहता हैं और प्रभुपाद कह रहे हैं और ना ही यह नई बात या नई विधि हैं। सृष्टि प्रारंभ हुई तभी से संन्यास हो ही रहे हैं।चार कुमार वह भी यही चाहते थे।कामवासना से पूर्ण कर्मों मे वह लिप्त नहीं रहना चाहते थें। इसीलिए वह कुमार ही रह गए। मेरे ख्याल से कामवासना जगी ही नहीं। थोड़े बड़े हो जाते हैं तो तरुणी में आकर्षण हो जाता हैं, स्त्री में आकर्षण हो जाता हैं। बालस्तावत्क्रीडासक्तः तरुणस्तावत्तरुणीसक्तः । वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥ ७ ॥ बाल काल बहु खेल खिलौने, युवा काल नारी रमते, वृद्ध, रोग, दुःख, क्लेश अनेका, परम ब्रह्म को ना भजते. भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥७॥ ( भज गोविंदम श्लोक ७ आदि शंकराचार्य के द्वारा) युवावस्था में तरुणी में आकर्षण हो जाता हैं, तो उन्होंने सोचा कि चलो हम बालक बनकर ही रहेंगे।कुमार बनकर ही रहेंगे। तो प्रभुपाद कह रहे हैं कि सन्यास लेना कोई नई चीज नहीं है चार आश्रम हैं चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: | तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् || 13||(भगवत गीता 4.13) चारो आश्रम पृथ्वी के शुरुआत से ही हैं। यह कोई नई चीज नहीं है। हमारे से पहले भी कई सारे महान आचार्य हो चुके हैं। जैसे कि श्रील प्रभुपाद ने कहा रामानुजाचार्य, माधवाचार्य, विष्णु स्वामी, निंबार्क आचार्य हमारी प्रणाली में चैतन्य महाप्रभु हैं। तो यह बड़े-बड़े आचार्य जो कि संन्यासी भी थे उनके नाम हमें प्रभुपाद स्मरण करा रहे थे। हम जो वहां संयास लेने के लिए बैठे थे।सन्यास अनुष्ठान हो रहा था और यह प्रातः स्मरणीय विशेष अनुष्ठान प्रभुपाद कर रहे थे। सन्यासियों का स्मरण प्रभुपाद हमें करा रहे थे और हमारी गोडिय वैष्णव प्रणाली में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भी सन्यास लिया और तरीका यह हैं कि जो पूर्ववर्ती आचार्य हैं, उनका अनुसरन करना हैं,यह हमारी विधि हैं tarko 'pratiṣṭhaḥ śrutayo vibhinnā nāsāv ṛṣir yasya mataṁ na bhinnam dharmasya tattvaṁ nihitaṁ guhāyāṁ mahājano yena gataḥ sa panthāḥ (चैतन्य चरित्रामृत मध्य लीला-17.186) जब हम हमारे पूर्ववर्ती आचार्यों या महाजनों के चरणों का अनुसरण करते हैं तो हमें भी आचार्यों का या महाजनों का मुख्य रूप से जिन्होंने सन्यास लिया,प्रभुपाद सन्यास दे रहे हैं और उन्होंने सन्यास लिया। यह माधवाचार्य, रामानुजाचार्य, विष्णुस्वामी, निंबार्काचार्य और हमारी प्रणाली के श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु आप सन्यासियों के समक्ष उदाहरण हैं। प्रभुपाद हम को संबोधित कर रहे थे तो इस प्रकार और भी बहुत ही महत्वपूर्ण बातें प्रभुपाद ने कही हैं। इसे आप इन कन्वरसेशन विद श्रीला प्रभुपाद में पढ़ सकते हो, इस नाम से मैंने ग्रंथ लिखा हैं, उसमें यह 11वां अध्याय हैं, कृष्ण भावना को सीखो और पूरे संसार में उसका प्रचार करो और फिर यज्ञ हुआ। स्वाहा स्वाहा और हम तीनो सन्यासी हो गए। यह कृष्ण बलराम मंदिर के आंगन में हुआ और फिर हम प्रभुपाद क्वार्टर में प्रभुपाद से मिलने गये। मैं अपने दंड को लेकर वहां बैठा और उन्हें प्रणाम किया ,खैर अभी आपको मैं यह सब नहीं सुना सकता। प्रभुपाद ने नाम के संबंध में कहा कि अब स्वामी तुम्हारा नाम हैं। तो मैं लोकनाथ दास ब्रह्मचारी के स्थान पर लोकनाथ स्वामी बन गया श्रीधर स्वामी और पृथु पुत्र स्वामी,हम तीन थे। और मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु | मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: || 34|| (भगवद्गीता श्लोक ९.३४) यह श्लोक भी कहा और मन मना समझते हो ?क्या करने के लिए कृष्ण कह रहे हैं।बिना पाखंड और दिखावे के यह करोगे तो निश्चित सफल होंगे, ऐसे प्रभुपाद ने प्रोत्साहन दिया और आशीर्वाद दिया हरि हरि ।यह ४६ वर्ष पूर्व की बात हैं और जैसे संन्यास लेने के बाद सन्यासी गुरु भी बनते हैं और उनके शिष्य होते हैं। ऐसा प्रभुपाद ने प्रवचन में कहा था और शिष्य इसलिए होते हैं ताकि वह आपके गुरु के प्रचार में आपकी सहायता दे। इसी कार्य के लिए ही शिष्य अपनाए जाते हैं या बनाए जाते हैं ताकि वह जो सन्यासी गुरु हैं वह अपना धर्म निभा सके।हम अपना सन्यास धर्म निभा रहे हैं या जो गुरु का धर्म हैं वह मैं निभा रहा हूं।आप शिष्य मंडली हैं, अनुयाई हैं, आप अपने धर्म को निभाईए। आप अपने शिष्य धर्म को निभाईए।शिष्य का यह धर्म या कर्तव्य होता हैं, गुरु का या सन्यासी के यह कर्तव्य हैं। अपने अपने उत्तरदायित्व को आप पूरा कीजिएगा और वैसे भी हमारे आचार्य लिख कर गए हैं- ekaki amara, nahi paya bala, hari-nama-sańkirtane tumi krpa kori', sraddha-bindu diya, deho' krsna-nama-dhane (भक्ति विनोद ठाकुर) हम अकेले आपकी सहायता योगदान के बिना क्या कर सकते हैं? आपकी सहायता या योगदान के बिना ज्यादा कुछ संभव नहीं होगा। प्रचार के कार्य में हमें आपके सहयोग की आवश्यकता हैं। आपका योगदान अनिवार्य हैं। जिस प्रकार हम अपनी एक टीम बनाते हैं, ऐसी कई सारी टीमें हैं या यह प्रभुपाद की टीमें हैं और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की टीमें हैं। यह प्रचार का कार्य तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का कार्य हैं। तो आइए इस श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के कार्य को पूरा करने में सहयोग करें। पूरा तो हम नहीं कर पाएंगे,परंतु जितना अपने जीवन में पूरा कर सकते हैं, उतना करें। फिर उसके बाद आने वाली पीढ़ी इसे पूरा करेगी और फिर उसके बाद आने वाली पीढ़ी उसे पूरा करने में सहयोग करेगी pṛthivīte āche yata nagarādi grāma sarvatra pracāra hoibe mora nāma [CB Antya-khaṇḍa 4.126] मेरा नाम का प्रचार सर्वत्र होगा, यह भविष्यवाणी हैं और यह कार्य की भगवान के नाम को सर्वत्र पहुंचाना हैं, तो यह हर पीढ़ी और आगे बढाएगी और कार्य होता रहेगा और अगले 10000 वर्षों तक होता रहेगा और अब हमारी बारी हैं, तो हमें पूरी शक्ति और सामर्थ्य के साथ और युक्ति के साथ भी इस कार्य को आगे बढ़ाना हैं और चैतन्य महाप्रभु के आदेशों को, चैतन्य महाप्रभु ने कहा है कि bhārata-bhūmite haila manuṣya janma yāra janma sārthaka kari' kara para-upakāra (चैतन्य चरित्रामृत आदि लीला 9.41) परोपकार का कार्य करो। तो फिर आप भारत में जो जन्मे हो, तभी आपके जन्म की सार्थकता होगी। कब होगी? जब आप परोपकार करोगे। तो यह महीना ही परोपकार करने का हैं। इस महीने में क्या करना हैं? यह हम आपको बताएंगे। यह महीना गीता जयंती का महीना हैं और गीता जयंती के उपलक्ष्य में गीता वितरण का महीना हैं। तो आइए हम सब मिलकर कुछ योजनाबद्ध कार्य करके अधिक से अधिक भगवद्गीता का वितरण करते हैं। तो आज सन्यास एनिवर्सरी हैं, तो काफी सराहना हो रही हैं, आपके काफी उद्गार हम सुन रहे हैं जो कि आप लिख रहे थे ,एप्रिसिएशन सुन रहे थे। तो एक समय प्रभुपाद ने मुझे पत्र लिखा उसमें प्रभुपाद ने लिखा कि लोग एप्रिशिएट कर रहे हैं, तो वह प्रैक्टिकल होना चाहिए केवल लिप सर्विस नहीं होना चाहिए। टाइप करके कुछ लिख रहे हो, अच्छा हैं शुरुआत में लेकिन यह कार्यों में भी आना चाहिए।केवल लिखना ही नहीं हैं। तो जो भी आप लिख रहे हैं उसे कार्यान्वित कीजिए। इस महीने में अगर आप अधिक से अधिक भगवद्गीता का वितरण करोगे तो मैं मान लूंगा कि आप सचमुच में मुझे एप्रिशिएट करते हो और जो मैंने सन्यास लिया उसे भी। अगर आप ऐसा करोगे तो मैं बहुत प्रसन्न होउगा और प्रभुपाद भी खुश होंगे और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जी भी खुश होंगे। वैसे समय तो बीत चुका हैं, लेकिन मैं यह वाक्य पढ़ देता हूं। वैसे यह लंबा वाक्य हैं, प्रभुपाद ने अपने प्रवचन में कहा कि इसलिए कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई भारतीय हैं या अमेरिकन हैं, या कोई भी हैं, अगर वह चैतन्य महाप्रभु के आदेश का पालन करेगा तो उसका लाभ होगा और कल्याण होगा और उस व्यक्ति का सम्मान सत्कार होगा। इसीलिए हिचकीचाओ मत क्योंकि जो आत्मा हैं, वह ना तो भारतीय हैं, ना अमेरिकन हैं, ना कोई ओर। चैतन्य महाप्रभु के आदेशों का पालन करने से तुम गौरवान्वित होगें। तुम्हारे देश का गौरव होगा और सारे संसार को इसका लाभ मिलेगा। सारे मानव जाति का कल्याण होगा। देखिए प्रभुपाद के विचार। बहुत-बहुत धन्यवाद, प्रभुपाद ने कहा और इस वचन के साथ प्रभुपाद ने अपनी वाणी को विराम दिया था और मैं भी इन्हीं शब्दों के साथ अपनी वाणी को विराम देता हूं। हरि हरि बोल।

English

Russian