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*जप चर्चा!!!* *दिनांक 18 दिसंबर 2021* हरे कृष्ण!!! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 1032 स्थानों से प्रतिभागी सम्मिलित हैं। हरि! हरि! गीता जयंती महोत्सव की जय!!! आप गीता जयन्ती महोत्सव मना रहे हो? यह एक दिन का महोत्सव या उत्सव नहीं है। हम इसे इस्कॉन में पूरे दो महीने मनाते हैं। यह लगभग डेढ़ महीना या एक महीना चलता रहेगा।15 जनवरी तक गीता का वितरण करेंगे। हरि! हरि! किन्तु गीता केवल वितरण के लिए नहीं है। हमारे अध्ययन के लिए भी है। श्रीमद् भगवतगीता के 16 अध्याय का आज थोड़ा सा संस्मरण करेंगे। सुभद्रा सुंदरी सुन रही हो? नहीं, सुन रही है। सुनो, 'पार्थ मे श्रृणु।' इस 16वें अध्याय के छठें श्लोक में कृष्ण कह रहे हैं -'पार्थ मे श्रृणु ' अर्थात हे पार्थ सुनो़!!! कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं - सुनो, सुनो। अर्जुन ने कृष्ण की बातें सुनी और उनका कल्याण हुआ। अब हमारी बारी है।'पार्थ मे श्रृणु'। सुभद्रा सुंदरी- मे श्रृणु अर्थात मुझे सुनो। सभी ही सुनो कि कृष्ण इस दैवी तथा आसुरी स्वभाव( सम्पदा) के विषय में क्या कह रहे हैं । श्रीकृष्ण ने दैवी तथा आसुरी स्वभाव( सम्पदा) का विषय छेड़ा है। वे छठे श्लोक में कह रहे हैं- *द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च | दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रृणु ||* ( श्रीमद् भगवदगीता 16.6) अनुवाद:- हे पृथापुत्र! इस संसार में सृजित प्राणी दो प्रकार के हैं - दैवी तथा आसुरी । मैं पहले ही विस्तार से तुम्हें दैवी गुण बतला चुका हूँ । अब मुझसे आसुरी गुणों के विषय में सुनो । श्रीकृष्ण ने क्या कहा है, उसको समझना है। जब हम भगवत गीता को समझेंगे तब हम भगवान को समझेंगे। तत्पश्चात हम स्वयं को भी समझने वाले हैं। हम अपने जीवन के लक्ष्य को भी समझेंगे। कृष्ण ने कहा ही है *सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च | वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ||* ( श्रीमद भगवतगीता 15.15) अनुवाद:- मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ | मुझे जानने के लिए वेद हैं। भगवद्गीता गीता वेद का अंग है, कृष्ण की वाणी है। वेद वाणी अर्थात भगवान की वाणी। भगवान् हमारे कल्याण के लिए यह बातें कह रहे हैं।( विस्तार से नहीं कह सकते) इसलिए जब आपको संक्षिप्त में बातें कही जाती हैं, तब उसको और ध्यान से सुनना पड़ता है। विस्तार से जो कहते हैं, उसको समझ सकते हैं लेकिन जो सूत्र रूप अथवा संक्षिप्त में जो बातें कही जाती हैं, वे बातें ध्यानपूर्वक सुनने से ही समझ में आती हैं। इस संसार में दो प्रकार के लोग हैं। द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च। इस जगत में दो प्रकार के लोग होते हैं। दैव व आसुरी। कोई दैवी संपदा वाले हैं और कोई आसुरी संपदा वाले हैं अर्थात कुछ भक्त हैं तो कुछ असुर हैं। कृष्ण पांचवे श्लोक में कहते हैं।( हम किसी कारणवश थोड़ा आगे पीछे अथवा क्रम से नहीं पढ़ रहे हैं।) *दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता | मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।* (श्रीमद भगवतगीता १६.५) अनुवाद:- दिव्य गुण मोक्ष के लिए अनुकूल हैं और आसुरी गुण बन्धन दिलाने के लिए हैं । हे पाण्डुपुत्र! तुम चिन्ता मत करो, क्योंकि तुम दैवी गुणों से युक्त होकर जन्मे हो । हम आपको इस अध्याय का कुछ परिचय ही देंगे। तत्पश्चात दिन में आप पूरा अध्याय पढ़ सकते हो या जब जब आपको आज या और किसी दिन फुर्सत मिलेगी, तब पढ़ सकते हो। यह आपके लिए गृह कार्य है। आप इस अध्याय को और पढ़िए। कृष्ण बड़ी महत्वपूर्ण बात कहते हैं। *दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता | मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।* कृष्ण बहुत बड़ा सिद्धांत कह रहे हैं। जिन्होंने दैवी संपदा को प्राप्त किया है, उनकी मुक्ति होगी। आसुरी संपदा निबन्धाया । विमोक्षाय व निबन्धाया ऐसे दो शब्द हैं। मुक्ति के लिये दैवीय सम्पदा है और यदि बंधन में और फंसना है अथवा और भ्रमित होना है, अथवा जन्म मृत्यु के चक्कर में फंसना है। वैसे फंसे ही हैं। यह हृदय ग्रंथि अर्थात हृदय में जो कई प्रकार की गांठे हैं, यह गांठे और टाइट होंगी। हम बुरी तरह फंस जाएंगे। निम्न योनियों में भी जन्म संभव है। श्रीभगवानुवाच *कर्मणा दैवनेत्रेण जन्तुर्देहोपपत्तये । खियाः प्रविष्ट उदरं पुंसो रेतःकणाश्रयः ।।* ( श्रीमद भागवतम 3.31.1) अर्थ:- भगवान् ने कहा : परमेश्वर की अध्यक्षता में तथा अपने कर्मफल के अनुसार विशेष प्रकार का शरीर धारण करने के लिए जीव ( आत्मा ) को पुरुष के वीर्यकण के रूप में स्त्री के गर्भ में प्रवेश करना होता है । आसुरी संपदा- विमोक्षाय व दैवी सम्पदा निबन्धाया। (आप नोट करो। मेंटल नोट या लिखित) यह सत्य है, यह सिद्धांत है। ऐसा ही होता है। ऐसी व्यवस्था है। जिन्होंने ऐसी अवस्था की है, वही बोल रहे हैं। श्री भगवान उवाच चल रहा है। इसलिए भगवान को सुनना चाहिए तभी हम इस जगत को समझ सकते हैं किन्तु हम कैसे बंधन में फंसे हैं, इससे मुक्त कैसे हो सकते हैं । इसकी चाबी या इसका उत्तर कहो या इस उलझन का सुलझन कहो, भगवान यहां भगवत गीता में सुना रहे हैं । भगवान् 16 अध्याय में कह रहे हैं (आपने नोट किया) दैवी सम्पदा से क्या होता है- विमोक्षाया और आसुरी संपदा से निबंधाया। श्रीकृष्ण पार्थ सारथी ने देवी संपदा से युक्त लोगों के लक्षण अथवा गुण धर्म और आसुरी संपदा वाले जनों के अवगुणों का कहा है। एक गुणवान है और दूसरे अवगुणी हैं। यहां हिंदू- मुसलमान, देशी-विदेशी का प्रश्न नहीं है। दैवी सम्पदा वाले कुछ लोग संसार में आपको सर्वत्र मिलेंगे । अमेरिका में मिल सकते हैं या कुछ क्रिश्चियन भी हो सकते हैं। आसुरी संपदा वाले कुछ हिंदू भी हो सकते हैं, भारत में कई आसुरी संपदा वाले लोग हैं। जब श्री भगवान उवाच चल रहा है तब कृष्ण, हिंदू मुसलमान, देशी-विदेशी ऐसा कुछ विचार नहीं कर रहे हैं। 5000 वर्ष पूर्व हम यह जो तथाकथित कई सारे धर्म अथवा धर्मों के नाम सुनते हैं, अर्थात यह धर्म उत्पन्न हुए हैं अथवा उन्होंने जन्म लिया है, इन धर्मो का निर्माण हुआ है। अथवा यह धर्म शुरू हुए हैं। ... जो शुरू होते हैं, उनका अंत भी होता है। यह बात दूसरी है लेकिन बात बड़ी महत्वपूर्ण है। इसलिए हमें सनातन धर्म के भक्त अनुयायी होना चाहिए। श्रील प्रभुपाद, अंतरराष्ट्रीय श्रीकृष्णभावनामृत संघ की स्थापना करके सारे संसार के सभी जीवों को कृष्णभावनाभावित बनाकर पुनः सनातनी अथवा सनातन धर्म के अनुयायी बना रहे हैं। यहां जब कृष्ण दैवी संपदा, आसुरी संपदा के गुणधर्म कह रहे हैं तब न तो यहां कौन सा देश, कौन सा धर्म, कौन सी जाति का प्रश्न है न तो यहां किसी लिंग स्त्री या पुरुष का कोई प्रश्न है और न ही उनके रंग का कोई प्रश्न ही है। हरि! हरि! दो प्रकार की सम्पदाएँ हैं। दैवी सम्पदा व आसुरी सम्पदा। ऐसी संपदा से युक्त लोग इस संसार में सर्वत्र मिलेंगे। दैवी संपदा वाला कौन होता है अथवा क्या पहचान है? हम उसको थोड़ा ( केवल कुछ नाम ही गिनेंगे) कृष्ण ने जिन शब्दों में कहा है- आइए हम सुनते हैं । एक एक गुण की चर्चा नहीं करेंगे। श्रीभगवानुवाच | *अभयं सत्त्वसंश्रुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः |दानं दमश्र्च यज्ञश्र्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ||* *अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्| दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् || तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता | भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ||* ( श्रीमद् भगवतगीता 16.1-3) अनुवाद:- भगवान् ने कहा – हे भरतपुत्र! निर्भयता, आत्मशुद्धि, आध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन, दान, आत्म-संयम, यज्ञपरायणता, वेदाध्ययन, तपस्या, सरलता, अहिंसा, सत्यता, क्रोधविहीनता, त्याग, शान्ति, छिद्रान्वेषण में अरुचि, समस्त जीवों पर करुण, लोभविहीनता, भद्रता, लज्जा, संकल्प, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, ईर्ष्या तथा सम्मान की अभिलाषा से मुक्ति – ये सारे दिव्य गुण हैं, जो दैवी प्रकृति से सम्पन्न देवतुल्य पुरुषों में पाये जाते हैं | अभयं (आप समझते हो, जो सरल बातें हैं उसको मैं अधिक नहीं कहूंगा, ना ही हमारे पास सब समझाने के लिए अधिक समय होता है ) भगवान् १६ अध्याय के श्लोक १-३ में दैवी संपदा वाले लोगों के गुण का वर्णन कर रहे हैं। अभयं अर्थात निर्भरता। सत्त्वसंश्रुद्धि अर्थात अपने अस्तित्व की शुद्धि। मैं सोच रहा था, वैसे सोचता ही रहता हूं। केवल हम सुन भी लेंगे कि ये अलग अलग गुण क्या होते हैं? इसी के साथ हम में यह गुण उदित होने लगेंगे। यह नाम ही, यह शब्द ही दिव्य और शक्तिमान है। यह हमें प्रभावित करेंगे, यहीं तो श्रवण है। जब हम इन्हें सुनेंगे। *नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम 'साध्य" कभु नय। श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय ।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.107) अनुवाद:- "कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है। यह ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।" यह गुण वैसे हर जीवात्मा में है। हर जीव में यह गुण है। जब हम इन गुणों के संबंध में सुनते हैं तब यह गुण विकसित होने लगते हैं, प्रकट होने लगते हैं। इसलिए पुनः पुनः सुनेंगे, चिंतन करेंगे तब नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम 'साध्य" कभु नय श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय होगा। सभी जीवों का कृष्ण से प्रेम है। सभी जीवों का प्रेम है। जब हम श्रवण कीर्तन करते हैं, तब *नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया । भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥* ( श्रीमद् भागवतम 1.2.18) अर्थ:- भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है , जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है। गीता को सुनते हैं, महामंत्र का जप व कीर्तन करते हैं तब जीव का जो भगवान से प्रेम है, वह पुनः उदित अथवा प्रकाशित होता है, प्रकट होता है। उसी सिद्धांत के अनुसार यहां पर जो दैवी संपदा वाले गुणों को गिनाया है, इनको भी जब हम ध्यानपूर्वक व श्रद्धापूर्वक सुनेंगे तब यह गुण हम में विकसित होने लगेंगे। यह कोई विदेशी गुण नहीं है। जीवात्मा के गुण हैं। जीव में यह गुण हैं लेकिन हम भूल चुके हैं। यह सुनने- पढ़ने की महिमा व लाभ है। हम दैवी सम्पदा वाले व्यक्ति के गुणों के वर्णन को सुनेंगे तो हम भी वैसे ही गुणवान बनेंगे। आगे ज्ञान अर्थात ज्ञान में, योग अर्थात संयुक्त होना। दानं अर्थात दान देना। दम: अर्थात दमन करना, इंद्रियों का दमन करना। यज्ञश्चय अर्थात यज्ञ करना। जप करना भी यज्ञ है। स्वाध्याय अर्थात अध्ययन करना या अभ्यास करना। तप अर्थात तप करना। हमारा देश तपोभूमि है। हम साधकों के जीवन में तप की बहुत ऊंची भूमिका है। आर्जवम अर्थात सरलता बहुत ही सरल होना। अहिंसा अर्थात हिंसा न करना। सत्यम अर्थात सत्य बोलना।क्रोधं अर्थात क्रोध नहीं करना। त्यागः अर्थात शांति, शांत होना। ॐ शांति: । अपैशुनम अर्थात दूसरों के दोष देखने की प्रवृत्ति नहीं होना। यह दैवी सम्पदा है। दूसरों में दोष देखना यह आसुरी संपदा है। दया अर्थात दयालु होना। भूतेषू अर्थात जीवों में। जिसे हम जीवे दया कहते हैं। लोलुप्त्वं अर्थात लोभ से मुक्ति। मार्दवं अर्थात भद्रता अर्थात मृदु होना। ह्रीर अर्थात लज्जावान होना। आजकल के लोग निर्लज्ज है। स्त्री में लज्जा बहुत बड़ा गुण है। लज्जावान स्त्रियों की रक्षा होती है। जो स्त्रियां निर्लज्ज होती है, तब दूसरे मनुष्य उसका फायदा उठाते हैं। हरि हरि!! तेज: अर्थात बल। क्षमा अर्थात क्षमा। धृतिः अर्थात धैर्य। शौचम अर्थात पवित्रता। द्रोहो अर्थात ईर्ष्या से मुक्ति। नातिमानिता अर्थात सम्मान की आशा नहीं रखना। भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत । यह दैवी सम्पदा का वर्णन है। श्रील प्रभुपाद ने सात पृष्ठों में इसका तात्पर्य लिखा है ।श्रील प्रभुपाद ने इन तीन श्लोकों में बहुत सारा समय दिया है। इन तीन श्लोकों में जिनमें दैवी सम्पदा का वर्णन किया गया है, प्रभुपाद ने इसका भावार्थ कई सारे पृष्ठों में गूढ़ अर्थों व उदाहरणों के साथ समझाया हैं। तत्पश्चात आगे कृष्ण आसुरी स्वभाव का वर्णन कर रहे हैं। *दम्भो दर्पोऽभिमानश्र्च क्रोधः पारुष्यमेव च | अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् ||* ( श्रीमद भगवतगीता 16.4) अनुवाद:- हे पृथापुत्र! दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, कठोरता तथा अज्ञान – ये सारे आसुरी स्वभाव वालों के गुण हैं | दम्भ अर्थात अंहकार। दर्प अर्थात घमंड, लोग घमंडी होते हैं। आप में से भी कोई हो सकता हैं। आप अगर ईमानदार हो ( आनेस्टी इज़ द बेस्ट पालिसी ) तब गर्व से कहो कि हम घमंडी हैं। वैसे इस में गर्व की बात नहीं है। हरि! हरि! अभिमानश्र्च अर्थात गर्व। क्रोधः अर्थात क्रोध। पारुष्यम अर्थात निष्ठुरुता ।अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् यह मोटे मोटे नाम गिनाए है। मोटे मोटे अवगुणों का उल्लेख किया है। आसुरी सम्पदा का वर्णन है। भगवान् आसुरी स्वभाव का और भी कुछ शब्दों में वर्णन 7वें श्लोक में करते हैं। *प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः | न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ||* (श्रीमद भगवतगीता 16.7) अनुवाद:- जो आसुरी हैं , वे यह नहीं जानते कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए । उनमें न तो पवित्रता, न उचित आचरण और न ही सत्य पाया जाता है । जो असुर होते हैं, जना न विदुरा, आसुरी लोग नही जानते। प्रवृतिं च निवृत्तिं च अर्थात प्रवृतिं क्या करना चाहिए, निवृत्तिं अर्थात क्या नहीं करना चाहिए। वे विधि और निषेध नहीं जानते और न ही मानते हैं और न ही वैसा व्यवहार करते हैं। न शौचं अर्थात उनके जीवन में पवित्रता नहीं होती। नापिचाचारो अर्थात न ही उनका ऐसा आचरण होता है। न सत्यं तेषु विद्यते अर्थात उनमें कोई सत्य नही होता। वे सत्य का पालन नहीं करते।आसुरी सम्पदा वाले ऐसे होते हैं। श्रील प्रभुपाद इसका भी तात्पर्य लिखते हैं। (उन्होंने हर एक का तात्पर्य लिखा ही हैं।) (बीच में इतना कह कर रूकना होगा।) कृष्ण ने अर्जुन को कहा है- इसको भी नोट कीजिए। *दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता | मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ||* (श्रीमद भगवद्गीता 16.5) अर्थ:- दिव्य गुण मोक्ष के लिए अनुकूल हैं और आसुरी गुण बन्धन दिलाने के लिए हैं । हे पाण्डुपुत्र! तुम चिन्ता मत करो, क्योंकि तुम दैवी गुणों से युक्त होकर जन्मे हो । हे पांडव, हे अर्जुन, मा शुचः अर्थात तुमको चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। घबराओ नहीं। डरो नही। चिंता मत करो। मा शुचः क्योंकि दैवीमभिजातोऽसि अर्थात तुम्हारा जन्म तो दैवी सम्पदा परिवार अथवा घराने में हुआ है अथवा तुम तो दैवी सम्पदा से युक्त हो। इसलिए तुम्हारी मुक्ति, भवबंधन से निश्चित है। मा शुचः। सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि जो दैवी सम्पदा वाले हैं। कृष्ण उनको कहते हैं कि 'मा शुचः' डोंट फियर, आईं एम हेयर, ओ डिअर(चिंता मत करो, मैं यहीं हूँ) आप सभी को भी सम्बोधित या यह कहा जा सकता है। आप सभी भी हरे कृष्ण आंदोलन में जन्म लिए हो। जब दीक्षा होती है, तब दीक्षा जन्म ही होता है। आप ऐसे घराने में जन्मे हो अर्थात ब्रह्म मध्व गौड़ीय सम्प्रदाय में जन्मे हो। आपने वैष्णव सम्प्रदाय में जन्म लिया है अथवा आपने अपना सम्बन्ध स्थापित किया हुआ है। इसी के साथ आप दैवी सम्पदा से युक्त हो रहे हो। प्रतिदिन दैवी सम्पदा या सम्पति ही कहो। आप प्रतिदिन प्रात: काल में उठकर दैवी सम्पदा के अधिक अधिक फिक्स डिपाजिट बढ़ा रहे हो। आप हरे कृष्ण महामन्त्र का जप कर रहे हो। भागवतम, गीता का श्रवण कर रहे हो और सभी चार नियमों का पालन कर रहे हो। *साधु-सङ्ग', 'साधु-सड्ग-सर्व-शास्त्रे कय। लव-मात्र साधु-सड़गे सर्व-सिद्धि हय ॥* ( श्रीचैतन्य चरितामृत 22.54) अनुवाद सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण-भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है।" साधु सङ्ग भी कर रहे हो और अब गीता का वितरण कर रहे हो। जारे देखो ताहे कह कृष्ण उपदेश भी कर रहे हो। यह सब दैवी सम्पदा के लक्षण हैं। आप सब इस कॉन्फ्रेंस में जॉइन करने वाले भक्त हो।इसलिए आप को कहना और सुनाना होगा कि आप चिंता नहीं करना। डोंट फियर, यह भवबंधन आप पर लागू नहीं होता है। दैवी सम्पदा विमोक्षय और आसुरी सम्पदा निबन्धाय। ठीक है। अब कुछ स्कोर रिपोर्ट सुनते हैं। हरे कृष्ण!

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