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*जप चर्चा* *पंढरपुर धाम से* *26 दिसंबर 2021* *श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 10.10* हरे कृष्ण ! आज 945 स्थानों से भक्त हमारे साथ जपा टॉक में सम्मिलित हैं। हरि हरि। आज रविवार है। कुछ लोग हर रविवार को प्रात: काल में सो जाते है। हरि हरि। हमारा एक हफ्ते में एक दिन का कार्यक्रम नहीं है। रविवार हो या सोमवार प्रतिदिन हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे करना चाहिए। ऐसी बात कृष्ण आज करने वाले हैं। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। अध्याय 10 श्लोक संख्या 10, ठीक है? 10–10 ऐसे याद रख सकते हो। यह 4 विशेष श्लोक है उसमें से एक यह है। तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् | ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 10.10) अनुवाद: जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं | आपको याद है यह श्लोक? आप इसको याद करिएगा, कंठस्थ कीजिए। बहुत ही महत्वपूर्ण श्लोक हैं। जैसी भी थोड़ी समझ है। तेषां सततयुक्तानां कहते हुए कृष्ण तेषां मतलब उन या उनको, किनको? इसके पहले दो श्लोकों में कम से कम उल्लेख हुआ है उनको, वह कौन है? अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते | इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः || ८ || (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 10.8) अनुवाद: मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है | जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं | इसको जानकर क्या करते हैं? मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ९ || (श्रीमद्भगवद्गीता 10.9) अनुवाद: मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं | कृष्ण बड़े गर्व के साथ कह रहे थे। अपने भक्तों का परिचय या भक्तों का लक्षण बता रहे है। दसवें अध्याय के नौवें श्लोक में। इसको भी समझना होगा, कल भी हमने समझाया था। क्या क्या भाव है? 4 श्लोकों का जो समूह है। उसमें से जो तीसरे श्लोक है। तेषां मतलब यह जो है। आठवें और नौवें श्लोक में जिनका उल्लेख हुआ है। तेषां यह पार्टी यानी भक्त वह क्या करते हैं? तेषां सततयुक्तानां युक्त रहते हैं, तल्लीन रहते हैं। युक्त शब्द आपको पता ही है। हम विग्रह आराधना करते हैं। गुरु के शिष्य, भक्त युक्त होते हैं। विग्रह आराधना करते हैं। तेषां सततयुक्तानां भक्त भक्ति कब-कब करते हैं? वैसे भक्ति के 2 लक्षण या 2 विशेषण कृष्ण कह रहे हैं। एक तो है सततयुक्तानां, वह भक्ति कब-कब करते हैं? तेषां सततयुक्तानां सतत युक्त रहते हैं। सतत मतलब सब समय और प्रीतिपूर्वकम और भक्ति कैसे करते हैं? एक तो सतत करते हैं और कैसे करते हैं? प्रीतिपूर्वकम। ऐसे भक्तों को हम पहले थोड़ा समझाते हैं। इस बात के वचन में कृष्ण क्या कह रहे हैं? ऐसे भक्तों को पहले तो तेषां कह दिया। उससे पहले जो वर्णन हुआ है। ऐसे भक्त भक्ति करते हैं और कैसे भक्ति करते हैं? सतत भक्ति करते है, सब समय भक्ति करते हैं और कैसे भक्ति करते हैं? प्रीतिपूर्वकम यानी प्रेम पूर्वक भक्ति करते हैं। तो ऐसे ऐसे भक्तों को मैं क्या करता हूं? ददामि बुद्धियोगं ऐसे भक्तों को मैं बुद्धि देता हूं। ऐसा कहना होगा। यह अहम तो नहीं कहा है। श्रीभगवान उवाच चल रहा है। अहम छिपा हुआ है। भगवान अहम नहीं कह रहे हैं। यह शैली भी ऐसी ही है। कुछ शब्द नहीं कहे जाते हैं। लेकिन उनको समझना पड़ता है कि अहम कहा नहीं है लेकिन कहना पड़ता है। तो भक्तों ने कुछ किया या भक्ति कैसे की? सतत भक्ति कर रहे हैं और प्रीतिपूर्वकम भक्ति कर रहे हैं। तो ऐसे भक्तों के लिए मैं क्या करता हूं? ददामि बुद्धियोगं। ऐसे भक्त को मैं बुद्धि देता हूं। पहले दुनिया भर के लोगो को सुन सुन कर, प्रोफेसर्स थे, हो सकता है माता-पिता या राजनेता को सुनकर या अभिनेता अभिनेत्रियों को सुनकर दिमाग खराब कर दिया है। उन्होंने दिमाग साफ कर दिया। हमको बुद्धु बनाया। हम जैसे जैसे हायर एजुकेशन के साथ लोअर और लोअर यानी नीच बनते गए। एजुकेशन हायर और हमारे विचार लोअर। न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः | माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः || १५ || (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 7.15) अनुवाद: जो निपट मुर्ख है, जो मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते | उन्होंने आसुरी प्रवत्ति को बड़ा दिया। भोग विलास बड़ा दिया। कई लोग कई पार्टी से कई नाम है दुनिया में, उन्होंने कहने का सार क्या होता है? वह भोगी है। अरे यह किसने देखा है पुनर्जन्म? क्या करो? मौज करो। खरीदो किराए पर लो और क्या करो। चोरी करो। साधन और धन जुटाओ। पैसे का अभाव है। कार लोन, होम लोन, हायर एजुकेशन लोन। लेकिन करना क्या है? जब तक जीना है चैन से और सुख से जीना है। फिर साधन नहीं है तो चोरी करो। कुछ तो करो या उधार लो कुछ सामान या उधार लो। गाड़ी और घोड़ा लो, मजे करो। सारी दुनिया क्या सीखा रही है? मजे करना सीखा रही है। लेकिन वह यह नहीं सिखाते कि मजे लेने के बाद सजा मिलती है। हरि हरि। मुझे ऐसे याद आया। प्रभुपाद मॉर्निंग वॉक में भक्तों के साथ गए थे। तब उन्होंने देखा कि मछुआरे ने एक मछली पकड़ी थी। मछली पकड़ने के लिए जो रस्सी होती है वह प्रभुपाद को दिखा रहा था। प्रभुपाद की पार्टी जा रही थी। वह दूसरी तरफ से जा रहा था। वह बात कह रहे थे तुम क्या मजे ले रहे हो? प्रभुपाद कुछ बोले नहीं और आगे बढ़े। शिष्य भी उनके साथ थे। आप मजे करोगे तो सजा मिलेगी। प्रभुपाद को बुद्धि भगवान देते हैं। भक्तों को बुद्धि भगवान देते हैं। हरि हरि। मैं कुछ और सोच रहा था। तुम भक्ति में युक्त हो और कैसी भक्ति कर रहे हो? सतत भक्ति कर रहे हो और कैसी कर रहे हो, प्रीतिपूर्वक भक्ति कर रहे हो। आपको रोजाना देखना होगा कि कर रहे हैं या नहीं। कृष्ण तो कह रहे हैं यह भक्ति के लक्षण है। भक्त सतत भक्ति करता है या मैं करता हूं कि नहीं। हमारे देश में तो कई लोग दो मिनट उठने पर तथा दो मिनट सोने से पहले भक्ति करने वाले हैं। हरे कृष्ण वाले पागल नहीं हैं और कुछ करते ही नहीं हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण करते रहते हैं। हरी बोल हरी बोल। हम तो दो मिनट सुबह शाम भक्ति करते है बाकि तो दम मारो दम ऐसा कुछ करते रहते हैं। अभी कोई ये भक्ति, धर्म, कर्म करने का समय नहीं हैं। बूढ़े होने के बाद देखेंगे। पहले हम आनंद लेंगे लेकिन वो जानते नहीं हैं कि तब आप पीड़ित भी होंगे। ये स्थगित करने की बात नहीं हैं कि अभी नहीं करूँगा, अभी इतनी ही भक्ति करूँगा। कुंती महारानी ने प्रार्थना करी की मेरी भक्ति कैसी हो? त्वयि मेऽनन्यविषया मतिर्मधुपतेऽसकृत् । रतिमुद्वहतादद्धा गङ्गेवौघमुदन्वति ॥ ४२ ॥ (श्रीमद भगवतम 1.8.42) अनुवाद: हे मधुपति , जिस प्रकार गंगा नदी बिना किसी व्यवधान के सदैव समुद्र की ओर बहती है , उसी प्रकार मेरा आकर्षण अन्य किसी ओर न बँट कर आपकी ओर निरन्तर बना रहे । भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः। ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।। (श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप 18.55) अनुवाद: भक्ति के द्वारा मुझे वह तत्त्वत: जानता है कि मैं कितना (व्यापक) हूँ तथा मैं क्या हूँ। (इस प्रकार) तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप बन जाता है। भगवान को भक्ति से ही जाना जा सकता हैं। भक्ति साधन भी हैं। भक्ति कर कर के हमें और भक्ति प्राप्त करनी हैं ज़्यादा भक्ति प्राप्त करनी हैं। मैं प्रभुपाद से पूछता था कि आप जो ये हरे कृष्णा हरे कृष्णा करते रहते हो इसका क्या लाभ होगा। प्रभुपाद ने कहा कि और ज़्यादा हरे कृष्णा हरे कृष्णा करने कि इच्छा, प्रेरणा, भाव उदित होंगे। अभी मैं जितना हरे कृष्णा हरे कृष्णा कर रहा हूँ भविष्य में और ज़्यादा करूँगा करते ही जाऊंगा, करते ही जाऊंगा ये एक उपलब्धि हैं। इसीलिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा हैं कि भक्ति कैसी हो? न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥ (अंतिम लीला 20.29) अनुवाद: हे सर्व समर्थ जगदीश ! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दर स्त्री अथवा प्रशंनीय काव्यों का इक्छुक नहीं हूँ । मेरी तो एकमात्र यही कामना है कि जन्म-जन्मान्तर मैं आपकी अहैतुकी भक्ति कर सकूँ । भगवान कि भक्ति करे । क्यों भगवान कि भक्ति करे? तो उल्टा प्रश्न पूछा जा सकता हैं कि भगवान कि भक्ति क्यों नहीं करे? तुम पूछ रहे हो कि क्यों करें? हम कह रहे हैं क्यों नही करें? आत्मा का धर्म हैं भक्ति करना। आत्मा शुद्ध अवस्था में भक्ति करेगी, भुक्ति को छोड़ेगी तथा भक्ति को अपनाएगी। भक्ति के पीछे कोई हेतु नहीं होना चाहिए, वही शुद्ध भक्ति हैं । इसीलिए कृष्ण ने कहा हैं कि - अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।। (भगवद गीता 9.22) अनुवाद: अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं? उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ। नित्य वाहक या नित्य भक्ति और शुद्ध भक्ति करने वाले हैं उन्हें भगवान बुद्धि देंगे । बुद्धि की हमारे जीवन में बहुत बड़ी भूमिका है । ये जीवन एक यात्रा है और बुद्धि उसकी चालक है। हम यहाँ प्रवास कर रहे हैं। ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। (भगवद गीता 18.61) अनुवाद: हे अर्जुन ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें रहता है और अपनी मायासे शरीररूपी यन्त्रपर आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको (उनके स्वभावके अनुसार) भ्रमण कराता रहता है। माया का बनाया हुआ जो शरीर हे इसे यन्त्र कहा गया है, इसे घोड़े खिंच रहे है। इसकी जो लगाम है वो मन है। घोड़े इन्द्रियां है, शरीर रथ है, बुद्धि चालक/ संचालक है, हम आत्मा प्रवासी हैं। यन्त्र आरूढ़ जो हुआ है इस यन्त्र रूपी शरीर में, आत्मा शरीर है, देहि, निवासी व प्रवासी भी हैं। हम शरीर को यहाँ से वहां ले जाते हैं इसको बुद्धि चलाती है। हम वहां में बैठते है तो उसे चलाने में सबसे बड़ी भूमिका चालक की होती है। यात्रा के दौरान प्रवासी सो भी जाता है, खा रहा है। दिल्ली से न्यू जर्सी 14 घंटे की लम्बी यात्रा में यात्री सोते हैं, टेलीविजन देखते हैं, लंच करते हैं परन्तु पायलट हमेशा सावधान रहता है। प्राथमिक प्रमुख भूमिका तो पायलट या ड्राईवर की रहती है उसी प्रकार हमें समझाना हैं कि हमारे जीवन में बुद्धि की प्रमुख भूमिका है। इसीलिए भगवान श्री कृष्ण कह रहे है। हमें भगवत धाम लौटना है जहाँ सदा के लिए श्री कृष्ण रहते है। हम इतना ही कह सकते है। आप तात्पर्य को पढो, चिंतन करो। हमको श्री कृष्ण के दर्शन। मोक्षदा एकादशी कि प्रातः काल में सेना के बीच में श्री कृष्ण ने यह वचन कहा।ऐसा स्मरण ऐसा दर्शन। श्री रंगम में उस ब्राहमण ने चैतन्य महाप्रभु को गीता का पाठ करते हुए कहा था कि जब में गीता का पाठ करता हूँ तो कुरुक्षेत्र के मैदान में पहुँच जाता हूँ या कुरुक्षेत्र के कृष्ण अर्जुन श्रीरंगम में पहुच जाते हैं और मैं देखता हूँ कि अर्जुन के साथ भगवान ये संवाद कर रहे हैं। गीता के श्रवण, अध्ययन, स्मरण, चिंतन के पीछे कृष्ण का दर्शन ही लक्ष्य है। ऐसी बुद्धि भगवान आप सभी को दे, मुझे भी दे ऐसी आज कि प्रार्थना है। हरी हरी श्री कृष्ण अर्जुन की जय, श्री मद भगवद गीता की जय, गीता माता की जय। गीता माता है या वेद माता है। माता ही हमें बताती है कि हमारे पिता कौन है। गीता माता, वेद माता हमारा परम पिता परमेश्वर से हमारा परिचय करवाती है, दिखाती है, दर्शन कराती है। गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल।

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