Hindi
१५.०९.१९
हरे कृष्ण
(आज की यह जप चर्चा कल की जप चर्चा का विस्तार (continuation) है। कल गुरु महाराज हरिदास ठाकुर जी के तिरोभाव दिवस के उपलक्ष्य में बता रहे थे कि किस प्रकार से उन्होंने अपना शरीर छोड़ा था। वे किस प्रकार से निरतंर हरिनाम अर्थात हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते थे। गुरु महाराज हमें बहुत महत्वपूर्ण बात बता रहे थे कि हमें न केवल अपना नियमित रूप से जप पूरा करना चाहिए अपितु उसके साथ साथ बहुत ही हमको ध्यानपूर्वक ही जप करना है। हमारे जप में संख्या के साथ साथ क़्वालिटी ( गुणवत्ता) भी होनी चाहिए । हम अभी उससे आगे की जप चर्चा जारी करेंगे।)
जब हम हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते हैं तब हम भगवान के और अधिक निकट जाते हैं। हम भगवान को देखना चाहते हैं और भगवान हमें देखना चाहते हैं। दोनों एक दूसरे को देखने के लिए उत्सुक होते हैं। जब हम दीक्षा लेते है, दीक्षा (initation) के समय हम यह initative लेते हैं कि अब हम भगवान के और अधिक समीप जाएंगे। जब हम भगवान की ओर एक कदम बढ़ाते हैं तो भगवान हमारी और हजार कदम बढ़ाते हैं एवं हम भगवान के और अधिक निकट पहुंचते है। जब हम अपराध मुक्त नाम जप लेंगे तब हमारा नाम जप सफल होगा और हम शुद्ध नाम अथवा प्रेम नाम ले पाएंगे। इस शुद्ध नाम के कारण भगवान यथा रूप में हमारे समक्ष प्रकट होंगे अर्थात वे जिस रूप में है, उसी रूप में हमारे समक्ष प्रकट हो जाएंगे। यह जप योग है, भक्तियोग है और हम सभी जप योगी हैं क्योंकि हम जप करते हैं। हम जप के द्वारा भगवान से मिल सकते हैं। हम हरिदास ठाकुर जी के जीवन से सीख सकते हैं कि हमें जप किस प्रकार से करना चाहिए। जब वे जप करते थे, वे केवल संख्या ही पूरी नही करते थे।
कीर्तनिया सदा हरि हमें कितनी मात्रा में जप करना चाहिए? इसका उत्तर है कीर्तनिया सदा हरि अर्थात हमें निरतंर जप करते रहना चाहिए। हरिदास ठाकुर जी निरतंर केवल संख्यात्मक जप ही नहीं करते थे, अपितु उनका जप संख्यात्मक के साथ गुणवत्ता पूर्वक भी होता था और वे अत्यंत सावधानी और ध्यानपूर्वक जप करते थे। संख्यापूर्वक जप करना आवश्यक है परंतु गुणवत्तापूर्वक जप करना अधिक महत्वपूर्ण है, अतः हमें ध्यानपूर्वक जप करना चाहिए।
हरिदास ठाकुर संख्यापूर्वक नाम जप और अत्यंत ध्यानपूर्वक नाम जप करने के लिए प्रसिद्ध थे। हरिदास ठाकुर शुद्ध नाम जप और अपराध मुक्त नाम जप करते थे। एक बार चैतन्य महाप्रभु और नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर के मध्य अपराध मुक्त नाम जप विषय पर चर्चा भी हुई थी कि किस प्रकार से अपराध मुक्त नाम जप किया जा सकता है अर्थात हम नाम जप करते हुए किस प्रकार से अपराधों से बच सकते हैं। भक्ति विनोद ठाकुर जी ने अपनी पुस्तक हरिनाम चिन्तामणि में चैतन्य महाप्रभु और हरिदास ठाकुर के मध्य की वार्ता को अत्यंत ही विस्तार पूर्वक लिखा है। शायद हरिनाम चिंतामणि रशियन भाषा में भी होगी।
जब जपा रिट्रीट होती है, उस समय इस पुस्तक का सन्दर्भ लिया जाता है। आप भी इस पुस्तक को पढ़िए, इस पुस्तक को पढ़ने से हम अपराधयुक्त नाम जप से बच सकते हैं। हम हरिनाम में अपराध करने से बच पाएंगे। यदि कोई ध्यानपूर्वक जप करना चाहता है, उसके लिए यह पुस्तक अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। भक्ति विनोद ठाकुर जी हरिनाम के प्रमोटर अर्थात प्रोत्साहक थे। वे हरिनाम के प्रचारक थे, वे प्रतिदिन कम से कम 64 माला का जप किया करते थे। उनका एक स्टैंडर्ड(मानक) था कि वे प्रतिदिन कम से कम 64 माला का जप करेंगे ही करेंगे। भक्ति विनोद ठाकुर जी एक गृहस्थ थे। मैं देख रहा हूँ कि आप में से कई भक्त गृहस्थ हैं, आप यह प्रश्न पूछ सकते है कि अरे! मैं तो सन्यासी नहीं हूं, मैं तो एक गृहस्थ हूं, मैं किस प्रकार से जप कर सकता हूं? भक्ति विनोद ठाकुर जी ने भी ऐसा किया, उनके 10 बच्चे थे साथ ही साथ वे जगन्नाथपुरी में डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट भी थे परंतु फिर भी वे प्रतिदिन निरतंर 64 माला का जप किया करते थे। जगन्नाथ पुरी एक जिला है, वे वहाँ के एक ही मजिस्ट्रेट थे। उनको कई प्रकार के कार्य करने होते थे। वे प्रतिदिन उन सभी कार्यों को करने के पश्चात ही, अपनी कम से कम 64 माला का जप अवश्य किया करते थे।
प्रभुपाद जी ने हमें इस प्रकार से स्टैण्डर्ड बताए हैं। भक्ति विनोद ठाकुर जी उत्तम गुणवत्ता का जप किया करते थे, उनके जप की क्वालिटी अत्यंत ही श्रेष्ठ थी। वे जप करने के प्रति अत्यंत आसक्त थे, उनकी आसक्ति हरिनाम में थी। क्या आप गोद्रुम द्वीप में भक्ति विनोद ठाकुर जी के घर में गए हैं ? यदि आप, भक्ति विनोद ठाकुर जी के घर जाओगे, वहां सीढ़ियों के ऊपर एक कमरा बना हुआ है, एक छोटा सा,एक तरह से ढका हुआ अलग सा भाग है। जहाँ भक्ति विनोद ठाकुर जी कई बार बैठकर जप किया करते थे जिससे उन्हें बाहर का किसी प्रकार का कोई भी व्यवधान नहीं हो। वे अपने जप में किसी भी प्रकार का व्यवधान नही चाहते थे। इस प्रकार वह कई बार उसके अंदर बैठकर अपना जप किया करते थे जिससे उनका जप ध्यानपूर्वक हो सके।
भक्ति विनोद ठाकुर जी अपने गुफानुमा कमरे का दरवाजे बंद कर उसके अंदर बैठ कर अत्यंत ध्यानपूर्वक जप किया करते थे। वे स्वयं तो जप करते ही थे,साथ ही वे अन्यों को भी इस प्रकार से महामंत्र का जप करने के लिए प्रेरित करते थे कि आप भी ध्यानपूर्वक जप कीजिये। कई बार हम अपनी आँखों पर कुछ कपड़ा बांध देते हैं (गुरु महाराज करके दिखाते हैं ) जिससे कि बाहर का कुछ भी व्यवधान उनको विचलित ना कर पाए। उनके कुछ पड़ोसी जो भक्ति विनोद ठाकुर जी की जप करने की इस प्रक्रिया को देखते थे, वे बताते थे कि वे किस प्रकार, कितनी गंभीरता से अपना जप किया करते थे। यदि कोई भी उन्हें जप करते हुए सुन लेता था तो वह बड़ी आसानी से समझ सकता था कि वे किस प्रकार से भगवान को पुकारते हुए जप कर रहे हैं, ' हे प्रभु! आप कहाँ हैं ?' उनके नाम जप में एक पुकार होती थी।
नदिया गोद्रुमे नित्यानंद महाजन
पातियाछे नाम-हट्ट
जीवेर कारण।।
श्रद्धावान जन हे,
श्रद्धावान जन हे
यह भक्ति विनोद ठाकुर जी द्वारा लिखा गया एक अत्यंत ही सुप्रसिद्ध भजन है। भक्ति विनोद ठाकुर जी एक भक्त होने के साथ ही साथ लेखक, कवि और बहुत बड़े दार्शनिक भी थे, उन्होंने कई भजन, पुस्तकें लिखी हैं। उनकी ये भजन, पुस्तकें जप करने वाले साधकों के लिए एक प्रकार से मार्गदर्शिका है जो हमें बता सकती है कि हमें किस प्रकार से जप करना चाहिए। भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं अपराध-शून्य ह' ये, लह कृष्ण नाम अर्थात यदि कोई पूछे कि हमें किस प्रकार से नाम जप करना चाहिए तो उसका उत्तर है कि अपराध शून्य ह'ये। हमें पूर्ण रूपेण अपराध से मुक्त होकर नाम जप करना चाहिए। जैसे जैसे हमारे अपराध शून्य होंगे, वैसे वैसे हमारा विस्तार होगा। ऐसा नही है कि हम कुछ मात्रा में अपराध कर सकते हैं और फिर जप कर सकते हैं। नही!
हमारे अपराध शून्य अर्थात जीरो होने चाहिए। हमें उच्च स्थिति में नाम जप करना चाहिए। जैसे जैसे हम अपराधों से बचेंगे ही वैसे वैसे ही हमारा भागवत प्रेम विकसित होगा। वे कहते हैं कि एक स्थिति में जाकर हमारे अपराध शून्य होने चाहिए। नित्यानंद प्रभु ने अत्यंत कृपा करके नामहट्ट को प्रारंभ किया था। इस नामहट्ट में हरिनाम की दुकान लगती है, उसमें इसके अलावा कुछ भी नहीं बिकता एवं उस हरिनाम का मूल्य श्रद्धा है।
श्रद्धावान जन हे, श्रद्धावान जन हे अर्थात श्रद्धावान लोगों, सुनो, यहाँ रूस में एकचक्रग्राम धाम में यह नामहट प्रारंभ हुआ है, जहाँ पर मैं कॉन्फ्रेंस कर रहा हूं। हमें यह पता होना चाहिए कि एकचक्रग्राम नामक एक धाम है, जहां पर नामहट प्रारंभ हुआ है। यहाँ पर औदार्यधाम प्रभु और उनके साथी सभी मिलकर इस नामहट्ट का प्रचार करके सभी को हरिनाम को दे रहे हैं।
हे श्रद्धावान लोगों, तुम सुनो! तुम सुनो! यह बात सभी तक पहुंचनी चाहिए कि नामहट्ट खुला हुआ है। हम इस हरिनाम का मूल्य श्रद्धा के रुप में चुकाते हैं। यह हरिनाम निशुल्क उपलब्ध नही है, इसके लिए हमें मूल्य चुकाना होता है। कोई भी वस्तु यहाँ मुफ्त में नहीं मिलती है, हर एक वस्तु का कुछ न कुछ मूल्य होता है, इसी तरह हरिनाम का मूल्य , श्रद्धा है। भक्ति विनोद ठाकुर जी द्वारा रचित एक अन्य पुस्तक जिसका नाम गोद्रुम कल्प तरु है, भक्ति विनोद ठाकुर जी श्रद्धा के कई प्रकारों के विषय में विस्तार से बताते हैं कि किस प्रकार प्रारंभ में श्रद्धा अल्प मात्रा में होती है , फिर उससे थोड़ी अधिक श्रद्धा होती है, फिर और अधिक, क्रमशः यह श्रद्धा बढ़ती जाती है। प्रारंभ में श्रद्धा, फिर साधु संग, उसके पश्चात भजन क्रिया, फिर अनर्थ निवृति एवं उसके पश्चात निष्ठा आती है, यह निष्ठा स्थिर श्रद्धा होती है। प्रारंभ में हमारी श्रद्धा कोमल होती है, उसके पश्चात निष्ठा अर्थात स्थिर श्रद्धा होती है जिसके पश्चात व्यक्ति डाइवर्ट नही होता है,वह स्थिर रहता है। मैं इस श्रद्धा के विषय में संक्षेप में आपको मैसज संप्रेषित करना चाहता हूं जो कि अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। श्रद्धा हमारा खरीद मूल्य है अर्थात मैं कितना मूल्य चुका सकता हूँ वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। हम कोई वस्तु खरीदने के लिए जाते हैं और यदि हम उसे दो आना देते हैं,
अर्थात हम दो आना अर्थात 10 पैसे जितना मूल्य वस्तु का चुकाते हैं तो हमें दो आने के मूल्य के बराबर ही वस्तु मिलेगी, आपको वहाँ एक रुपए या सौ पैसे जितने वाली वस्तु नहीं मिल पाएगी। यदि कोई आकर कहता है कि मेरे पास दो आने जितनी श्रद्धा है, जिसे मैं आपको देय करता हूँ, आप मुझे कृष्ण प्रेम दीजिए, तो उसे पूरा कृष्ण प्रेम नहीं मिल सकता है, उसे केवल दो आने जितनी ही भक्ति मिल सकती है। इस प्रकार से एक दूसरा व्यक्ति आता है और कहता है कि मेरे पास चार आने अर्थात पच्चीस पैसे है। भारत में 100 पैसे मिलकर एक रुपया बनता है। यदि आपके पास 16 आने हो अर्थात यदि एक रुपया हो तभी आप सब कुछ खरीद सकते हो। यदि किसी के पास पच्चीस पैसे है अर्थात चार आने है तो उसे चार आने जितना ही कृष्ण प्रेम मिल सकता है। उसे पूरा कृष्ण प्रेम नही मिल सकता क्योंकि उसकी श्रद्धा इतनी ही है, वह इतना ही मूल्य चुका पाएगा। इसके पश्चात कोई और भक्त आ कर कहता है कि मेरे पास में पचास पैसे जितनी श्रद्धा है, तो उसे आधा कृष्ण प्रेम मिल सकता है।
यदि 100 पैसे किसी के पास हो तो वह पूरा कृष्ण प्रेम प्राप्त कर सकता है। फिर कोई अन्य भक्त आता है, वह कहता है कि मेरे पास 75 पैसे हैं, तो उसे उस मात्रा में प्रेम मिलता है। अंततः यदि कोई व्यक्ति कहता है कि मेरे पास में 100 पैसे अर्थात एक रुपया है। मैं यह पूरा मूल्य चुका सकता हूँ तो उसे पूरा कृष्ण प्रेम मिलता है। वह 100 पैसे क्या है? भक्ति विनोद ठाकुर जी इसके विषय में कहते हैं-
मानस देह गेह
जो किछु मोर।
अर्पिलु तुया पदे,
नंद किशोर!
हे नंद किशोर , मेरे पास में जो कुछ भी है, मेरा मन, शरीर, घर, धन, दौलत अर्थात जो कुछ भी है, उन सब को मैं आपके चरणों कमलों में समर्पित करता हूँ।
अर्पिलु तुया पदे, नंद किशोर अर्थात यह पूर्ण शरणागति का लक्षण है।
भगवान भी भगवतगीता में कहते हैं
सर्वधर्मान्परित्यज्य
मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ BG 18.66
यह भगवान के प्रति पूर्ण शरणागत होना है। यदि कोई इस भाव से भगवान का शरणागत होता है, तो उसे पूर्ण कृष्ण प्रेम की प्राप्ति अवश्य होती है।
भगवान भी भगवतगीता में एक अन्य स्थान पर कहते हैं
ये यथा मां प्रपद्यन्ते
तांस्तथैव भजाम्यहम्।
जो जिस भाव से मेरा भजन करता है अर्थात जिस मात्रा में मेरी शरण ग्रहण करता है। मैं उसे उसी अनुपात में कृष्ण प्रेम देता हूँ। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है जितनी हमारे अंदर श्रद्धा होगी उतना ही अधिक हमें कृष्ण प्रेम मिलेगा। इस प्रकार से श्रद्धा होना अत्यंत ही आवश्यक है। जिस मात्रा में हमारे पास श्रद्धा होगी, भगवान उसी मात्रा में हमारे साथ आदान प्रदान करेंगे, उसी मात्रा में हमें कृष्ण प्रेम की प्राप्ति होगी और यह हरिनाम में हमारी श्रद्धा को बढ़ाता है। नाम जप के प्रति 10 अपराधों में से एक अपराध है, हरि नाम में पूर्ण श्रद्धा का न होना। यदि हम यह कहते हैं कि मेरे में कुछ मात्रा में श्रद्धा है अर्थात हमारे अंदर में कुछ मात्रा में अपराध है।
यदि हम में थोड़ी और अधिक श्रद्धा विकसित होती है, तो इसका अर्थ है कि हमारे अपराध थोड़े कम हो गए हैं और जब हमारे अंदर पूर्ण श्रद्धा हो जाती है या पूर्ण विश्वास हो जाता है, तब हम अपराध शून्य हो जाते हैं अर्थात हम बिल्कुल भी अपराध नही करते हैं, यह एक प्रक्रिया है, यह एक अवसर है और हमें इस प्रक्रिया को तीव्र बनाना है, जल्दी से जल्दी इसमें आगे बढ़ना है क्योंकि यह मनुष्य जन्म अत्यंत ही दुर्लभ है और यह बहुत कम समय के लिए है। हमें बहुत दूर जाना है, हमें इस बात का ध्यान रखना होगा इससे पहले की, हम सो जाएं। हमें बहुत से कार्य करने हैं।
एक अंग्रेजी कवि लिखते हैं"
The woods are lovely, dark and deep, but I have promises to keep, and miles to go before I sleep miles to go before I sleep.
" इसमें वुड्स इस जगत को कहा गया है। यह जगत अत्यंत ही सुंदर है और यहां बहुत सारे प्रलोभन है परंतु मुझे बहुत दूर जाना है कि इससे पहले की मैं सो जाऊ, मुझे बहुत अधिक कार्य करने हैं। मुझे इन प्रलोभनो की तरफ आकर्षित नही होना हैं, वे बता रहे हैं कि मुझे सोने से पहले केन्द्रित रह कार्य करने हैं। वह जिस सोने के विषय में बता रहे हैं, वह रात्रि में सोने वाले नही है अपितु वह मृत्यु के विषय में बता रहे हैं। हमें सोने से पूर्व इस कृष्ण प्रेम को प्राप्त करना है,
आप गंभीरता पूर्वक प्रतिदिन अपने निर्धारित संख्या जप करते रहिए और अपराधों से बचते रहिए। सुबह को ध्यान पूर्वक आप हरे कृष्ण महामंत्र का जप कीजिए। आज की जप चर्चा हमारी थोड़ी लंबी हो गयी है। हम प्रतिदिन इस प्रकार जप करते हैं और उसके बाद में अल्प जप चर्चा करते हैं। हम इस जप चर्चा में हरिनाम की महिमा बताते हैं कि किस प्रकार से आप ध्यान पूर्वक और अपराधरहित जप करने के विषय मे बताते हैं। कल पुनः हम आप सभी के साथ जपा करेंगे और आज हमारी इस जप चर्चा को हम यहीं पर विराम देते हैं।
हरे कृष्ण!