Srimad Bhagavatam 10.89.57
02-02-2022
ISKCON Pandharpur

हरे कृष्ण
चैतन्य चरितामृत की जय!

तो आप भी यात्रा में आए हो हरि हरि! और इस धाम में आपका स्वागत है। ऐसा मैं कभी- कभी कहता हूँ कि ऐसे ही एक दिन आपका वैकुण्ठ में या गोलोक में स्वागत हो। हरि बोल! आप समझते हैं इस बात को? इस दरम्यान क्या करो?
“ राम कृष्ण मुखी बोला, तुका ज़ातो वैकुंठाला “

तुकाराम महाराज जब वैकुण्ठ जा रहे थे, तो जाते-जाते उन्होंने कहा जो उपस्थित भक्त थे इंद्रायणी के तट पर , देहू गाँव में। वहाँ आया था विमान वैकुण्ठ से , बम्बई से नहीं आया था । उन दिनों विमान हुआ ही नहीं करते थे। विमान पढ़ा था शास्त्रों में लेकिन विमान का कोई हवाई अड्डा नहीं था। कब बन गया हवाई अड्डा? इन रीसैंट हिस्ट्री कह सकते हैं। अवार्चिन् इतिहास में देहू बन गया एयर पोर्ट। एयर पोर्ट अथारिटी के हमारे प्रभुजी भी सिक्योरिटी इंचार्ज है यहाँ बैठे हैं। तो उस दिन जो जा नहीं रहे थे उनके लिए तुकाराम महाराज कहे “ रामकृष्ण हरी बोला, मुखे बोला
तुका जातो वैकुण्ठाला” । तो अब वे उनको भी आमंत्रित कर रहे थे कि आप भी आ जाना । परंतु तब तक क्या करना होगा?

“हरि मुखे मनः,हरि मुखे मनः , पुण्याची गणना कोण करि “ ।

“हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे,
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। “

हम गौड़िया वैष्णवों की भाषा में इस महामंत्र का जाप कीजिए, कीर्तन कीजिए और फिर आप भी आ जाइए।
एक दिन हमारी भी बुकिंग होजायेगी उस एयर लाइन में , वो एयर क्राफ्ट जो वैकुंठ से आया हुआ एयर क्राफ्ट है । “राधापंढरिनाथ की जय!” तो यह जीवन का लक्ष्य भी है , है कि नहीं? कि जीना यहाँ और मरना भी यहीं पर, ठाणा छोड़कर जाना कहाँ । ऐसा हम कुछ सोचते तो हैं । या तो फिर जब हम तीर्थयात्रा में आते हैं जैसे कि आप सभी आए हो , तो ये सारे रिमाइंडरस, आपको स्मरण दिलाया जाता है ।
“बोधयन्तः परस्परं “ हम एक दूसरे को बोध कराते हैं ,स्मरण दिलाते हैं । और ऐसे भक्त की पहचान भगवान गीता में कहें है कि ‘मेरा भक्त कैसा होता है ?क्या करता है?’

“मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम् |
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||” 10.9||

वह मेरी कथा में ,कीर्तन में ,नाम कीर्तन में , यह सारा कीर्तन हीं है। “ आदौ मध्ये अंते, हरि सर्वत्र गीयते “ । ऐसा हम सुनते हैं , सर्वत्र हरी का कीर्तन है। तो कहीं पर हरी के नाम का कीर्तन हैं, तो कहीं हरी के गुणों का कीर्तन है , लीला का कीर्तन है ,धाम का कीर्तन है , परिकरों का कीर्तन है । कीर्ति से कीर्तन बनता है। कीर्ति अर्थात ग्लोरीज़, वैभव, महिमा ,महात्म्य ,हरी नाम का महात्म्य, भगवान की लीला का महात्म्य , धाम का महात्म्य। यह सब कीर्ति है और कीर्ति से कीर्तन है। चैतन्य महाप्रभु ने कहा ही “ कीर्तनीय सदा हरी “। हरि हरि ! तो तुकाराम महाराज भी वही कह कर गये कीर्तन करो। हरि हरि! वे भी यहाँ आते थे एक समय, तुकाराम महाराज भी पंढरपुर चे वारकरी होते । वे भी कीर्तन करते, हम तो भी यहाँ कीर्तन करते हैं , पता नहीं इस तट पर भी वे आए होंगे कभी मैं सोच रहा था कि ‘ ते वाय वंट’ । यह पूर्व किनारा है,पश्चिम दिशा मे तुकाराम महाराज का कीर्तन होता होगा। ‘ वाय वंततालि कीर्तना’ वाय वंट समझे? वाढू , बालु । तो तुकाराम महाराज भी आया करते थे और आप भी आए हो। ठाणे और देहू कहो थोड़ा पास में है , ऐसा कुछ कहो । ठाणा कहाँ है? देहु के पास, ऐसा परिचय भी है।

“सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी ।
कर कटावरी ठेवूनियां ॥१॥
तुळसी हार गळां कासे पीतांबर ।
आवडे निरंतर हेंचि ध्यान ॥ध्रु.॥
मकरकुंडले तळपती श्रवणी ।
कंठी कौस्तुभमणि विराजित ॥२॥
तुका म्हणे माझे हेचि सर्व सुख ।
पाहीन श्रीमुख आवडीनें ॥३॥”

फिर वे दर्शन भी करते थे विट्ठल भगवान के और विट्ठल भगवान उनको दर्शन देते भी थे। वैसे ही दिए बिना लिया नहीं जा सकता। हम दर्शन करने गए थे दर्शन किया हमने, दिया तो फिर लिया कह सकते हैं । तो तुकाराम महाराज को पूरा दर्शन होता है, हमको भी कुछ तो दर्शन होता है, कुछ कुछ होता है। लेकिन तुकाराम महाराज “ योगमाया समवृताः “ मैं सबको दर्शन नही देता हूँ मैं स्वयं को छिपाता हूँ ,योगमाया से छिपाता हूँ । तो तुकाराम महाराज को दर्शन हो रहा है कैसा दर्शन ? सुंदर ते ध्याना उभे विटेवरी ! वे कैसे खड़े हैं? उनके करकमल देख रहे हैं। भगवान के गले में तुलसी का हार है, तुलसी की माला है, मंज़री की माला या तुलसी के पुष्पों की माला है। तो उसे सिर्फ़ देख ही नहीं रहे हैं तुकाराम महाराज सूँघ भी रहे हैं, यह दर्शन हुआ । तुकाराम महाराज भगवान के कानों में कुंडलों को नाचते हुए देख रहे हैं। भगवान जब हिलते हैं देखते हैं तो उसी के साथ उनके कानों के कुंडल भी हिल रहे हैं। और कुंडलों में मिश्रित होने वाली जो आभा या कांति है वह उनके चेहरे को और प्रकाशित कर देती है और दर्शन होता है। तो फिर वे लिखते जाते थे ये सारे अभंग। जैसे जैसे दर्शन होता है “दिव्य ज्ञान हृदय प्रकाशित”। उनके हृदय प्रांगण में ज्ञान प्रकाशित हो रहा है, उनको साक्षात्कार हो रहा है, उनको दर्शन हो रहा है। तो फिर वे उसको लिखते जाते थे, भगवान को देखते देखते या उनकी लीलाओं को देख रहे हैं ।

और जैसे शुकदेव गोस्वामी या तो लाइक दैट या फिर हमारे वाल्मीकि मुनि भी “ मरा, मरा” से शुरुआत की थी उन्होंने “ मरा, मरा, मरा मरा मरा “ । लेकिन जप करते रहे, कीर्तन करते रहे। शुरुआत में अपराध होतें हैं अपराधपूर्ण जप, कैसा ? अपराधों से भरपूर, पूर्ण। शुरुआत में ऐसा ही हाल होता है लेकिन प्रयास तो करना होता है। अपराधों से बचने का प्रयास करने वाले ही सफल होंगे। अपराध रहित और फिर आभास और फिर शुद्ध नाम जप। तो ये उनका भी हुआ ही। वाल्मीकि का अब तो मरा, मरा, मरा, मरा ,मरा, मरा, राम, राम,राम राम…..पटरी पर आ गई ना गाड़ी ? शुरुआत हुई मरा मरा मरा मरा ..तो करते जाओ, करते जाओ। अपराध भी हो रहे हैं, टालते जाओ, प्रयास करो,प्रयत्न होने चाहिए । “प्रयत्नांती परमेश्वर” । तो शुद्ध नाम जब – जब होने,जप होने लगा वाल्मीकि मुनि का तो फिर हो गए दर्शन। शुद्ध नाम जप मतलब :-
“प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन
सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।
यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥ “
(श्री ब्रह्म संहिता ५.३८)

प्रेमाञ्जनच्छुरित, तो ये एक दर्शन। प्रेमाञ्जन – जो बाजार में मिलता है वो अंजन नहीं है, काजल। तो फिर दर्शन। तो फिर जब ऐसे दर्शन हो रहे थे, राम के दर्शन, रामलीला के दर्शन हो रहे थे वाल्मीकि मुनि को। वो जो देखते थे, फिर उसी को लिखते थे, बाय रीटन। तो सुनी हुई कथायें हुई गाने में, देखी हुई। तो शुकदेव गोस्वामी भी देख – देख कर, उसका आनंद और साक्षात्कार के साथ। तो भगवान तो हैं। भगवान हैं की नहीं ? हमारी शुरुआत यहाँ से होती है, गजब की बात। भगवान स्वयं को इतना छुपा सकते हैं और ज्ञान के स्थान पर इतना अज्ञान से आच्छादित कर सकते हैं जीव को, इसको बद्ध कहते हैं। तो बद्धावस्था में “भगवान! वो क्या होता है ? हरी, हरी। जैसे अंधे को, तो वो अंधा क्या कहेगा , सूर्य होता है क्या ? ये क्या बकवास है। सूर्य, ईट डसन्ट एक्सिस्ट। सूर्य तो है नहीं। लेकिन उसे उसी के बगल में कोई आँखवाला व्यक्ति है तो वो देख, देख रहा है। सूर्य देख, सूर्य को देख – देख रहा है। और दूसरा अंधा कह रहा है, “सूर्य डसंट एक्सिस्ट।” हरी, हरी। तो सारी चाबी भगवान के हाथ में है वैसे।

“सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। “( गीता 15.15)

भगवान ने कहा। तो भगवान नही है ,नहीं कहने वाले भी वैसे, ये ईडिया उनको भगवान से ही आती है। फिर भगवान ही उनको कह रहे है, “यस, आई डोंट एक्सिस्ट।” उसको कई सारे तर्क – वितर्क संयुक्त कर देते है भगवान। ये सब करने के लिए भगवान है नहीं। तो कृष्ण कहे गीता में, सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो, सबके हृदय प्रांगण में मैं रहता हूँ। वैष्णव के हृदय में गोविंद विश्राम या भगवान को आराम करने देते हैं वैष्णव। और लोग परेशान करते हैं, भगवान की नींद टूट जाती है। हरि, हरि। मुझसे ये ज्ञान, मुझसे ये अज्ञान, ये जो भूलना, भगवान को भूल जाना, ये सारे आइडिया भगवान से, ‘मत्तः’ , मत्तः मतलब मुझ से, स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। हाँ उनको बता दो मैं नहीं हूँ, वो वाली बात। पाटिल गए पटेल के घर, बैल बजाए तो पहले बच्चे ही आ जाते हैं अधिकतर। हाँ हाँ कौन चाहिए आपको ? योर फादर हियर ? मैं देखके आता हूँ। तो पिताजी से मिले,”वो पटेल आपको मिलना चाहते हैं।” ओ वो पटेल, आ दैट पटेल, ओह। उनको बता दो की मैं घर में नहीं हूँ। तो बच्चा दौड़ के जाता है द्वार पर और क्या कहता है? “मेरे पिताजी ने कहा।”, “क्या ?”, “मैं घर में नहीं हूँ।” तो भगवान नहीं हैं, ये जो आइडिया है ये भी भगवान से ही आती है, ऐसा मान लो। हरि हरि! हम चैतन्य चरितामृत लेकर बैठे तो थे… या आप यात्री बनके आए हो या मेहमान बनके आए हो या कम ऐस अ गेस्ट लेकिन कुछ आइडियाज यहाँ से लेकर जाइए। या आपको एक दिन हम आयेंगे, मेहमान बनके आयेंगे। एक निवासी, रहवासी बनके आयेंगे। (हरीबोल !!) तो चैतन्य महाप्रभु भी आए थे यहाँ। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय !! वैसे उनका क्या कहना? भक्त बने हैं भगवान। भगवान बने हैं भक्त। भक्त और भक्ति का महिमा की स्थापना कर रहें हैं भगवान, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में। तो भगवान बन जाते हैं भक्त और लेकिन आजकल क्या देखा जाता है ? कोई जीव बनना चाहता है भगवान। ये विचार छोड दो, भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु का कहना है। भक्त बनने में जो मजा है, जो आनंद है। “आनंद ही आनंद गड़े, एकड़े – तेकडे चोरी करे “ तो इस भक्ति का आनंद लूटने के लिए भगवान बन गए भक्त। और वे भक्त, “ पंचतत्त्वात्मकम कृष्णम भक्तरूप”, भगवान पांच रूपों में प्रकट हुए थे ,५०० वर्ष पूर्व की बात है। ये अधिकतर दुनिया वाले नहीं जानते हैं। ये भी थोड़ा प्रचार-प्रसार, ये सत्य का प्रचार-प्रसार, श्रील प्रभुपाद की जय !! श्रील प्रभुपाद ने प्रारंभ किया। फिर अंग्रजी भाषा में प्रचार करो। नहीं तो कौन जानता था, चैतन्य महाप्रभु को ही नहीं जानता था, फिर पञ्च तत्व और … फॉरगेट ईट। नित्यानंद प्रभु एंड अद्वैत आचार्य एंड गदाधर पंडित एंड श्रीवास ठाकुर। तो पञ्च तत्त्व। तो उसमें से पहला तत्व तो भक्त रूप। भगवान बन गए भक्त बन गए, तो वे भक्त भगवान। भक्त बने हुए भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय हो! पूरे भारत की ये यात्रा उन्होंने की। श्री चैतन्य महाप्रभु गए संपूर्ण भारत की यात्रा या भक्त रूप में जा रहें हैं तो “अनुग्रहाय चरंती नूनम “ भागवत में कहा है। “भव्यानी भूतानी जनार्धनस्य” । वैसे भक्त भी हैं, सन्यास भी लिया। आप भी तयारी कर रहे हो ? वैसे चैतन्य महाप्रभु हम सभी के लिए एक उदहारण, आदर्श, दुनिया के समक्ष आदर्श, आदर्श भक्त, भगवान बने हैं भक्त। आदर्शों की स्थापना कर रहें हैं। एक – दो दिन का संन्यास हो गया ना ? उसको धीरे धीरे बढ़ाना है। एक दो दिन फिर एक दो टाइम्स, फिर फिनिश्ड, फिर तैयारी हो गई। तो चैतन्य महाप्रभु, “ जनार्धनस्य, भव्यानि भूतानि जनार्दनस्य, अनुग्रहाय चरन्ति नूनं। (श्रीमद भगवतम ३.५.३) ।

भगवान् के भक्त विचरण भी करते हैं, भ्रमण करते है क्यों? अनगृहाय, अनुग्रह करते हैं गृहस्थों पर अनुग्रह उनका होता है। चैतन्य महाप्रभु इस उद्देश्य से भी ये भ्रमण कर रहे थे “ श्री राधार भावे एबे गौरा अवतार, हरेकृष्ण नाम गौरा करीला प्रचार।” राधा भाव भक्त बने मतलब? द बेस्ट भक्ता, भक्त भक्ता, पुरुष-भक्त स्त्री-भक्ता बेस्ट तो भक्ता ही है। तो राधा रानी के भाव में भगवान प्रकट हुए इसलिये वो ग़ौरवर्ण हैं। श्याम वर्ण का क्या हुआ? आप कहते तो हो कृष्ण है, कृष्ण है, भगवान है, भगवान है, भगवान तो काले-सांवले होते हैं। पंढरपुर के भगवान विट्ठल की क्या पहचान है ? काले-सांवले। सावडा ,मेरे दादा का नाम था सावडा, मराठी में नाम चलता है सावडा। मेरे पिता भगवान और मैं रघुनाथ। ये कैसे नाम हैं रघुनाथ-भगवान-साँवडा? वैसे हर नाम भगवान का ही होता है ,हमको पता नहीं होता है। संसार में जितने भी नाम है प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष पद्धति से अगर हम समझेंगे तो वे सब भगवान के नाम हैं। तो काले सावडे भगवान ग़ौरवर्ण के हो गऐ राधा रानी के कारण “तप्त कांचन गौरांगी राधे बृंदावनेश्वरी”। तो राधारानी के अंग की कांति कैसी होती है? तप्तकांचन, कांचन मतलब सोना। कैसा सोना? तपा हुआ सोना और भी चमकता है। आपने कभी देखा होगा, कभी गए हो होंगे तो सुनार की दुकान। गौरांग! यहाँ तो भगवान पांडुरंग है, पांडुरंगा! गौरांग! गौरांग पांडुरंग !तो कृष्ण चैतन्य महाप्रभु “ श्री राधारभावेर एबे गौरा अवतार हरे कृष्ण नाम गौरा करिला प्रचार” । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। इस मन्त्र का प्रचार दौरे के दौरान उन्होने हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन सर्वत्र किया और इसीके साथ उन्होंने इस युग के धर्म की स्थापना की है “कलिकाले युगधर्म हरिनाम संकीर्तन” तो यहाँ आए तो यहाँ पर पंढरपुर में भी कीर्तन ही किया है। कोल्हापुर भी गए थे भगवान्, कौन गए? भगवान गए। ये रोमांचकारी बात है, कौन गए ? भगवान गए। कई लोग आते-जाते रहते हैं कोल्हापुर लेकिन एक बार कौन आए? भगवान ही आ गए। तो महालक्ष्मी का दर्शन ज़रूर किया होगा ,ऐसा चैतन्य चरितामृत में है जिसको लेकर बैठे हैं हम।

“कोल्हापुरे लक्ष्मी देखी देखेन शिर भगवती” ये चैतन्य चरितामृत की मध्यलीला अध्याय नौ में 281 श्लोक संख्या ‘चैतन्य महाप्रभु कोल्हापूर भेंट’ । तो उन्होनें महालक्ष्मी का दर्शन किया ,फिर मैं जब कहता हूँ तो ये भी कहता हूँ कि सोचने की बात है महालक्ष्मी का दर्शन उन्होंने किया या महालक्ष्मी में उनका दर्शन किया? समझ जाओ। हमारे लिए भगवान बने हैं भक्त, लीला खेल रहे हैं ,भक्त की भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन महालक्ष्मी के लिए वे तो नारायण हैं, स्वयं भगवान हैं इस भगवान रूठके ही वैसे लक्ष्मी वेकुंठ से कोलापुर में आके रहने लगी। स्त्रियाँ रूठ जाती है पति से या तो मायके जाती है या फिर और भी कहीं जाके छिप सकती है। ऐसा यहाँ भी हुआ वैसे रुक्मणी भी द्वारका से दिन्डीर वन आ गई। कहाँ है दिन्डीर वन ? नदी के उस तट पर दिन्डीर वन है लखुबाई ,रुक्मिणी का मंदिर भी है वहाँ । द्वारिका से आ गई रूठकर महाराष्ट्र तो रुक्मणी के लिए मायके हैं। जैसे कुछ लोग कहते हैं द्वारकाधीश इस गुजराती, कृष्ण कैसे हैं ? गुजराती क्योंकि गुजरात में इतने समय के लिए रहे भगवान। तो फिर हम आराम से कह सकते हैं रुक्मणी महाराष्ट्ट्रियन है । ओ के आपके गुजरात के कृष्ण हैं तो महाराष्ट्र की है रुक्मणी । रुक्मणी मैया की जय! वैसे है भी आप जानते हों कि नही? कुंडिनपुर वहाँ भी इस्कॉन है ।

कौंडिण्यपुर भी कहते हैं, भागवत में तो कुंडीनपुर कहा है। अमरावती और वर्धा के बीच में वरदाहिनी नदी भी है । वरदायिनी- वर देने वाली ,वरदायिनी का नाम वर्धा हुआ, नदी को वर्धा ही कहते है । वहाँ की जन्मी रुक्मणी तो रूठके वो भी आयी थी महाराष्ट्र आ गई; वैकुण्ठपति वैकुण्ठनायक भगवान विष्णु पर भी नाराज़ थी एक समय लक्ष्मी नाराज़ हो गई। तो भृगु मुनि आये, आपको पता है परीक्षा ले रहे थे । ब्रह्मा विष्णु महेश में से कौन श्रेष्ठ है? भृगु मुनि आये और वैकुण्ठ में भगवान के महल पहुँचे ‘ मे आयी कम इन सर? क्या मैं आ सकता हूँ?’ इत्यादि वगैरह कुछ पूछा वग़ैरह तो नहीं ,ऐसे ही घुस गए , आ धमके, और आते ही उन्होने लात मार दी, लक्ष्मी देख रही थी लेकिन भगवान ने ये सब सहन किया। एक अक्षर भी नहीं कुछ उल्टा-सुल्टा कहे, या उस भृगु मुनि को थप्पड़ नहीं मारे उल्टे उनके चरण पकड़ रहे हैं ,मेरा वक्षस्थल तो कठोर है आपके चरण कमल बड़े मुलायम है आपको कुछ कष्ट तो नहीं हुआ? लैट मी मसाज आपके चरणों की थोड़ा सेवा करता हूँ । तो ये सब लक्ष्मी सुन और देख रही थी तो कैसे सहन कर सकती थी आप करोगी? तो इस बात से लक्ष्मी रूठ गई पतिदेव से, फिर वहाँ से इस ब्रह्माण्ड में प्रवेश करती हैं। कोल्हापुर लैंडिंग होता है उनका और कोल्हापुर में रहने लगी तब से वहीं हैं महालक्ष्मी मइया की जय ! तो चैतन्य महाप्रभु जब वहाँ गये तो महालक्ष्मी के लिये ,चैतन्य महाप्रभु महानारायण है, एक दूसरे का दर्शन किया और फिर वहाँ से आगे बढ़े। पंढरपुर धाम की जै! रास्ते में आरवडे में भी रुके थे , पता नहीं रुके थे कि नहीं ? वहाँ से गए तो थे ,शायद आपके लिए आरवडे नाम नया हो सकता है। जहाँ पर इस शरीर का जन्म हुआ वह भी आषाढ़ी एकादशी के दिन ही जन्म दिये भगवान मुझे। विट्ठल भगवान के जीवन का साल भर में जितने उत्सव होते हैं सबसे बड़ा उत्सव तो आषाढी एकादशी का होता है । चातुर्मास्य का प्रारंभ का दिन होता है, देवशयनी एकादशी का दिन होता है ,जब लाखों यात्री आते हैं केवल दर्शन करने । और कुछ माँग नहीं होती है , ये वैशिष्ठय है वैसे पंढरपुर धाम यात्रा और दर्शन का , कुछ मांगते नही हैं । बस दर्शन चाहते हैं ,18 दिन चलते हैं रात-दिन “ शीत आतप वात बारिषण “ सब चलता रहता है। आँधी ,तूफ़ान ,बरसात सब । नो कंफर्ट ज़ोन ,इस यात्रा में दिन्डी में सुख सुविधा कैसी है ?

हमारे एक भक्त एक समय इंटरवियू ले रहे थे डिंडी मे आने वाले वार्करियों से,एक से जब पूछा यात्रा कि यात्रा में सुख सुविधा है ? उसने कहा सुविधा तो नहीं है लेकिन सुख है। फिर उन्होंने कहा कि हम पुणे से हैं, पुणे में सुविधा तो बहुत है, लेकिन सुख नहीं है । ठाणे में सुविधा तो बहुत है । तो यात्री “ सुखेदुखे समे कृत्वा, लाभलाभौ जया ज यौ “ ये करते हुए आते है। चुनौतियां ,चैलेंजेर् का सामना करते हुए 18 दिन की यात्रा और कीर्तन करते हुए आते है। श्रील प्रभुपाद भी लिखे हैं यहाँ का ,आज भी तुकाराम महाराज की कीर्तन टोली बंबई में और सारे महाराष्ट्र राज्य में अत्यंत लोकप्रिय हैं । उनकी संकीर्तन टोली गौड़ीय वैष्णव कीर्तन मंडलियों जैसी ही है क्योंकि वे भी मृदंग तथा करताल के साथ ही भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन करते हैं। जय जय राम कृष्ण हरि, जय जय राम कृष्ण हरि! हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे! निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! जब यहाँ पहुँचते हैं तो फिर 10 – 20 लाख की लोग एक दिन में दर्शन करना चाहते हैं ओर यह भी यहाँ का वैशिष्ट्य है । ये नहीं कि एक लाख लोग आजाओ ,करो दर्शन आउट , ओके नैक्सट टीम। 1000 लोग आजाओ या 500 के बैच, यहाँ बड़ा पर्सनल दर्शन है वन आन वन ,वन ऐट अ टाइम, एक समय एक ही भक्त दर्शन करेगा व्यक्तिगत रूप से, वैरी पर्सनल। तो २४ आवर्स डिवाइडेड बाई 20 लाख तो हरेक के लिए कितना मिलता है? कुछ कुछ क्षण मिल जाते हैं। फिर कितने समय का दर्शन? क्षणभर के लिए केवल और जब वो दर्शन करके बाहर आते हैं उस समय उनका सेल्फी खींचना चाहिए। मानो विक्टरी, जीत लिया, विजयी हुए। क्या हुआ ?

दर्शन हुआ, दर्शन लिया मैंने । तो उस क्षणभर में जो आनंद का आनंद लूटे ,वही आनंद उनके चेहरे पर झलकता है और उस आनंद की तुलना संसार के सभी तथाकथित आनंद और सुख की तुलना में तुच्छ है। “ मैथुनादि गृहमेधि सुखम् ही तुच्छम, जैसे प्रह्लाद महाराज कहे ही है । गृहमेधियों का या मैथुन आदि ,मतलब पूरी लिस्ट है बिगनिंग विद मैथुन।

या ‘’ मैथुनादि गृहमेधि सुखम ही तुच्छम’ इसको तुच्छम कहते हैं। ऐसे श्रील प्रभुपाद एक समय से व्याख्या कर रहे थी इसी श्लोक के ऊपर कोलकाता में थे व्यासासन पर बैठे थे तो तुच्छम कहते कहते उन्होने थूके। मतलब वो पूरे साक्षात्कार के साथ इसको “वैराग्य वीट” इस को मराठी में वीट, ईट नही । तो भगवान के दर्शन की तुलना में इस संसार का सारा सुख तुच्छ है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु आरवडे से होते हुए राधागोपाल की जय! राधा गोपाल वहाँ जाके विराजमान हुए हैं “विट्ठल तो आला आला आला , माला भेंटने आला” । भगवान दर्शन देने के लिए जाते हैं ,आते है ,जाते हैं तो विग्रह के रूप में । भगवान वैसे कई रूपों में घर में जगन्नाथ है, जगन्नाथ निवास बनाया इन्होंने, कृष्णदर्शन प्रभु। जगन्नाथपुरी जाके जगन्नाथ का दर्शन नहीं ,घर में दर्शन, घर बैठे-बैठे दर्शन। तो हो गया न फिर विट्ठल तो आला आला बिट्ठल आगए आगए विट्ठल आयो रे !आयो रे! आयो रे! ऐसा भी हुआ था भगवान जो वृंदावन छोड़कर गये थे , वृन्दावन से मथुरा गए ,मथुरा से फिर द्वारका गए। वृंदावन लौटने की बजाय द्वारका आ गए ,वहीं रह गए, वे वहीं के वहीं रह गए। फाइनली एक समय भक्तों के हर दिन वो विनती कर रहे थे आइए ,आइए! लौटिए । लेकिन फिर एक समय आ गया वो कुरुक्षेत्र में मिले थे, वृन्दावनवासी द्वारकावासियो को मतलब कृष्ण बलराम सुभद्रा को कुरुक्षेत्र में मिले थे । जब श्रीकृष्ण स्वयं यात्री बनकर गए ,तीर्थयात्री बनके गए कुरुक्षेत्र जैसे आप यात्री बनकर आये हो पंढरपुरधाम ,भगवान भी यात्री बनें । द्वारकावासी ‘कई सारे द्वार के वासी’ भगवान भी और भगवान की 16,108 रानियां भी और फिर वसुदेव-देवकी प्रेक्टिकली एवरी बॉडी। तो फिर वहाँ पहुँचते थे वृंदावनवासी , नन्दबाबा ,यशोदा, गोपियाँ भी पहुँच गई , यहाँ तक की राधारानी भी ,ग्वाल सखा ,गाय भी गई। तो वहाँ मिलन हुआ लगभग सौ वर्षों के उपरांत मिल रहे थे, वो लीला बड़ी अद्भुत है । हरे कृष्ण ! जय जगन्नाथ! जगन्नाथ स्वामी की जय! वैसे हमारे मंदिर के भक्त भी यात्री गुरु बनके जगन्नाथपुरी गये थे, अभी अभी लौट रहे, कल रात को लौटे। वैसे केवल मंदिर के भक्त ही नहीं और 200 भक्तों को कुछ पंढरपुर के निवासी तो कुछ सांगोला के , वार्शी के ,मोहोल के , इस क्षेत्र के जो हरे कृष्ण अनुयायी हैं, द फ़ॉलोअर्स ऑफ हरे कृष्णा मूवमेन्ट या कई सारे शिक्षित-दीक्षित भी है तो उनकी यात्रा लेकर गए थे घनश्याम प्रभु, धर्मराज प्रभु,मोहन रूप प्रभु । मोहन रुप प्रभू वाज़ द लीडर । शिवानंद सेन जब मायापुर नवद्वीप से…कई सारी बातें निकल आती है जब एक शब्द याद किया तो फिर ये याद आता है , वो याद आता है । चैतन्य महाप्रभु के समय भी चैतन्य महाप्रभु जब जगन्नाथ पुरी में हुआ करते थे तो उनके दर्शन के लिए और जगन्नाथ रथयात्रा में सम्मिलित होने केलिए नवद्वीप शांतिपूर्वक और कई स्थानों से भक्त जाते थे तो उनके लीडर हुआ करते थे शिवानंद सेन।

जो रास्ते में सारी सुविधाएं लॉजिंग बोर्डिंग व्यवस्था करते थे । तो इस ग्रुप में मोहनरूप प्रभु शिवानंद बने थे और फिर उनकी सहायता में टीम मदद को गई थी। तो उस समय कुरुक्षेत्र में, बैक टू कुरुक्षेत्र , हम सारे धामों की यात्रा कर रहे हैं, कहां-कहां आपको पहुंचा दिए लेकिन सारे मिलकर वैकुंठ हैं । यहाँ हमको लगता है कि जगन्नाथ पुरी ‘डेट्स थाउसैंड माइल्स फ्रॉम हियर’, ओ मायापुर! 1500 किलोमीटर, ओ वृंदावन ! कितना दूर है । लेकिन गोलोक में या आध्यात्मिक जगत में वैकुंठ में यह दूरी नहीं है, एक दूसरों को सटके हैं, दे आर बैक टू बैक ,बीच में कुछ है ही नहीं । हां भी वैसे ही है पर हमको समझ में नहीं आता । हम समझते हैं कि वृंदावन से द्वारका दूर है और जगन्नाथ पुरी और भी दूर है, वृंदावन और मायापुर एक नाइट एंड डे की जर्नी है । लेकिन वस्तु स्थिति तो और ही है , यह सब साथ में है, दे आर ऑल टुगेदर। इसीलिए भी जैसा धाम में आए हो तो एक धाम अपराध होता है, जैसे नाम अपराध होते हैं तो वैसे धाम अपराध भी होते हैं । धाम अपराध भी 10 है जैसे नाम अपराध भी 10 है । कौन से है वैसे? आप धीरे-धीरे पता लगवा सकते हो । उस पर सेमिनार वगैरह नहीं देंगे हम। तो उसमें से एक है यह समझना कि यह जो धाम है वृंदावन धाम या मायापुर धाम, जगन्नाथ पुरी धाम ,पंढरपुर धाम या द्वारका धाम यह किसी देश या किसी राज्य में है ये अपराध है । क्योंकि यह धाम इस जगत में नहीं है। यह धाम न तो इस जगत के हैं न तो इस जगत में है ।’ दे आर इन थिस वर्ल्ड बट नॉट ऑफ़ दिस वर्ल्ड ‘’ ऐसा अंग्रेजी में कहते है । इस जगत में हैं ऐसा लगता है लेकिन इस जगत के नहीं है यह धाम, जगत से परे हैं। तो यह कहना कि महाराष्ट्र में पंढरपुर है यह अज्ञान है ,यह सत्य नहीं है । यह वृंदावन यूपी में है और अयोध्या भी यूपी में भी है और जगन्नाथ पुरी उड़ीसा में है और मायापुर नवदीप बंगाल में है। द्वारका ही गुजरात में नहीं तो फिर कृष्ण गुजराती कैसे हो गए ? इसी को ट्रांसडेंटल कहते हैं, यह जगत के परे हैं सब स्थान । हरि हरि ! तो आयो रे आयो रे की बात क्योंकि फाइनली जब भगवान लगभग 100 वर्षों से दूर थे तो बृजवासियों के विशेष निवेदन पर ,तो ऐसा निवेदन हुआ था फिर कुरुक्षेत्र में इस बार जब जाएंगे तो हम कन्हैया को वृंदावन लेकर ही आएंगे । आवश्यकता है तो घसीट के या कुचल बांगड़ी, चल बंगड़ी करके उनको छोड़ेंगे नहीं । अगर वह रथ में बैठे होंगे तो द्वारका से आएंगे, हम तो बृजवासी हैं तो हम तो छकड़े में बैठकर बैलगाड़ी में बैठकर जा रहे हैं कुरुक्षेत्र में लेकिन वह तो रथ में विराजमान होकर आएंगे द्वारकाधीश जो है । तो रथ में बैठे हुए कृष्ण, बलराम, सुभद्रा को हम क्या करेंगे? रथ को ही खींच के हम ले आएंगे ,उसके घोड़े है तो ‘ ए गेट आउट! जरूरत है तो हम ही घोड़े बनेंगे, हम गधेे बनने के लिए भी तैयार हैं।’ कृष्ण के लिए गधा भी बनना है तो वी आर रेडी। यह रथ यात्रा के पीछे भाव भी है कि जगन्नाथ रथयात्रा जब होती है तो वृंदावन के भक्त कृष्ण को पुनः वृंदावन में चाहते हैं। हरि हरि ! तो एक समय आ ही गये, उस समय नहीं आए थे जब मिले द्वारकावासी वृंदावनवासी तो उसे समय तो कृष्ण नहीं आए थे। लेकिन पुनः उन्होंने वादा किया था ‘ मैं जरूर आऊंगा’ तो फाइनली फिर “ विनाशाय च दुष्कृताम” असुरों के संहार की लीला भी संपन्न हुई । तो लास्ट असुर तो दंतवक्त्र था, दंतवक्र – शिशुपाल दो भाई जो थे और फिर विदुररथ भी । मथुरा से कुछ ही दूरी पर दतिहा नाम का गांव है हम लोग जब ब्रजमंडल परिक्रमा में जाते हैं तो दतिहा , दांत से दतिहा, हा मतलब हत्त्या ।

जहां पर भगवान ने दंतवक्त्र की हत्या की, वध किया वह दतिहा ग्राम भी है। तो वहां दंतवक्र का उध्दार ही कहिए । भगवान जाते हैं विश्राम घाट और अपने सारे अस्त्र-शस्त्र स्वाहा जमुना में बहा देते हैं। “ विनाशाय च दुष्कृताम् “ उनका यह जो एजेंडा था सक्सेसफुली कंप्लीटेड। तो अब लौट सकता हूँ मैं वृंदावन । फिर भगवान रथ में तो विराजमान थे ही , तो मथुरा से ब्रज की ओर प्रस्थान किया । रास्ते में अपना पांचजन्य शंख ध्वनि भी हो रही थी, तो बृजवासियों ने और फिर ऐसे ही तो है बृजवासी वो कुरुक्षेत्र यात्रा में गए थे और यह सुनकर आए थे कि ‘मैं आऊंगा’ किसने कहा था ? भगवान ने कहा था मैं आऊंगा मैं आऊंगा। तो बृजवासी वृंदावन तो लौट गए लेकिन प्रवेश द्वार पर ही रुक रहे, वे घर नहीं गए। उन्हें सोचा कि भगवान ने आऊंगा कहा है तो भगवान आएंगे ही ,प्रॉमिस इस प्रॉमिस। “प्रतिजाने प्रियोsसि में “। तो भगवान आ गए और हम वहां नहीं है उनके स्वागत, सम्मान , दर्शन के लिए तो यह उचित नहीं होगा। इसलिए घर नहीं गए, प्रवेश द्वार पर ही खड़े रहे । जब भगवान वृंदावन लौट रहे हैं रथ में विराजमान और शंखध्वनि तो दूर से ही नाद जब सुन रहे थे ‘ हां, यह तो पांचजन्य ऋषिकेश, यह ध्वनि तो शंखध्वनि तो कृष्ण के शंख की ध्वनि है’ वह पहचान गए। दे आल् गेटिंग रेडी ,एक्साइटेड। जब भगवान दृष्टिपथ में आ गए ,“जगन्नाथ स्वामी नयनपथगामी भवतु में” इसको दृष्टिपथ कहते हैं, दृष्टि का पथ होता है तो भगवान दृष्टिपथ में आ गये बृजवासियों के दृष्टि के पथ में ।

अंग्रेजी का ‘पैथ’ उन्होंने चोरी किया संस्कृत से, ऐसे कई सारे शब्द हैं। तो फिर जब दृष्टिपथ में आ ही गए तब सब बृजवासी चिल्लाने लगे , पुकारने लगे क्या कहा उन्होंने? ‘आयो रे ,आयो रे ,आयो रे ,आ गए, आ गए, आ गए!’ मतलब इतने उत्कंठित भी तो थे , वैसे उतनी उत्कंठा जब तक नहीं होती तब तक वे आते भी नहीं। “ कौन कहता है भगवान आते नहीं ? “ क्यों नहीं आते? गोपियों के जैसे बुलाते नहीं । ये बृजवासियों जैसे गोपियाँ कहो ,नंद बाबा कहो, उनके मित्र कहो , ऐसी पुकार । “कौन कहता है भगवान खाते नहीं” खिलाते नहीं कैसे नहीं खिलाते? शबरी जैसे खिलाते नहीं। और क्या कहा है ? ऐसी कई सारी बातें हैं.. वो भक्त के लिए नाचते हैं ,भक्त के लिए आते हैं, भक्त के लिए खाते हैं । वो भक्ति है । खाते क्या है वैस? भक्ति खाते हैं। हरि हरि! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु फिर अरावडे से आगे बढ़े, (अरावडे में अटके थे हम लोग साइड ट्रिप हो गई ) तो बैक टू तो फिर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय! पंढरपुर आए 500 वर्ष पूर्व की बात है ,प्रभुपाद घाट भी नहीं था । यह संभावना है कि जो जो हमको आकृतियां दिखती है , आकृति समझते हैं ? फॉर्म्स । उनमें से कोई भी प्रूफ या बिल्डिंग या स्ट्रक्चर उस समय के नहीं है। उस समय का पंढरपुर तो भिन्न था ,कोल्हापुर भी भिन्न था, इंटरनेट के टॉवर्स वगैरा थे क्या ? ना तो गाड़ी न तो घोड़े,घोड़े तो होंगे । आजकल की मोटर गाड़ी पीपी! भो भों! यह सब नहीं था।

भिन्न था पंढरपुर , पांडुरंग पांडुरंग थे पांडुरंग! पांडुरंग ! उस टेंपल के भी आकार में परिवर्तन आते रहते हैं , हजार दो हज़ार वर्षों के उपरांत, भिन्न दिखता है ,कुछ सुधार होता है, कुछ रिनोवेशन होता है । बेसिकली हम कह सकते हैं बस पांडुरंग ही थे , लेकिन जो जो था उस समय का, अब तो नहीं रहा । उस रूप में, उस आकार में ,आकृति में नहीं रहा क्योंकि अब प्रकृति से बनती है प्रकृति और प्रकृति में आ जाती है विकृति , आकृति में जो प्रकृति होती है, तो आती है विकृति। और यह प्रलय कहते हैं न, एक नित्य प्रलय नाम का एक प्रलय का प्रकार है ,नित्य प्रलय । ऑन डेली बेसिस कुछ प्रलय होता है, तो इसलिए परिवर्तन होता है । तो 500 वर्ष पुराना पंढरपुर बाहरी दृष्टि से , भारत के संबंध में भी ‘एवर चेंजिंग नेवर चेंजिंग’ ऐसे कांसेप्ट है । एवर चेंजिंग मतलब सदैव परिवर्तन। कुछ बातों का सदैव परिवर्तन होता है लेकिन कुछ बातें क्या होती है? नेवर चेंजिंग उसमे कभी परिवर्तन नहीं होता है – आत्मा ,परमात्मा , इत्यादि जो आध्यात्मिक बातें हैं ,लीला है , नाम रूप गुण लीला धाम। यह क्या है ? नेवर चेंजिंग इसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता है ,यह अक्षय है ,अव्यय है और बाकी तो एवर चेंजिंग है। तो यह दोनों को भी नोट करना चाहिए एवर चेंजिंग और नेवर चेंजिंग । ऐसे हमारे शरीर भी कैसे हैं? एवर चेंजिंग।

आत्मा कैसी है? नेवर चेंजिंग। तो अधिक महत्वपूर्ण किया है ? जो नेवर चेंजिंग है, जिसमें ऊपरी परिवर्तन नहीं होता। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु पंढरपुर आए , आयो रे !आयो रे! आयो रे! चैतन्य महाप्रभु आगये, चैतन्य महाप्रभु आए और 11 दिन यहां रुके । आप लोग तो आयाराम, गया भी राम! आए थे आए थे पता चला तो था लेकिन इतने में निकल भी गए । तो चैतन्य महाप्रभु का यहाँ 11 दिन एक स्थान पे रुकना यह रिकॉर्ड रिकॉर्ड रहा । चैतन्य महाप्रभु की जो पूरी यात्रा ,सारी दक्षिण भारत की यात्रा और फिर उत्तर भारत की ओर, पूर्व भारत की ओर, इंडिया बंगाल के कुछ ही गिने-चुने स्थान पर चैतन्य महाप्रभु एक से अधिक दिन रुकते थे और कुछ स्थानों पर तो आधी रात ही रुकते थे, क्योंकि प्रातःकाल तक रुके तो लोग देख रहे हैं कि महाप्रभु जा रहे हैं तो सारा गांव उनके पीछे जाने लगता, जैसे अयोध्यावासी जब राम वन के लिए प्रस्थान किए तो सारे अयोध्यावासी जा रहे थे ,ऐसे ही होता था। राम ही तो प्रकट हुए हैं चैतन्य महाप्रभु के रूप में और वैसे जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु नासिक पहुंचे , नासिक भी गए थे वहां तो नासिकरो ने नासिक के लोगों ने सोचा कि हमारे राम आ गए। ऐसे चैतन्यचरितामृत में वर्णन है । यही आगे वैसे ‘चैतन्य महाप्रभु महाराष्ट्र’ एक सेक्शन है ऐसा कोई अलग से टाइटल नही दिया है। इस यात्रा में चैतन्य महाप्रभु की महाराष्ट्र टूर , मोटे-मोटे नाम तो कोल्हापुर ,पंढरपुर, सातारा का नाम है। सातारा के पास कृष्णावेन्ना नदी का संगम, वहां चैतन्य महाप्रभु गए थे और कृष्ण करणामृत् ग्रंथ प्राप्त हुआ, जो साथ में लेकर गए चैतन्य महाप्रभु। फिर आगे बढ़े और नासिक गए और भी कई जगह गए ,ज्योतिबा भी गए, मुंबई में मुंबा देवी का दर्शन किया , नालासोपारा आदि । ऐसी कोई कढचा नामक ग्रंथ है, कढचा मतलब डायरिस, नोटस। तो कृष्णराज कविराज गोस्वामी सभी का उल्लेख नहीं किए चैतन्य चरितामृत में लेकिन कुछ और स्थान है जहाँ चैतन्य महाप्रभु गए ।

उसमें नासिक भी है जिसमें नासिक के लोगों ने सोचा कि राम आ गए, जय श्री राम! जय श्री राम! तो फिर इस बात को टालने के लिए कि प्रातःकाल में मुझे जाते हुए देखेंगे तो सभी लोग साथ में पीछे जाना शुरू कर देंगे और चैतन्य महाप्रभु अकेले ही यात्रा करना चाहते थे ,यह उनकी शर्त थी कि मेरे साथ कोई नहीं जाएगा। तो चैतन्य महाप्रभु 11 दिन वहां रुके, थोड़ा हिसाब करने पर 14 दिन का भी कुछ संकेत आता है। पर 11 दिन का तो क्लियर है । इतने दिन यहां रुककर चैतन्य महाप्रभु ने पंढरपुरधाम की जय ! पंढरपुर की महिमा को बढ़ाया ,खूब कीर्तन किए हैं ,इतना नृत्य हुआ है यहां, उस समय के जितने भी पंढरपुरवासी थे सभी को लेकर के चैतन्य महाप्रभु ने कीर्तन किया। “ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे “ उसे समय का कोई वीडियो अगर होता तो आप फिर मान जाते हैं । लेकिन जो चैतन्य चरित्तामृत में लिखा है वह ऑडियो है, उसका वीडियो बनता है अक्सर जब हम चिंतन करेंगे ,स्मरण करेंगे तब वह दिखने लगता है । जब साक्षात्कार कुछ अनुभव होते हैं तो फिर बन गया वीडियो। ऑडियो इस नो मोर जस्ट ऑडियो ,जस्ट ऑडियो वीडियो भी । आईडिया तो वही है वैसे भी। यह जो रूप है वह शब्द से बनता है, शब्द से बनता है रूप। पहले होता है शब्द ‘ इन द बिगिनिंग दैयर वास ए वर्ड ,द वर्ड वास विद गॉड एंड द वर्ड वास गॉड’ ऐसा बाइबल में भी लिखा है। सृष्टि के प्रारंभ में पहले थे शब्द और वह भगवान के थे शब्द या भगवान के पास थे वे शब्द और वे शब्द ही थे भगवान । ऐसा भी संबंध तो ‘फ्रॉम साउंड कम्स फॉर्म’ । तो हम भी जो जप करते हैं जब तो साउंड है ,शब्द है ,तो शब्द से ही दर्शन, रूप का दर्शन ।

हरि हरि! चैतन्य महाप्रभु ने खूब कीर्तन किया है ,कीर्तन नृत्य किया है, स्नान भी किया है। “ तथा हैते पंढरपुरे आइला गौराचंद्र , विट्ठल ठाकुर देखी पाइला आनंद” तो उन्होंने विट्ठल भगवान का दर्शन किया है और आनंद ही आनंद । यहां पर एक दृश्य है वहां विट्ठल भगवान का आलिंगन दे रहे हैं ,ऐसे ही हुआ करता था दर्शन एक समय । यहां का हर यात्री आलिंगन देता था विग्रह को, उसके बिना समाधान नहीं होता था । तो चल रहा था वैसे कुछ सौ डेढ़सौ साल पहले उस प्रथा को बंद किया ,कलयुग में बदमाशी बढ़ गई ,आतंकवाद “ कलेर दोषनिधि राजन” इसीलिए ऐसा दर्शन आप नहीं कर सकते , नॉट अलाउड । उससे भक्त और भगवान के मध्य जो प्रेम है वो प्रदर्शित होता था जब आलिंगन होता था । आलिंगन किया करते थे चैतन्य महाप्रभु देख रहे हो आलिंगन कर रहे हैं लेकिन जगन्नाथ पुरी नॉट अलाउड । महाप्रभु के लिए माना था ‘आप दूर से दर्शन करिए’। महाप्रभु को कहते थे क्युकी थोड़े और पास जाते तो फिर गए काम से, फिर तो भाव-विभोर होते। जो मैग्नेटिक फील्ड है न तो जो आइरन पार्टिकल पास में है, उसके और मैग्नेट के बीच में जो फोर्स आफ अट्रैक्शन ,उसकी इंटेंसिटी अधिक होती है । जब दूर होते हैं या जितना अधिक दूर उतना कम कम , इसीलिए विशेष निवेदन था कि आप दूर से दर्शन करो, नहीं तो फिर धडाम करके जग..जग.जग… जगन्नाथ कहना भी मुश्किल। “ कंठा अवरोधन विधो स्मरणम् कुतस्थे “ वो बात अलग है । तो गला अवरोध हो जाता और फिर कुछ बोल भी नहीं पाते थे ,चल भी नहीं पाते थे इसलिए उनको दूर से दर्शन जगन्नाथ पुरी में। वैसे जगन्नाथ पुरी मंदिर में और ठाणे में तो ‘जगन्नाथ स्वामी की जय’! आप सब जगन्नाथ के भक्त बनने वाले हो ।

हरि बोल! ऐसा कुछ निर्धारित हो चुका है कि वहां जगन्नाथ बलदेव सुभद्रा आने वाले हैं या आ गए? आ गए ,आ गए ! तो जब पहुंचेंगे आल्टर पर तो फिर कहना ‘आयोरे!’ अब आ रहे हैं रे ,आ रहे हैं,आयो रे । तो वहाँ गरुड़ स्तम्भ भी रखोगे? गरुड़ स्तंभ होगा कि नहीं? जगन्नाथ पुरी मंदिर में , यहां भी देखिए गरुड़ स्तम्भ। कृष्ण मंदिर में गरुड़ स्तंभ होता है और शिव मंदिर में नंदी होता है, शनि मंदिर में कौवा होता है । ये उनके वाहन है ना और गणेश मंदिर में चूहा होता है ,अपने अपने यान पार्क किए होते हैं उन्होने। बाहर से गाड़ी देखो तो ये इसके मालिक गणेश जी है, कि चंद्र है, कि इंद्र है या विष्णु है? तो वहां गरुड़ स्तम्भ के बगल में खड़े होते चैतन्य महाप्रभु, वही से दर्शन करते थे । लेकिन यहां तो आराम से दर्शन कर रहे हैं ,आलिंगन दे रहे हैं। फिर स्नान भी किया है चैतन्य महाप्रभु ने “ तथा हैते पंढरपुरे आईला गौर चंद्र , विठ्ठल ठाकुर देखी पाइला आनन्द, प्रेमवेषे कइला बहुत कीर्तन नर्तन “ तो यहाँ प्रेम आवेश में बहुत कीर्तन नर्तन किया । “ तहा एक विप्र तारे कैल निमंत्रण “ और फिर एक ब्राह्मण ने उनको अपने घर पर निमंत्रण दिया, भिक्षा के लिए मतलब, प्रसाद ग्रहण करने के लिए । पूरा तो नहीं पढ़ेंगे कहा तो बहुत है । श्रीरंगपुरी से मिले थे चैतन्य महाप्रभु और फिर उन्हीं के साथ उन्होंने सात दिन और सात रात्रि का समय हरि कथा में बिताया।

इसी के साथ श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने इस सत्संग की महिमा की स्थापना की। साधु संग के लिए तीर्थ यात्रा में जाते हैं तो ,एक तो हमें साधु को साथ में ही लेकर जाना चाहिए या फिर वहां पहुंचने पर साधु को ढूंढो। इस्कॉन पंढरपुर के साधु, उनके पास पहुंच सकते हो आपको गाइडेड टूर वगैरा देंगे । ये अनिवार्य है ,सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण चैतन्य महाप्रभु के लीला से पता चलता है कि वो जो 11 दिन थे यहां, उसमें से सात दिन तो उन्होंने अहर्निश क्या कर रहे ? कीर्तन नर्तन कथा कीर्तन चल रहे है। ये “तीर्थ बुद्धि सलीले न कर्षित “ तो ये तीर्थ बुद्धि ,तीर्थ में आ गए तो ‘सलील’ मतलब जल, बस कई कुंड में कई नदी में स्नान कर लिया ,फिनिश यात्रा हो गई, यात्रा सफल। ‘ चिरमूरे खरीदी करा’ यहां का स्पेशल प्रसाद और ट्रेन स्टेशन, बस अड्डा, हो गयी यात्रा । तो ऐसी गलती नहीं करना ,ये भी अज्ञान और अपराध है या वैष्णव अपराध किया, वहाँ के वैष्णवों के चरणों में आप बैठे ही नहीं, “ तीर्थ बुद्धि सलीले न कर्षित, न जनेशु अभिकेशु “ वहां के जो जन कैसे जन , अभिज्ञ मतलब ज्ञानवान या भक्तिमान जो संत है, उनको कभी कभी धाम गुरु भी कहते हैं। धाम गुरु वहां के मार्गदर्शक गाइड । आजकल वृंदावन जाओगे तो उनको पंडा कहते हैं पंडा । वैसे पंडा शब्द पंडित से बना है और पंडित मतलब विद्वान और भक्तिमान भी । तो ऐसे भक्तों का संग और यह बात भी कृष्ण कहे हैं कुरुक्षेत्र में कहे, जब श्रीकृष्ण स्वयं यात्री बनकर गए हैं ,तीर्थ यात्रा में गए हैं ,तो वहाँ उन्होंने संतों को ,भक्तों को आमंत्रित किया अपने टेंट में। टेंट में रहते थे सभी, तंबू में , द्वारका का तंबू। अलग-अलग तंबू थे तो संत मंडली जब वहां पहुंची तो संतों का उन्होनें बहुत सत्कार सम्मान किया है और उन संतों की उस सभा में ,सभा को जब संबोधित कर रहे थे श्रीकृष्ण तो उस समय का ये उनका वचन है।

“यश्चात्मबुद्धि कुण पेतधातुके स्वधी कलात्रदीशु भवमेजति सलिलेना य तीर्थबुद्धि सलिलेन कर्हिचित् न जनेश अभिकेशु स एव गोखरा “ ।।
वहाँ के संतों को भक्तों को आप नहीं मिलोगे, मिलना चाहिए, मिलते नहीं लोग, ऐसा कृष्ण संतों को कह रहे थे कुछ लोग तो यहां आते हैं, यहाँ का ब्रह्मकुंड व सूर्यकुंड व कई सारे कुंड है, कुरुक्षेत्र में नहा लिए, प्रस्थान। यह गलत है यह अपराध है, धाम अपराध और वैष्णव अपराध है। यहाँ के संतों के, भक्तों के चरणों में अपराध है ऐसा कृष्ण कह रहे । क्या करना चाहिए? ‘अभिज्ञेशु’ वहां के अभिज्ञ ,अभिज्ञ मतलब पूर्णज्ञानी साक्षात्कारी जो भक्त है उनका संग करना चाहिए श्रवण कीर्तन बोध्यन्तः परस्परं …

“मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।10.9।।”

ऐसा जो नहीं करते हैं तो कृष्ण कहे वे कौन है? गोखर हैं बैल है, गाय भी कहा । लेकिन बैल को भी गो चलता है गाय-बैल गोखरा और गधे हैं । ये कृष्ण का उपदेश है ,ये गीता कुरुक्षेत्र में हो रही है लेकिन गीता के समय का उपदेश नहीं है। कुरुक्षेत्र के युद्ध के समय का यह प्रसंग भी नहीं है और उपदेश भी नहीं है । एक समय कृष्ण सूर्य ग्रहण के समय गए थे कुरुक्षेत्र ,उस समय संतों को संबोधित कर रहे थे, उस सभा में भगवान ने यह कहा । जब भगवान स्वयं ही यात्री बनके…अच्छा हुआ आप आए हम मिस कर रहे थे आपको। या वैसे पांडुरंग भगवान मिस कर रहे थे आपको हरि बोल ! यहां भगवान भक्तों की प्रतीक्षा में रहते हैं , इसीलिए “ करकटा यत ठेवानिया सुंदरते ध्यान उभे विटेवरी, करकटावरी ठेवानीया” अपने कमर पर हाथ रख के खड़े हैं , मतलब किसी की प्रतीक्षा में है । तो ठाणेकरों की प्रतीक्षा में भगवान थे । दर्शन किया कि नहीं? कैसा हुआ और इस साल आपने ठाणे ने ग्रंथवितरण भी खूब किया ।