Hindi
हरे कृष्ण!
जप चर्चा,
पंढरपुर धाम से,
21जनवरी 2021
(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द
(पञ्चतत्त्व महामन्त्र)
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
सूनो जगजीवन! (उपस्थित भक्तों में से)
नाम का संकीर्तन हो रहा हैं। रूप गोस्वामी, प्रभुपाद कह रहे हैं। तन्नामरुपचरितादिसुकीर्तनानु हमें नाम रुपादि कीर्तन ,हमें आदि मतलब इत्यादि इत्यादि मतलब, हम समझा ही रहे हैं नाम का, रूप का, गुण का, लीला का, धाम का,परिकरों का कीर्तन करना चाहिए ।ऐसा जीवन व्यतीत करना चाहिए। नाम,रूप,गुण, लीला, धाम ,परिकरो के कीर्तन में, कीर्तनीय सदा हरी इसमें से नाम, रूप,गुण का हमने स्मरण किया। कुछ कथा कि कहो या किर्ति का गान किया,नाम का कीर्तन या नाम का महिमा।रूप हम जीवन भर केवल रूप का कीर्तन कर सकते है,जीवन भर नाम कीर्तन कर सकते, कितना सारा हैं। नाम का कीर्तन इतना है और रूप का कीर्तन,रूप कि कीर्ति, रूप का महिमा, रूपों का वैशिष्ट, रूपों का वर्णन इतना सारा है कि हम सदैव नित्यम भागवत सेवया कर सकते हैं। नाम,रूप, गुण,दोनों का तो कितना बखान हम कर सकते हैं। अनंत शेष जिनको सहस्त्र वदन भी कहते हैं। उनके एक हजार मुख हैं,अनंत शेष और वे गा ही रहे हैं;कीर्ति का गान कर रहे हैं, अपने हजार मुखों सें। ना जाने कब से वह ये कर रहे हैं जब से वह है तब से कर ही रहे हैं, और उसका कोई अंत नहीं है, अनंत है। भगवान अनंत हैं। कहते हैं ना अनंत...शेष। तो भी कुछ रही जाता हैं। अनंतशेष इतना सारा कहे जाने पर भी कुछ ना कुछ शेष रह जाता है, कहने का।ऐसे है,ऐसे हैं भगवान, ऐसे हैं कृष्ण। ऐसा है उनका नाम, ऐसा है उनका रूप, ऐसे उनके गुण हम बता रहे थे कितने सारे गुण ही है ,गुणों की खान हैं। हरि हरि! गुणार्णवस्य
वन्दे गुरोःश्रीचरणारविन्दम्॥
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर लिखित संसार दावानल
गुणार्णव गुरु जनो को गुणार्णव कहा जा सकता है अर्णव मतलब गुण के सागर सागर गुरु तो भगवान कृष्ण के बारे में क्या कहा जाए। गुणार्णव गुणों के सागर। और इतना होते हुए भी उनको निर्गुण कहते हैं तो भगवान निर्गुण, निराकार है नाम रूप कितने इतने सारे रूप है इतने सुंदर रूप है तो भी प्रचार क्या है? भगवान निराकार हैं। तो हम कल बता रहे थे, निर्गुण मतलब भगवान के गुण भौतिक गुण नहीं है सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण भगवान ने नहीं है,वैसे भगवान निर्गुण है मतलब गुनातीत है तीन गुणों के परे हैं। अलौकिक गुणों से संपन्न है, युक्त है भगवान तो रूप की बात वैसी ही है निराकार भगवान का आकार भौतिक आकार नहीं हैं, प्राकृतिक नहीं है या प्रकृति से नहीं बना हैं। वह है सच्चिदानंदविग्रह: सत् चित्र आनंद विग्रह, विग्रह मतलब रूप,तो भगवान के आकार ही आकार हैं रूप ही रूप हैं।
अव्दैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम् आद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनं च।
वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभत्त्कौ गोविन्दमादिपरुषं तमहं भजामि।।
श्री ब्रम्ह संहिता 5.33
अनुवाद: -जो वेदों के लिए दुर्लभ है किंतु आत्मा कि विशुद्ध भक्ति द्वारा सुलभ है, जो अद्वैत है, अच्छी है, अनादि है, जिनका रूप अनंत है, जो सबके आदि है तथा प्राचीनतम पुरुष होते हुए भी नित्य नवयुवक हैं, उन आदि पुरुष भगवान गोविंद का मैं भजन करता हूंँ।
भगवान के अनंत रूप हैं। नाम, रूप, गुण और फिर लीला।जितने रूप है इतने सारी रूपों से भगवान लीला खेलते है, लीला करते हैं ।जो भी करते हैं भगवान, वह लीला ही हैं। गीता का उपदेश सुनाते हैं वह भी लीला ही हैं।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
श्रीमद्भगवद्गीता 4.8
अनुवाद: -भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |
दुष्टो का विनाश करते है, रावण का वध करते है, वो भी लीला ही हैं। योग निद्रा में पहुडे है,महाविष्णु भगवान वह भी उनकी लीला हैं।
गीतं मधुरं पीतं मधुरं
भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम्।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥
श्री वल्लभाचार्य लिखित अधरं मधुरं गीत
अनुवाद: -उनका गायन मधुर है, उनके पीत वस्त्र (पीले वस्त्र) मधुर हैं, उनका खाना मधुर है, उनका शयन करना मधुर है, उनका सौंदर्य मधुर है, उनका तिलक मधुर है- मधुरता के सम्राट की सभी वस्तुएँ मधुर हैं।
भगवान का विश्राम करना, सोना भी अद्भुत है, मधुर है श्रीरंगम् में भगवान विश्राम कर रहे हैं उनके दर्शन के लिए लोग जाते हैं भगवान का हर कृत्य हर कार्य जो भी हिलना, डुलना, चलना,सोचना ,सोचना भी कार्य है, भावना हैं। भगवान में भावना हैं। भगवान भी भावना व्यक्त करते हैं, उन से प्रेम करते हैं भगवान कृष्ण और फिर कृष्ण अपने माधुर्य के लिए प्रसिद्ध हैं। भगवान कृष्ण में 64 गुण है, उनमें से चार विशेष गुण हैं। माधुर्य उनको कहते हैं प्रेम माधुर्य हैं। भगवान भक्तों से प्रेम करते हैं। प्रेम! भगवान में प्रेम हैं, उनका प्रेम किन के प्रति भक्तों के प्रति और कौन है?एक तो है भगवान और दुसरा है भक्त तीसरा कोई है ही नहीं। एक है भगवान ओर उनके है अंश।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।
मन षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।
श्रीमद्भगवद्गीता 15.7
अनुवाद:- इस बध्द जगत में सारे जीव मेरे शाश्वत अंश हैं। बध्द जीवन के कारण वे छहों इंद्रियों से घोर संघर्ष कर रहे हैं। जिनमें मन भी सम्मिलित हैं।
वैसे भगवान के अलग-अलग जो विस्तार हैं
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥
श्रीमद्भागवतम् 1.3.28
अनुवाद:-उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं , लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं ।
भगवान के वैसे दो प्रकार के अंश हैं। हम जीवात्मा भी अंश है और भगवान के अवतार भी, वे भी भगवान के अंश है स्व अंश, विभिन्न अंश। भगवान के जो अवतार है फिर बलराम है या..
रामदिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन् नानावतारमकरोद् भुवनेषु किन्तु।
कृष्ण: स्वयं समभवत्परम: पुमान् यो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।
ब्रम्ह संहिता 5.39
अनुवाद: -जिन्होंने श्रीराम, नृसिंह, वामान इत्यादि विग्रहों में नियत संख्या की कला रूप से स्थित रहकर जगत में विभिन्न अवतार लिए, परंतु जो भगवान श्री कृष्ण के रूप में स्वयं प्रकट हुए, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूंँ।
भगवान के जो नाना अवतार है,
विस्तार है, वह भी भगवान के अंश ही हैं।और भगवान कृष्ण अंशी है और अंशी कृष्ण के अंश है ये इतने सारे विस्तार, अवतार भी उनको स्व अंश कहा है, और हम जो जीव है जीवात्मा भी भगवान के अंश है।और उनको कहा है विभिन्न अंश, स्वअंश भगवान के सारे जो अवतार है और भगवान के जो सारे जीव है जीवात्मा जो हम जीव है वे भी अंश ही हैं। वे हैं विभिन्न अंश इस प्रकार भगवान के कई सारे रूप हो गये। हरि हरि!
उन रूपों में स्वयं कृष्ण का जो रूप है वह रूप माधुरी वह सर्वोपरि हैं। उनका प्रेम माधुर्य और और अवतार भी उनके भक्तों से प्रेम करते हैं ।लेकिन कृष्ण का भक्तों के प्रति जो प्रेम है उस प्रेम की सीमा है असीम अतुलनीय हैं।मैचलेस!हरि हरि!
उनके और अवतार है उनका संबंध भगवान के साथ, भगवान स्वामी है, भगवान है,परमेश्वर है और उनके भक्त दास है, उसे दास्य भाव या फिर गौण भाव का रसों का आदान-प्रदान भगवान के अन्य अवतारों में अवतारों और भक्तों के मध्य में किंतु श्री कृष्ण के साथ जो लेनदेन या जो प्रेम का व्यवहार है, या व्यापार है,वह है साख्य रस है,और वात्सल्य रस, और है माधुर्य रस ,और उसमें भी पहले बता चुके हैं आपको अब नहीं कहूंँगा यह तो दूसरी बात है तो नाम,रूप गुण लीला कि बात हो रही है तो भगवान जो भी करते हैं वह उनका खेल ही है, लीला ही हैऔर भगवान कि लीला संपन्न होती रहती हैं। अष्टकालीय लीला जो वृंदावन की बात हैं।
व्रज तिष्ठन् करो! रूप गोस्वामी ने कहा हैं। तन्नामरुपचरितादिसुकीर्तनानु कीर्तन करो!नाम, रूप, लीला का कीर्तन करो! व्रज तिष्ठन् वृंदावन में रहते हुए! हरि हरि! या इस्कान के मंदिरो में रहते हुए,या अपने घर को मंदिर बनाते हुए। भगवान लीला करते हैं। विग्रह की लीलाएं होती हैं। साक्षी गोपाल विग्रह कि लीला या मदन मोहन की लीला, संवाद सनातन गोस्वामी के साथ या श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कि लीला जगन्नाथ स्वामी के साथ या फिर तुकाराम महाराज को भगवान का दर्शन देना। हरि हरि!
वे भी रूप हैं विग्रह भी रूप हैं और विग्रह भी लीला खेलते हैं। विग्रह भी भोजन करते हैं। विग्रह को भी हम राजभोग को ग्रहण करने के उपरांत भगवान विश्राम करते है, लीला हैं। उत्थान आरती का समय होता है तो भगवान को जगाते हैं। भगवान का अभिषेक होता है लीला हैं। भगवान का श्रृंगार करते हैं हम वह लीला हैं। भगवान मुरलीधर मुरली बजाते हैं और शुद्ध भक्त उस मुरली के नाद (सुर) सुनते हैं। हरि हरि!
माधुर्य लीला
श्रीराधिका-माधवयोर्अपार-
माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम्।
प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्।।
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर लिखित संसार दावानल
अनुवाद: -श्रीगुरुदेव श्रीराधा-माधव के अनन्त गुण, रूप तथा मधुर लीलाओं के विषय में श्रवण व कीर्तन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसास्वादन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसावस्वादन करने की आकांक्षा करते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।
गुरुजन क्या करते हैं? गुर्वाष्टक में कहां हैं। प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य
क्षणअनूक्षण कोई कीर्तन कर रहा हैं। रसास्वादन कर रहे हैं किस प्रकार करते हैं।
श्रीराधिका-माधवयोर्अपार-
माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम्।
राधामाधव के माधुर्य लीला का,
उनके के गुणों का, उनके रूप का वर्णन कर रहा हैं। -नाम्नाम् उनके नाम का कोई कीर्तन कर रहा हैं, कोई श्रवण कर रहा है मतलब प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य लोलुप हो चुका है,लंपट हो चुका है,ये सब श्रवण करने में भी, कोई कहने में, कोई उसके श्रवण में, प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य हरि हरि!
यह लीला की बातें इतना ही कह सकते है और भी कह सकते हैं लेकिन इस परिस्थिति में हम बोल रहे हैं यहां तो इतना ही बोल सकते हैं।और फिर धाम की बात है ।धाम का भी कीर्तन करना चाहिए। धाम भी इतने सारे हैं, भगवान धाम में काम करते हैं ।उस काम को हम लीला कहते हैं। लीला खेलने के लिए कोई स्थान चाहिए ।वह स्थान धाम है और सारी सृष्टि के दो विभाजन हो चुके हैं, एक भौतिक साम्राज्य है और दूसरा आलौकिक साम्राज्य है ।अलौकिक साम्राज्य धाम है ।
भ. गीता 15.6
न तभ्दासयते सूर्यो न शशाक्डो न पावक:।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तध्दाम परमं मम।।
अनुवाद: -वह मेरा परम धाम न तो सूर्य या चंद्र के द्वारा प्रकाशित होता है और न अग्नि या बिजली से। जो लोग वहाँ पहुंँच जाते हैं, वे इस भौतिक जगत में फिर से लौट कर नहीं आते।
और अन्य शास्त्रों में भी बहुत सारा वर्णन है ।श्रीमद्भागवतम में भी वर्णन है। वृंदावन ,मथुरा, द्वारका धाम, बैकुंठ, साकेत (अयोध्या) का वर्णन है। यह सब धाम है। यह जितने अवतार हैं उनके अपने-अपने धाम हैं। इसलिए उन अवतारों को धामी कहा जाता है। जिनका धाम होता है उन्हें धामी कहा जाता है। श्री कृष्ण वृंदावन के धामी हैं, श्री राम अयोध्या के धामी हैं, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु मायापुर के धामी है, द्वारकाधीश द्वारका के धामी हैं ,द्वारकाधीश की जय! तो कई सारे धाम है ,उसके भी प्रकार, श्रेणियां और स्तर हैं ।और सब का विस्तार हुआ है ,आध्यात्मिक जगत में और इस भौतिक जगत में भी धाम है। वृंदावन धाम... वैसे वृंदावन भौतिक जगत में नहीं है ऐसा लगता है कि है।
गोलोकर वैभव लीला कोरिल प्रकाश
भगवान ने गोलोक की वैभव लीला गोकुल में प्रकाश की तो उसी गोलोक का विस्तार गोकुल है। अयोध्या भी यहां है, पंढरपुर और श्रीरंगम को भू वैकुंठ कहते हैं, जगन्नाथ पुरी धाम यहां भी है और वहां भी ,सर्वत्र है।
श्रीमद भागवतम 1.13.10
भवद्विधा भागवतास्तीर्थभूता: स्वयं विभो ।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्त:स्थेन गदाभृता ॥
जहां भी भगवान के भक्त रहते हैं वही तीर्थ स्थान बन जाता है ,क्योंकि भगवान उनके हृदय में वास करते हैं।
गौर-बिहित, कीर्तन सुनी,आनंदे हृदय नाचे
शुद्ध भगत( शरणागति)
जे -दिन गृहे,भजन देखि गृहेते गोलोक भाय
शुद्ध भगत( शरणागति)
भक्ति विनोद ठाकुर कह गए जिस दिन मेरे घर में कीर्तन होता है, संत महात्मा आते हैं, भक्त आते हैं, साधु संग होता है और मृदंग बचता है, तो मृदंग और कीर्तन की ध्वनि जब मैं सुनता हूं तो मेरा ह्रदय आनंद से नाचता है। और मेरा घर गोलोकधाम बन जाता है। पहले आपका ह्रदय धाम हुआ,फिर आपका घर धाम हुआ।
प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।
यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।
(ब्रम्हसंहिता 5.38)
अनुवाद : जिनके नेत्रों में भगवत प्रेम रूपी अंजन लगा हुआ है ऐसे भक्त अपने भक्ति पूर्ण नेत्रों से अपने ह्रदय में सदैव उन श्याम सुंदर का दर्शन करते हैं जो अचिंत्य है तथा समस्त गुणों के स्वरूप है । ऐसे गोविंद जो आदि पुरुष है मैं उनका भजन करता हूं ।
संत महात्मा के आंखों में प्रेम के अंजन और अश्रु हैं। जब वे ऐसी दृष्टि से देखते हैं तो ह्रदय में उनको सदा भगवान का दर्शन होता है। तो ह्रदय धाम हो गया, या ह्रदय को विश्राम भी कहा गया है। तोमार हृदय सदा गोविंद विश्राम एक गीत में कहते है कि एक भक्त के ह्रदय में भगवान सुख पूर्वक विश्राम करते हैं।
तो हमारा ह्रदय धाम हो गया ,इसे कहते हैं दिल एक मंदिर है। जहां मंदिर है, जहां भगवान है, वहीं धाम है। फिर कहां धाम नहीं है? जब श्री राम वनवास के लिए जा रहे थे तब उन्होंने वाल्मीकि जी से पूछा मैं कहां रह सकता हूं ?वन में मेरा निवास कहां होगा ?तो वाल्मीकि जी ने कहा प्रभु पहले यह बताइए कि आप कहां नहीं रहते हैं? यदि ऐसा कोई स्थान है जहां आप नहीं हैं तो फिर वहां भी रहिए। और फिर आपने पूछा ही है कि आप कहां रह सकते हैं? तो मेरा यह विशेष निवेदन है कि हे प्रभु आप अपने भक्तों के हृदय प्रांगण में रहिये। भगवान जहां भी रहते हैं वह धाम है। इस प्रकार भगवान के धाम ही धाम हैं। और यह सब होते हुए भी दुनिया वालों को बिल्कुल पता नहीं है।
भ गीता 7.25
नाहं प्रकाश सर्वस्य योगमायासमावृत:।
मूढोSयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।
अनुवाद: -मैं मूर्खों तथा अल्पज्ञों के लिए कभी भी प्रकट नहीं हूंँ। उनके लिए तो मैं अपनी अंतरंगा शक्ति द्वारा आच्छादित रहता हूंँ, अतः वे यह नहीं जान पाते कि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूंँ।
महामाया से मैं सब को ढक लेता हूं। इसको प्रकाशित नहीं करता। तो ऐसी परिस्थिति के कारण असंख्य लोगों को धाम का ज्ञान नहीं है। जो मायावादी हैं भगवान के रूप को नहीं मानते ।जब रूप ही नहीं है तो लीला कैसे खेलेंगे? जब लीला ही नहीं खेलेंगे तो धाम की क्या आवश्यकता है ?
भ.ग 7.3
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत: ॥ ३ ॥
अनुवाद
कई हजार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करने वालों में से विरला ही कोई मुझे वास्तव में जान पाता है |
भ.ग. 4.9
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ ९ ॥
अनुवाद
हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |
जो केवल भगवान को तत्व से जानते हैं ,वे ही भगवान के धाम को प्राप्त करते हैं।नाम का तत्व है ,धाम का तत्व है, लीला का तत्व है, गुरु का भी तत्व है। जो भगवान को तत्व से नहीं जानते वह जानते ही नहीं हैं ।
ब्रम्ह संहिता 5.43
गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्य देवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु।
ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येन गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।
अनुवाद: -जिन्होंने गोलोक नामक अपने सर्वोपरि धाम में रहते हुए उसके नीचे स्थित क्रमशः वैकुंठ लोक (हरीधाम), महेश लोक तथा देवीलोक नामक विभिन्न धामों में विभिन्न स्वामियों को यथा योग्य अधिकार प्रदान किया है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूंँ।
ब्रह्मा जी देख रहे हैं। यह उनका साक्षात्कार है। वह देखो गोलोक! गोलोक निज धाम में कृष्ण वास करते हैं। यह धाम है और उस धाम में भगवान लीला खेलते हैं। खेल भी खेलना है तो खेलने के लिए खिलाड़ी चाहिए और यहां फिर भगवान के परिकर आ जाते हैं। भगवान के अनगिनत परिकर हैं। कुछ तो भूले भटके यहां इस ब्रह्मांड में भटक रहे हैं। उनकी गणना कौन कर सकता है? 8400000 योनियों में भटक रहे हैं। भ्रमित होते हैं।कुछ ही साथ आते हैं जैसे राजा कहीं जाते हैं तो उनके कुछ ही संगी साथी साथ आते हैं, जैसे सचिव इत्यादि। कोई मंत्री जाता है तो पूरी जनता को नहीं लेकर जाता। भगवान भी कुछ ही विशेष परिकरों के साथ प्रकट होते हैं। महाभारत में लाखों भक्तों का उल्लेख हुआ है। रामायण पढ़ो कितने सारे भगवान के परिकरों का उल्लेख है ।राम भक्त हनुमान की जय! सुग्रीव की जय! वशिष्ठ की जय! सब माताओं की जय! राजा दशरथ की जय! इतने सारे श्री राम के चरित्र में पतिकारों का उल्लेख है। फिर चैतन्य चरितामृत, चैतन्य भागवत, चैतन्य मंगल है। आप गिनोगे कितने भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ संकीर्तन करते हैं ?जब काज़ी की कोठी की तरफ चैतन्य महाप्रभु जा रहे थे, तो उस समय का चैतन्य भागवत में संकीर्तन का जो वर्णन है, कि कितने जन उस संकीर्तन में उपस्थित थे ,तो उसमे यह वर्णन है कि कई कोटि-कोटि भक्त उस कीर्तन में थे। तो कहां जीसस कहते हैं कि मैं भगवान का पुत्र हूं। हमारे इसाई बंधु ऐसा कहते है पर हम तो कुछ ही भक्तों का उल्लेख कर सकते हैं। भगवान के कितने पुत्र होने चाहिए? भगवान को सीमित क्यों बना रहे हो? जैसे आप गृहस्थ हो तो, आप दो आपके दो ,ऐसा चल रहा है ।पर पहले अष्ट पुत्र सौभाग्यवती हो, या दर्जन बेटे बेटियां हुआ करती थी ।गृहस्थों के जब इतने पुत्र पुत्रियां हो सकती हैं तो भगवान के कितने पुत्र पुत्रियां, भक्त, परिकर हो सकते हैं? वह भी उनका भगवान के साथ शाश्वत और घनिष्ठ संबंध है। कोई है दास ,तथा माता-पिता, प्रेयसी ,प्रियकर, ऐसे संबंध हैं। परिकर ही परिकर है। तो चैतन्य महाप्रभु के पहले मायापुर में परिकर,फिर जगन्नाथपुरी में परिकर,फिर वृंदावन में परिकर थे। और इसी तरह फिर कुलीन ग्राम में, श्रीखंड में और शांतिपुर में परिकर ही परिकर थे।
हरे कृष्ण