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*जप चर्चा,* *19 मार्च 2021,* *पंढरपुर धाम.* हरे कृष्ण, 756 स्थानों से भक्त के लिए जुड़ गए हैं। *जय जय श्रीचैतन्य, जय नित्यानंद,* *जय अद्वैतचंद्र जय गौरभक्त वृंद।* कहींये एक बार आप सभी भी, कहां सभी ने, गुरुमहाराज जपा कॉन्फ्रेंरस में भक्तो को संबोधित करते हुए आपने भी कहा। दयालु राधा हरि बोल, हिंदी समझती हो आप फ्रेंच ही समझती हो। ट्रांसक्रिप्शन है वहां पर आप पढ़ो। हरे कृष्ण, हम सब चैतन्य महाप्रभु के साथ रहना चाहते हैं। चाहते हो कि नहीं या जहां हो वही ठीक हो। जीना यहां मरना यहां आपको छोड़कर जाना कहां ऐसा तो नहीं है ना। हरि हरि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय! हमारा लक्ष्य है चैतन्य महाप्रभु। चैतन्य महाप्रभु का दर्शन ही नहीं, उनका सानिध्य। चैतन्य महाप्रभु कभी अकेले नहीं होते, हो ही नहीं सकते चैतन्य महाप्रभु और उनके गौरभक्त वृंद की जय! अभी पुनः गौरांग महाप्रभु कहो या श्रीकृष्ण कहो *कृष्णप्राप्ति हय जहा हयिते* कृष्णप्राप्ति या चैतन्य में प्राप्ति यही हमारे जीवन का लक्ष्य है। *नित्यम स्मरये* कभी नहीं भूलना, हमेशा याद रखना। यह कहते हैं तो जीवन का लक्ष्य हमें कभी भूलना नहीं चाहिए। यह थोड़ा सा जो कुछ कहा है या उसके कहने के पीछे उसका उद्देश्य यही है कि हम आजकल श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का स्मरण कर रहे है। तो जब स्मरण करते हैं तो फिर चैतन्य महाप्रभु की सानिध्य का लाभ हमें पता है। और फिर जहां श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु वहां उनके गौरभक्त होते ही हैं। और फिर हम भी तो भक्त बनना चाहते हैं। ताकि अन्य भक्तों के साथ हमारी भी गिनती होंगी। हम भी होंगे। वह जो भक्तों की माला होती है, वह भक्त कि माला कि मनी हम भी हो जाएंगे। और ऐसी माला श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के चरणों में कहो या फिर गले में पहनाई जा सकती हैं। हरि हरि श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के दक्षिण भारत की यात्रा का वर्णन हम लोग सुन रहे थे और अब वृंदावन यात्रा चैतन्य महाप्रभु की प्रारंभ हुई है। लेकिन वह बंगाल होते हुए वृंदावन जाना चाहते हैं। जगन्नाथ पुरी से अब प्रस्थान हो चुका है। सभी को तैयार नहीं किया श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने साथ में जाने के लिए, लेकिन कुछ भक्त तो जा ही रहे थे। और फिर हम सुन चुके हैं कि, कैसे धीरे-धीरे उनको एक-एक करके जगन्नाथ पुरी वापस भेज देते हैं। और फिर कौन भाग्यवान जीव, मुस्लिम गवर्नर बंगाल के बंगाल और उड़ीसा के सरहद के एक क्षेत्र के वह मुस्लिम थे उनको भी श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के दर्शन का, केवल दर्शन का ही नहीं सेवा का लाभ हुआ। उन्होंने खूब सेवा सहायता की चैतन्य महाप्रभु की। इस प्रकार श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु असंख्य जीवों को भाग्यवान बनाते हुए, क्योंकि असंख्य जीवो के साथ प्रतिदिन यह सायंकालीन कीर्तन में जुड़ जाते थे। तो बस एक ही कीर्तन में सबका उद्धार हो जाता था। एक कीर्तन में सम्मिलित हुए श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के साथ फिर तो दर्शन हुआ है। *अजानूलंबित भुजो कणकावतादौ* *संकीर्तनेको पित्रौ कमलायताक्षो* *विश्वंभरो द्विजवरो युगधर्मा पालो* *वन्दे जगत प्रियकरो करुणा अवतारों* हे करुणा के अवतार उनका दर्शन कैसे होता था, अजानुलंबित भुजा लंबी भुजाएं और अपने हाथों को उठाते थे ऊपर। चैतन्य महाप्रभु का स्मरण करते हैं सामने आते हैं हाथों पर किए हुए। हरि हरि, और उनकी आंखों की शोभा उनकी आंखें कर्णापर्यंतम आंखें कानों तक पहुंच जाते हैं। प्रेमे ढल ढल सोनार अंगे चरण नूपुर बाजे गौर वर्ण है श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु का। प्रेमे ढल ढल डोलते हैं महाप्रभु। डोलायमान दर्शन हो रहा है। चरणों में नूपुर रुनझुन रुनझुन हो रहा है ध्वनि हो रही है। और विशालकाय चैतन्य महाप्रभु अरुण वसन पहनते थे। अरुण वसन सूर्योदय के समय सूर्य की जो कांति होती थी, सूर्य किरणे जैसे सुनहरे रंग की होती है वैसे रंग के वस्त्र पहने हैं श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने। ऐसे श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु का दर्शन प्राप्त करने का अवसर भी असंख्य जन को प्राप्त होता था। केवल दर्शन ही नहीं, ऐसे श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के साथ कीर्तन और नृत्य करने का भी सौभाग्य प्राप्त होता था। और फिर बस कृष्ण प्राप्ति तो हो ही गई और फिर कृष्णप्रेम ही हुआ। कृष्णप्रेम के मस्ती में आ जाते हैं। श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु का क्षण भर का या फिर एक-दो घंटे का संग प्राप्त हुआ हर सायंकाल को। रास्ते भर में भी श्रीचैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने वाले, कीर्तन सुनने वाले कई सारे लोग होते थे। इस प्रकार श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु प्रेम की गंगा बहाते हुए जहां जहां जाते वहां *अवतीर्णे गौरचंद्रे विस्तीर्णे प्रेमसागरे* जहां जहां श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु जाते वहां वहां प्रेम की सागर का विस्तार करते। प्रेम के सागर का विस्तार इसलिए करते ताकि निमज्जन्ती वे इस प्रेम सागर में कुद सकते हैं, गोते लगा सकते या सर्वात्मस्पनम ताकि उनके सर्वांग का अभिषेक स्नान हो सकता है। हरि हरि, श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु उस मुस्लिम भाग्यवान गवर्नर की सेवा लेने के उपरांत आगे बढ़े हैं। ऐसा वर्णन कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने किया है या लिखा है की, गदाधर पंडित को जब लौटना था कटवा से, और फिर कहां से क्षीरचोर गोपीनाथ मंदिर से, सार्वभौम भट्टाचार्य रामानंद को लौटना था, तो उनकी जैसी स्थिति हुई और फिर बंगाल उड़ीसा से महापात्र महोदय की लौटते समय उनकी मन की जो स्थिति हुईं, वैसे हि स्थिति इस मुस्लिम गवर्नर की हुई। वह भी विरह से व्यथित हुए। और फिर *नयनम गलदअश्रुधारया वदनम हृदयं गदगद गिरां* यह सब लक्षण इस मुस्लिम गवर्नर में भी स्पष्ट थे। प्रकाशित थे। हरि हरि, श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु अब गंगा से ही नौका से नौका विहार कह सकते हैं नौका विहार यहां हो रहा है। प्रवास हो रहा है यहां पर। श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु पानीहाटी आ गए। पानीहाटी धाम की जय! नित्यानंद प्रभु ने वहां एक समय लीला की है। हमारे कथा में शायद अभी तक नहीं हुई, होने वाली है। नित्यानंद प्रभु रघुनाथ दास गोस्वामी पर विशेष कृपा करने वाले हैं। और फिर दहीचिडा महोत्सव संपन्न होने ही वाला था, तो श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु पहुंचे है इस पानीहाटी में राघव पंडित रहते थे। राघव यह राघव चैतन्य महाप्रभु के लिए कई सारा भोजन बनाते थे और झोली भर के जब जब बंगाल उड़ीसा, यहां तहां, खंड से, पुलिन ग्राम से, शांतिपुर से, नवद्वीप से भक्त जाते जगन्नाथ पुरी रथ यात्रा के समय चैतन्य महाप्रभु को भी मिलने के लिए तो उस समय राघव जो है अपनी झोली भर के, तो राघवेर झोली प्रसिद्ध है। ऐसा उल्लेख है। उनकी बहन दमयंती थी। यह दमयंती और राघव, चैतन्य महाप्रभु के लिए कई सारे पकवान सूखे पकवान जो टिक सकते थे, बनाते थे। यह सारे पकवान साल भर के लिए राघवेर झोली से चैतन्य महाप्रभु को दिए जाते थे। पानीहाटी में जहां राघव रहते थे वहां चैतन्य महाप्रभु गए। वहां सिर्फ एक ही दिन रूके। वैसे महाप्रभु को कई सारे स्थानों पर जाना है। वहां से श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु कई स्थानों पर गए हैं। मैं वैसे ठीक क्रम से नहीं कह पाऊंगा। नवद्वीप जाते हैं श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु और नवद्वीप में विद्यानगर में विद्यावाचस्पति के निवासस्थान पर पहुंचते हैं। हरि हरि, जैसे ही लोगों को पता चला कि, श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु यहां पर है वैसे पहले भी मिले थे शांतिपुर में, चैतन्य महाप्रभु ने बुलाया था, बुलाओ सबको मैं मिलना चाहता हूं। वह तो सब मिलना चाहते ही हैं, ऐसे मिलन हुआ था। उसके उपरांत श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु से मिलन नहीं हुआ था, नवद्वीप मंडल के वासियों का। तो श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु स्वयं आए हैं। तब ऐसी आशा थी सची माता की भी, आशा थी कभी-कभी तो लौटेगा एक तो, सची माता और गंगा माता के दर्शन के लिए। इसीलिए सची माता ने कहा था, "नहीं-नहीं वृंदावन तो बहुत दूर है तुम जगन्नाथपुरी में रहो, समाचार भी पहुंच जाएंगे हम तक" वही श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने वादा निभाया। हां हां मैया मिलेंगे पुनः मिलेंगे, तो चैतन्य महाप्रभु आए हैं। विद्यावाचस्पति के निवास स्थान पर चैतन्य महाप्रभु पहुंचे। और इसका समाचार चैतन्य महाप्रभु आए हैं, चैतन्य महाप्रभु आए हैं, ऐसा बोलबाला ऐसा समाचार फैल गया अपने आप। सारा नवद्वीप दौड़ पड़ा या सारा नवद्वीप मंडल भर गया गौर भक्त गौरांग महाप्रभु के दर्शन के लिए। जो उत्कंठीत थे निकल पड़े अपने-अपने स्थानों से। और बस वह जा रहे थे। रुक नहीं रहे थे। जंगल में से जा रहे थे। काटे हैं, गड्ढे हैं कोई परवाह नहीं। या फिर नए रास्ते बना रहे थे। कई लोग गंगा के पूर्वी तट पर रहने वाले, गंगा के तट पर आ गए। गंगा को पार करना है, कितने नौकाए हैं, तो नौका आएगी जाएगी कौन प्रतीक्षा करेंगे। ऐसे कुछ विशेष व्यवस्था से अधिक नौकाए पहुंच गई लेकिन इतने सारे लोग थे, विद्यानगर पहुंचना चाहते थे, चैतन्य महाप्रभु के दर्शन के लिए तो रुक नहीं सकते थे। लोग गंगा में कूद रहे थे, तैर रहे थे। कुदेंगे तो जिएंगे या मरेंगे कोई विश्वास तो नहीं था यह विश्वास था *अवश्य रक्षने कृष्ण* कृष्ण अवश्य रक्षा करेंगे। विश्वास था शरणागति के भाव के साथ वह नदी में कूद रहे थे। इतने सारे लोग थे नदी को पार कर रहे थे। नदी का तो दर्शन नहीं हो रहा था। बस सिर्फ देख रहे थे कि रहे हैं आगे बढ़ रहे हैं। हजारों लाखों लोग पूर्व तट से पश्चिमी तट तक जा रहे थे। पश्चिमी तट पर विद्यावाचस्पति का निवास स्थान था। लोग पूर्वी तट से पश्चिम तट तक जा रहे थे। हजारों लाखों लोग सभी को तो दर्शन नहीं हुआ। असंख्य लोग थे वहां। वहां से चैतन्य महाप्रभु कुलिया, कुलिया है अभी का नवद्वीप शहर। तो फिर लोग वहां पर जा रहे थे। चैतन्य महाप्रभु के इस कुलिया ग्राम में। फिर वहां पर माधव घोष इनके निवास स्थान पर चैतन्य महाप्रभु रुके। यहां पर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने एक विशेष लीला संपन्न की और वह है पाप भंजन लीला। जो पापी थे, अपराधी थे, वैसे भी यह सभी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की शरण में आ रहे थे। *अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श‍ुच:* ऐसा कहे है श्री कृष्ण। अब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में कुलिया ग्राम में पहुंचे हैं। फिर देवानंद पंडित अपराधी है या चपल गोपाल अपराध कर चुके थे या कई सारे अपराधी अपराध कर चुके थे, जो कर्मकांडी थे या स्मार्थ ब्राह्मण थे या कुछ युवक थे वे भी चैतन्य महाप्रभु को नहीं समझ रहे थे। चैतन्य महाप्रभु जब गोपी गोपी गोपी गोपी ऐसा एक समय पुकार रहे थे तो कईयों ने चैतन्य महाप्रभु को समझा नहीं था। कहीं उल्टी-सीधी बातें या अपराध के वचन वे कह रहे थे। तो कई पार्टी, कई लोग, कई समाज वहां पर थे जाने अनजाने में जिन्होंने पाप किया था। तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरणों में या उनके परिकरों के चरणों में श्रीवास आदि भक्त वृंदो के चरणों में किए गए अपराध, वैष्णव अपराध उन सब से मुक्त किए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु। यह लीला कुलिया में नवद्वीप शहर में हुई पाप भंजन लीला। वैसे इसका अधिक वर्णन, विस्तार से वर्णन चैतन्य भागवत में प्राप्त होता है। चैतन्य चरितामृत में कुछ संक्षिप्त ही उल्लेख हुआ है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहां से और भी कई स्थानों पर गए हैं, वासुदेव दत्त मामगाच्छी या मोदद्रुम में। नौ द्विपो में से एक द्वीप मोदद्रुम द्वीप जहां वासुदेव दत्त और जहां वृंदावन दास ठाकुर का भी निवास स्थान था। वहां वासुदेव दत्त को मिलने के लिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु गए विशेष भक्त थे वासुदेव दत्त। लोगों ने जो अपराध किया है, पाप किया है उसका फल मुझे भोगने दो है प्रभु उनको मुक्त करो। उनके सारे जो पाप और अपराध का जो फल है, परिणाम है उनको मे भोगना चाहता हु। वे मुक्त हो जाए उनका निवारण हो जाए उनकी मुक्ति हो जाए ऐसी प्रार्थना करने वाले वासुदेव दत्त। चैतन्य महाप्रभु इतनी सराहना करते थे इन वासुदेव दत्त की बड़े प्रसन्न थे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वासुदेव दत्त के भक्ति और भाव से। वहां से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु शांतिपुर गए हैं, वैसे मायापुर भी गए हैं। सची माता के साथ भी मिले हैं, ईशान से मिले, विष्णु प्रिया से नहींं मिले होंगे संन्यास जो लिया है। तो शांतिपुर में अद्वैत आचार्य के साथ मिलन हुआ है और वहीं पर शांतिपुर से कुछ ही दूरी पर फुलिया स्थान जहांं पर हरिदास ठाकुर रहते थे। हरिदास ठाकर और अद्वैत आचार्य इनका का खूब मिलना जुलना चलता ही था तो चैतन्य महाप्रभु दोनों को मिले। मतलब अब भी आप समझ सकते हैंं कि हरिदास ठाकुर अभी नवद्वीप मंडल क्षेत्र में ही है या फुलिया मेंं ही है। उन्होंने अब तक जगन्नाथपुरी के लिए प्रस्थान नहींं किया है, जगन्नाथपुरी आ कर अपना साधन भजन नहीं कर रहे हैं। अभी तक वे अद्वैत आचार्य के संग में ही है, फुलिया में ही है। तब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु उनको मिलेे हैं। तो एक कंचन पाड़ा नाम का स्थान हैं जहां श्रीवास ठाकुर और उनके बंधुओं को श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु मिले हैं। चैतन्य महाप्रभु के सन्यास लेने के उपरांत मायापुर के कई निवासी मायापुर वासी वहां से प्रस्थान कर दिए। उनको चैतन्य महाप्रभु की याद आती थी अधिक मायापुर में जो जहां देखे थे, उनके साथ मिलना जुलना खूब मायापुर में हुआ था। सन्यास लेने के बाद चैतन्य महाप्रभु वहां नहीं थे किंतु कई सारे बातों से उनका स्मरण आता और विरह की व्यथा से व्यथित होते। तो उसको टालने के लिए कईयों ने मायापुर छोड़ दिया, वे वहां रहना नहीं चाहते थे। तो उसमें से श्रीवास ठाकुर भी थे, वैसे श्रीवास आंगन प्रसिद्ध था। चैतन्य महाप्रभु का आंदोलन या संकीर्तन आंदोलन व्यावहारिक रूप से श्रीवास ठाकुर के घर से शुरू हुआ या वही नाम हट को खोले कहो चैतन्य महाप्रभु श्रीवास आंगन में। तो वे मायापुर से प्रस्थान करके कांचन पाड़ा गए थे तो चैतन्य महाप्रभुुु वहां पहुंचे। और इन बंधुओंं को श्रीवास आदि श्रीवास, श्रीराम श्रीनिधि इनके साथ मिलन हुआ। शिवानंद सेन के स्थान पर भी पहुंचे, तो यह सभी भक्त विशेष भक्त थे जिनको चैतन्य महाप्रभु मिल रहे थे। एक प्रकार से वरिष्ठ या वीआईपी भक्त या परिकर थे महाप्रभु के। शिवानंद सेन रथ यात्रा के समय या जब जब बंगाल भर के भक्तों को जगन्नाथपुरी जाना होता तो शिवानंद सेन उस यात्रा की पूरी जिम्मेदारी संचालन और यात्रियों की आवास निवास की व्यवस्था शिवानंद सेन हीं करते थे, यात्रा के संयोजक थे, तो वे शिवानंद सेन। उनसे भी मिले हैं चैतन्य महाप्रभु। थोड़ा रास्ते से बाहर जाएंगे रामकेली जाएंगे। जहां दबीर खास और साकर मलिक रहते थे। नवाब हुसैन शाह का मेरे मतानुसार राजधानी का स्थान राजधानी के पास मेंं ही है यह रामकेली। यह दबीर खास और साकर मलिक चैतन्य महाप्रभ के विशेष परिकर थे। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु उनको मिले, यह मिलन बहुत महत्व रखता है। क्योंकि यह व्यक्तित्व ही विशेष थे, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के आंदोलन का नेतृत्व करने वाले। वैसे रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी जो दोनों भाई थेे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उन दोनों को वहांं पर दीक्षा दी। नामकरण भी हुआ, रूप और सनातन उनके नाम हुए। अनुपम उनकेेेे भाई थे, तीन भाई थे रूप, सनातन और अनुपम। अनुपम के पुत्र थे जीव गोस्वामी। वैसे षड़ गोस्वामी यो में से तीन गोस्वामी तो एक ही परिवार के थे। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का रूप और सनातन से तो मिलन हुआ लेकिन जीव गोस्वामी बहुत बालक थेे शिशुुु थे। तो शायद जीव गोस्वामी को याद भी नहीं रहा होगा कि चैतन्य महाप्रभु आए थे मिले थे वहां पर रामकेली आए थे। फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने रूप और सनातन को विशेष आदेश दिया तुम वृंदावन जाओ और फिर क्या क्या करना है वह भी बताया। वृंदावन के गौरव की पुनः स्थापना करनी है। वृंदावन मेंं चैतन्य महाप्रभ के आंदोलन का नेतृत्व करेंगे रूप और सनातन। चैतन्य महाप्रभु को कईयों से मिलना था तो यह मिलना जुलना अब लगभग पूरा हो चुका था। अब वे वृंदावन जाना चाहते हैं वृंदावन जाना ही था। पहले भक्तों से मिलेंगे बंगाल में और फिर वृंदावन के लिए प्रस्थान करेंगे। जब चैतन्य महाप्रभु वृंदावन के मार्ग में, अभी तो बंगाल में ही है। मैं वृंदावन जा रहा हूं वृंदावन जाना है मुझे यह बताया भी नहीं होगा। लेकिन लोगों को पता चल ही गया चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जा रहे हैं। कई सारे लोग तैयार हो गए क्यों तैयार नहीं होते? आप भी अगर होते बंगाल में उस समय हां परमकरुना जरूर ज्वाइन करते यात्रा सारा बिजनेस छोड़-छाड़ के कौन सोचता जब......। किंतु चैतन्य महाप्रभु भीड़भाड़ के साथ यात्रा नहीं करना चाहते थे वे अकेले जाना चाहते थे सन्यासी है तो वैराग्य। *वैराग्य - विदया -निज-भक्ति -योगा।* *शिक्षार्थम एकः पुरुषहाः पुराणह:।।* (च. च. मध्य 6.254) वैराग्य विद्या का भी प्रदर्शन करना है। तो लोगो से दूर रहना है कभी-कभी तो दूर रहना चाहिए। तो इस समय वे दूर रहना चाहते थे कम से कम किसी को साथ लेना नहीं चाहते थे। रास्ते में तो लोग मिलेंगे, कीर्तन होगा वह प्रचार के लिए ठीक है। किंतु तीर्थ यात्रा में जा रहे हैं, तो यह एक साधना है यात्रा में जाना। साधना के समय वे अकेले जाना चाहते थे। उस समय बंगाल के एक प्रसिद्ध ब्रह्मचारी नरसिंगानन्द ब्रह्मचारी वे चैतन्य महाप्रभु की विशेष सेवा कर रहे थे। क्या कर रहे थे? जिस मार्ग पर चैतन्य महाप्रभु जा रहे थे उस मार्ग का सारा पुनर्निर्माण कर रहे थे। तो वह बैठे थे अपने स्थान पर और वही से वह ध्यान में मार्ग का पुनर्निर्माण कर रहे थे। उस रास्ते को फिर बढ़ाना है, चौड़ा करना है और कहीं वृक्ष उगाने हैं, यह हरियाली थोड़ी उगानी है। तो इस तरह कल्पना करो, थोड़ी कल्पना करो, कैसा मार्ग हो जिस मार्ग पर चैतन्य महाप्रभु की सुगम यात्रा होगी। वहां सुगंध भी हो फिर सुगंधित फूल भी चाहिए और शीतल हवा तो पेड़ पौधे है। तो दोनों जगह जल निकाय यह सब नरसिंहानन्द ब्रह्मचारी कर रहे थे। चैतन्य महाप्रभु के पांच दस पंधरा किलोमीटर आगे उनका कंस्ट्रक्शन चल रहा था। चैतन्य महाप्रभु जैसे आगे बढ़ते, वह भी अपने कंस्ट्रक्शन को आगे बढ़ाते यह सब ध्यान में हो रहा था। तो ऐसा साक्षात्कार हुआ उनको वह रास्ता बनाते बनाते वे कहां तक पहुंच गए कन्हाई नटशाला पहुंंच गए। एक कन्हाई नटशाला नाम का स्थान है लगभग बंगाल और बिहार का बॉर्डर। कन्हाई नटशाला तक ही कंस्ट्रक्शन वे कर सके उसके आगे कंस्ट्रक्शन को करना तो था लेकिन संभव नहीं हो रहा था। तो उनको यह समझ मेंं आया, इस निष्कर्ष पर पहुंचे वे कि चैतन्य महाप्रभु कन्हाई नटशाला से जगन्नाथपुरी लौटने वाले हैं, वृंदावन नहीं जाएंगे वे। क्योंकि मैं रास्ता नहीं बना पा रहा हूं, क्योंकि महाप्रभु जाने ही वाले नहीं उस रास्ते से आगे वृंदावन की ओर। इसीलिए वे आश्वस्त थे कि चैतन्य महाप्रभु कन्हाई नटशाला से जगन्नाथपुरी जाएंगे फिर वैसा ही हुआ। क्योंकि चैतन्य महाप्रभु जैसे आगे बढ़ रहे थे तो साथ में भीड़ भी बढ़ रही थी। फिर कन्हाई नटशाला तक ही चैतन्य महाप्रभु सभी के साथ आए। फिर उन्होंने कहा कि नहीं नहीं मैं वृंदावन नहीं जाऊंगा, चलो अपने अपने घर लौटो, अपने अपने गांव जाओ, नोएडा जाओ, कोलकाता जाओ। फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु पुनः जगन्नाथपुरी लौट गए यह बहुत बड़ा विघ्न इतनी सारी भीड़ के साथ नहीं जाना है मुझे। तो चैतन्य महाप्रभु ने अपनी यात्रा की योजना को बदल दिया और वृंदावन जाने के बजाय वे जगन्नाथपुरी लौट आए। *जगन्नाथ पुरी धाम की जय।* लेकिन वृंदावन तो उनको जाना ही था तो अब दोबारा प्रस्ताव रखेंगे चैतन्य महाप्रभु वृंदावन जाने का। वह चर्चा अब तो कल ही कर सकतेेेेेेेेेेेेे हैं चैतन्य महाप्रभु की वृंदावन यात्रा। *निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।*

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