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*हरे कृष्ण!* जाप चर्चा पंढरपुर धाम से, 18 अक्टूबर 2020 आप सभी भक्तों का स्वागत है। हरे कृष्ण! हरि हरि! हाय (hi) हेलो (hello) छोडो हरे कृष्णा बोलो! तो कल की चर्चा हम आगे बढ़ाते है, कल तीन गुणों की चर्चा चल रही थी, सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण! और यह तीन गुणों से बनी है यह प्रकृति। *दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |* *मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ||* भगवतगीता ७.१४ अनुवाद:- प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है | किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं | गीता में भगवान कहे है, यह मायावी जगत या माया कैसी है? त्रिगुण मई माया! और *दुरत्यया* इसको पार करना या इसके चंगुल से मुक्त होना बहुत कठिन है किंतु, फिर भगवान आगे कहे हैं *मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते* मतलब यह त्रिगुणमई माया को पार करना या संसार में तर जाना कठिन है किंतु, कठिन कार्य सरल हो सकता है! जो मेरी शरण में आएगा माया से वह तर सकता है। तो जिस माया ने हमें बंधन में डाल दिया है, हमें जो बद्ध जीव कहा जाता है, जैसे मुक्त आत्मा या बद्ध आत्मा! हम कैसे बंधे हुए है? माया से बद्ध हुए है! *झपटिया धरे* माया ने हमें पकड़ा हुआ है तो इस माया को भी या बंधन को भी समझना होगा, कौन मुझे बांध रहा है या फिर कौन सी शक्ति मुझे बांध रही है? तो इस शक्ति के लक्षणों को या प्रकारों को समझना होगा और माया को समझना होगा तभी माया से मुक्त हो सकते है। जो माया में है उन्हें पता नहीं कि वे माया में है, या वह इतने माया में फंसे है कि, उन्हें माया का पता ही नहीं है! जैसे की मछली को पूछा जाए पानी कैसा है? तो मछली कहेगी कौन सा पानी? मछली वैसे जल में ही रहती है, वहीं पर विहार करती है, उसी को जीवन मानती है और कुछ अधिक सोचती भी नहीं है। जल में विचरण करने वाली जलचर मछली कुछ जल के संबंध में सोचती नहीं है! इसलिए वह मछली कहती है, पानी मतलब क्या? वैसे ही हम भी माया में इतने या बंधे हुए है या फिर जो लोग माया में है, उन्हें पता ही नहीं है कि वह माया में है! माया में होना भी स्वाभाविक है, यही जीवन है ऐसा समझने लगता है! हरि हरि। लेकिन कृष्णभावना भवित व्यक्ति को ही पता चलती है माया क्या है! माया क्या चीज है! जैसे वह व्यक्ति अधिकाधिक कृष्ण भावना भावित होते रहता है उसी के साथ उसे माया का भी अधिकाधिक ज्ञान होने लगता है कि, यह माया कृष्ण है और यह माया विज्ञान है तो इस माया का ज्ञान भी भगवान भगवतगीता में सुनाते है। एक पूरा अध्याय ही है इस तीन गुणों का जो 14 वा अध्याय भगवदगीता का है बहुत ही महत्वपूर्ण अध्याय है। और उसी से संबंधित वैसे और भी अध्याय है जैसे कि देवी संपदा इसका भी तीन गुणों से ही संबंध है। या फिर 17 वें अध्याय में श्रद्धा के विभाग बताया गया है यह भी तीन गुणों के आधार पर ही है। तो भगवान ने जो आदेश या उपदेश दिया है अर्जुन को और उनके पास ज्यादा समय था भी नहीं तो उस आपातकालीन स्थिति में जो भी कहा है वह बहुत महत्वपूर्ण ही कहा होगा! रोजमर्रा की बातें या गपशप तो नहीं ऐसा नहीं है! भगवान *धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे* उस कुरुक्षेत्र के मैदान में जो भी कुछ कहे है वह सच ही कहा है और जो भी कहे है वह बहुत महत्वपूर्ण बातें कहे है, और सच बातें महत्वपूर्ण होती है! तो यह त्रीगुन या तीन गुणों का जो विषय है इनको भली-भांति समझना होगा, इसका अध्ययन करना होगा! यह 3 गुण एक दृष्टि से इस संसार का आधार है। और गीता में भगवान कहे है कि, *मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् |* *हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ||* भगवतगीता ९.१० अनुवाद:- हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं | इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है | *मयाध्यक्षेण प्रकृतिः* इस प्रकृति का अध्यक्ष में हूं! और प्रकृति को माध्यम बनाकर मैं क्या करता हूं? *सूयते सचराचरम्* चर,अचर मतलब घूमने वाले और जो स्थिर है ऐसे दो प्रकार है। वैसे जीव भी स्थावर होते है जैसे वृक्ष है। और फिर अधिकतर जीव योनियां विचरण करती है। तो सारे चराचरम को में नियंत्रण करता हूं, यह मेरे अध्यक्षता में होता है और प्रकृति को माध्यम बनाकर सारे संसार को मैं चलाता हूं! ऐसा भगवान कहे है। यह माया भगवान की है। प्रकृति किसकी है? भगवान की है! माया मतलब बहीरंगा शक्ति। भगवान है शक्तिमान और माया है शक्ति! भगवान श्रीमद भागवत में कहे है, मेरे माया की शक्ति को तो देखो! हरि हरि। तो भगवान बन जाते है कठपुतलीवाला और हम सभी जीव, बद्ध जीव या संसार के जीव, प्राणी मात्रा हम है कठपुतली। भगवान है कठपुतलीवाले और हम है कठपुतलियां! तो कठपुतलीवाले के हाथ में डोरिया होती है और वह कठपुतलीवाला डोरियों के माध्यम से कठपुतलियों को चलाता है। लेकिन कठपुतलीवाला जब जिस रस्सी से या डोरी से कठपुतलियों को बांध दिया है वह हिलाएगा नहीं तो कठपुतली स्वतंत्र नहीं होती या कठपुतली स्वयंचलामान नहीं हो सकती, यह बड़ी सरल बात है! तो वैसे ही हमारा भी हाल है। संसार में जो भी हम करते है, माया से बंद हो के मायावी बनके तो यह कार्य वैसे हम नहीं करते! हमसे करवाया जाता है! भगवान गीता में कहे हैं *प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः |* *अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।* भगवतगीता ३.२७ अनुवाद:- जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं | क्या बात है! क्या बात है! तो भगवान ऐसा कुछ सत्य सुनाएं है *प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः |* प्रकृति में जो भी क्रिया होती है या प्रकृति से बद्ध जो जीव है वह कुछ भी कार्य करते है तो यह सारे कार्य गुनोंद्वारा उससे करवाए जाते है। यह सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण इनके द्वारा यह सब कार्य करवाए जाते है। *अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।* लेकिन जो अहांकरी और गधे हम जो हम संसार में है, *कर्ताहमिति मन्यते* मैं करता हूं! मैं ही कर रहा हूं! यह बद्ध जीव का अहंकार है, वह समझते हैं कि यह सब मैं कर रहा हूं। जैसे कठपुतलियां दावा करती है कि, मैं नाच रही हूं या मैं किसी को पीट रही हूं या फिर मैं आ रही हूं या जा रही हूं। लेकिन तुम जीव है वह तुम कुछ नहीं कर सकती जब तक कठपुतली वाला तुम्हें चलाएगा नहीं, नचाएगा नहीं या लिटाएगा नहीं तुम कुछ नहीं कर सकती हो! तो ऐसे हाल है इस संसार के बद्ध का जीवो का, तो हम पूरे बंधन में बंधे हुए है। बंधन तो माया का है, हम हमेशा कहते रहते है। लेकिन जो अधिक जानता है जो गीता को पड़ा है फिर वह कहेगा कि, माया कैसी है? त्रीगुनमयी माया है! और फिर क्या कहेगा? यह त्रिगुण मई माया है और फिर इन गुणों का, जो लोग सात्विक होते है, कुछ राजसिक और कुछ तामसिक होते है। तो हम कल कह रहे थे, कोई ब्राह्मण होते है, कोई क्षत्रिय होते है, तो कुछ वैश्य होते है या शुद्र होते है उनकी ऐसी पहचान या उपाधि मिलती है गुण के कारण। और भगवान ने समाज का, यह मानव जाति का चार वर्णों में विभाग किया है। किस आधार पर? गुण कर्मों के आधार पर! तो झट से हमें समझना होगा इन गुणों को। सत्वगुण या तमोगुण इसके कारण विभाजन होता है इन अलग-अलग चार वर्णों में विभाजन होता है। हरि हरि! और फिर आगे क्या होता है इन तीन गुणों का मिश्रण होता है। एक दूसरों में वह घुल मिल जाते है। और फिर यह 3 गुण चतुर वर्ण मतलब एक और से रंग ऐसे होता है। लेकिन सत्वगुण मतलब सफेद रंग, रजोगुण मतलब लाल रंग और तमोगुण मतलब काला रंग ऐसी भी समझ है इन वर्णों की। वर्ण मतलब कलर यानी रंग। तो इसका मिश्रण होता है मतलब 3 के जरिए 9 बन जाते है, 9 से फिर 81 बन जाते है, और फिर और मिल जाते है तो कई सारे वर्ण बन जाते है। और फिर हम कभी-कभी कहते है कि, वह पता चला उसने अपना रंग दिखाया, ऐसी चाल चली! तो ऐसे हम संसार में अलग अलग हो जाते है इन तीन गुणों का अलग-अलग मिश्रण होने से। वैसे प्रमुख रंग भी 3 माने जाते है, जब हम विद्यालय में पढ़ते थे जिसमें चित्रकला का क्लास होता था तो हम तीन कलर लेकर जाते थे लाल हरा और पीला। फिर हम एक दूसरे में कलर मिलाकर और कलर बनाते थे और ऐसे कितने सारे शेड और रंग बनाए जाते है हम देखते है। तो इस प्रकार हम कई सारी अलग अलग गुणों के बन जाते है और फिर रंग बदल भी देते है। जिसे गीता में भगवान कहे है कि, इन तीन गुणों में प्रतियोगिता चलती रहती है! खींचातानी चलती रहती है! कभी यह सत्वगुण का प्राधान्य होता है तो कभी रजोगुण नीचे खींचेगा और ऊपर जाएगा और थोड़ी देर के बाद फिर तमोगुण नीचे खींचेगा और वह ऊपर जाएगा तो ऐसे प्रतियोगिता चलती रहती है। और फिर एक ही व्यक्ति कभी सत्वगुण तो कभी रजगुणी तो कभी तमगुणी कार्य करता रहता है। कभी-कभी अच्छे भी चकित हो जाते है कि, उसने ऐसा कहा वह ऐसे कभी नहीं करता था! वह भला या बुरा भी हो सकता है! किसी ने कुछ देखा या कहा या सुना तो हम कहते है, उसने ऐसा किया या ऐसे कहा मतलब दूसरा गन ऊपर गया और रजगुण ने उससे करवाया। तो यह सब चलता रहता है। एक गुण की स्थिरता नहीं देखी जाती, आश्चर्य नहीं होता है, उसमें खींचातानी होती रहती है और प्रतियोगिता चलती रहती है। और कभी-कभी तो यह चलता रहता है तो ऐसे ही यह चलता रहता है। तो यह बहुत बड़ा विषय है। 3 गुण! तो 3 गुण सर्वत्र है इन गुणों के कारण ही 4 वर्ण में बंटवारा होता है। तो जो काल है, काल भी और फिर यह चार युग भी जेसे सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलयुग यह भी तीन गुणों के कारण ही बनते है। सत्वगुण का प्राधान्य है तो सत्ययुग ऐसे हम समझा रहे है। तो उस समय ब्राह्मणों का प्राधान्य होता है सत्ययुग में! तो सत्वगुण थोड़ा कम हुआ और थोड़ा रजोगुण आ गया तो तो त्रेतायुग बन जाता है। और सत्वगुण कम हुआ रजोगुण बढ़ गया और उसमें तमोगुण का मिश्रण हुआ तो द्वापर युग हो जाता है। *त्वं नः सन्दर्शितो धात्रा दुस्तरं निस्तितीर्षताम् ।* *कलिं सत्त्वहरं पुंसां कर्णधार इवार्णवम् ॥* श्रीमद भागवत स्कंद १ अध्याय १श्लोक २२ अनुवाद :- हम मानते हैं कि दैवी इच्छा ने हमें आपसे मिलाया है , जिससे मनुष्यों के सत्त्व का नाश करने वाले उस कलि रूप दुर्लंघ्य सागर को तरने की इच्छा रखने वाले हम सब आपको नौका के कप्तान के रूप में ग्रहण कर सकें । *कलिं सत्त्वहरं पुंसां* मतलब सत्व गुण का नामोनिशान नहीं रहा या हल्का सा कई गंद ही है। सतोगुण से अधिक रजोगुण से अधिक तमोगुण इस युग में है उसका नाम है कलियुग । *कलौ शूद्र संभव:* तात्पर्य : भगवान् श्रीकृष्ण में श्रील प्रभुपाद इस लीला का वर्णन करते हुए इस तरह समापन करते हैं : “ हम इस घटना से यह शिक्षा पाते हैं कि भगवान् ने राजा बहुलाश्व तथा ब्राह्मण श्रुतदेव का एक ही स्तर पर स्वागत किया , क्योंकि दोनों ही विशुद्ध भक्त थे । भगवान् द्वारा पहचाने जाने के लिए यही वास्तविक योग्यता है । क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर झूठा गर्व करना आज के युग का प्रचलन बन गया है । अतएव हम पाते हैं कि जन्म के अतिरिक्त अन्य किसी योग्यता के न होते हुए लोग ब्राह्मण , क्षत्रिय अथवा वैश्य होने का दावा करते हैं , किन्तु जैसाकि शास्त्रों में कहा गया है कलौ शूद्रसम्भव : -इस कलियुग में प्रत्येक व्यक्ति शूद्र पैदा होता है । इसका कारण संस्कार नामक शुद्धिकरण की विधियों का निष्पादन नहीं होना है , जिनका शुभारम्भ माता के गर्भधारण से होता है तथा जो व्यक्ति के मृत्युपर्यन्त चलते रहते हैं । किसी भी व्यक्ति को जन्मजात अधिकार के आधार पर किसी विशेष वर्ण , विशेष रूप से उच्च वर्ण जैसे ब्राह्मण , क्षत्रिय अथवा वैश्य वर्ण के सदस्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है । यदि गर्भाधान संस्कार द्वारा किसी का शुद्धिकरण नहीं किया जाता , तो उसे तत्काल ही शूद्रों में वर्गीकृत किया जाता है , क्योंकि केवल शूद्र ही यह शुद्धिकरण नहीं करते । कृष्णभावनामृत की शुद्धिकरण प्रक्रिया से रहित ऐन्द्रिय मैथुनिक जीवन शूद्रों अथवा पशुओं की गर्भाधान प्रक्रिया मात्र है । किन्तु कृष्णभावनामृत सर्वोच्च सिद्धि है , जिसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति वैष्णव पद को पा सकता है । इसमें समस्त ब्राह्मणोचित योग्यताओं से युक्त होना भी सम्मिलित है । वैष्णवों को ऐसी शिक्षा दी जाती है , जिससे वे चारों प्रकार के पापकर्मों से मुक्त सकें । ये चार पापकर्म हैं अवैध यौन , मादक पदार्थों का सेवन , जुआ खेलना तथा मांसाहार । इन प्रारम्भिक योग्यताओं के बिना कोई भी ब्राह्मणत्व के स्तर पर नहीं रह सकता तथा योग्य ब्राह्मण बने बिना , वह शुद्ध भक्त नहीं बन सकता । " कलियुग में प्रधान होगा शूद्रों का, सर्वत्र शुद्र पाए जाएंगे। 3 गुण सारे संसार को चलाते हैं । *प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः* *|* *अहङकारविमूढात्मा कर्ताहमिति* *मन्यते ||* अनुवाद जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं | यह सिर्फ अमेरिका में ही नहीं अपितु पूरे संसार में है। इस पृथ्वी तक ही सीमित नहीं है तीन गुणों का प्रभाव। सारे ब्रह्मांड भर में इन तीनों का प्रभाव है। इसके कारण यह जो तीन लोक हैं तीन गुणों के कारण ही 3 लोक बनते हैं। जहां सतोगुण का प्रधान है वह स्वर्ग लोक। जहां रजोगुण का प्रधान है वह मृत्यु लोक। जहां तमोगुण का प्रधान है वह है पताल लोक या नरक। *ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः |* *जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः || १८ ||* अनुवाद सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं,रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं । भगवान ने गीता में कहा - जो सतोगुणी होते है वह ऊपर यानी स्वर्ग जाएंगे। जो रजोगुणी होते हैं वह मध्य लोक, मृत्यु लोक यानी पृथ्वी पर जाएंगे। जो तमोगुणी होते है, नीचे जाएंगे, जो पापी हैं, पाताल लोक सीधे नरक जाएंगे। इन तीन स्थानों के अलावा चौथा स्थान और है। स्वर्ग लोक, पृथ्वी लोक, नरक लोक, इनके परे है भगवान का लोक वैकुंठ धाम। जो गुणातीत है * गुण अतीत* - गुणों से परे है। जो जीव गुनातीत है जो साधक स्वयं को गुनातीत पहुंचाते हैं। शास्त्रों में शुद्ध सत्व भी कहा है। *अवियाय कृष्ण भावना* शुद्ध एक तो सतोगुण है , जो सतोगुण के बंधन से मुक्त हो गए। सतोगुण भी बंधन है, रजोगुण भी बंधन है, तमोगुण भी बंधन है। गुण को डोरी भी कहा गया है, गुण का अर्थ है डोरी (रस्सी)। कठपुतली वाले के हाथ में डोरी होती है और उसी से वह कठपुतली को चलाता है घुमाता है। यह 3 गुण डोरी है। तमोगुणी होना मतलब तीनों डोरियों से बंधना । रजीगुणी होना मतलब दो डोरियों से बंधना । सतोगुणी होना मतलब एक डोरी से बंधना । लेकिन गुणातीत पहुंचना है कृष्णभावनाभावित होना है, अंततोगत्वा वैकुंठ जाना है। *माम एती* मैं जहां रहता हूं वैकुंठ लोक में, वहां जाना है तो सतोगुण के बंधन से भी मुक्त होना पड़ेगा। व्यक्ति जब सतोगुण के बंधन से मुक्त होता है तब शुद्ध सत्व अवस्था को प्राप्त करता है। यही है कृष्णभावनाभावित होने की स्थिति, मन की स्थिति या विचार कार्यकलाप शब्द सत्त्व। *माम ऐव सत्यअंते* जो मेरी शरण में आएगा, भगवान ने कहा जो व्यक्ति मेरी शरण में आएगा तो *माम ऐव* यानी मेरे अकेले की शरण में जो आएगा, ऐसा करोगे तो , माया से तर सकता है, माया से बच सकता है और मुझे प्राप्त कर सकता है। हरि हरि हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे जिसने नाम का आश्रय लिया है, नाम का आश्रय भगवान का आश्रय है। जब हम जप करते हैं, जप योगी बनते हैं , जप यज्ञ करते हैं तो हम माया के बंधन हैं जो 3 गुणों का जो प्रभाव है उसको मिटाने का, उससे मुक्त होने का प्रयास या साधन है। भगवान का आश्रय नाम आश्रय। हरि हरि गौर प्रेमानंदे कोई प्रश्न? क्या समझे या जाने? समझे हो उस पर भी कुछ कह सकते हो। *धर्मात्मा प्रभु मुंबई से -* हरे कृष्ण प्रभु जी, महाराज जी के चरणों में दंडवत प्रणाम। सभी वैष्णव के चरणों में दंडवत प्रणाम। हम गौर निताई विग्रह की सेवा करना चाहते हैं घर में और महाराज जी की आज्ञा चाहते हैं क्या आज्ञा है उनकी? *लोकनाथ स्वामी -* आपके काउंसलर से ले लीजिए आज्ञा। काउंसलर ने कहां हैं आप से पूछने के लिए। यहां नहीं पूछना, इसका माध्यम अलग है। *पदमाली -* प्रभु जी आप इसकी अलग से व्यक्तिगत तौर से चर्चा कर सकते हैं। यहां पर तो केवल जापा टॉक के विषय में प्रश्न या चर्चा हो। भक्तों से प्रार्थना है, क्षमा कीजिए लेकिन पूछने से पहले सोच लीजिए कि आप क्या पूछना चाह रहे है। *परम करुणा प्रभु -* दंडवत प्रणाम गुरु महाराज जब जीवात्मा यहां धरती पर कलियुग में जन्म लेती है और उसको हम सतोगुण मे ही रखते हैं, तो क्या कुछ समय बाद वह फिर से भौतिक जगत के संसर्ग में आता है, तो क्या रजोगुण और तमोगुण उसको उसी तरह से प्रभावित करेंगे या उसको सतोगुण से शुरू करा और सतोगुण तक लेकर गए ऐसा हो सकता है क्या? *लोकनाथ स्वामी-* लक्ष्य तो सतोगुणी बनना नहीं है। लक्ष्य तो गुणातीत होना है, वही तो हम करते हैं इस अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संग में। हमको संग मिलता है और हम सत्संग में आ जाते हैं। कहीं किसी को बैठा लिया है बंद कर दिया है तो फिर वहां पर सत्संग में साधना करते हैं, विचारों का मंथन होता है जप साधना करते हैं। होना यह चाहिए कि वैसे दही का मंथन करेंगे तो दही का जो सत्व है वह माखन होता है। दही के मंथन से माखन ऊपर आएगा। थोड़ा हल्का फुल्का भी होता है, तैरने लगता है और महिलाएं जो उसका मंथन करती हैं मैं उसको गोला बनाती है। और वही तैरता रहता है, पूरे छाछ के ऊपर तैरता है। नीचे दबाव के बाद ऊपर छलांग कर आ जाता है। तो ऐसी स्थिति होनी चाहिए भक्तों के संग में, संगति में हमें तीन गुणों - सतोगुण से रजोगुण से तमोगुण से मुक्त होना है। सतोगुणी लक्ष्य बनना नहीं है। गुणातीत पहुंचना है और वही है कृष्ण भावना भावित हुए तो आप फिर आप संसार में होते हुए भी संसार से अलिप्त होंगे। साधना करोगे श्रवण कीर्तन करोगे जप करोगे तो फिर तीन गुणों से प्रभावित नहीं होंगे। *वामन प्रपन्न प्रभु निगडी से -* हरे कृष्ण, गुरु महाराज जी गुणातीत बनने में ग्रहस्त को कितना समय लगेगा ? *लोकनाथ स्वामी* - प्रभुपाद बोले यह जीवन अंतिम जीवन बनाइए, आप कृष्ण भावना भावित हुए ऐसा प्रभुपाद में इच्छा व्यक्त करी। यह संभव है, राजा परीक्षित भी तो गृहस्थ थे। उसी जीवन में उनका उद्धार हुआ और अर्जुन और बाकी गृहस्थ भी हैं जो प्रशिक्षित हो रहे हैं वह गृहस्थ नहीं रहेंगे वानप्रस्थी बनेंगे। संन्यास लेंगे या नहीं लेंगे परंतु उनमें सन्यास लेने का भाव होगा। कामवासना से मुक्त होंगे। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यासी एक ही व्यक्ति की तो बात चल रही है। अलग-अलग जीवन की अवस्था में हर एक आश्रम का स्पर्श होता है। तो एक ही तो जीवन में ब्रह्मचारी था एक समय, अब गृहस्थ बन गया। लेकिन समझना चाहिए कि कलियुग में एक ही आश्रम चलता रहता है। पहला और अंतिम आश्रम गृहस्थ आश्रम होता है। जीना यहां और मरना भी वहां गृहस्थ आश्रम में ही। ऐसा प्रभाव है इस कलियुग का। लेकिन जब हम साधक बनते हैं कृष्णभावनामृत से जुड़ जाते हैं। फिर हम शिक्षित होकर दीक्षित भी हो जाते हैं। सदा के लिए गृहस्थ नहीं रहना चाहिए। हमको वानप्रस्थ का भी सोचना है। वन में जाने की जरूरत नहीं है घर में रहकर भी वानप्रस्थ के कार्यकलाप करने चाहिए। और फिर सन्यास भी नहीं लेते हो। सन्यास कामना से मुक्त होना है। सन्यास अवस्था प्राप्त करनी है। यह सब इसी जीवन में करना है। प्रभुपाद उदाहरण दिया करते थे जैसे व्यापारी व्यापार करता है और लाभ का इसी जीवन में सोचता है ना कि अगले जीवन में। इस जीवन के अंत से पहले हमारा लाभ है कृष्ण प्रेम। ऐसा लक्ष्य बनाओ। और हम कल या परसों यह भी कह रहे थे कि कृतवांग मुनि के पास एक ही मुहूर्त था और उन्होंने उसी मुहूर्त में कृष्णभावनाभावित बन गए। इस जीवन में यह कैसे संभव है समय तो थोड़ा है लेकिन फिर कृतवांग मुनि के पास एक ही मुहूर्त था मतलब हमारी जो गतिविधियां है कृष्ण भावना भावित तीव्र भक्ति योग। *एतत पुरुष परम* हमारी भक्ति को तीव्र भक्ति बनाना होगा। दो चीजें बड़ानी है, तीव्रता और आवृत्ति को बढ़ाओ। भागवत में कहा गया है भक्ति कैसे करनी चाहिए भौतिक प्राकृतिक मायावी हेतु ना हो। मतलब तीव्र भक्ति शुद्ध भक्ति और कब कब करें? अखंड भक्ति तीव्र भक्ति तो हमें जीवन के अंत की राह नहीं देखनी होगी। जीवन में पहले ही मुक्त होंगे जब भी शरीर छूटेगा छूटने दो तब भगवत धाम लौटेंगे लेकिन हम अभी हम तैयार हैं। क्या भरोसा इस जिंदगी का, कोई भरोसा नहीं है, कृष्ण भावना मृत को टालना नहीं है। जो लक्ष्य है उसको टालना नहीं है, अभी और यहीं ऐसे विचारों के साथ आगे बढ़ेंगे जीवन के अंत के पहले ही। हरि हरि *पदमाली -* अन्य भक्त जिनके प्रश्न है जो प्रश्न पूछना चाहते थे समय मर्यादा के कारण हम यही समाप्त करेंगे। हम रोज बताते ही हैं, चैंट जप विथ लोकनाथ स्वामी फेसबुक पेज है। वहां पर आप अपनी प्रश्न लिख सकते हैं तो यह नहीं सोचना है कि वहां कौन लिखेगा मैं तो महाराज से ही पूछूंगा/पूछूंगी । यदि सब भक्त यही भाग रखेंगे इतनी सारी सुविधाएं , इतनी सारी प्लेटफार्म बढ़ाने का मतलब नहीं है। वह भी हम पहले कह चुके हैं और आज फिर दोहरा रहा हूं। वहां भी गुरु महाराज व्यक्तिगत तौर पर देखते हैं। कौन से भक्त क्या प्रश्न पूछ रहे है और काफी बार खुद गुरु महाराज उत्तर देते हैं। लिखने वाला कोई और भक्त हो सकता है परंतु उत्तर गुरु महाराज की ओर से ही होते हैं। और यदि गुरु महाराज ने उत्तर नहीं दिए हो तो गुरु महाराज के निर्देशन में ही उत्तर दिए जाते हैं। आप यह ना सोचें कि आपको प्रश्न पूछने का मौका नहीं मिला। *लोकनाथ स्वामी -* आप एक दूसरे के प्रश्न का उत्तर भी दे सकते हैं। यह जो मंच है जिनको उत्तर पता है वह उत्तर दे सकते हैं। आप में से कोई प्रश्न का उत्तर दे सकता है और उत्तर दे रहे भी हैं। जो विद्वान है ज्ञानी है उत्तर दे सकते हैं। हरे कृष्ण आज हम यही विराम देंगे। लोकनाथ स्वामी की जय श्रील प्रभुपाद की जय 🙏

English

18 October 2020 Transcend the three Modes of Material Nature Hare Krishna! Devotees from 727 locations are chanting with us right now. We shall continue yesterday's topic. We were discussing the three modes of nature. daivi hy esa guna-mayi mama maya duratyaya mam eva ye prapadyante mayam etam taranti te Translation: This divine energy of Mine, consisting of the three modes of material nature, is difficult to overcome. But those who have surrendered unto Me can easily cross beyond it.[ BG 7.14] Nature is made up of 3 modes. It is very difficult to overcome these 3 modes. But Krsna says, “Those who surrender unto Me, can easily be freed from the clutches of Maya.” We become conditioned by the influence of Maya. Maya entangles us. We have to understand which energy is bounding me. We have to understand this Maya so that we can become free. People are not even aware that they are under the influence of Maya. They don't know that they are bound by the clutches of Maya. If a fish can be asked how is the water? The fish can ask which water as the fish always remains in the water and doesn't think much about it. Similarly, people are under the influence of Maya, but they don't think much about it. A Krsna consciousness person can only know about Maya. When a person becomes advanced in Krsna consciousness then slowly he can identify Krsna and Maya. This is also knowledge. Krsna also explained this in the 14th chapter of Bhagavad Gita entitled "Three modes of material nature". Faith depends on these three modes. The instructions that Krsna gave to Arjun are very important. It is not a routine or general leisure time talk. This talk is between two large armies on the battlefield just before the great battle was about to start. There cannot be gags and gossips or unimportant talks at such time. mayadhyaksena prakrtih suyate sa-caracaram hetunanena kaunteya jagad viparivartate Translation: This material nature is working under My direction, O son of Kunti, and it is producing all moving and unmoving beings. By its rule this manifestation is created and annihilated again and again.[ BG 9.10]. Krsna says, “I am the Master of Nature. All the moving and immobile are controlled by Me.” They are controlled under the mastership and supervision of Krsna. What is nature? It is the external energy of Krsna. It is very powerful. We are all mere puppets, and Krsna is our controller. The master controls the puppets using thin invisible threads. These three modes of Nature are these threads. The puppets are not free or independent to move or take any step. Similarly whatever we do, is only out of the dominance of any of these three modes of Nature. prakrteh kriyamanani gunaih karmani sarvasah ahankara-vimudhatma kartaham iti manyate Translation: The bewildered spirit soul, under the influence of the three modes of material nature, thinks himself to be the doer of activities, which are in actuality carried out by nature.[ BG 3.27] Whatever we do in the material world is under the influence of the three modes of material nature, but foolish people think that we are the doers. The person who reads Bhagavad Gita knows this easily. Based on these qualities dominated by the three modes of nature, society is classified into 4 Varnas - Categories. atur-varnyam maya srstam guna-karma-vibhagasah tasya kartaram api mam viddhy akartaram avyayam Translation: According to the three modes of material nature and the work ascribed to them, the four divisions of human society were created by Me. And, although I am the creator of this system, you should know that I am yet the non-doer, being unchangeable.[ BG 4.13] Also, there is a mixture of the three modes. Varna also means colour. 1. Sattva - White 2. Raja - Red 3. Tama - Black These are the colours that symbolize these gunas/modes. There are 3 main colours. I remember when we had Art class at school, we would carry 3-4 colours with us and then make more colours by mixing them in different proportions. Similarly, every person has all these three Gunas in different proportions. All actions are based on the qualities dominated either by the mode of goodness, passion or ignorance. These three modes are everywhere and accordingly, the 4 Varnas have been categorised. Even the 4 Yugas are divided according to the dominance of different Gunas. In Satya - Sattva Guna is prominent. In Treta - Sattva Guna is lessened and Raja Guna enters. And in Dwapare yuga, Tama Guna enters. Then there is no sign of Sattva guna in Kaliyuga and Sudras can be found everywhere. Not only in India, but in every part of the universe. Because of 3 Gunas, three Loks are made. In Swarga Lok mode of goodness is prominent, Passion is prominent in Mrityu Lok, mode of ignorance is prominent in Patal Lok or it is also called hell. urdhvam gacchanti sattva-stha madhye tisthanti rajasah jaghanya-guna-vrtti-stha adho gacchanti tamasah Translation: Those situated in the mode of goodness gradually go upward to the higher planets; those in the mode of passion live on the earthly planets; and those in the mode of ignorance go down to the hellish worlds.[ BG 14.18]. Above these planets, there is one more planet which is the abode of the Lord, Vaikuntha Dhama, which is free from the three modes. If a living entity is free from the three modes then he goes back home, back to Godhead. These Gunas are like a rope. If we are in the mode of ignorance then we are bound by three ropes, similarly, if we are in a mode of passion then we are bound by two ropes and similarly by 1 rope if we are in a mode of goodness. We have to free for Sattva Guna also and we have to reach suddha satva stage. Then we can go to Vaikuntha. Those who have taken shelter of the name are taken the shelter of the Lord. When we do Japa we become Japa Yogi. When we do Japa Yagya then we become free from the three modes of material nature. Questions and Answers session Question 1: If a soul comes to this material and if the parents give only the goodness environment to the child then will it get influenced by other modes because of Maya? Can we again bring him to the mode of goodness? (Paramkaruna Prabhu, Nagpur) Gurudev Uvaca: Being in the mode of goodness is not our motive. ISKCON has been formed to bring people out of the clutches of Maya beyond the three modes of Nature. When we associate with the devotees we will be free from these three modes. When you churn the yogurt well in essence the butter separates and starts floating. Similarly, after achieving perfection by practice we will be separated from this Maya, though we will be in this world. When you will do sadhana, Japa and Kirtana you will be not affected by the three modes. Question 2: How much time does it take for a grhasta to become free from all the modes? Is it possible? (Vamana Prabhu, Nigidi) Prabhupada said that in this life only you have to attain perfection. You have to become Krsna conscious. Raja Parakshit was also a grhasta and many such grhastas attain perfection. Those who are taking training, will not remain grhasta for a lifetime, they will become vanaprastha. They will take sannyasa. At least that mood will be there. They will be free from lust. In one lifetime, you have to become brahmachari, grhasta, vanaprastha, and sannyasi. In Kaliyuga people don't go further than the grhasta ashram. When we do sadhana and become initiated then we should not stick to grhasta ashram, we have to become vanaprastha. It's not necessary that you have to go the forest. You can be at the home and do all the activities. After taking sannyasa we have to free from lust. All these you have to do in this lifetime. Prabhupada would say that businessmen expect the profit on the same day. He doesn't wait for the next year. Similarly, we have to attain Krsna prema in this life only. Make a goal to make this life your last life. Like Khatwanga Muni had just 48 minutes and he did it. We have 1 lifetime. Make your devotion very intense. We have to increase the intensity and frequency. Ahaituki apratihata Intense and continuous devotional services are the solution. If you do so, you should not wait for the last moment, before that itself you will become liberated. We will be ever ready. Whenever we leave the body we will go to back home, back to Godhead. Don't postpone it. Now and here we have to become Krsna conscious.

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