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जप चर्चा
दिनांक २०.०१.२०२१
हरे कृष्ण!
गौर हरिबोल!
आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 786 स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे हैं। वैसे जपा टॉक भी होता है जो कि शुरू हो रहा है। इसमें आप सभी का स्वागत है। आपका स्वागत है। हरि! हरि!
सुस्वागतम!
ऎसा सत्कार्य अथवा कृत्य के लिए आपका स्वागत है। हरि! हरि!
कल हम संकीर्तन स्कोर भी सुन रहे थे। कुछ भक्तों, प्रचारकों अथवा गीता वितरकों ने अपने अपने स्कोर भी घोषित किए थे अथवा सुनाए थे। वैसे आज ग्रंथ वितरण की ओवरऑल रिपोर्ट अथवा द बेस्ट परफॉर्मेंस स्कोर का अनाउंसमेंट होना है।
श्रील प्रभुपाद की जय!
श्रील प्रभुपाद दिव्य ग्रंथ वितरण कार्यक्रम की जय!
श्रील प्रभुपाद ट्रांसडेन्टिअल बुक वितरण की जय!
गीता जयन्ती महोत्सव की जय! वितरकों की जय!
आज हम स्कोर सुनने वाले हैं।
उसके अतिरिक्त मैंने कल कुछ कहा था और भक्तों ने भी कुछ कहा था। कल भक्त ग्रंथ वितरण के अपने अनुभव, स्टोरीज ( कहानियां) साक्षात्कार सुना रहे थे। हरि! हरि! मैंने भी कल साथ ही साथ कुछ कहना प्रारंभ किया था। श्रील रूप गोस्वामी के उपदेशामृत के आठवें श्लोक का उल्लेख करते हुए कहा था-
तन्नामरूपचरितादिसुकीर्तनानु स्मृत्योः क्रमेण रसनामनसी नियोज्य। तिष्ठन व्रजे तद्नुरागि जनानुगामी कालं नयेदखिलमित्युपदेशसारम्।।
( श्रीउपदेशमृत श्लोक संख्या ८)
अनुवाद्- समस्त उपदेशों का सार यही है कि मनुष्य अपना पूरा समय- चौबीसों घंटे भगवान् के दिव्य नाम, दिव्य रूप, गुणों तथा नित्य लीलाओं का सुंदर ढंग से कीर्तन तथा स्मरण करने में लगाये, जिससे उसकी जीभ तथा मन क्रमशः व्यस्त रहे। इस तरह व्रज ( गोलोक वृन्दावन धाम) में निवास करना चाहिए और भक्तों के मार्गदर्शन में कृष्ण की सेवा करनी चाहिए। मनुष्य को भगवान् के उन प्रिय भक्तों के पदचिन्हों का अनुगमन करना चाहिए, जो उनकी भक्ति में प्रगाढ़ता से अनुरक्त है।
हमें इस प्रकार अपना काल या अपना जीवन अथवा समय अर्थात जीवन व्यतीत करना चाहिए, सारे उपदेशों का सार यही है। श्रील रूप गोस्वामी ने ऐसा भी कहा है। वैसे यह समय व्यतीत नहीं होगा। समय का व्यय....( नहीं कहेंगे) उन्होंने यह भी कहा
तिष्ठन व्रजे अर्थात ब्रज में रहो या धाम में रहो। इस्कॉन मंदिर में रहो या इस्कॉन मंदिर जाओ या फिर घर का ही मंदिर बनाओ।
भवद्विधा भागवतास्तीर्थभूता: स्वयं विभो। तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तः स्थेन गदाभृता।।
( श्रीमद् भागवतम् १.१३.१०)
अनुवाद- हे प्रभु, आप जैसे भक्त, निश्चय ही, साक्षात पवित्र स्थान होते हैं। चूंकि आप भगवान् को अपने ह्रदय में धारण किए रहते हैं, अतएव आप समस्त स्थानों को तीर्थस्थानों में परिणत कर देते हैं।
आप जहां भी हो, उस स्थान को ब्रज अथवा वृंदावन बनाओ।
आप जहां पर भी हो, वहाँ धाम की स्थापना करो। हरि! हरि! रूप गोस्वामी का ऐसा भी उपदेश है कि आप अनुगामी बनो। 'तद्नुरागि जनानुगामी' अर्थात जो अनुरागी भक्त हैं, हम गौड़ीय वैष्णव रागानुग भक्ति का अवलंबन करते हैं।
जो भक्त या आचार्य या ब्रज के भक्त अलग-अलग रागों, भक्ति या रसों का आस्वादन करने वाले हैं, ऐसे भक्तों का अनुगमन करो। ऐसे भक्तों के अनुगामी बनो। ऐसे भक्तों को अपने जीवन का एक लक्ष्य या आदर्श बनाओ। उनके चरण कमलों का अनुसरण करो। यह अनुगमन हुआ, जिसे अनुगतय भी कहा है। ( हम उल्टे जा रहे हैं लेकिन हम थोड़ा पीछे से जा रहे हैं) इस श्लोक के प्रारंभ में कहा है कि ऐसे समय व्यतीत करें कि अपने समय का सदुपयोग करें, ब्रज अथवा धाम में रहें, पवित्र स्थल में रहें। अनुरागी भक्तों का अनुगतय स्वीकार करें। उनके अनुगामी बने।( हम पीछे से प्रारंभ करके आगे आ रहे हैं) तत्पश्चात उन्होंने कहा- रसनामनसी नियोज्य - अपनी जिव्हा और अपने मन में स्थापना करो अथवा बिठाओ।( किसको बिठाओ) तन्नामरूपचरितादिसुकीर्तनानु -
नाम, रूप, गुण, लीला धाम,परिकर आदि इन सब का कीर्तन करें।कीर्तनानु अर्थात उसका कीर्तन अथवा गान करें।
नाम का गान अथवा नाम का कीर्तन, रूप कीर्तन, गुण कीर्तन अर्थात कृष्ण के गुणों की कीर्ति का गान करें, लीला का गान करें। भगवान के नाम का गान अर्थात कीर्ति गौरव गाथा गाए और परिकरों के चरित्र का अध्ययन करें अथवा उन्हें सुने, सीखे, समझे और फिर उनका गान करें, उनकी कीर्ति बढ़ाएं। भगवान्, भक्तों व उनके परिकरों का गान करें व इन सब का कीर्तन करें। कीर्तन होता है तो श्रवण भी होता है। श्रवणं कीर्तन करें। स्मृत्योः क्रमेण अर्थात धीरे-धीरे स्मरण करें या स्मरण करते हुए कह सकते हैं। ( हम आपको अलग अलग तत्व बता रहे हैं।
हम इस श्लोक के अनुवाद को पुनः पढ़ते हैं, तत्पश्चात कुछ और कहते हैं। हमें कुछ और कहना तो था और कहना है) समस्त उपदेशों का सार यही है कि मनुष्य अपना पूरा समय अर्थात 24 घंटे भगवान के दिव्य नाम, दिव्य रूप, दिव्य गुणों तथा नित्य लीलाओं का सुंदर ढंग से कीर्तन तथा स्मरण करने में लगाएं जिससे उनकी जिव्हा अर्थात रसना मन क्रमशः व्यस्त रहे। इस तरह उसे व्रज गोलोक वृंदावन धाम में निवास करना चाहिए और भक्तों के मार्ग दर्शन में कृष्ण की सेवा करनी चाहिए। मनुष्य को भगवान के उन प्रिय भक्तों के पद चिन्हों का अनुसरण करना चाहिए जो भगवान की भक्ति में प्रगाढ़ता से अनुरक्त हैं। उनके पद चिन्हों का अनुकरण अथवा अनुगमन करना चाहिए। यह उपदेश का सार है। (मेरा विचार तो यह था और थोड़ा-थोड़ा यह भी था, मैंने कहा भी फिर आज भी थोड़ा कहना था और कहा भी, अभी भी अतिरिक्त कहा) नाम,रूप, गुण, लीला, धाम, परिकर का थोड़ा-थोड़ा उल्लेख करने का मैं सोच रहा था और उसको कहना था) कल हमने नाम के संबंध में कुछ कहा था वैसे यह विषय तो आप जानते हो और अलग से चर्चा भी की है। बहुत समय पहले नाम की चर्चा, रूप की चर्चा, गुणों की चर्चा, लीलाओं की चर्चा, धाम की चर्चा, परिकरों की चर्चा कर चुके हैं।
वैसे मैंने पहले भागवत सप्ताह भी किया था और एक दिन नाम की कथा सुनाई थी अथवा नाम का कीर्तन किया था या फिर द्वितीय दिवस रूप के संबंध में चर्चा हुई थी। मैं अब उसी के आधार पर ग्रंथ भी लिख रहा हूं। मैंने ग्रंथ का नाम "श्री कृष्ण स्वरूप चिंतन" दिया है जोकि फाइनल स्टेज में है। बहुत शीघ्र ही उसका प्रकाशन होगा तत्पश्चात आप उसे प्राप्त कर सकते हो और पढ़ सकते हो। श्री कृष्ण स्वरूप चिंतन यह अलग अलग स्वरूप है। भगवान का नाम, भगवान का स्वरूप है। भगवान् का रूप, भगवान का स्वरूप है अर्थात भगवान ही है। नाम भगवान ही है, रूप भगवान ही है गुण भगवान ही है, लीला भगवान ही है। लीला से भगवान को अलग नहीं किया जा सकता। यह सारे भगवान के स्वरुप हैं। भगवान के कई सारे नाम हैं।
विष्णु सहस्त्रनाम नाम है। कई नाम हैं।केवल विष्णु सहस्त्रनाम ही नहीं है, विट्ठल सहस्त्रनाम भी है, राधा सहस्त्रनाम नाम भी है। ऐसे ही नरसिंह भगवान् का भी सहस्त्र नाम है। नाम ही नाम है। भगवान वैसे नामी हैं। भगवान् के कई सारे नाम हैं। राम भी कृष्ण का एक नाम है।
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।सहस्त्र नामभिस्तुल्यं राम- नाम वरानने।।
अनुवाद:- शिव जी ने अपनी पत्नी दुर्गा से कहा:- हे वरानना, मैं राम, राम राम के पवित्र नाम का कीर्तन करता हूं और इस सुंदर ध्वनि का आनंद लूटता हूं। रामचंद्र का यह पवित्र नाम भगवान विष्णु के एक हज़ार नामों के बराबर है।
शिवजी पार्वती को सुना रहे हैं कि 'रमे रामे मनोरमे' अर्थात वे इन नामों में रमते हैं। ये जो राम राम रामेति.. राम राम ये जो नाम है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
शिवजी, पार्वती को सम्बोधित करते हुए कह रहे हैं कि रमे रामे मनोरमे ...मनोरमा का मनोरमे हुआ है। शिवजी, मनोरमा से कहते हैं कि मैं राम में रमता हूं। हम नाम को भी प्रार्थना करते हैं 'मया सह रम्यस' अर्थात मेरे साथ रमिये। हे कृष्ण! हे राधे! मेरे साथ रमिये। यह आत्मा की पुकार है। हम कहते हैं कि मेरे साथ भी रमिये। हम रमते हैं। जब हम भगवान के नामों का उच्चारण करते हैं तब हम भगवान में रम जाते हैं।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥
(श्री मद् भगवतगीता १०.९)
अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परम सन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं।
भगवतगीता के 10वें अध्याय में चार विशेष श्लोकों में से एक श्लोक यह भी है। हम रमते हैं। हम भगवान् के भक्त, साधक है, हमें रमना है। कथयन्तश्च मां नित्यं भगवान् के नामों में रमना है। केवल नाम में ही नहीं रमना है, कृष्ण के रूप में भी रमना है, लीला में भी रमण करना है, ऐसा नहीं कि नाम अलग है, रूप अलग है, गुण अलग है, लीला अलग है, यह एक ही है।
अभिन्नतवा नाम नामिनो
भगवान् एक ही है। यह भगवान् स्वरूप है। हम केवल इतनी चर्चा करके आगे बढ़ रहे हैं। भगवान् के रूप ही रूप हैं।
वह स्वयं रूप भी है।
कॄष्ण अस्तु भगवान् स्वयं। अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम् आद्यं पुराणपुरषं नवयौवनं च। वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।
(ब्रह्म संहिता श्लोक संख्या ३३)
अनुवाद:- जो वेदों के लिए दुर्लभ है किंतु आत्मा की विशुद्ध भक्ति द्वारा सुलभ है, जो अद्वैत है, अच्युत है, अनादि है, जिनका रूप अनंत है, जो सबके आदि हैं तथा प्राचीनतम पुरुष होते हुए भी नित्य नवयुवक हैं, उन आदि पुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
ब्रह्माजी, ब्रह्म संहिता में कहते हैं ' हे भगवन! आपके अनंत रूप हैं। जितने वैकुंठ लोक हैं। वैकुंठ लोक का अर्थ यह नहीं कि एक ही लोक है। नहीं! इस ब्रह्मांड में ही कई सारे प्लैनेट्स( ग्रह) हैं, जिसे गैलेक्सी अथवा आकाशगंगा भी कहते हैं, उसमें कितने सारे ग्रह नक्षत्र तारे हैं। हम तो सिर्फ एक गैलेक्सी की बात कर रहे हैं जोकि हमारे पास में है। खगोल शास्त्रज्ञ कुछ कुछ लोकों का टेलीस्कोप से पता लगवाते हैं लेकिन इस एक ब्रह्मांड में और भी कई सारी गलेक्सीज़ या आकाशगंगाएं हैं। भगवान् अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक भी हैं। यह सारे ब्रह्मांड इस प्राकृतिक जगत में हैं और इसको एक पाद विभूति भी कहते हैं। तीन पाद विभूति भगवान का दिव्य धाम, वैकुण्ठ या गोलोक अथवा साकेत है। बहुत सारे ग्रह हैं। इसलिए मैंने इस आकाशगंगा का उल्लेख किया है। ऐसी आकाशगंगाएं हर ब्रह्मांड में हैं। ब्रह्मांड भी अनंत कोटी हैं और भगवान उनके नायक हैं। साथ ही साथ भगवान वैकुंठ नायक भी हैं। हर वैकुंठ लोक पर भगवान का एक एक रूप है। वासुदेव, संकर्षण, प्रधुम्न, अनिरुद्ध चतुर्भुज इस प्रकार भगवान् का विस्तार होता है। फिर संकर्षण से द्वितीय संकर्षण तत्पश्चात संकर्षण से महाविष्णु, गर्भोदक्शायी विष्णु, क्षीरोदकशायी विष्णु। इस प्रकार भगवान के विस्तार अथवा अवतार हैं। यदि भगवान् के व्यापक रूपों की बात है तो भगवान के अलग-अलग अवतार हैं और भगवान के उतने ही सारे रूप हैं।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
( श्रीमद् भगवतगीता ४.८)
अनुवाद:-भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।
समय समय पर अलग अलग रूपों में जैसे नरसिंह रूप है, नरहरी रूप या राम शरीरा या कुर्म शरीरा इस प्रकार भगवान के अलग-अलग रूप हैं, भगवान् के अंसख्य रूप हैं। वे एक होते हुए भी अनेक बन जाते हैं अथवा अनेक रूप धारण करते हैं। उन रूपों से वे अलग अलग लीलाएं खेलते हैं। भगवान् निराकार नहीं हैं। भगवान के इतने सारे रूप ही रूप हैं, भगवान का स्वरूप है। इस संसार के लोग कितने अनाड़ी हैं, जो नास्तिक हैं और जो फिर आस्तिक हैं, उसमें जो मायावादी हैं या अद्वैतवादी हैं, उनका ज्ञान तो देखिए। यह सब ज्ञान की बात है कि भगवान हैं, उनके रूप हैं और उनका रूप शाश्वत है।
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् । परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ९.११)
अनुवाद:- जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं | वे मुझ परमेश्र्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते।
'अवजानन्ति मां मूढा' लेकिन कुछ ऐसे मूढ अथवा गधे हैं, जो मेरे परम भाव अथवा मेरे शाश्वत भाव अथवा रूप को जानते नहीं हैं और कहते रहते हैं कि भगवान् निराकार हैं। भगवान् निराकार हैं। यदि गुण की बात होती है तब वे कहते हैं कि भगवान निर्गुण हैं। ऐसे निराकार या निर्गुण जिन शब्दों का प्रयोग होता है, उसे समझना होगा। आचार्य और गौड़ीय वैष्णव आचार्य भी समझाते हैं। श्रील प्रभुपाद भी हमें खूब समझाते रहे। वे हमें अपने ग्रंथों में समझा रहे हैं। हम उनके प्रवचन भी सुन सकते हैं। निर्गुण मतलब भगवान् का गुण नहीं हैं। भगवान् गुणहीन हैं? नहीं! नहीं! ऐसी बात नहीं है, निर्गुण मतलब भगवान में सतोगुण, रजोगुण,तमोगुण का गंध नहीं है। वे तीन गुणों अर्थात सत, रज, तम् से परे हैं। इसलिए भगवान् को निर्गुण कहते हैं अथवा कहा जा सकता है। भगवान् निर्गुण हैं अर्थात प्रकृति के जो भौतिक गुण हैं
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
(श्रीमद् भगवतगीता ३.२७)
अनुवाद:- जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं।
प्रकृति के जो तीन गुण सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण हैं ये गुण भगवान् में नहीं हैं, इसलिए उनको निर्गुण भी कहा जा सकता है। ऐसा नहीं कि भगवान् में गुण ही नहीं हैं। भगवान् तो गुणों की खान हैं। गुणवान हैं।
भक्ति रसामृत सिंधु में श्रील रूप गोस्वामी ने भगवान के गुणों की सूची दी है। ऐसा नहीं कि भगवान में 64 ही गुण हैं, तत्पश्चात समाप्त। नही! और भी हैं। उसमें मुख्य मुख्य गुणों की चर्चा प्रारंभ हुई, उन्होंने उसमें 64 मुख्य गुणों का ही उल्लेख किया है जबकि भगवान में और भी गुण हैं। हरि! हरि!
कहीं भी हमें अगर गुण का दर्शन होता है अर्थात हमें कोई गुणी या गुणवान लोग या भक्त या महात्मा मिलते हैं, उनके उस गुण के स्त्रोत भगवान् हैं।
तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम्। अजातशत्रव: शांता: साधव: साधुभूषण:।।
( श्रीमद् भागवतम ३.२५.२१)
अनुवाद:- साधु के लक्षण हैं कि वह सहनशील, दयालु तथा समस्त जीवों के प्रति मैत्री भाव रखता है। उसका कोई शत्रु नहीं होता, वह शान्त रहता है, वह शास्त्रों का पालन करता है और उसके सारे गुण अलौकिक होते हैं।
साधु के आभूषण यही हैं। वह गुण संतों/ साधु के अलंकार हैं। तितिक्षवः अर्थात सहनशीलता और भक्तों का कारुण्य, सुहृदःअर्थात भक्त, वैष्णव अर्थात साधु उनका मैत्री पूर्ण व्यवहार और भी साधु के गुण हैं जैसे शांत होना। भक्त शांत होते हैं।
उनका चित्त शांत होता है। भगवान् तो फिर
शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं विशवाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम् लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिभिध् यानगम्यम् वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलौकैकनाथम।।
( विष्णु सहस्त्र नाम)
यदि हमें भक्तों में कोई भी गुण दिखता है। वह गुण पहले भगवान् में होते हैं। फिर वह भगवान् के गुण जीव में आ जाते हैं। हम भगवान् के ही अंश हैं।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥
( श्रीमद् भगवतगीता १५.७)
अनुवाद:- इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों से घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है।
भगवान् में जो गुण हैं, वही गुण जीव में भी हैं लेकिन कुछ मात्रा कम हो सकती है परंतु गुण वही हैं। खान में भी सोना है अर्थात सोने की खान है। उसी सोने की खान में से कुछ सोना लेकर हम कुछ अलग आकार बनाते हैं, अगुँठी बनाते हैं। वह सोना जो खान में ढेर का ढेर रखा है,
हमारी अंगूठी में वही सोना समान क्वालिटी का होता है। हमारे में जो गुण हैं, वह भगवान् के कारण हैं। भगवान् में पहले हैं तत्पश्चात बाद में हममें भी हैं। क्योंकि हम उन्हीं के हैं अर्थात हम भगवान के अंश हैं। भगवान में गुण ही गुण हैं। भगवान गुणवान हैं। हरि! हरि!
हम यहीं विराम देते हैं।
नाम, रूप, गुण का थोड़ा जिक्र हुआ और आगे का यह विषय लीला, धाम और परिकर की चर्चा हम कल के सत्र में करेंगे। आज यह फ़ूड फ़ॉर थॉट के लिए पर्याप्त है। पर्याप्त है ना? एक दिन के लिए ही नहीं अपितु पूरे जीवन के लिए पर्याप्त है। यह भोजन या खुराक आपके आत्मा व आपके विचारों व आपके मस्तिष्क के पोषण के लिए है। ओके! यहीं पर रुक जाते हैं। यदि किसी का कोई प्रश्न या टीका टिप्पणी है तो पूछ सकते हैं।